दैवी शक्तियां समय-समय पर अपने प्रिय पात्रों को सहयोग देती, अनुग्रह करती रहती हैं। साथ ही दुष्ट, आतताइयों को उनके कुकृत्यों के लिये भयंकर दण्ड व्यवस्था भी करती हैं। सूक्ष्म जगत में विचरण करती दिव्य आत्माओं का सहयोग अनायास इस रूप में मिलते देखा गया है।
इंग्लैण्ड के न्यायिक इतिहास में उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में एक ऐसी घटना घटी जिसने कानून व्यवस्था को भी चुनौती दे दी। इंग्लैण्ड के एक्सटर जेल में एक ‘जान ली’ नामक अपराधी बन्द था। हत्या के आरोप में न्यायालय द्वारा उसे मृत्यु दण्ड सुनाया गया। उस समय आज की तरह विद्युत द्वारा फांसी दी जाने की व्यवस्था नहीं थी। मोटी रस्सी के फन्दे द्वारा फांसी दी जाती थी।
निर्धारित तिथि एवं समय पर डॉक्टर ने उसके स्वास्थ्य की परीक्षा की। पादरी ने ‘जान ली’ के किये गये अपराधों के लिये परमात्मा से क्षमा प्रार्थना की। फांसी का फन्दा उसके गले में डालने के पूर्व जल्लाद जेम्स वेरी ने फांसी के उपकरणों की भली-भांति जांच कर ली। फांसी का फन्दा बनाकर खींचे जाने वाले रस्से को ठीक किया। मजिस्ट्रेट की देख-रेख में अपराधी के गले में फांसी का फन्दा डाला गया। जल्लाद ने पीछे हटकर नीचे के तख्ते को खींचा, किन्तु तख्ता बिल्कुल नहीं हिला। पुनः तख्ते का निरीक्षण किया कि सम्भवतः कहीं जाम हो गया हो, किन्तु पाया वह बिल्कुल ठीक था। दुबारा जोर लगाकर तख्ता खींचा किन्तु आश्चर्य कि वह टस से मस न हुआ। जल्लाद ने तीसरी बार तख्ते की जांच करने के बाद खींचने का प्रयास किया किन्तु असफलता ही हाथ लगी।
तीसरी बार फांसी पर चढ़ाये जाने की मानसिक पीड़ा से ‘जान ली’ भीषण ठण्ड में भी पसीने से डूब गया। मजिस्ट्रेट सामने खड़ा सारी कार्यवाही देख रहा था। उसके जीवन की यह अभूतपूर्व घटना थी। वह विस्मित था कि फांसी के सारे उपकरण ठीक होते हुए भी तख्ता खिसक क्यों नहीं रहा है। निरन्तर सात मिनट तक अथक प्रयास तथा तीन बार फांसी के तख्ते पर चढ़ाये जाने पर भी उसे मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सका। कुछ समय के लिये फांसी को स्थगित करने का आदेश दिया गया। फांसी का निर्धारित समय बीत गया।
सर विलियम कोर्ट में इस मामले को प्रस्तुत करते हुए निवेदन किया गया कि न्यायालय द्वारा निर्धारित समय पर पूरी सतर्कता एवं सावधानी रखने के बाद भी मृत्यु दण्ड न दिया जा सका। अतः न्याय की रक्षा के लिये अगला समय निर्धारित किया जाय। उच्च न्यायालय ने अपील को निरस्त करते हुए कहा कि ‘‘अपराधिक दण्ड प्रक्रिया संहिता के अनुसार न्यायालय द्वारा मृत्यु दण्ड की सारी कार्यवाही पूरी हो चुकी है। इस समय को आगे बढ़ाना न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है। विश्व के न्यायिक इतिहास इतिहास में यह एक आश्चर्यजनक घटना थी, जबकि एक व्यक्ति को निरन्तर सात मिनट तक फांसी दी जाती रही हो और वह बच गया हो।
पत्रकारों ने ‘जाल ली’ से पूछा कि ‘वह कैसे बच गया।’ उत्तर में उसने कहा कि वह निर्दोष था, हत्या में उसे किसी प्रकार फंसा दिया गया था। अपनी सफाई एवं समुचित साक्ष्य वह न्यायालय में प्रस्तुत नहीं कर सका, जिससे उसको मृत्यु दण्ड मिला। फांसी के तख्ते पर ईश्वरीय न्याय सहयोग की प्रार्थना वह निरन्तर करता रहा। सतत् किसी ईश्वरीय अदृश्य शक्ति का अनुदान बरसते उसने अनुभव किया।
सन् 1953 की बात है फ्रांसीसी ड्यूक डिगाइज की हत्या के अपराध में जाल पाल ट्रोट नामक एक व्यक्ति को मृत्यु दण्ड दिया गया। मारने का तरीका यह निश्चित किया गया कि उसके दोनों हाथ, दोनों पैर चार अलग-अलग मजबूत घोड़ों से बांध दिये जायें। घोड़े एक साथ दौड़ाये जायें ताकि अपराधी के चार टुकड़े हो जायें। नियत व्यवस्था के अनुसार सेना के बलिष्ठ घोड़ों को घुड़सवारों द्वारा दौड़ाया गया, पर आश्चर्य यह है कि घोड़े आगे न बढ़ सके। कैदी इतना मजबूत था कि उसका कोई अवयव न तो उखड़ता था और न ढीला पड़ता था। घोड़े तीन बार बदले गये। बारहों घोड़े जब असफल रहे तो उसे रिहा कर दिया गया। बाद में उसने बताया कि उसे कोई अदृश्य शक्ति सतत् सम्बल देती रही कि ‘तूने कुछ नहीं किया है, तेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।’
वियना के प्रख्यात चित्रकार जोसेफ आयनागर के पीछे-पीछे मौत का साया फिरता था। जाने-अनजाने उसे कई बार मौत ने घेरा, पर उसका अदृश्य एवं अपरिचित सहचर उसे हर बार बचाता रहा। सन् 1880 में बुडापेस्ट में उसने फांसी लगाकर आत्महत्या की। बचाने के लिये वह अदृश्य सहचर पहुंचा और रस्से से नीचे उतार लिया। सन् 1888 में क्रान्तिकारियों के रूप में शासन ने उसे मृत्यु दण्ड दिया। तब भी एक अपरिचित कैमूनियत भिक्षु ने राजा से मिलकर रद्द कराया। अन्ततः उसने 68 वर्ष की आयु में अपने सीने में आप गोली मारकर आत्महत्या कर ली। अन्तिम संस्कार कराने के लिये भी भिक्षु उपस्थित रहा जिसने पहले दो अवसरों पर उसकी सहायता की थी।
यह सब मात्र संयोग नहीं :
फ्रांस के प्लोइरसेल नगर का निवासी कैसिमीर पालेमस नामक व्यक्ति अपने जीवन में तीन बार जलपोत की दुर्घटना में फंसा और तीनों बार अकेला बच गया। वह साधारण व्यापारी था और काम चलाऊ तैरना जानता था। 11 जुलाई 1875 में ‘जीएन्ने कैथेरिम’ नामक जहाज के जल समाधि लेने पर वह अकेला ही बच पाया। इसी प्रकार 4 सितम्बर 1880 में ट्रीयज फ्रेरीज और 1 जनवरी 1882 को एल0 ओडियन जहाज डूबे। उनके भी सारे यात्री डूब गये किन्तु अकेला वही व्यक्ति किसी प्रकार अपनी जान बचा सकने में सफल हुआ।
सन् 1883 में इटली के सैन बुर्ज क्षेत्र में एक विचित्र भूकम्प युक्त विस्फोट हुआ। इससे अगणित इमारतें टूटीं और धन-जन की क्षति हुई। आश्चर्य की बात यह है कि नगर के प्रधान प्रार्थना कक्ष को चाक पर चढ़े बर्तन की तरह घुमाया और बिना किसी प्रकार की क्षति पहुंचाये दूसरी जगह ज्यों का त्यों खड़ा कर दिया। जबकि मठ का अन्य भाग टूटकर विस्मार हो गया।
ट्यूविन नामक एक जर्मनी नागरिक सन् 1657 में पैदा हुआ और 1724 में मरा। इन 67 वर्षों में उसे अनेक बार प्राण घातक दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा, पर वह हर बार सकुशल बच गया।
एक बार जंगली सुअर की मुठभेड़ में वह चारों खाने चित्त गिरा और खड्ड में गिर जाने पर किसी प्रकार बचा। एक बार बाढ़ क्षेत्र में दौरा करते समय उसका घोड़ा कीचड़ में फंसने पर गिरा। घोड़ा ऊपर सवार नीचे, मुश्किल से प्राण बचे। एक बार डाकुओं ने उस पर दस गोलियां चलाईं, पर लगी एक भी नहीं। एक बार बर्फीले पहाड़ के नीचे से गुजरते समय एक भारी हिमखण्ड ऊपर गिरा और वह तब तक दबा रहा जब तक कि बर्फ पिघल कर बह नहीं गयी। एक बार वह अंधड़ में फंसा और राइन नदी में डूबने-उतराने लगा। एक बार एक भारी पेड़ उस पर गिरा, पता चलने पर जब लकड़ी उठायी गयी तब वह नीचे से निकला। एक बार एक नाव से नदी में गिर पड़ा।, ऐसी-ऐसी और भी अनेकों दुर्घटनायें उस पर से गुजरी पर हर बार मौत को चुनौती देते हुए वह जीवित बच गया।
अदृश्य अनुदान :
कितने ही अवसरों पर किन्हीं-किन्हीं को अदृश्य सहायतायें मिलती रहती हैं। इन्हें दैवी अनुदान या वरदान माना जाता है। ऐसी उपलब्धियां जिन्हें प्राप्त हुई हैं, उनके उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहते हैं।
सन् 1867 की एक घटना है। बेल्जियम के पियरे डिरूडर नामक व्यक्ति का पैर पेड़ पर से गिरने के कारण टूट गया। हड्डी जुड़ी नहीं वरन् नासूर की तरह रिसने लगी। जख्म किसी तरह भरता ही न था। बड़ी कठिनाई से ही वे किसी प्रकार दर्द से कराहते पट्टी बांधे किसी तरह थोड़ी दूर चल सकते थे। जहां से पैर टूटा था, वह जगह टेढ़ी-कुबड़ी हो गयी थी। ऐसी स्थिति तक पहुंचे हुए मरीज को ठीक कर देने का वायदा किसी सर्जन ने भी नहीं किया।
निराश पियरे के मन में एक दिन उमंग उठी, वे सन्त लारेंस की समाधि तक घिसटते हुए पहुंचे। घुटने टेककर देर तक रोते और दिवंगत सन्त की आत्मा से सहायता की प्रार्थना करते हुए दिन भर बैठे रहे।
संध्या होते-होते वापस लौटने का समय आया तो वे सामान्य मनुष्यों की तरह उठकर खड़े हो गये और सही पैर लेकर घट लौट आये। परिचितों में से किसी को भी इस घटना पर विश्वास न हुआ। प्रत्यक्ष देखने वालों की भारी भीड़ लगी रही। सभी की जीभ पर अदृश्य वरदान की चर्चा थी।
दक्षिण इटली के फोगिया कस्बे में एक दम्पत्ति के यहां नौ वर्षीय बालक जियोवेनियो-लिटिल जान रीढ़ की बीमारी के कारण नन्हें बच्चों जैसा घिसट-घिसट कर हाथ-पैरों के बल चला करता था। एक दिन जियोवेनियो फोगिया की सड़कों पर घिसटता चल रहा था, अचानक उसे अपनी पीठ पर दिव्य स्पर्श का अनुभव हुआ। नजर उठाकर ऊपर देखा तो बगल में एक साया खड़ा था। कुछ पूछने से पहले ही वह अदृश्य हो गया और जियोवेनियो कृतज्ञता से उसकी कृपा को मन ही मन सराहता रहा। उसकी अपंगता दूर हो गयी थी। वह उठ खड़ा हुआ और दौड़ता हुआ घर आया। अदृश्य सहायक की कृपा से वह कृतार्थ हो चुका था।
सन् 1919 में लिवरपूल में जेम्स नामक एक व्यक्ति के साथ जो कभी फौज में रह चुका था—एक घटना घटित हुई। लड़ाई के दौरान तोपों की भयंकर गर्जना के कारण उसके कान के पर्दे फट गये और वह बहरा हो गया था। पेंशन पर जाने के बाद एक रात उसने स्वप्न में देखा कि लिवरपूल के पवित्र सेंटविनिफ्रेड कुएं के पास खड़ा होकर उसमें से जल निकाल कर स्नान कर रहा है। जैसे ही पानी शरीर पर पड़ा कि शीत की-सी कंपकंपी लगी और उसी क्षण उसकी नींद टूट गयी। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। पास में सो रहे उसके घर वालों ने पूछा—कौन? यह शब्द सुनते ही जीवन में नया प्रकाश आ गया। उसने आश्चर्यपूर्वक बताया—मैं जेम्स, पर क्या हुआ? कैसे हुआ? जिस बहरेपन को डॉक्टर नहीं ठीक कर पाये वह एक स्वप्न ने ठीक कर दिया।
रेवरेण्ड फ्रीमैन विल्स की लंगड़ी टांगें भी इसी तरह स्वप्न में ही ठीक हुई थीं। स्वप्न में विल्स ने देखा कि किसी फरिश्ते ने आकर उनकी टूटी हुई टांगों पर प्रकाश की किरण इस प्रकार फेंकी जैसे कोई प्लाज्मा लाइट बेल्डिंग करते समय फेंकी जाती है। स्वप्न टूटते ही उसने अपनी टांगों को पूर्ण स्वस्थ पाया। यह घटना भी स्वप्न सत्ता की सर्व समर्थता का बोध कराती है।
पुराणों में ऐसी कथायें बहुतायत से पढ़ने को मिलती हैं, जिनमें यह बताया गया होता है कि किसी देवता ने किसी भूखे-प्यासे व्यक्ति को आकाश से भोजन भेजा, सवारी भेजी, वाहन भेजे, सहायतायें प्रस्तुत कीं। भूखे-प्यासे उत्तंग को देवराज इन्द्र ने अन्न-जल दिया था। अश्विनी कुमार आकाश मार्ग से देव औषधि लेकर च्यवन ऋषि के पास आये थे और उन्हें अच्छा किया था। भगवान राम को ‘विरथ’ देख इन्द्र ने अपना रथ भेजा था। द्रौपदी की सहायतार्थ कृष्ण भगवान ने उनकी साड़ी को योजनों लम्बी कर दिया था। बाईबल में ऐसे वर्णन आते हैं जब महाप्रभु ईसा को देवताओं ने देव भोग भेजे थे। इन कथाओं में बहुत-सा अन्ध विश्वास भी हो सकता है, पर विज्ञान और तथ्य भी कम नहीं हो सकता। प्रस्तुत घटना इस बात का प्रमाण है कि विशाल ब्रह्माण्ड में ऐसी शक्तियों का अस्तित्व है जो असंभव को भी संभव कर दिखाती हैं।
सन् 1881 के मध्य में कैप्टन नीलकरी अपने दो बच्चों के साथ लारा जहाज को लेकर लीवरपूल के सान फ्रांसिस्को की ओर समुद्री लहरों के साथ आंख मिचौनी खेलते गन्तव्य की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। मैक्सिको की पश्चिमी खाड़ी से 1500 मील पूर्व लारा में आग लग गई। कैप्टन नील अपने परिवार तथा 32 अन्य जहाज कर्मियों के साथ जाल बचाने के लिये लारा को छोड़कर तीन छोटी लाइफ बोटों पर सवार हो गये।
लम्बी जलयात्रा तय करते हुए सभी व्यक्तियों को प्यास सताने लगी। दूर-दूर तक फैले अथाह समुद्र में पीने योग्य मीठे पानी का कहीं कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा था। प्यास के मारे 36 सदस्यीय यात्रियों में से 6 जहाज कर्मी बेहोश हो गये।
कैप्टन करी को निद्रा आ गयी और स्वप्न में देखा कि पास में कुछ दूरी पर समुद्र के छोटे से घेरे में हरा पानी कोई पादरी वेशधारी सन्त उसे बता रहा है जो पीने के योग्य है। निद्रा भंग हुई और कैप्टन का जहाज हरे पानी पर तैर रहा था। थोड़ा-सा पानी एक बर्तन में लेकर कैप्टन ने पिया तो पाया कि स्वप्न में देखे पानी से अधिक मीठा और स्वच्छ जल था। सभी ने पानी पिया और जीवन की सुरक्षा की। कैप्टन नील ने इसे समुद्री नखलिस्तान की संज्ञा दी। यह कैसे किस प्रकार उन्हें उपलब्ध हुआ? कौन वह पादरी था व कैसे सहायता हेतु आया? इस पूर्वाभास की संगति बिठा सकने में कोई समर्थ नहीं था।
ऐसे अनुदान कभी-कभी किन्हीं को अनायास ही मिल जाते हैं, यह अपवादों की बात हुई। उनके पीछे निश्चित आधार यह है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व को वैसा बनाये जैसा देव वर्ग को प्रिय है। आत्म परिशोधन की तपश्चर्या में तथा लोक-मंगल की सेवा-साधना में संलग्न ऋषि-कल्प व्यक्तियों को ऐसे अनुदान अपनी पात्रता के आधार पर विपुल परिमाण में उपलब्ध होते रहते हैं। ऐसे प्रमाणों की लम्बी शृंखला है।
सन् 1985 में फ्रांस के राजा लुईस चौदहवें के विरुद्ध जनता ने विद्रोह कर दिया। 1702 में जगह-जगह गुरिल्ला युद्ध होने लगे। सेना नायक क्लैरिस नामक एक प्रोटेस्टैन्ट विद्रोही था। राजा को परास्त करने और अपने को वरिष्ठ, योग्य घोषित करने के लिये उसने अग्नि परीक्षा देने की बात कही।
लकड़ियों से ऊंची चिता बनाई गई और क्लैरिस समाधि की स्थिति में उस पर चढ़कर खड़ा हो गया। चिता में आग लगा दी गई। धीरे-धीरे आग की लपटों ने क्लैरिस को चारों तरफ से घेर लिया और क्लैरिस मैदान में उपस्थित 600 लोगों की भीड़ को सम्बोधित करता रहा। लकड़ियां जलकर राख हो गयीं। आग बुझ गई तब तक क्लैरिस का भाषण चलता रहा। क्लैरिस अग्नि परीक्षा में विजयी रहा। उसे आंच तक नहीं आयी।
प्रगति भी सहज, संभव :
दैवी सत्तायें अपने सहयोग से मनुष्य की समृद्धि और प्रगति को भी सहज संभव बनाती देखी गयी हैं।
अमेरिका के एक दरिद्र व्यक्ति आर्थर एडवर्ड स्टिलवैल ने अपनी जिन्दगी 40 डालर प्रति मास जैसी कुलीगीरी की छोटी-सी नौकरी से आरम्भ की और प्रेतात्माओं की सहायता से उच्च श्रेणी के यशस्वी धनवान विद्वानों की श्रेणी में सहज ही जा पहुंचा।
पन्द्रह वर्ष की आयु से ही उसके साथ अदृश्य सहायकों की एक मण्डली जुड़ गयी और जीवन भर उसका साथ देती रही। इनमें तीन इंजीनियर एक लेखक, एक कवि और एक अर्थ विशेषज्ञ की तरह मार्गदर्शन करती थीं। इनके साथ उसकी मैत्री बिना किसी प्रयोग परिश्रम के अनायास ही हो गयी और वे उसे निरन्तर उपयोगी मार्गदर्शन कराते रहे।
सहायकों ने उसकी लगी लगाई नौकरी छुड़वा दी और कहा चलो तुम्हें बड़ा आदमी बनायेंगे। उनने उसे अपने रेल मार्ग बनाने, अपनी नहर खोदने, अपना बन्दरगाह बनाने के लिये कहा। बेचारा आर्थर स्तब्ध था कि नितान्त दरिद्रता की स्थिति में किस प्रकार करोड़ों-अरबों रुपयों से पूरी हो सकने वाली योजनायें कार्यान्वित कर सकने में सफल होगा, पर जब उन सत्ताओं ने सब कुछ ठीक करा देने का आश्वासन दिया तो उसने कठपुतली की तरह सारे काम करते रहने की सहमति दे दी और असम्भव दीखने वाले साधन जुटने लगे।
आर्थर पूरी तरह दैवी सत्ता पर निर्भर था। उसके पास न तो ज्ञान था और न साधन। फिर भी उसके शेखचिल्ली जैसे सपने एक के बाद एक सफलता की दिशा में बढ़ते चले गये और धीरे-धीरे अपनी सभी योजनाओं में जादुई ढंग से सफल होता चला गया। 26 सितम्बर 1928 को वह मरा तो अपनी अरबों की धनराशि छोड़कर मरा। उसकी अपनी पांच लम्बी रेलवे लाइनें थीं। जहाजों के आने-जाने की क्षमता से सम्पन्न विशालकाय नहर पोर्ट आर्थर बन्दरगाह भी उसका अपना था और भी उसके कितने ही अरबों रुपयों की पूंजी के अर्थ संस्थान थे।
उसने साहित्य के तथा कविता के प्रति प्रसिद्ध तीस ग्रन्थ भी लिखे, जो साहित्य क्षेत्र में भली प्रकार सम्मानित हुए। आर्थर से उसकी सफलताओं का जब भी रहस्य पूछा गया तो उसने अपने संरक्षक देवों की चर्चा की और बताया प्रत्येक महत्वपूर्ण योजना, अर्थ साधनों की व्यवस्था, कठिनाइयों की पूर्व सूचना, गतिविधियों में तोड़-मरोड़ की सारी जानकारी और सहायता इन दिव्य सहायकों से ही मिलती रही है। उसकी अपनी योग्यता नगण्य है। साहित्य सृजन के संबंध में भी उसका यही कथन था कि यह कृतियां वस्तुतः उसके लेखक और कवि अदृश्य सहायकों की ही हैं। उसने तो कलम कागज भर का उपयोग करके यह प्राप्त किया है।
इसी तरह अन्यान्य क्षेत्रों में भी कितने ही लोग अदृश्य दैवी सहायता पाकर धन्य बने और कृत-कृत्य हुए हैं।
रोजमेरी का अदृश्य संगीत शिक्षक :
:लन्दन की एक महिला रोजमेरी ब्राउन परलोक वेत्ताओं के लिये पिछली तीन दशाब्दियों से आकर्षण का केन्द्र रही हैं। वे संगीत में पारंगत हैं। बहुत शर्मीले स्वभाव की हैं। भीड़-भाड़ से, सार्वजनिक आयोजनों से दूर रहती हैं और अपनी एकान्त साधना को शब्द ब्रह्म की साधना के रूप में करती हैं।
आश्चर्य यह है कि उनका कोई मनुष्य शिक्षक कभी नहीं रहा। उन्हें इस शिक्षा में अदृश्य सहायक सहायता देते रहे हैं और उन्हीं के सहारे वे दिन-दिन प्रगति करती चली हैं। उनकी संगीत साधना तब शुरू हुई जब वे सात साल की थीं। उन्होंने एक सफेद बालों वाली-काले कोट वाली आत्मा देखी जो आकाश से ही उतरी और उसी में गायब हो गयी। उसने कहा कि मैं संगीतज्ञ हूं, तुम्हें संगीतकार बनाऊंगा। कई वर्ष बाद उसने विख्यात पियानो वादक स्वर्गीय फ्राजलिस्ट का चित्र देखा वह बिल्कुल वही था जो उसने आकाश में से उतरते और उसे आश्वासन देते हुए देखा था।
बचपन में वह कुछ थोड़ा ही संगीत सीख सकीं। पीछे वह विवाह के फेर में पड़ गयीं और जल्दी ही विधवा हो गयीं। उन दिनों उनकी गरीबी और परेशानी भी बहुत थी, फिर मृतात्मा आई और कहा संगीत साधना का यही उपयुक्त अवसर है। उसने कबाड़ी की दुकान से एक टूटा पियानो खरीदा और बिना किसी शिक्षक के संगीत साधना आरंभ कर दी। रोजमेरी ब्राउन का कहना है कि उसका अशरीरी अध्यापक अन्य संगीत विज्ञानियों को लेकर उसे सिखाने आता है। उनके मृतात्मा शिक्षकों में वाख, बीठो, फेंन, शोर्ये, देवुसी, लिस्ट, शूवर्ट जैसे महान संगीतकार सम्मिलित हैं, जो उसे ध्वनियां और तर्ज ही नहीं सिखाते उसकी उंगलियां पकड़ कर यह भी बताते हैं कि किस प्रकार बजाने से क्या सुर निकलेगा। गायन की शिक्षा में भी वे अपने साथ गाने को कहते हैं। वे यह सब प्रत्यक्ष देखती हैं, पर दूसरे पास बैठे हुए लोगों को ऐसा कुछ नहीं दीखता।
रोजमेरी ने एक जीवित शिक्षक को परीक्षक के रूप में रखा है। यह सिर्फ देखता रहता है कि उनके प्रयोग ठीक चल रहे हैं या नहीं। ऐसा वह इसलिये करती हैं कि कहीं उसकी अन्तःचेतना झुठला तो नहीं रही है। उसके अभ्यास सही हैं या गलत। पर वह दर्शन मात्र अध्यापक उसके प्रयोगों को शत-प्रतिशत सही पाता है। रोजमेरी लगभग 400 प्रकार की ध्वनियां बजा लेती हैं। बिना शिक्षक के टूटे पियानो पर बिना निज की उत्कृष्ट इच्छा के यह क्रम इतना आगे कैसे बढ़ गया, इस प्रश्न पर विचार करते हुए अविश्वासियों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि इस महिला के प्रयासों के पीछे निस्संदेह कोई अमानवीय शक्ति सहायता करती है।
दण्ड की व्यवस्था :
दूसरों के विनाश का ताना-बाना बुनने वाले स्वयं उससे बच नहीं पाते प्रत्युत अधिक ही हानि हिस्से में आती है। इसका एक उदाहरण उस समय देखने को मिला जब एक वैज्ञानिक स्वयमेव तोप के गोले के साथ निकलकर अपनी पत्नी से टकराकर चकनाचूर हो गया।
वेनिस के फ्रांसिस्को डीले वार्च नामक वैज्ञानिक की उन दिनों बड़ी चर्चा थी, जब उसने एक ऐसे सशक्त राकेट का निर्माण किया था, जो 3000 पौण्ड का गोला लेकर उड़ लेता था। एक बार जब युगोस्लाविया की घेराबन्दी तोड़ने के लिये उसका उपयोग हो रहा था, तभी अचानक आविष्कारक भी गोले के साथ मशीन में फंस जाने से निकल पड़ा और किसी काम से आई हुई अपनी पत्नी से टकराकर चकनाचूर हो गया। दोनों को एक साथ ही दफनाया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय जो घटना घटी, वह भी चौंका देने वाली थी। आर्कटिक क्षेत्र में घूमते हुए एक जर्मन विध्वंसक जहाज को लक्ष्य बनाकर जैसे ही ब्रिटेन के युद्धपोत ट्रिनिडाड ने तारपीडो छोड़ा वैसे ही कुछ क्षणों में लक्ष्य से छिटककर वह ‘तारपीडो’ लौटा अपने ही युद्धपोत से टकराकर उसने उसे नष्ट कर दिया।
पश्चिमी यूरोप के केलगाल इलाके में 1257 ई0 में एक बागी सेनापति पॉस्थुमस ने सैनिक टुकड़ी के माध्यम से भारी लूटपाट मचायी। लुटेरे सैनिक खुद मालामाल हो गये और सेनापति को रोम का राजा घोषित कर दिया, परन्तु ‘पॉस्थुमस’ की दुर्गति होने में भी अधिक दिन नहीं लगे। सैनिकों की अपनी मनमानी चल ही रही थी। इसी बीच एक बार उनने जर्मनी के एक नगर ‘मेज’ को लूटने की अनुमति मांगी, अनुमति न मिलने पर ‘पॉस्थुमस’ को ही गोली से उड़ा दिया और स्वच्छन्द होकर लॅटपाट करते रहे। अनीति का साम्राज्य अधिक दिन नहीं टिकता। रूस में काउण्टइवान सेंटपीटर्स वर्ग ने अपनी पत्नी अन्ना, दो बच्चों व बूढ़े नौकर के साथ रहकर वहां की जागीरदारी संभालता था। तब रूस में साम्यवादी क्रान्ति चल रही थी। इवान और अन्ना देखने में तो बड़े भोले-भाले लगते थे, पर थे बड़े क्रूर। उनने सैकड़ों व्यक्तियों को अपने क्रूर कृत्य का शिकार बनाया। जब करेलिया के लोगों ने उनके विरुद्ध आवाज उठानी शुरू की तब वह डरकर वहां से भाग गये और नेवा नदी के तटीय प्रदेश में एक परित्यक्त झोंपड़ी में शरण ली। रात हुई तो पति-पत्नी अपने बच्चों के साथ लेट गये। प्रकाश के लिये कंदीलें जला लीं, किन्तु हवा के एक झोंके के साथ कंदीलें बुझ गयीं। दुबारा कंदीलें जलायी तो देखा कि लोमड़ियों का एक झुण्ड उन्हें घेरे खड़ा है। वे अत्यन्त भयभीत हो गये, परन्तु तुरन्त ही लोमड़ियां न जाने कहां लुप्त हो गयीं।
इवान का बूढ़ा नौकर भोजन की तलाश में बाहर गया हुआ था। जब वह लौटा तो मालिक व मालकिन को झोंपड़ी में अचेत पड़ा देखा और पास ही खड़ी थी एक काली भयंकर छाया। उसने गरजकर कहा—‘‘मल्लाह! तुम्हें डरने की आवश्यकता नहीं, किन्तु तुम्हारा स्वामी अब बच नहीं सकता। उसने सैकड़ों निरपराधों की जाने ली हैं। उसके पाप का घड़ा अब भर चुका है।’’ इतना कहकर छाया ओझल हो गयी। बूढ़ा नौकर भावी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो उठा। किन्तु उसने अपना साहस नहीं खोया और अपने मालिक के होश में आने का इन्तजार करता रहा। इस बीच झोंपड़ी में तरह-तरह की आवाजें सुनायी पड़ती रहीं। रात के तीसरे पहर के करीब इवान और अन्ना की नींद झोंपड़ी की दीवार गिरने से खुल गयी और उसी के साथ प्रकट हुआ खूंखार सील मछलियों का एक झुण्ड। मछलियों ने उन दोनों पर आक्रमण किया तो वे डरकर भागे नदी की ओर। नदी के तट पर पहुंचकर उनने जल्दी-जल्दी नदी पर बंधी नौकायें खोलीं और उन पर सवार हो नदी पार करने लगे। वे अभी बीच धार में थे कि अचानक न जाने कहां से लाल रंग की लोमड़ियां आकाश से प्रकट हुई और अन्ना की ओर झपटी। डर के मारे अन्ना नदी में कूद पड़ी, जहां सील मछलियों ने उसका काम तमाम कर दिया। नाव कुछ ही आगे बढ़ी होगी कि इवान पर भी लोमड़ियों ने वैसा ही आक्रमण किया। इवान का भी वैसा ही अन्त हुआ जैसा अन्ना का। अलबत्ता बूढ़े मल्लाह और बच्चों का इन अदृश्य आत्माओं ने कुछ नहीं बिगाड़ा। बच्चों को मल्लाह ने ही पाल-पोस कर बड़ा किया।
अनीति का प्रतिशोध :
जापान की जनश्रुतियों में सत्रहवीं सदी के महाप्रेत सोगोरो की कथा एक ऐतिहासिक तथ्य की तरह सम्मिलित हो गयी हैं और अनाचार बरतने वालों को अक्सर वह घटनाक्रम इसलिये सुनाया जाता रहता है कि अनीति से बाज आयें।
जापान उन दिनों सामन्ती जागीरों में बंटा हुआ था। राजधानी तो यदो नगरी थी, पर जागीरदार अपने-अपने छोटे ठिकानों से राज-काज चलाते थे। ऐसा ही एक टिकाना था शिमोसा प्रान्त का साकूरागढ़। इसका एक सामन्त था—कात्सुके। उसने प्रजा पर अत्यधिक कर लगाये और किसानों पर इतने जुल्म ढाये कि वे त्राहि-त्राहि कर उठे। अन्ततः 136 गांवों के किसानों ने मिलकर अपना दुःख जागीरदार तक पहुंचाने का निश्चय किया वे सोचते थे शायद छोटे कर्मचारी उन्हें सताते हैं। सामन्त को बात मालूम पड़ेगी तो वह उसकी पुकार सुनेगा। इस विचार से उनके प्रतिनिधि साकूरा चल पड़े। उनका जत्थेदार था 48 वर्षीय सोगोरो। उन लोगों ने लम्बी अर्जी लिखी और प्रयत्न किया कि उसे जागीरदार को दें। अधिकारियों ने उन्हें भेंट करने की इजाजत नहीं दी और अर्जी को पढ़कर वापिस लौटा दिया। इतने पर भी उनने हिम्मत नहीं छोड़ी और जब वह अपने घर में प्रवेश कर रहा था तो उसकी बग्घी रोककर अर्जी हाथ में थमा ही दी। वहां भी उसे रद्द कर दिया गया। अन्य किसानों को तो वापिस लौटा दिया गया पर सोगोरो एक सराय में ठहरा ही रहा और उसने जापान सम्राट तक किसानों की दुख गाथा पहुंचाने का निश्चय किया। संयोगवश सम्राट अपने पूर्वजों की समाधि पर पूजा करने के लिये वहां आने वाले थे। कृषक मुखिया ने अच्छा अवसर समझा और उस अर्जी की नकल सम्राट का भी रास्ता रोककर उनके हाथ में थमा दी।
परिणाम तो कुछ नहीं निकला पर सामन्त ने सोगोरो को गिरफ्तार करा लिया। उस पर शासकों के विरुद्ध घृष्टता बरतने और षड्यन्त्र करने का मुकदमा चलाया गया। दण्ड में न केवल उसे वरन् उसके सारे परिवार को कत्ल कर देने का आदेश सुनाया गया। जन-समूह की उपस्थिति में 48 वर्षीय सोगोरो, उसकी 38 वर्षीय पत्नी मिन, 13 वर्षीय पुत्र जेन्नोसूके, 1 वर्षीय पुत्र सोहैयी, 7 वर्षीय पुत्र किहावौ का सिर धड़ से उड़ा दिया गया। दर्शक कलेजा थाम कर इस कुकृत्य को देखते रह गये।
लाशें दफना दी गयीं पर वातावरण में न जाने कैसा भयंकर उभार आया कि सर्वत्र एक आग और घुटन अनुभव की जाने लगी। शासकों को एक विचित्र भयानकता ने घेर लिया तीसरे ही दिन सुधार घोषणायें हुईं। किसानों पर अत्याचार की जांच आरम्भ हुई और सकूरागढ़ के समस्त सलाहकार, चार जिलों के शासनाध्यक्ष, बाईस अफसर, सात न्यायाधीश, तीन लेखा परीक्षक बर्खास्त किये गये और किसानों पर से समस्त बढ़े हुए कर तथा लगे हुए प्रतिबन्ध उठा लिये गये।
ऐसा विचित्र परिवर्तन कैसे हुआ? सामंत यकायक कैसे बदल गया? यह सब आश्चर्य का विषय था पर जानने वाले कहते थे कि सोगोरो का प्रेत इस बुरी तरह राज्य परिवार के पीछे पड़ा है कि अब उन्हें किसी प्रकार अपनी खैर दिखाई नहीं पड़ती सामन्त कोत्सुके नोसूके और उसकी पत्नी सोते-जागते भयंकर प्रेत छाया को अपने चारों ओर अट्टहास करते हुए देखते और अनुभव करते कि उन्हें अब तो मृत्यु का ग्रास बनना ही पड़ेगा। नंगी तलवार का पहरा बिठाया गया, ओझा-तान्त्रिक बुलाये गये, पर किसी से कुछ रोकथाम न हुई। सामन्त की पत्नी बीमार पड़ी और चारपाई पर से उसकी लाश ही उठी। वह स्वयं विक्षिप्त-सा रहने लगा। एक अवसर पर राजधानी याहीशी में सभी सामन्त सम्राट को वार्षिक भेंट देने के लिये उपस्थित हुए थे। इनमें से साकेयी के साथ कोत्सुके की झड़प हो गयी उसने आव गिना न ताव झट तलवार चला दी और उसकी हत्या कर दी। इसके बाद वह जान बचाकर भागा और अपनी गढ़ी में जा छिपा। सम्राट ने पांच हजार सैनिक भेजकर उसकी गढ़ी पर कब्जा कर लिया और कबूतर पकड़ने जैसे जाल में बंधवाकर राजधानी बुलाया। जहां उसका सिर उसी तरह उड़ाया गया जैसा कि सोगोरो का उड़ाया गया था।
लार्ड क्लाइव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की जड़े स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अनगिनत व्यक्तियों को उसने इस प्रयोजन हेतु प्रताड़ित किया कई महिलायें उसके कारण विधवायें हुईं, कईयों को उसने बिना किसी अपराध के सूली पर लटका दिया। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटिश राज्य के रूप में परिणित हुई, ग्रेट ब्रिटेन की राजसत्ता ने उसे ससम्मान रिटायर कर इंग्लैण्ड की एक काउण्टी में एक रियासत दे दी। अपने साथ विपुल सम्पदा वह जहाज में लेकर आया था। आखिर सोने की चिड़िया कहे जाने वाले देश भारत पर आधिपत्य जमाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका जो निभाई थी। इंग्लैण्ड आने पर उसने देखा कि कोई रिश्तेदार उसके साथ रहने को तैयार नहीं, जबकि वह असीम सम्पदा का स्वामी था। अकेला वह अपनी रियासत के भव्य भवन में बैठा विगत जीवन पर विचार करता रहता था। ज्यों-ज्यों पिछले जीवन के क्षण फिल्म की तरह उसकी स्मृति पटल पर आने लगे, उसे लगने लगा कि वे सभी जिन्हें उसने सताया था, उसके आस-पास खड़े हैं एवं कभी भी उसे मार डालेंगे। वह अपनी रायफल लेकर बैठने लगा व उन छायाओं पर जो उसे दिखाई पड़ती थीं, गोली चलाता रहता। साथ ही उन्हें गाली भी देता, धमकाता रहता कि वह सबको गोली मार देगा। शंका डायन मनसा भूत की तरह वे गोलियां उन कल्पित भूतों पर तो लगती नहीं थीं, खिड़की से बाहर जाकर महल के चारों ओर घूमने वाली एक सड़क पर जाने वाले वाहनों से टकराती थीं। वहां एक बोर्ड लगा दिया गया कि इस सड़क पर सावधानी से गाड़ी चलायें, कभी भी गोली आपके विंडस्क्रीन से टकरा सकती है। प्रयास क्लाइव के पास पहुंचकर समझाने के भी हुए, पर हिम्मत किसी की न हुई। एक दिन एक व्यक्ति ने समीप पहुंचकर देखने की कोशिश की तो पाया कि लार्ड क्लाइव तो कभी का अपनी ही रायफल से घोड़ा दबाकर आत्म-हत्या कर चुका है। उसकी लाश व रायफल वहीं पड़ी थी। उसे दफना दिया गया, पर गोलियां चलने का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। लोग उसे भुतहा महल मानने लगे। वह बोर्ड अभी भी वहां टंगा है। गोलियां अभी भी तीर की तरह सनसनाती आती हैं व कारों से टकराती हैं। उस रोड पर तकरीबन यातायात बन्द है। लोगों का कहना है कि लार्ड क्लाइव का भूत ही गोलियां चलाता है और उसकी विक्षुब्ध आत्मा वहीं मंडरा रही है। यह एक ऐसे व्यक्ति की अन्तिम परिणति है जिसने ग्रेट ब्रिटेन के उपनिवेश विस्तार में महत्वपूर्ण रोल अदा किया एवं अनगिनत मासूमों की आहें उसे लगीं। ईश्वरीय न्याय व्यवस्था किसी को भी नहीं छोड़ती, न किसी के साथ पक्षपात ही करती है। जो जैसा करता है अदृश्य जगत से उसकी वैसी ही प्रतिक्रिया होती है।
अन्याय की प्रतिरोध अदृश्य शक्तियां :
अमेरिका के ऐरिजेना प्रान्त में कुछ खाई-खड्डों से भरे सघन वन प्रदेश ऐसे हैं जो न केवल अगम्य एवं डरावने हैं वरन् उनमें रहस्य भरी विशेषतायें भी पायी जाती हैं। यह रहस्य अलौकिकवादियों और वैधानिक शोधकर्त्ताओं के लिये एक पहेली बने हुए हैं।
कहा जाता है कि उस प्रदेश में या तो आसमान से सोने के धुलि कण बरसते हैं या फिर पहाड़ उसे लावे की तरह उगलते हैं। जो भी हो उस क्षेत्र की पहाड़ियों को सोने के पर्वतों का नाम दिया जाता है और अनेकों उस सम्पदा को सहज ही प्राप्त कर लेने के लालच में उधर जाते भी रहते हैं।
सम्पत्ति का लोभ जितना आकर्षक है उतना ही वहां के प्रहरी प्रेत-पिशाचों के आतंक का भय भी बना रहता है। इस उपलब्धि के लिये अब तक सहस्रों दुस्साहसी उधर गये हैं। इनमें से अधिकांश को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है। जो किसी प्रकार जीवित लौट आये हैं उनने सोने के अस्तित्व का तो आंखों देखा विवरण सुनाया है, पर साथ ही यह भी कहा कि वहां अदृश्य आत्माओं का आतंक असाधारण है। वे सोना बटोरने के लालच से जाने वालों का बेतरह पीछा करती हैं और यदि भाग खड़ा न हुआ जाय तो जान लेकर ही छोड़ती हैं।
भूमिगत विशेषताओं का अन्वेषण करने जो लोग पहुंचे हैं उन्होंने इस क्षेत्र को साइवेरिया की ही तरह रेडियो किरणों से प्रभावित पाया है। रूसी वैज्ञानिक साइवेरिया के कई क्षेत्रों को किसी अज्ञात विकरण से प्रभावित मानते हैं और कहते हैं कि कभी अन्तरिक्ष या धरती से यहां अणु विस्फोट जैसी घटना घटी है। ऐसा किसी उल्कापात से भी हो सकता है। अमेरिकी लोग भी इस क्षेत्र की तुलना लगभग उसी रूसी प्रदेश से ही करते हैं यहां एक 600 फुट गहरा और एक मील लम्बा खड्ड है। समझा जाता है कि यह किसी उल्कापात का परिणाम है। उस क्षेत्र में से किसी उद्देश्य से जाने वाले व्यक्तियों पर संभवतः विद्यमान रेडियो विकरण ही आतंकित करने जैसा प्रभाव उत्पन्न करता होगा और उस अप्रत्याशित प्रभाव को भूत-पलीतों का आक्रमण मान लिया जाता होगा।
रहस्यवादियों का मत है कि यूरोपियनों के इस क्षेत्र पर कब्जा करने से पहले आदिवासी लोग रहते थे। इनमें से अपैंची कबीला मुख्य था। उसके साथ गोरों की झड़पें होती रहीं और इन मार्ग के कंटकों को हटाने के लिये अधिकर्त्ताओं द्वारा क्रूरतापूर्ण नर-संहार किये जाते रहे। उन मृतकों की आत्मायें ही प्रतिशोध से भरी रहती हैं और जो उधर से गुजरता है उस पर टूट पड़ती हैं।
कारण क्या है, यह तो अभी ठीक तरह नहीं समझा जा सका, किन्तु सोना बरसने और आतंक छाये रहने की बात सच है। गाथा और किम्वदन्तियां तो बहुत दिनों से प्रचलित थीं। वहां जाने और कुछ कमा कर लाने की बात बहुतों ने सोची, पर साहस सबसे पहले पाइलीन वीवर ने किया। वह अपने कुछ साथियों के साथ आवश्यक सामान लेकर गया और उस क्षेत्र में डेरा लगाया। दूसरे साथी तो सो गये, पर वीवर को नींद नहीं आई। वह अकेला उठा और कौतूहल में दूर तक चला गया। उस जगह सोने के टुकड़े पाये। ध्यान से देखा तो वे शत-प्रतिशत सोने के थे। उसने बहुत से टुकड़े जमा कर लिये और जितना वजन उठ सकता था उतना साथ लेकर वापिस लौटा। लौटते ही उसकी खुशी आतंक में बदल गयी। डेरा जला हुआ पड़ा था और वहां सामान्यतया लोगों की राख भर बनी हुई थी। आंख उठाकर पर्वत की चोटी को देखा तो वहां से गिद्धों के झुण्ड की तरह भयानक छायायें उसकी ओर बढ़ती आ रही दिखाई पड़ीं। डर के मारे वह बेहोश हो गया। बहुत समय बाद जब होश आया तो किसी प्रकार भाग चलने का उपाय निकाला और जैसे-तैसे घर वापिस आ गया।
इस घटना की चर्चा तो बहुत हुई, पर दुबारा उधर जाने का साहस किसी में भी नहीं हुआ। इसके 16 वर्ष बाद मैक्सिको का एक दुस्साहसी पैरलटा एक मजबूत और साधन सम्पन्न जत्था लेकर उधर गया। उस दल के प्रायः सभी व्यक्ति उसी प्रयास में मर गये केवल एक ही उनमें से जीवित लौटा। उसने सोने की उपस्थिति और मंडराने वाली विपत्ति के जो विवरण सुनाये, उनसे कौतूहल तो बहुत बढ़ा, पर नये जत्थों ने उधर जाने का साहस उत्पन्न नहीं किया।
छुटपुट रूप में अनेकों व्यक्ति एकाकी अथवा टुकड़ियां बनाकर उधर जाते रहे, किन्तु किसी को जान गंवाने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगा। इसके बाद अमेरिका का ख्याति नामा डाक्टर नवरेन कोमली का अभियान था। वे बहुत तैयारी तथा चर्चा के साथ गये थे। साधनों और जानकारियों की जितनी आवश्यकता थी वह उनने जुटा ली थीं। साथी बीच में से ही लौट आये और मायाविनी छायाओं के आतंक के भयानक विवरण सुनाते रहे। लबरेन ने खोज को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। वे अकेले ही बढ़ते गये। किन्तु सोने के स्थान पर भयानक पागलपन लेकर वापिस लौटे। कुछ दिन भयानक विक्षिप्तता का शिकार रहकर वे भी मौत के मुंह में चले गये।
होनोलूलू के व्यवसायियों का एक जत्था स्वर्ण सम्पदा को प्राप्त करने के उद्देश्य से उधर गया और आस्ट्रेलिया के युवक फैज ने रहस्यों पर से पर्दा उठाने की ठानी। जर्मनी के इंजीनियरों का एक दल वालेज के नेतृत्व में बड़े दमखम के साथ उधर पहुंचा। वालेज अपने पूर्ववर्ती शोधकर्त्ताओं में अधिक चतुर था। उसने उस क्षेत्र की एक आदिवासी युवती को ललचाकर उसके साथ विवाह कर लिया और उसकी सहायता से स्वर्ग भण्डार के स्थान तथा छायाओं के भेद जानने का प्रयत्न करने लगा। छायाओं को यह पता लग गया। उनने युवती का अपहरण कर लिया और वालेज की जीभ काट ली। इसी कष्ट में उसकी मृत्यु हो गयी।
उसकी डायरी किसी प्रकार उसके साथियों को मिल गयी। उसके विवरणों से पता चलता है कि उसने स्वर्ण स्रोतों का पता लगा लिया था। भूमिगत कई रहस्यमय स्थान देखे, ढूंढ़े और प्रेतात्माओं को चकमा देकर बच निकलने को सुरंगें भी बनायीं। इतना सब उसकी आदिवासी पत्नी की सहायता से ही सम्भव हो सका, किन्तु दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और अपनी जान गंवा बैठा। यह प्रयत्न सन् 1891 का है इसके बाद अन्तिम प्रयत्न सन् 1959 में हुए। स्टेनलोफनेंल्ड और फरेश नामक दो व्यक्तियों ने संयुक्त प्रयत्न नये सिरे से सोना पाने के लिये किये। उसमें पूर्ववर्ती कठिनाइयों और सफलताओं को पूरी तरह से ध्यान में रखा गया। इस बार की तैयारी अधिक थी। प्रयत्न भी बड़े पैमाने पर और अधिक दिन चले, पर उसका निष्कर्ष इतना ही निकला कि फरेश प्राणों से हाथ धो बैठा और फर्नेल्ड किसी प्रकार जान बचाकर वापिस लौट आया। पल्ले कुछ नहीं पड़ा।
इस स्वर्ण अभियान में जितनों की लाशें मिल सकीं उनके देखने से एक ही निष्कर्ष निकला कि वे सभी मौतें शरीर से खून चूस लिये जाने के कारण ही हुईं। इनमें से किसी की भी देह में कहीं छेद नहीं पाये गये और न कहीं कपड़ों पर या जमीन पर खून बिखरा हुआ ही पाया गया फिर रक्त चूसने की क्रिया किस प्रकार की गई यह भी उतना ही रहस्यमय बना हुआ है जितना पहले कभी था।
उक्त घटनायें स्पष्ट करती हैं कि सूक्ष्म जगत में ऐसे किन्हीं अदृश्य प्रहरियों की चौकीदारी भी विद्यमान है, जो न्याय का समर्थन और लूट-खसोट का प्रतिरोध करने के लिये अपनी जागरूकता का परिचय देते रहते हैं। सम्भवतः उस क्षेत्र की सम्पदा की रखवाली वे ही करते हों। यह भी अनुमान लगाने की गुंजाइश है कि जिनके स्वत्वों का अपहरण किया गया, जिन्हें निर्दयतापूर्वक मारा गया उनकी आत्मायें प्रतिशोध की भावनायें भरे हुए उस इलाके में निवास करती हों और उनकी रोकथाम से मुफ्त का धन पाने वालों को असफल रहना पड़ता हो। आत्माओं द्वारा न्याय के संरक्षण और अनौचित्य का प्रतिरोध एक तथ्य है। साथ ही प्रकृति व्यवस्था में स्थानीय भूमि पुत्रों के लाभान्वित होने की जो नीति मर्यादा है उसका उल्लंघन ऐसे कारण उत्पन्न कर सकता है जैसे कि अमेरिका में स्वर्ण उपलब्ध करने वालों को भुगतने पड़े हैं।