गौ संरक्षण एवं संवर्द्धन एक राष्‍ट्रीय कर्तव्‍य

गौवंश का संरक्षण समय की महती आवश्यकता

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ईंधन भी आहार के समानान्तर ही आवश्यक है। अन्न की कमी पड़ने पर शाक उगाने और उन पर निर्भर रहने की आदत डाली जा सकती है, पर उसे पकाना, उबालना तो हर हालत में पड़ेगा। दूध, चाय आदि गरम करने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ती रहती है। इसलिए उसे भी खाद्य के समतुल्य ही आवश्यक समझा जाता है। 
देश की दरिद्रता को देखते हुए महंगा ईंधन काम में लाया नहीं जा सकता। हर घर में बिजली या गैस से खाना पक सके इतना उनका उत्पादन भी नहीं है और न उपभोक्ताओं की ऐसी आर्थिक स्थिति है कि उसे ऊंची कीमत चुकाकर उपलब्ध कर सकें। मिट्टी का तेल, पत्थर का कोयला भी इस प्रयोजन के लिए काम आते हैं। पर देहातों में बिखरे हुए देश के हर कोने तक उनकी पहुंच नहीं हो पाती। फिर वे इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध भी कहां है कि सर्वजनीन आवश्यकता की पूर्ति हो सके। 
इन परिस्थितियों में ईंधन की आवश्यकता पूरी करने के लिए अधिकांश लोग लकड़ी और गोबर पर ही निर्भर रहते हैं। बड़े शहरों में लकड़ी का ईंधन विक्रेताओं के यहां मिल जाता है। पर गांव के लोग समीपवर्ती जंगलों से ही उसे प्राप्त करते हैं। निजी रूप से ईंधन के लिए पेड़ उगाने वाले तो कोई बिरले ही होते हैं। अधिकांशतः उसे सरकारी जंगलों से ही प्राप्त किया जाता है। उसे वन विभाग से कुछ तो खरीद भी लेते हैं। पर अधिकतर यह आपूर्ति चोरी-छिपे काटकर ही की जाती है। जब वह व्यवस्था भी नहीं बन पाती तो गोबर के उपले बनाकर जलाए जाते हैं। इस प्रकार किसी न किसी प्रकार चूल्हे गरम किए जाते हैं। 
जंगल तेजी से कट और घट रहे हैं। वायु प्रदूषण के निराकरण का प्रधान माध्यम पेड़ ही हैं। वे कार्बन सोखते और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। सांस लेने के लिए स्वच्छ वायु तभी मिल सकती है जब हरीतिमा पर्याप्त मात्रा में हो। यदि वन कटने और घटने लगेंगे तो वायु की अशुद्धता बनी रहेगी। पेड़ के कटने के साथ-साथ वह घटेगी नहीं वरन् बढ़ेगी ही। अशुद्ध वायु में सांस लेना ऐसा ही है जैसा कि विषैला अन्न खाना या पानी पीना। वन विनाश का सीधा अर्थ है—सार्वजनिक स्वास्थ्य की बर्बादी। सार्वजनिक इसलिए कि अन्न की तरह वायु अपने-अपने लिए अलग-अलग सुरक्षित नहीं रखी जा सकती। उसके व्यापक भण्डार से ही सब अमीर-गरीब सांस लेते हैं। तालाब का पानी विषैला होने पर उनमें पलने वाली सभी मछलियों पर संकट आता है। वायु प्रदूषण से सभी का स्वास्थ्य बिगड़ता है। अपने देश में औसत आवश्यकता से कहीं कम मात्रा में जंगल शेष रहे हैं। यदि वे भी इसी प्रकार कटते रहे तो उसका दुष्परिणाम अनेक प्रकार भुगतना पड़ेगा। जिनमें वायु प्रदूषण के कारण सर्वजनीन स्वास्थ्य की बर्बादी प्रमुख है। 
पेड़ बादलों को आसमान से खींचते और धरती पर बरसने के लिए उन्हें बाध्य करते हैं। जिन क्षेत्रों में पेड़ों का सफाया हो जाता है वहां वर्षा नहीं होती। दुर्भिक्ष पड़ता है और जमीन बंजर होती चली जाती है। पेड़ों की जड़ें उपजाऊ जमीन की परतें मजबूती से पकड़े रहती हैं और उर्वरता बनाए रहती हैं। साथ ही जमीन में नमी बनाए रहने से पेड़ पौधों का पोषण भी करती हैं। वर्षा का जल धीरे-धीरे जमीन सोखती रहती है तो बाढ़ें नहीं आतीं। अन्यथा वर्षा होते ही पानी सीधा नदियों में पहुंचता है। वे उफन पड़ती हैं। आसपास के क्षेत्रों को डुबो देती हैं साथ ही अच्छी मिट्टी बहा ले जाती हैं, इससे नदियों की गहराई घटने से बाढ़ें आने का सिलसिला और भी तेजी से चल पड़ता है। खेती की उपजाऊ क्षमता घटती जाती है। फलतः वे रेतीले, खारी और निरर्थक बनते जाते हैं। यह है वन विनाश का अभिशाप जिसे हम इमारती कामों के अतिरिक्त प्रधानतया ईंधन की पूर्ति के लिए आमंत्रित करते हैं। 
गोबर के उपले बनाकर जलाना भी उसी प्रकार हानिकारक कदम है। जिस गोबर को खाद के रूप में प्रयुक्त करके उपज बढ़ाने और खाद्य समस्या सुलझाने के लिए लाभदायक बनाया जा सकता है उसे यदि ईंधन के लिए काम में लाया जाता रहे तो फिर समझना चाहिए कि अन्न जलाकर ईंधन की आवश्यकता पूरी की गई। 
अन्य देशों में ईंधन के अन्य विकल्प भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। वहां बिजली, कोयला, तेल उत्पादन भी बढ़ा-चढ़ा है, पर भारत उस क्षेत्र में भी पिछड़ा हुआ है। यहां उनकी पैदावार बहुत कम है। गैस के उत्पादन में भी भारत अन्य समर्थ देशों की तुलना में पिछड़ा हुआ है। जो उपज होती भी है वह बड़े शहरों और कस्बों में ही खप जाती है। शेष दो तिहाई भारत तो छोटे देहातों में बिखरा पड़ा है, वहां तक यातायात की असुविधा के कारण उस सब की पहुंच भी नहीं हो पाती। फिर उन्हें खरीदने को नकद पैसा भी चाहिए, जिसकी कमी ही पड़ती रहती है। फलतः सुगमता पूर्वक मिल जाने वाले गोबर और लकड़ी पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इतने पर भी भारतीय पद्धति में रोटी, चपाती बनाने का ही प्रचलन है। अधिकांश भोजन इसी प्रकार बनता है। उसमें ईंधन की मात्रा और भी अधिक खपती है। 
ऐसी दशा में एक ही विकल्प रह जाता है कि ‘गोबर गैस’ के छोटे बड़े प्लांट लगाए जाएं। उसमें से निकलने वाली गैस से रसोई घर की आवश्यकता पूरी हो सकती है। साथ ही प्रयोग के उपरान्त शेष बच रहने वाला गोबर निरर्थक नहीं जाता वरन् और भी अधिक उपजाऊ बन जाता है। चीन ने अपनी ईंधन समस्या इसी आधार पर हल की है। 
भार वाहन से लेकर खेत जोतने तक छोटे कामों में भी शक्ति की आवश्यकता है। इसे ट्रैक्टरों से पूरा करने की बात सोची जा रही है। रेल, मोटरें तो ढुलाई का काम एक सीमा तक कर देती हैं, पर खेत जोतने, कुएं से पानी निकालकर सिंचाई का प्रयोजन पूरा करने के लिए बैल ही काम आता है। गौ संवर्धन का मात्र लाभ दूध ही नहीं है वरन् बछड़े उत्पन्न करके ऊर्जा की अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी होती है, जो मशीनों के बस की बात नहीं है। 
भारत में कृषि के लिए जितने बैलों की जरूरत है उससे आधे ही उपलब्ध हैं। इस कारण भूमि का एक बड़ा भाग बिना जुताई और सिंचाई के रह जाता है। 
कृषि सन्दर्भ में भार वाहन के लिए आठ करोड़ बैलों की जरूरत है। इनके स्थान पर 67 लाख ट्रैक्टरों की जरूरत पड़ेगी जबकि देश में इतने लाख ट्रैक्टर उपलब्ध नहीं हैं। 
गौवंश के ऊपर कुपोषण की समस्या का समाधान भी निर्भर है और कृषि उत्पादन की अभिवृद्धि भी। अन्न और दूध के लिए हम पूरी तरह गौवंश पर निर्भर हैं। उसकी उपेक्षा करके न स्वास्थ्य संतुलन बनाए रखा जा सकता और न छोटी-छोटी जोतों में बिखरी हुई कृषि के लिए जुताई, सिंचाई आदि की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हो सकती है। 
भार वाहन एक अतिरिक्त कार्य है जो देहाती व्यवसाय के लिए नितान्त आवश्यक है। इसकी पूर्ति भी बैलों से ही संभव है। भैंसें तो इनमें से एक भी काम नहीं संभाल सकती, उनकी गति और क्षमता बहुत स्वल्प होती है।  

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