गौ संरक्षण एवं संवर्द्धन एक राष्‍ट्रीय कर्तव्‍य

गाय हमारी माता है!

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‘‘गौवध के लिए मुसलमानों, कसाइयों और चमड़े के कारखाने वालों को दोष दें इससे पहले हम अपने दायित्व पर विचार क्यों न करें? यदि गायों के प्रति हमारी सही निष्ठा होती तो क्या मांस, क्या चमड़ा, किसी के लिए भी गायें कट्टीखाने न पहुंचती।’’ 
यह शब्द हैं फिरोजपुर झिरका के तहसीलदार मुन्शी अब्दुर्रहमान के। गुड़गांवा के लोग इनकी गौ-निष्ठा से अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिए नहीं कि उन्होंने गौहत्या को लेकर कहीं सत्याग्रह किया हो या नारे लगाए हो, वरन् गाय की सेवा करके, गाय की रक्षा करके उन्होंने गौ-निष्ठा का श्रेय संकलित किया है। 
एक दिन तहसीलदार के दरवाजे दो कसाई पहुंचे। उनके घर एक बूढ़ी गाय थी। कसाई उसी का पता लगाते हुए पहुंचे थे। उन्होंने तहसीलदार साहब से भेंट की और बड़ी देर तक उनकी प्रशंसा करते रहे—‘‘साहब देखिए! हिन्दू लोग गायों से प्रेम तो बहुत दिखाते हैं पर कितने हिन्दू हैं जो अपने घरों में गायें पालते और उनका पेट भरते हैं। अधिकांश ज्यादा दूध और घी के लालच में भैंस पालते हैं। फिर कहां रहा उनका गौ-प्रेम?’’ 
साहब चुपचाप सुनते रहे। कसाई बोलते गये—‘‘बाबूजी आपके घर बूढ़ी गाय है पर आपने कभी भी हम लोगो को सूचित तक नहीं किया। हिन्दू हैं कि जब तक गाय दूध दे तब तक तो चारा देंगे, बांधे रहेंगे पर जैसे ही गाय बूढ़ी हुई चारा देना बन्द। स्वयं कुछ चर ले तो चर ले, न चरे तो पड़ी भूखी मरे। उसी के बैल-बच्चे जोतते हैं, उसी की देन खाते हैं और फिर भी उसके लिए भरपेट चारा भी नहीं देते। खरीद के लिए हम अपनी तरफ से नहीं जाते, वही बुलाते हैं तो हम गायें ले आते हैं।’’ 
‘‘आखिर आपका मतलब क्या है?’’ अब्दुर्रहमान साहब ने बीच में टोका। ‘‘बात कुछ नहीं साहब। हम तो आपकी दिक्कत दूर करने आये हैं। आपकी यह बूढ़ी गाय है। सुना है अब वह दूध भी नहीं देती, चरने भी नहीं जाती। पड़ी-पड़ी खाती रहती है। उसमें आपके दो रुपये से कम घास में ही न जाते होंगे। आप गाय बेच दें इसलिए आए हैं।’’ कसाइयों ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया। 
और तब यदि तहसीलदार साहब की आंखें कोई देखता तो भ्रम में पड़ जाता कि आंखें हैं या लाल बर्र। क्रोध को भीतर दबाकर बोले—‘‘बराय मेहरबानी, बाहर चले जाइए।’’ कसाइयों ने समझा—‘‘अभी साहब काम में हैं’’, इसलिए पूछ बैठे—‘‘तो फिर कब आयें साहब! आप जो कहें, हम रुपये अभी देते जायें।’’ 
तहसीलदार साहब का दबा हुआ गुस्सा अब उबल पड़ा। चपरासी को बुलाकर कहा—‘‘इन्हें अहाते से बाहर निकाल दो और कह दो दुबारा इधर आने की हिम्मत की तो जेल भिजवा देंगे। जानते नहीं, गाय हमारी माता है। मां को बेचने का पाप हमसे करवाना चाहते हो।’’ 
चपरासी ने उन्हें बाहर निकालते हुए समझाया—‘‘मूर्खों! भली चाहो तो फिर कभी इधर मत आना। तहसीलदार साहब मुसलमान हैं तो क्या, हैं तो मनुष्य। वह किसी का उपकार नहीं भूलते। बचपन से ही इनके घर में गाय का ही दूध पीया जाता है। उपयोगिता के अभाव में बछड़ों को केवल कृषकों को बेचा जाता है, बछिया तो कभी बाहर गई ही नहीं। जन्म से मृत्यु तक गाय एक ही खूंटे पर बंधी रही। वृद्धावस्था में वृद्धा माता के समान एक स्थान पर बैठी खाती रही। कसाई के पल्ले उसकी मृत चर्म भी नहीं पड़ी।’’ 

कसाई लज्जित होकर घर लौट गये। पर कितने हिन्दू ऐसे हैं जो गाय को नकारा अवस्था में भी घर रखकर उसके प्रति गौ-प्रेम का परिचय देते हैं। इसकी खोज करें तो मुश्किल से कुछ परिवार ही सारे देश भर में उपलब्ध होंगे। धर्म और पंचगव्य की दृष्टि से तो अब उनका महत्व ही कहां रहा?
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*समाप्त*

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