पशु पालन के सम्बन्ध में मोटी दृष्टि यह है कि वे मनुष्य के लिए दूध, श्रम, मांस, चमड़ा ऊन जैसी वस्तुएं ही उपलब्ध करते हैं। वे वस्तुएं आवश्यक तो हैं, पर अनिवार्य नहीं। इनके स्थान पर दूसरे विकल्प खड़े किए जा रहे हैं और पशुओं को भविष्य में मनुष्य की प्रतिद्वन्द्विता से हटाया जा सकता है। प्रतिद्वन्द्विता का भय इसलिए है कि वे जितनी जगह घेरते हैं, जितना चारा खाते है उससे मनुष्य के लिए जगह कम पड़ती है। बढ़ती हुई आबादी के लिए तो यह और भी जटिल समस्या है कि यदि चालू क्रम से जनसंख्या बढ़ती रही तो सर्वप्रथम उसके निवास के लिए अतिरिक्त जमीन की आवश्यकता होगी। यह निवास मात्र चारपाई, कुर्सी बिछाने जितना ही स्वल्प नहीं होता वरन् इसी परिधि में वह दायरा भी आता है जिसमें उसके लिए खाद्य उगाने, पानी निकालने, कारोबार करने तथा यातायात का सरंजाम जुटाया जाता है। इन सबको मिलाकर देखने से प्रतीत होता है कि हर मनुष्य का निर्वाह काफी जमीन घेरने के लिए मिलने पर ही सम्भव है। पालतू पशुओं को और भी अधिक चाहिए। जितनी भूमि का उत्पादन मनुष्य का पेट भर देता है उतने से उसका काम नहीं चल सकता। ऐसी दशा में यदि पशुओं को मनुष्य का प्रतिद्वन्द्वी समझा जाय और हटाने का प्रयत्न क्रिया जाय तो आश्चर्य की बात ही क्या है? चालू पशु वध के पीछे यह भी एक दृष्टि है। कुछ दिन पूर्व पाकिस्तान के एक तानाशाह ने फरमान जारी किया था कि उनके देश से भेड़-बकरियों का सफाया कर दिया जाय ताकि वे पौधों और पत्तों को नष्ट न करने पाएं। इसी से मिलता-जुलता दृष्टिकोण अन्यत्र भी अपनाया जा रहा है। कत्लगाह दिन ब दिन बढ़ रहे हैं और उनकी कार्यक्षमता का असाधारण विस्तार हो रहा है। कार्य को सरल करने के लिए नए यन्त्र उपकरण आविष्कृत किए और लगाए जा रहे हैं। विदेशी मुद्रा उपार्जन की दृष्टि से भी यह व्यवसाय उपयोगी माना जाता है क्योंकि जिन देशों में पशुपालन की सुविधा नहीं है वहां मांस महंगे दाम पर आयात किया जाता है। निर्यातक इसमें अपनी कमाई सोचते हैं। मनुष्य की आबादी बढ़ने पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। परिवार नियोजन के हल्के-फुल्के प्रयत्न इस विभीषिका जैसी समस्या का समाधान कर सकेंगे इसका विश्वास जमता नहीं। ऐसी दशा में पशुओं को प्रतिद्वन्द्विता से हटाकर उनके लिए काम आने वाली भूमि पर कब्जा कर लेना सरल उपाय जैसा प्रतीत होता है। पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से जो वास्तविकता सामने आती है वह चालू चिन्तन की तुलना में सर्वथा उल्टी है। पशु वध पर उतारू रहकर हमें जो पाने की आशा है उसकी तुलना में निराशा की दुर्गम घाटियां प्रकट होती दीखती हैं।
यह अर्थ प्रधान युग है। इसमें जो उपयोगी है उसका विकास और संरक्षण किया जाता है और जो प्रत्यक्षतः उतना उपयोगी नहीं दीखता उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। वृद्ध पशुओं का अन्तिम आश्रय मात्र कसाईखाना ही रह गया है। उन निठल्ले पर खर्च करने के लिए किसी का मन नहीं होता। यह अर्थ लाभ यदि मनुष्य ने अपनी बिरादरी पर भी प्रयुक्त करना शुरू कर दिया तो समझना चाहिए वृद्धों और वृद्धाओं की, अपंगों और निराश्रितों की भी खैर नहीं। वे भी कमाते कम और अपने लिए खर्च अधिक मांगते हैं। मानवी मूल्यों और न्याय परम्पराओं को उठाकर ताक पर रख दिया जाय तो मनुष्य स्वार्थ सिद्धि के नाम पर, अर्थ उपार्जन के नाम पर कुछ भी कर सकता है। चिंतन यदि इसी प्रवाह धारा में बहता रहा तो वह ऐसे निष्कर्षों पर पहुंच सकता है जिसमें अर्थ ही सब कुछ रह जायगा। नीति, औचित्य एवं भाव संवेदनाओं को कोई स्थान न रहेगा।
ऐसा ही एक दृष्टिकोण मनुष्य ने पेड़ों के संबंध में भी कुछ दिन पूर्व अपनाया था। तब वन प्रदेश की अन्धाधुन्ध कटाई आरम्भ हुई थी। वृक्षों को मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताओं में बाधक माना गया था। समझा गया था कि इन्हें काटकर सीमित कर देने पर मनुष्यों के रहने एवं कृषि व्यापार के लिए ढेरों जमीन निकल आयेगी, उसका लाभ क्यों न लिया जाय। लकड़ी के दूसरे विकल्प निकल सकते हैं। निकाले भी गए। ईंधन के लिए पत्थर को कोयला, गैस, मिट्टी का तेल आदि प्रयुक्त करने की बात सोची गई। इमारती सामान और फर्नीचर जैसे कामों में लोहे का उपयोग बढ़ा। इस प्रकार प्रत्यक्ष उपयोग में तो किसी प्रकार विकल्प खोज लिए गए और प्रसन्न हुआ गया कि वन प्रदेशों का सफाया कर लेने पर मनुष्य की आबादी-बढ़ने तथा उद्योग व्यवसाय चल पड़ने में कोई व्यवधान न आने पाएगा।
पर बौद्धिक बचपना दूर होते ही वह दिवा स्वप्न नष्ट हो गया। पर्यावरण पर, भूमि की उपजाऊ परत को सुस्थिर रखने पर कितना अधिक प्रभाव वृक्षों की उपस्थिति का पड़ता है, जब यह सोचा गया तो आरम्भिक उत्साह का उभार देखते-देखते निराशा में बदल गया। उपजाऊ भूमि कट-कटकर नदी-नालों में जमने लगी। वे उथले हुए और बाढ़ का पानी बखेरकर विनाश का संकट खड़ा करने लगे। बादलों का भूमि की ओर खिंचने का संबंध सूत्र टूट गया। दुर्भिक्ष पड़ने लगे। रेगिस्तान बढ़ने लगे। प्राण धारण करने के लिए स्वच्छ वायु का घाटा पड़ने लगा। बढ़ते हुए प्रदूषण ने बीमारियों के विषाणुओं की एक नई फौज खड़ी कर दी। ऐसी फौज जिसने न केवल मनुष्यों को वरन् कृषि उद्यान में उगने वाले पौधों का भी सफाया आरम्भ कर दिया। इन विपत्तियों की रोकथाम के लिए जो सोचना पड़ा, करना पड़ा, यह उसकी तुलना में कहीं महंगा पड़ा, जो लाभ पेड़ काटकर भूमि को उपयोग के लिए निकाल लेने के रूप में सोचा गया था।
यही प्रतिक्रिया पशु विनाश के बारे में भी हो रही है। इस विनाश का एक मात्र कारण यही नहीं है कि उनका वध बढ़ता जा रहा है। वरन् यह भी है कि वे अपनी क्षमता, उपयोगिता एवं स्तर गंवाते जा रहे हैं। उपेक्षा बरतने पर किसी भी प्राणी की ऐसी दुर्दशा हो सकती है। जंगलों की अनगढ़ स्थिति में प्रायः झाड़ झंखाड़ ही उगते हैं। टेढ़े-मेढे, बिना सिलसिले के ऐसे पेड़ उपजते हैं जो चिड़ियों के घोंसले बनाने या काटकर ईंधन जलाने के ही काम आ सकते हैं। जबकि उद्यानों में, कृषि फार्मों में समुचित ध्यान दिए दिए जाने की स्थिति में उन्हीं का आकार-विस्तार अत्यधिक बढ़ जाता है। गुणवत्ता में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि हो जाती है।
पशुओं की उपेक्षा बरते जाने पर, उनके निर्वाह एवं पोषण के साधन जुटाने में कोताई बरतने का परिणाम यह हुआ कि उनका विकास रुक गया। आकार विस्तार में वे छोटे होने लगे। फलतः उनकी दूध देने की, बोझा ढोने की क्षमता भी बुरी तरह घटने लगी। ऐसी दशा में पशुपालक सोचने लगा कि इस परेशानी की तुलना में कसाई के हाथ बेचकर स्थान खाली क्यों न करा लिया जाय, पीछा क्यों न छुड़ा लिया जाय।
क्या पशुओं से वस्तुतः पीछा छुड़ाया जा सकता है? क्या उनके बिना जीवन निर्वाह, कृषि व्यवसाय, भारवहन आदि का काम चलता रह सकता है। इसके लिए यंत्रों का आश्रय लेने की बात सोची गई है। ट्रैक्टर बैल की आवश्यकता पूरी करने आया है। नल-कूप जमीन से धड़ाधड़ पानी निकाल रहे हैं। दूध की जैसी सफेदी वाले तिल, मूंगफली, नारियल, सोयाबीन आदि घोल या पाउडर दूध के स्थान पर भी अधिकार जमाने के लिए प्रयत्नशील है। नकली चमड़ा बन रहा है। रबड़, प्लास्टिक जैसे पदार्थों का ऐसा उपयोग होने लगा है जिससे चमड़े की आवश्यकता पूरी होने लगे। परिवहन के लिए छोटे-बड़े ट्रकों का उत्पादन बढ़ रहा है। यह सब उस समय की पूर्व तैयारी है, जब कि पशुओं का पूरा या अधूरा विनाश हो जायगा। कुछ का उपयोगिता खो बैठने के कारण और कुछ का कसाई के अति मुनाफे वाले व्यवसाय की चपेट में आ जाने के कारण।
यह लाभ वाला पक्ष है जिसे अदूरदर्शी भी सोच या देख लेते हैं। पर जिन्हें दूरगामी परिणामों तक सूझबूझ के सहारे पहुंच सकने की, निकटवर्ती प्रतिक्रिया को समझ लेने की बुद्धिमत्ता उपलब्ध है, उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में देर नहीं लगनी चाहिए कि वनों की तरह पशुओं का अभाव भी ऐसी समस्याएं उत्पन्न करेगा जिसके समाधान का अवसर निकल जाने पर अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने वाले की तरह सिर धुनना और पछताना ही हाथ लगेगा।
भारवाही जानवरों का स्थान तेल से चलने वाले मोटे टायरों वाले यांत्रिक वाहन लेते जा रहे हैं। घोड़ों का स्थान स्कूटर और कारें लेते जा रहे हैं। गधे धोबी-कुम्हारों के घरेलू सहायक बनकर रह गये हैं। हाथी की तुलना में मोटरकार कम खर्चीली और अधिक सुविधाजनक है। इस प्रकार भारवाही क्षेत्र के पशुओं की आवश्यकता घट जाने से उनकी संख्या घट रही है। यान्त्रिक वाहनों की तुलना में वे ठहर नहीं पा रहे हैं।
दुधारू पशुओं में बकरी, भैंस, गाय का नम्बर आता है, पर उनमें से भैंस और बकरी तो एक पक्षीय हैं। मादा जब तक उपयोगी रहती है, पाली, सम्भाली जाती हैं। पर उनकी नर सन्तानें भार वहन जैसे कामों में न आ सकने के कारण वयस्क होने से पहले ही कसाई के घर चली जाती हैं। कृषि और मनुष्य के साथ तालमेल बिठा सकने वाला पशु एक ही है—गाय। उसके सभी पक्ष एक से एक बढ़कर उपयोगी हैं। इसी से उसे मानवी सम्मान और पारिवारिक सहयोग मिलता रहा है।
गाय का दूध अन्य सभी पशुओं की तुलना में अधिक गुणकारी तत्वों से भरा है। वह बुद्धिमान भी है और संवेदनशील भी। उसके दूध का उपभोग करने वाले भी इन विशेषताओं से लाभान्वित होते हैं। छोटी जोतों की कृषि बैल से ही बन पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों का परिवहन बैलों के ऊपर ही निर्भर है। इस प्रकार भारत जैसे देश में पशुओं की श्रेणी में इसी वर्ग की मान्यता और गणना है।
पशुओं का एक पक्ष भूमि के साथ जुड़ता है। वे जो मल-मूत्र करते हैं वही जमीन के लिए सर्वोत्तम खाद है। मरने पर उनका मांस भी भूमि को उपजाऊ खुराक देता है। यदि यांत्रिकता को पशुओं का स्थानापन्न बना लिया जाय तो प्राकृतिक खाद का अभाव पड़ने पर कृषि नष्ट हो जायगी। रासायनिक खाद तो उत्तेजना भर देते हैं और चिरकाल तक अधिक मात्रा में प्रयुक्त किए जाने पर वे भूमि को भी ऊसर बना देते हैं। भूमि को अत्यधिक उर्वर बनाने के लिए पशुओं का, मनुष्यों का मल-मूत्र ही एक मात्र आधार है। नष्ट कर देने पर—घटा देने पर उस अनुदान से वंचित होना पड़ेगा और कृषि के लिए, परिवहन के लिए उन यंत्रों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जो गोबर खाद तो देते ही नहीं उलटे प्रदूषण फैलाते हैं।
प्रमुख समस्या गौ-संवर्धन की है। यदि उन्हें ठीक तरह पाला जाय, समुन्नत स्तर का बनाया जाय तो वे अपनी गुणवत्ता के कारण अस्तित्व, लाभ और मान बनाए रह सकते हैं। विदेशों को महंगे मांस का निर्यात न हो तो देश के मांस भोजी उनकी प्रगति में कोई बड़ी बाधा नहीं पहुंचा सकते। आवश्यकता इस बात की है कि पशुओं में शिरोमणि समझी जाने वाली गाय के संरक्षण, संवर्धन, परिपोषण पर समूचा ध्यान केन्द्रित किया जाये। उसके दूध को बहुमूल्य माना जाय।