गौ संरक्षण एवं संवर्द्धन एक राष्‍ट्रीय कर्तव्‍य

गाय का दूसरा कोई विकल्प नहीं

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देश की अर्थव्यवस्था में गाय की भागीदारी सात प्रतिशत से अधिक है। गाय केवल दूध की दृष्टि से ही उपयोगी नहीं है, वरन् इसके बछड़े बड़े होकर बैल बनते हैं, जो भारतीय कृषि एवं देहाती क्षेत्र की परिवहन व्यवस्था में मुख्य भूमिका निभाते हैं। भारत की गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी की समस्या को यदि वास्तव में हल करना है तो गाय का पालन, पोषण और संरक्षण आवश्यक है। 
भारतीय कृषि को ही लें, तो बड़े पैमाने पर उर्वरकों की आवश्यकता होती है, जिनको पूरा करने के लिए रासायनिक एवं कृत्रिम खादों की सेवा लेनी पड़ती है, जो हानिकारक ही नहीं, अति महंगी भी हैं। वर्तमान लागत मूल्यों पर यदि पचास हजार टन उत्पादन करने वाला प्लान्ट लगाया जाता है, तब इसके लिए दो अरब रुपया खर्च करने होंगे। इतनी बड़ी राशि यदि गौ-वंश संवर्धन, पालन-पोषण, रख-रखाव में खर्च कर दी जाती है तो बहुउद्देशीय लाभ मिल सकना संभव है। यदि उन्नत किस्म की एक गाय की कीमत पांच हजार मानी जाय, तो दो अरब रुपये में लगभग चालीस लाख गायें खरीदी जा सकती हैं। प्रति गांव उत्तम किस्म की 100 गाएं वितरित कर दी जायें, तो वहां की बेकारी, बेरोजगारी की समस्या भी हल की जा सकती है। एक गाय प्रतिदिन औसतन दस किलो दूध देती है, तब 100 गायों से प्रतिदिन एक टन दूध मिलेगा, जिसका बाजारू मूल्य आठ रुपया प्रति किलो से आठ हजार रुपया होता है। इस प्रकार मात्र सौ गायों से एक गांव की आय में वार्षिक दस लाख रुपये की वृद्धि होगी। चूंकि एक गाय वर्ष भर में 180 से 200 दिन तक दूध देती है, अतः गायों पर होने वाला खर्चा निकाल दिया जाय, तो छः लाख रुपये की शुद्ध आय होगी। इस प्रकार 40 लाख गायों से वर्ष भर में केवल दूध के माध्यम से दो अरब रुपये की आय संभव है। इसके अतिरिक्त बैल, गोबर, मूत्र एवं मरणोपरान्त हड्डी और चमड़े से होने वाले लाभ अलग हैं। 
पशु विशेषज्ञों के अनुसार एक गाय से दस किलो गोबर तक दिन भर में मिलता है। इस प्रकार यदि सौ गायों तथा उनके बछड़ों और इतने ही बैलों का गोबर एकत्रित किया जाय, तो 500 व्यक्तियों के लिए भोजन तथा प्रकाश के लिए 100 बल्ब चार घण्टे रोशनी दे सकते हैं। गैस संयंत्र से निकलने वाली खाद भी उत्तम कोटि की मानी जाती है। वह भी प्रतिवर्ष 15000 हजार टन की मात्रा में मिलती रह सकती है, जिससे लगभग एक हजार हैक्टेयर भूमि की आवश्यकता पूरी की जा सकती है तथा प्रतिवर्ष लाखों टन गोबर जो उपलों के रूप में जला दिया जाता है वह भी बचाया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती बेरोजगारी-बेकारी का समाधान इस तरह गाय पालकर बड़ी आसानी से किया जा सकता है। दो सौ करोड़ रुपये लागत से बने खाद कारखाने में केवल 2500 लोगों को रोजगार मिल पाता है, किन्तु चालीस लाख गायों के पालन, पोषण, रख-रखाव में सवा लाख लोगों को रोजगार के अवसर सुलभ हो सकते हैं तथा गाय से मिलने वाले दूध से स्वास्थ्य एवं गोबर से खाद तथा गोबर गैस से ईंधन की समस्या हल की जा सकती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देहाती क्षेत्रों में अकुशल मजदूर उतने ही बेरोजगार हैं, जितनों को गौ संवर्धन द्वारा रोजगार दिलाया जा सकता है। 
गौ-पालन के लिए किसी विशेष तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, जबकि कृत्रिम उर्वरक कारखानों में विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है, जिसके लिए महंगी शिक्षा आवश्यक होती है। तकनीकी शिक्षा दिलाना अपने आप में एक जटिल एवं महंगा कार्य है। इसके लिए विदेशी सहायता पर भी निर्भर रहना पड़ता है। रासायनिक खाद कारखानों से उनमें काम करने वाले मजदूरों के एवं उनके पास-पड़ोस में बसने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है, जबकि गोबर की खाद बनाने अथवा गैस संयंत्र से गोबर गैस प्राप्त करने में न कोई प्रदूषण, न गन्दगी का ही झंझट है। गाय का गोबर और मूत्र दोनों ही हानिकारक बैक्टीरिया वर्ग के लिए हानिकारक है। भारतीय वैद्य तो गाय के मूत्र को कितनी ही दवाओं में प्रयोग करते हैं। गौ मूत्र में ‘वैक्टीयोफाज’ नामक जीवनी शक्ति बनाए रखने वाला सूक्ष्मतम जीवाणु पाया गया है। 
गाय के पालन-पोषण में भी सुगमता है। ग्रामीण अंचल में हरा चारा, सूखी घास अथवा भूसा आसानी से उपलब्ध हो जाता है। जहां चारागाहों की सुविधा है, शाम तक घूम-घूमकर पेट भर लेती हैं। जंगलों में अनेकानेक वनस्पतियां, जड़ी-बूटियां खाते रहने से इनके दूध में औषधीय गुणों का समावेश होना स्वाभाविक बात है। इन्हीं गुणों के कारण फेंफड़ों की तकलीफ, दमा तथा पेट के रोगों में गाय का दूध लाभकारी है। 
पशु विशेषज्ञों के अनुसार गाय को स्वस्थ रखने के लिए ढाई प्रतिशत सूखी घास चाहिए। चार सौ किलोग्राम वजन वाली गाय को लगभग दस किलोग्राम घास तथा प्रति दो किलोग्राम दूध पर डेढ़ या दो किलो ग्राम तक दाना-चूनी आदि की जरूरत होती है। हरे चारे का प्रबन्ध भी रखा जाना चाहिए तथा दिन में दो बार पानी पिलाने की व्यवस्था रखी जानी चाहिए। भैंस की अपेक्षा गाय फुर्तीली जानवर है। अतः दिन में एक-दो किलो मीटर घुमाने की व्यवस्था अवश्य की जानी चाहिए। गौशाला में, जहां गाय के बांधने की व्यवस्था की जाती है, वहां पर मूत्र निकासी के लिए नाली की व्यवस्था भी होनी चाहिए और गोबर हटाकर कहीं एकत्रित करने की व्यवस्था भी रखनी चाहिए। 
वर्ष 1984 से 1988 की अवधि में नेशनल सेम्पल सर्वे के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इस अवधि में गायों की संख्या बीस प्रतिशत घटी है और चमड़े का निर्यात विगत दो दशकों में मात्र पैंतीस गुना और मांस का निर्यात 40 गुना बढ़ा है, जो चिन्ता का विषय है। गाय की उपयोगिता और आर्थिक योगदान को देखते हुए संरक्षण, पोषण और पालन की विशेष आवश्यकता है। पर्यावरण की दृष्टि से भी गाय अन्य पशुओं की तुलना में श्रेष्ठ और उपयोगी है। भारत की जलवायु व समाज व्यवस्था को देखते हुए तथा ग्रामीण प्रधान परिस्थितियों में गाय से बढ़कर दूसरा कोई उपयोगी पशु नहीं है। इन सब बातों को देखते हुए गाय का दूसरा विकल्प भी नहीं है, अतः इसके पालन को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। 
दुर्भाग्य से इन दिनों भैंस के दूध या पाउडर मिल्क का प्रचलन अधिक है, जो पेट के लिए भारी होने के साथ-साथ महंगा भी पड़ता है। खोए की मिठाइयों के बढ़ते प्रचलन ने कुपोषण को जन्म दिया है, भैंस के दूध को बढ़ावा दिया है तथा गौपालन को निरुत्साहित किया है। इस दिशा में व्यापक स्तर पर विचार प्रवाह में परिवर्तन की आवश्यकता है, जो साहित्य प्रचार, प्रदर्शनी, दृश्य-श्रव्य साधनों आदि द्वारा संभव है। गौ माता के प्रति श्रद्धासिक्त भावना भी लोगों के मन में गौ पालन को बढ़ावा देने में सहायक हो सकती है। यदि सत्तर प्रतिशत ग्रामीण प्रधान देश में यह संभव हो सका तो वस्तुतः समाज व्यवस्था में ही नहीं, सर्वांगीण जीवन क्रम में परिवर्तन लाया जा सकता है। 

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