पृथ्वी पर अनेकों बार संकट आये हैं और वह डूबते-डूबते उबरी है। एक बार हिरण्याक्ष उसे पाताल ले गया था। एक बार वृत्रासुर ने उसका अपहरण कर लिया था और इन्द्र समेत समस्त देव समुदाय को पलायन करना पड़ा था भस्मासुर, महिषासुर ने भी विनाश की घड़ी समीप ला दी थी। ऐसे अनेकों प्रसंगों में दैवी शक्तियों ने ही उसका उद्धार किया था। देवों की करुण पुकार सुनकर प्रजापति ने कहा था—‘‘तुम देव लोग उपेक्षा या अहंकारवश एकत्र नहीं हो पाते, इसलिये बलिष्ठ होने पर भी दैत्य समुदाय के आगे हार जाते हो।’’ उनकी संयुक्त शक्ति दुर्गा के रूप में एकत्रित हुई और उनने असुरों के संकट से देवों को बचाया।
यह तो पौराणिक प्रसंग हुआ। वैज्ञानिकों के अनुसार पुरातन काल में एक ग्रह था—‘फैथान’। उसकी सभ्यता आज से भी बढ़ी-चढ़ी थी और विज्ञान के महाघातक अस्त्र उस ग्रह के वासियों ने एकत्रित कर लिये थे। शक्तियां प्राप्त कर लेना एक बात है और उनका सदुपयोग करना दूसरी। वे अहंकारी सत्ताधारी परमाणु आयुधों से लड़ पड़े और न केवल जीव सत्ता का, पदार्थों का वरन् समूचे ग्रह का सर्वनाश कर दिया। फलस्वरूप उस ग्रह के छर्रे-छर्रे उड़ गये। उन्हीं टुकड़ों में से कुछ मंगल और बृहस्पति के बीच में एक उल्का माला के रूप में घूमते हैं। कुछ शनि के इर्द-गिर्द छल्ले के रूप में एवं कुछ प्लेटो नेपच्यून तक उड़ गये। कहते हैं कि उसी कबाड़ से सृष्टा ने पृथ्वी की नूतन संरचना की। जो हो, सृष्टा के इस ब्रह्माण्ड में पृथ्वी सबसे सुन्दर कलाकृति है। जब-जब भी इस पर विनाश संकट आते रहे, तब-तब उसकी रक्षा होती रही है। कोई न कोई उपाय निकलता रहा है। एक बार दधीचि की अस्थियों का वज्र बना था। एक बार संघ शक्ति दुर्गा ने विनाश की विपत्ति बचाई थी। इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है।
प्रस्तुत संकट के संदर्भ में दिव्यदर्शी आत्मवेत्ता कहते रहते हैं कि चौदहवीं सदी, सेविन टाइम्स, खण्ड प्रलय, हिमयुग, समुद्री उफान के रूप में पृथ्वी पर ऐसी विपत्ति बरसेगी जिससे कुछ बचेगा नहीं। मूर्धन्य मनीषियों का भी यही कहना है कि प्रदूषण, पर्यावरण, विकिरण, अणुयुद्ध, जनसंख्या विस्फोट आदि के फलस्वरूप संसार तेजी से महाविनाश की ओर जा रहा है। तीसरे अन्तरिक्षीय युद्ध की संभावना तो हर पल सामने है ही।
सृष्टा ने महाविनाश से पूर्व ही बचाव की व्यवस्था बनाई है। संसार में सृजन को जन्म देने वाली सबसे बड़ी शक्ति तप है। उसी ने ब्रह्मा को सृष्टि बनाने की शक्ति दी थी। उसी के बल से संसार में सुव्यवस्था स्थिर है। सारे ऋषिगण तपस्वी रहे हैं, उन्होंने तप विज्ञान से उत्तराखण्ड को देव लोक बनाने के लिये हिमालय के इस ध्रुव केन्द्र में प्रचण्ड तप किये और व्यास, वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र, भारद्वाज, जमदग्नि, कश्यप प्रभृति ऋषिगणों एवं ध्रुव पार्वती इत्यादि साधकों ने इसे देव भूमि बना दिया। उन्होंने संसार को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने वाले अपने नेक प्रयास तप शक्ति से इस प्रकार सम्पन्न किये जिनके कारण यह धरती समूचे ब्रह्माण्ड में मुकुटमणि बन गयी।
प्रस्तुत समय के उल्टे प्रवाह को उलटकर सीधा करने के लिये बहुत बड़ी शक्ति चाहिये सो भी मानवी नहीं दैवी? इसे किस प्रकार जागृत और एकत्रित किया जाय? उसे धरती निवासियों के पीछे किस प्रकार लगाया जाय? यह एक बहुत बड़ा काम है। सबसे बड़ी समस्या समर्थों की दिशा मोड़ने की है। चाहे धनवान हों चाहे शासक, चाहे साहित्यकार हों चाहे धर्माध्यक्ष, सभी उलटे मार्ग पर चल रहे हैं। लोक मंगल की बात तो करते हैं, पर सभी को अपने स्वार्थ साधन की पड़ी है। इस समुदाय की अपनी क्षमता ध्वंस से मोड़कर सृजन में-स्वार्थ से विरत होकर परमार्थरत हो सके तो शालीनता का वातावरण बनने में कुछ देर नहीं लगे।
इस बार भी तप शक्ति को महाविनाश के सम्मुख जुटाया गया है और वह प्रयास व्यर्थ नहीं गया है। पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने तक जो विनाश की घटायें उमड़ रही थीं वे अब छंटने लगी हैं। स्थिति को अपनी दिव्य दृष्टि से देखने वाले कहते हैं कि अदृश्य वातावरण में रावण, कुम्भकरण, जरासन्ध, हिरण्यकश्यपु जैसों की जो हुंकारें गरज रही थीं, वे अब शान्त हो चली हैं, उनका भी समाधान होकर रहेगा। अब भयाक्रान्त होने की आवश्यकता नहीं है। राम राज्य का उषाकाल समीप है। अब यह किसी कुहरे के नीचे देर तक छिपा नहीं रह सकता।
नई सृष्टि बनाने के लिये ब्रह्मा ने, विश्वामित्र ने जो तप किया था, उसका प्रयोग इन दिनों चल रहा है। अपने युग के इस तपस्वी से जन-जन परिचित है और यही विदित है कि अब तक जो काम उसने हाथ में लिये हैं, वे पूरा करके दिखाये हैं। आर्ष ग्रन्थों को सर्व सुलभ करना, विशाल प्रज्ञा परिवार का असाधारण संगठन, सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ, लोक मानस के परिष्कार का युग साहित्य, विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के अभिनव प्रयास, परमार्थ प्रयोजनों के लिये जीवन दान देने वाले सहस्रों देवमानवों का निर्माण आदि-आदि ऐसे काम हैं जो आज की परिस्थितियों में किसी सामान्य मानवी शक्ति के बलबूते की बात नहीं है। ऐसे महान कार्य तप शक्ति के बिना और किसी प्रकार नहीं हो सकते। तप के प्रभाव से ऋषियों और देवताओं का अनुग्रह प्राप्त होता है और इन सबके संगठन से एक ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है जिसे अद्भुत अनुभव कहा जा सके। सामान्य मनुष्य जब कभी अद्भुत काम करते हैं, युग परिवर्तन जैसे काम हाथ में लेते हैं तो समझना चाहिये कि इसके लिये इन्होंने तप की शक्ति एकत्रित कर ली है। वस्तुतः यह काम साधारण व्यक्ति नहीं करते, उनके पीछे कोई परोक्ष महती शक्ति काम कर रही होती है।
प्रज्ञा अभियान के मूल में तप शक्ति ही काम कर रही है, ऐसा तप जिसके बल पर शेषनाग धरती को सिर पर उठाये हुए हैं, ऐसा तप जिसके कारण तपता हुआ सूर्य लोक-लोकान्तरों में आलोक और ऊर्जा का वितरण करता, परिभ्रमण करता रहता है। इन दिनों इस तप के सहारे ही मनुष्य में से विष निचोड़ा जा रहा है और उसकी आकृति वही बनी रहने पर भी प्रकृति में आमूल-चूल परिवर्तन लाया जा रहा है। इसे एक दैवी आश्वासन समझा जाना चाहिये कि कल तक जो महाविनाश के हजारों कारण और लक्षण दीख पड़ रहे थे, वे घट चले और हट भी चले।
स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि भगवान के लिये कुछ भी कठिन नहीं है। वह कलियुग को सतयुग में बदलता है, त्रेता में धर्म राज्य की स्थापना करता है। रावण, वृत्रासुर जैसों के मद को चूर्ण-विचूर्ण करता है। सुदामा, विभीषण, सुग्रीव जैसे विपन्नों को सुसंपन्न बनाता है। हारे हुए देवताओं को महाप्रलय के गर्त में डुबो देता है और सर्व व्यापी जल में से नई सृष्टि रचकर खड़ी कर देता है। वह मानवोचित विचारों को अमानवी वर्चस्व की गरिमा को पुनर्जीवित करने के लिये अन्तःकरणों में भी भारी उथल-पुथल उत्पन्न कर दे तो क्या असंभव है? जिसके कौशल से निखिल ब्रह्माण्ड में ग्रह तारक अधर में टंगे और घुड़-दौड़ लगाते हुए ऐसा क्रम चला रहे हैं, जिसे देखते हुए आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। उसके किसी भी आस्तिक का उपयोगी परिवर्तन उसके अनुग्रह से सम्पन्न हो सकना असंभव नहीं मानना चाहिये।
नवयुग का आगमन सुनिश्चित है। इक्कीसवीं सदी की सम्पूर्ण व्यवस्था, एकता और समता के सिद्धान्तों पर निर्धारित होगी। हर क्षेत्र में, हर प्रसंग में उन्हीं का बोलबाला दृष्टिगोचर होगा। प्रज्ञा युग इसका नाम होगा। गंगा अवतरण का मन बना चुकी हैं। उसे स्वर्ग से जमीन पर ला उतारने वाले तप की आवश्यकता थी जो हो रहा है वह चलता रहेगा। कठिनाई हल करने के लिये शिवजी ने अपनी जटायें बिखेर दी हैं। अब आवश्यकता भागीरथ जैसे राजपुत्र की रह गयी है जो अग्रिम पंक्ति में खड़ा हो अपने को भागीरथी का अवतरणकर्त्ता कहलाने का श्रेय भर लेने का साहस करे। अर्जुन को भी यही कहा गया है कि धरती पर दिखाई देने वाले जीवितों का प्राण हरण किया जा चुका है। यदि इच्छा हो तो विजय श्री वरण कर, अन्यथा चुप बैठ। तेरे बिना महाभारत अनजीता न पड़ा रहेगा।’’ यों भागीरथ न आते तो भी विधि चक्र ने गंगावतरण तो सुनिश्चित कर ही रखा था।
युग संधि बारह वर्ष की है। अब से लेकर सन् 2000 तक। इक्कीसवीं सदी से नवयुग-सतयुग आरम्भ होने की भविष्यवाणी अनेक आध्यात्मवादी एवं परिस्थितियों का आकलन करने वाले विज्ञानी एक स्वर में प्रतिपादित करते रहे हैं। इस कथन में भविष्य वक्ताओं और ज्योतिर्विदों का भी प्रतिपादन सम्मिलित है। इक्कीसवीं सदी निश्चय ही उज्ज्वल भविष्य का संदेश लेकर आ रही है पर उससे पूर्व कठिन अग्नि परीक्षा से भी हम सब को गुजरना पड़ेगा। इस बारह वर्ष की अवधि में जहां तक सृजन का शिलान्यास होगा वहां संचित अवांछनीयताओं के दुष्परिणामों से भी निपटना होगा। इसलिये इस अवधि को दुहरे उत्तरदायित्वों से लदा हुआ कहा गया है। इसमें वरिष्ठ जनों को सहभागी बनाकर हनुमान और अर्जुन जैसी भूमिका निभानी होगी। परोक्ष प्रक्रिया भगवान की होगी, पर उसका श्रेय तो इस संदर्भ में प्रबल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिलेगा।