दैवी शक्ति के अनुदान और वरदान

दैवी सत्ता के पार्षद-अग्रदूत

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भगवान निराकार होने से वे कार्य नहीं कर पाते, जिनमें ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय की आवश्यकता होती है, ऐसे कार्य वे अपने पार्षदों से कराते हैं। ‘‘पार्षद’’ का अर्थ है—‘‘निकटवर्ती’’। जो ईश्वर की दिव्य विभूतियों को जितनी अधिक मात्रा में अपने भीतर धारण कर पाते हैं वे उसी मात्रा में भगवान के निकटवर्ती या कृपा पात्र माने जाते हैं। उन्हें संसार का संतुलन बनाये रखने वाले कार्य करने का निर्देशन दिया जाता है और वे उसे पूरा कर भी दिखाते हैं। इस पराक्रम में देवी शक्ति उनका साथ भी देती है। प्रतीत ऐसा होता है कि यह व्यक्ति विशेष की क्षमता का चमत्कार है। सांसारिक प्रयोजनों में तो व्यक्ति की प्रतिभा ही काम करती है, पर उत्कृष्टतावादी, आदर्शवादी प्रयोजनों में सामान्य व्यक्ति अपनी लोलुप वृत्ति के कारण न तो रस ले पाते हैं और न उसमें मन ही लगता है। फिर जोखिम उठाने की बात तो बने ही कैसे? जो असंख्यों के लिये अनुकरणीय, अभिनन्दनीय कार्य करते हैं, उन्हें उतना कुछ सांसारिक जीवन या परिकर नहीं करने देता, उनमें विघ्न ही उपस्थित करता है। ऋषिकल्प आत्मा ही महापुरुषों की भूमिका निभाती हैं और वे ही इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम पदचिह्न छोड़ जाती हैं।

भारतभूमि हमेशा से युग परिवर्तन की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आयी है। समय-समय पर पूर्वानुमानों एवं दिव्य दृष्टि के आधार पर अपना मत व्यक्त करने वाले देश-विदेश के मनीषियों ने कहा है कि जब-जब भी दैवी विपत्तियां बढ़ी हैं एवं मानव आसुरी आचरण में प्रवृत्ति हुआ है, इस देवभूमि से उद्भूत दिव्यात्माओं ने ही युग परिवर्तन की महती भूमिका निभाई है। स्वतंत्रता संग्राम में जितना श्रेय प्रत्यक्ष क्रियाशील क्रान्तिकारियों एवं स्वाधीनता सैनिकों को दिया जाता है, उससे अधिक इन दिव्य दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों ने उन महापुरुषों को दिया है, जिन्होंने वातावरण बनाने हेतु तप-साधना की, परोक्ष में क्रियाशील रहे एवं युग परिवर्तन की प्रचण्ड आंधियां ला सकने में समर्थ हुए। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द से लेकर रामतीर्थ, योगीराज अरविन्द, महर्षि रमन आदि का नाम इसी संदर्भ में लिया जाता है जिनका नाम इस सूची में नहीं है, वे सदा से उत्तराखण्ड की कन्दराओं में तप साधना में निरत हैं एवं उस सारे लीला संदोह को देख रहे हैं जो प्रत्यक्ष में दृश्यमान है, परोक्ष में घटने वाला है।

मनुष्य की शक्ति सीमित है। उसका शरीरबल एवं बुद्धिबल नगण्य है। साधन और सहयोग भी एक सीमा तक ही वह अर्जित कर सकता है। आकांक्षाओं और संकल्पों की पूर्ति बहुत करके परिस्थितियों पर निर्भर हैं। यदि प्रतिकूलताओं का प्रवाह चल पड़े तो बनते काम बिगड़ सकते हैं। इसके विपरीत ऐसा भी हो सकता है कि राई को पर्वत होने का अवसर मिले। ‘‘मूक हेहिं वाचाल, पंगु चढ़हिं गिरिवर गहन’’ वाली रामायण की उक्ति प्रत्यक्ष प्रकट होने लगे और दर्शकों को आश्चर्यचकित कर दे।

जिनने कठपुतली का काम देखा है वे जानते हैं कि बाजीगर पर्दे की पीछे बैठा हुआ अपनी उंगलियों के साथ बंधे हुए तारों को इधर-उधर हिलाता रहता है और मंच पर एक आकर्षक अभिनय लकड़ी के टुकड़ों द्वारा सम्पन्न होने लगता है। हवा के झोंके तिनके एवं धूलि कणों को आकाश में उड़ा ले जाते हैं पानी के प्रवाह में पड़कर झंखाड़ और कचरे के गट्ठर नदी-नालों को पार करते हुए समुद्र तक की लम्बी यात्रा कर लेते हैं। पिछले दिनों यही हुआ है। ईश्वरीय इच्छा व्यवस्था को कार्यान्वित करने में कितनी ही देवात्माओं-दिव्य विभूतियों को कार्य क्षेत्र में उतरना पड़ा है।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेकों उच्चस्तरीय आत्माओं की विशिष्ट तपश्चर्यायें इसीलिये चलीं। राजनेताओं द्वारा संचालित आन्दोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा इसका स्थूल दृष्टि से अनुमान न लग सकेगा किन्तु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं। अदृश्य वातावरण में उपयोगी प्रवाह उत्पन्न करने के लिये पिछले दिनों योगीराज अरविन्द ने भी बड़ी असाधारण भूमिका निबाही। उनके कार्यकाल में भारत ने इतने अधिक महामानव उत्पन्न किये जितनी तुलना इतिहास के किसी भी काल में नहीं देखी गई। स्वराज्य मिलने का यों प्रत्यक्ष श्रेय नेताओं और स्वाधीनता सैनिकों को जाता है, फिर भी सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि इस संदर्भ में घटित हुआ घटनाक्रम असाधारण एवं आश्चर्यजनक था। मात्र प्रयासों का प्रतिफल ही वह नहीं था वरन् अदृश्य जगत में भी कठपुतलियों को हिलाने और नाट्य को आकर्षक बनाने में वे बहुत कुछ करते रहे। उपरोक्त तपस्वियों ने माहौल इतना गरम किया कि ग्रीष्म ऋतु में उठने वाले चक्रवातों की तरह चकित करने वाली उथल-पुथल का दृश्य दीखने लगा।

कुछ ही दशाब्दियों में न केवल भारत का वरन् समूचे एशिया का कायाकल्प हो गया। इतने बड़े परिवर्तन की सहज आशा न थी। गांधी काल अद्भुत था। दो हजार वर्षों की पराधीनता भोगते-भोगते मनुष्य का रोम-रोम गुलाम हो गया था। अंग्रेजों के सात समुद्र पार तक फैले शासन का आतंक ऐसा था जिसमें किसी के हाथ-पांव चलना तो दूर मुंह तक नहीं खुलता था, पर वातावरण ऐसा बदला कि गांधी की आंधी पत्तों व धूलि कणों को उड़ाकर आसमान तक ले गयी और परिस्थितियां इतनी बदलीं कि अंग्रेजों को पैर जमाये रहना मुश्किल हो गया। उनने सलाह मशविरा करके सत्ता हस्तांतरित कर दी।

रावण का आतंक पूरी तरह छाया हुआ था। सीता को वापस लाने के युद्ध में एक भी राजा सहयोगी न बना। सबको अपनी-अपनी जान प्यारी थी। उस जमाने में रामराज्य की स्थापना का माहौल बना। न केवल सोने की लंका वाला दसशीश, बीस भुजा वाला रावण मरा उसके साथ एक लाख पूत सवा लाख नाती वाला कुटुम्ब भी सफाचट हो गया। उन दिनों कोई आशा नहीं करता था कि 14 वर्ष के वनवास काल में इतनी बड़ी उथल-पुथल संभव हो जायगी।

यह वातावरण की बात हुई। व्यक्तियों के पुरुषार्थ का प्रसंग भी देखने योग्य है। तांत्रिक अनाचार के विरुद्ध जहां किसी की भी जीभ नहीं खुलती थी, वहां देखते-देखते लाखों चीवरधारी भिक्षु-भिक्षुणी मैदान में कूद पड़े और एशिया समेत विश्व में धर्म चक्र प्रवर्तन की असम्भव प्रक्रिया को संभव कर दिखाने लगे। यह आंधी-तूफान का काम था। उपदेश सुनाने भर से इतने लोग किस प्रकार इतना बदल जाते और जो कार्य जीवन भर में कभी सुना-सीखा तक नहीं था उसे कैसे कर दिखाते। सत्याग्रहियों की सेना में लाखों निहत्थे लोग जेल जाने, घर बर्बाद करने, फांसी पर चढ़ने के लिये तैयार हो गये। इन्हें कहीं फौजी ट्रेनिंग नहीं मिली थी। जिन्हें वर्षों खर्चीली ट्रेनिंग मिलती है, उनमें से भी बहुतेरे पीठ दिखाकर भागते देखे गये हैं, पर गांधी के सत्याग्रही न जाने कहां से रातों-रात ढलकर आ गये और ऐसा कमाल दिखाते रहे, जिससे सारी दुनिया दांतों तले उंगली दबाये रह गयी। यह व्यक्ति निर्माण है। गोवर्धन पर्वत उठाने वाले इतने वजन के नीचे दबकर मर सकते थे, पर हिम्मत का कमाल देखा जाय कि गोवर्धन उठाना था तो उठा कर ही दम लिया। लंका युद्ध तो छिड़ गया, पर सैनिक कहां से आयें। दैत्य कुम्भकरण के मुंह का चारा बनने की हिम्मत किस समझदार में उत्पन्न हो। रीछ-वानर रातों-रात दौड़ते चले आये और निहत्थी स्थिति में अस्त्र-शस्त्रों वाले राक्षसों से भिड़ गये। रीछों ने इंजीनियरों की शानदार भूमिका निभा कर रख दी। इसे कहते हैं—दैवी चमत्कार।

इस प्रक्रिया में पराक्रम और साधनों का अगला चरण है। अंगुलिमाल जैसे दुर्दांत दस्यु ने उस दिन बुद्ध का सिर उतार लेने की योजना बनायी थी। निहत्थे साधु के सामने पहुंचा तो शक्तिहीन हो गया। थर-थर कांपने लगा और शत्रुता छोड़कर मित्रता के बंधन में बंध गया। साधनों की बारी आयी तो झोली पसार कर ही काम चल गया। अम्बपाली का तीस लाख का खजाना एक ही दिन में मिला और ढेरों संघाराम वाला विहार बनकर तैयार हो गया। काम बढ़ा तो बड़े साधनों की आवश्यकता पड़ी। नालंदा विश्वविद्यालय के संचालन का काम अशोक ने और तक्षशिला का उत्तरदायित्व हर्षवर्धन ने अपने कंधे पर उठा लिया। चीन के समूचे क्षेत्र में अवरोधों का ढांचा सहयोगियों में बदल गया। गांधी का युद्ध, राणा प्रताप के युद्ध से बड़ा था। तब एक भामाशाह निकलकर आये थे। अब जमुनालाल बजाजों की भीड़ लग गयी। पराक्रमियों में क्रान्तिकारियों की गदर पार्टियां देश-विदेश में तहलका मचाने लगीं। सुभाषचन्द्र बोस, भगतसिंह और चन्द्रशेखरों की कमी न रही। धन के बिना, साधनों के बिना वह काम रुका कहां? विनोबा जैसे अकिंचन पचास लाख एकड़ जमीन मांग लाये। गांधी स्मारक निधि पर एक करोड़ और कस्तूरबा निधि पर साठ लाख रुपया बरस पड़ा। खादी उद्योग सर्वोदय जैसी गांधी द्वारा आरम्भ की गयी अतिरिक्त प्रवृत्तियों में अरबों रुपया लग गया। यदि समूचे स्वतंत्रता संग्राम का कोई अनुमान लगाये तो प्रतीत होगा कि उसमें न साधन कम लगे और न पराक्रम में न्यूनता पड़ी। राम इधर से नंगे पैरों वनवास गये थे, उधर से पुष्पक विमान में बैठकर वापस आये। कृष्ण वन में गौयें चराते थे, पर पीछे उनके साथी द्वारिकापुरी वासी और वे स्वयं द्वारिकाधीश कहलाये। पराक्रम तो उन्हें भी बचपन से ही करना पड़ा।

यह इतिहास की दिव्य चेतना द्वारा संचालित कुछेक प्रतिभाओं की चर्चा है, जिनने वातावरण बदला, सुयोग्य सहकर्मियों की मण्डलियां जुटायी और पराक्रम तथा साधनों की आवश्यकता पड़ी तो दौड़ती चली आयीं। जमाने की प्रतिकूलता एक ओर दिव्य प्रवाह और एक व्यक्ति का पौरुष एक ओर। घनघोर अंधेरे में प्रकाश उत्पन्न करने वालों को अध्यात्मवादी कहा जा सकता है। जिनने अपनी अथवा दूसरों की आत्म शक्ति के सहारे समूचे समय को बदल डालने जैसे चमत्कार दिखाये, उनके संबंध में कहा जा सकता है कि उनमें आत्म शक्ति थी और उनने भगवत्प्रेरणा के सहारे ऐसे काम कर दिखाये जो परमात्म शक्ति की गरिमा बताते और असंतुलन को संतुलन में बदलने की उसकी वचन बद्धता को याद दिलाते हैं।

ऐसे-ऐसे असंख्यों उदाहरणों का इतिहास पुराणों में वर्णन है। दैवी अनुकम्पा अन्धविश्वास नहीं है। दैवी प्रकोपों का कुचक्र जब मानवी प्रगति प्रयत्नों को मटियामेट कर सकता है तो दैवी अनुग्रह से अनुकूलता क्यों उत्पन्न न होगी? बाढ़, भूकम्प, महामारी, अतिवृष्टि, इतिभीति आदि विनाशकारी घटनाक्रम दैवी प्रकोप से ही उत्पन्न होते हैं। उसी क्षेत्र की अनुकम्पा से समृद्धि, प्रगति और शान्ति के द्वार भी खुल सकते हैं।

दैवी प्रकोप या अनुग्रह अकारण ही नहीं बरसते। सृष्टि की सुव्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न करने पर सुयोग संजोने में व्यक्ति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कुकृत्य ही अदृश्य वातावरण को दूषित करते और प्रकृति प्रकोपों को टूट पड़ने के लिये आमन्त्रित करते हैं। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित तथ्य है कि ऋषि स्तर के व्यक्ति जब उच्च प्रयोजनों के निमित्त तपश्चर्या करते और वातावरण में उपयोगी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं तौ दैवी अनुकम्पा का भी सुयोग बनता है। देवता न किसी पर कुपित होते हैं न दयालु। स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए वे तदनुरूप दण्ड-पुरस्कार का तालमेल बिठाते रहते हैं। जिस प्रकार दुरात्माओं का बाहुल्य संसार में विपत्ति बरसाने का सरंजाम जुटाता है उसी प्रकार देव मानवों की तपश्चर्या प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र के सुयोग जुटाती है। सन्त अपनी सेवा-साधना में जहां धर्म धारणा और पुण्य प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं उनकी विशिष्ट साधनाओं से अदृश्य जगत का परिशोधन भी होता है। यही कारण है कि अध्यात्म वेत्ता लोक साधना और अध्यात्म साधना को समान महत्व देते हैं। दोनों के लिये समान प्रयत्न करते हैं।

दैवी चेतना के अग्रदूत : महामानव

सन्त कबीर का जन्म पिछड़े लोगों को ऊंचा उठाने और साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने, पाखण्डों का खण्डन करने के निमित्त हुआ। यह कार्य वे जीवन काल में एवं तदुपरान्त सूक्ष्म शरीर से भी करते रहे। अपने प्रचण्ड आत्मबल के दबाव में असंख्यों के विचार बदले। साथ ही जो बलिष्ठ आत्मायें सम्पर्क में आयीं, उन्हें अपने वर्चस्व से अधिक ऊंचा उछालते रहे। सुदूर क्षेत्रों में धर्म प्रचार की तीर्थयात्रा भी करते रहे।

कट्टर मुसलमानों को यह बुरा लगा कि मुस्लिम जुलाहे का लड़का हिन्दू धर्म के अनुरूप प्रचार करे। उनकी सल्तनत होने के कारण यह उन्हें राजद्रोह जैसा कार्य लगा। जब रोकथाम अपने स्तर पर कारगर न हुई तो उन दिनों के बादशाह सिकन्दर लोदी के कान भरे। कबीर को मृत्यु दण्ड सुनाया गया। लोहे की हथकड़ी बेड़ी से कसकर गंगा के गहरे भाग में डुबो देने का आदेश हुआ। कबीर अपनी कार्य पद्धति बदलने को राजी न हुए, डूबने को तैयार हो गये।

कबीर डूबे पर मरे नहीं। चमत्कार यह हुआ कि अन्दर जाते ही उनकी जंजीरें स्वतः टूट गयीं और वे बहते-बहते किनारे जा लगे। इस प्रकार जीवित निकलने के बाद कबीर ने एक पद गाया—

गंगा माता गहरि गंभीर, पटके कबीर बांधे जंजीर ।

लहरनि तोड़ीं सब जंजीर, बैठि किनारे हंसे कबीर ।।

बादशाह ने यह चमत्कार सुना तो वह चकित रह गया। क्षमा मांगी और अपना सर्व धर्म प्रचार करने की छूट दे दी।

मरने के बाद कबीर की आत्मा चैतन्य महाप्रभु, जगद् बन्धु, एकनाथ, सन्त दादू जैसे लोगों के घनिष्ठ सम्पर्क में रही। इन लोगों ने भारत में फैले जातिगत ऊंच-नीच के कलंक को धोने के प्रयत्न किये। इनके अतिरिक्त उस मध्यान्तर काल में अनेकों समाज सुधारक, भक्तजन ऐसे जन्मे जिनने अन्धकार युग के अंधविश्वास को दूर करने में असाधारण प्रयत्न किये और वातावरण बदला। इन कार्यों के पीछे कबीर की शाश्वत आत्मा की सूक्ष्म प्रेरणा का परोक्ष विशिष्ट सहयोग था।

दृश्य एवं अदृश्य जगत के मध्य सम्पर्क एवं आदान-प्रदान के ऐसे कई प्रसंग कई विख्यात विभूतियों से जुड़े हुए हैं जिनसे उनके विवादास्पद होने की गुंजाइश रह ही नहीं जाती। इन सभी से यह स्पष्ट होता है कि इन व्यक्तियों ने देव स्तर की आत्माओं का सहयोग प्राप्त कर उनसे लाभ उठाया।

महर्षि अरविन्द के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि वे जब अलीपुर जेल में थे तब दो सप्ताह तक लगातार विवेकानन्द की आत्मा ने उनसे सम्पर्क किया था। स्वयं अरविन्द ने लिखा है ‘‘जेल में मुझे दो सप्ताह तक कई बार विवेकानन्द की आत्मा उद्घोषित करती रही और मुझे उनकी उपस्थिति का भान होता रहा। उन उद्बोधन से मुझे आध्यात्मिक अनुभूति हुई। भावी साधनाक्रम के संबंध हेतु महत्वपूर्ण निर्देश भी मिले।’’

सन् 1909 में जब अरविन्द प्रेतात्माओं के सम्पर्क का अभ्यास किया करते थे, इसमें एक दिन रामकृष्ण परमहंस की आत्मा ने भी अरविन्द को समष्टि की साधना हेतु कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिये थे। अरविन्द जिन दिनों बड़ौदा में रह रहे थे उन दिनों का एक अनुभव बताते हुए उन्होंने लिखा है कि एक बार जब वे कैम्प रोड शहर की ओर जा रहे थे तब एक दुर्घटना से किसी ज्योति पुरुष ने उन्हें बचाया।

श्री अरविन्द के जीवन चरित्र के श्री मां प्रकरण में इस प्रकार की घटनाओं का विवरण देते हुए लिखा गया है, वे ‘‘(श्रीमाँ) जब छोटी सी बालिका थीं, तब उन्हें बराबर भान होता रहता था कि उनके पीछे कोई अति मानवी शक्ति है जो जब तक उनके शरीर में प्रवेश कर जाती है और तब वे अलौकिक कार्य किया करतीं।’’ इस प्रकरण में उस दिव्य शक्ति द्वारा श्रीमाँ के कई काम सम्पन्न करने की अनेक घटनायें वर्णित हैं। पाण्डिचेरी आकर रहने व अरविन्द से सम्पर्क करने का निर्देश भी उन्हें एक अदृश्य ज्योति सत्ता से ही मिला था।

देवात्माओं को ईश्वर का सन्देशवाहक कहा जाता है। मनुष्य के बाद की श्रेणी देव योनि में ही पहुंचने की है। चौरासी लाख योनियां तो शरीरधारियों की हैं। वे स्थूल जगत में रहती हैं और आंखों से देखी जा सकती हैं। लेकिन दिव्य आत्माओं का शरीर दिव्य होने के कारण उन्हें चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। देवताओं की तीन श्रेणियां गिनी गयी हैं। (1) कामदेव (2) रूप देव (3) अरूप देव। देवताओं के मार्ग दर्शक एवं पृथ्वी तत्व पर नियंत्रण रखने वाले चतुर राजाओं यानी देव राजसों का उल्लेख विश्व के विभिन्न धर्मग्रन्थों में प्रायः होता आया है। ब्लैवट्स्की की सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय पुस्तक ‘‘सीक्रेट डौक्ट्राइन्स’’ में इन देव राजसों की संख्या सात अंकित की गयी है। हिन्दू धर्म में सप्त ऋषियों की भूमिका इसी को पूरा करने की रही है। देवात्मायें लोकसेवा, पुण्य-परमार्थ और नेतृत्व उत्तरदायित्व संभालती हैं। उनसे परिचालित मनुष्य मन्त्र मोहित की तरह उस अभिनव प्रयोजन में इस प्रकार जुटे रहते हैं मानो वह उसकी निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न हो। उनके द्वारा प्रस्तुत आदर्श और पौरुष उस दिव्य अनुदान की ही फलश्रुति होती है।

चन्द्रगुप्त, चाणक्य, शिवाजी समर्थ आदि के भी प्रसंग ऐसे ही हैं जिनमें इस तरह का कर्तृत्व प्रकट हुआ जैसा कि कर्त्ताओं का न पौरुष था, न मन और न अभ्यास। अनुदान भी कई बार निजी उपार्जन जैसा ही काम करते हैं। भामाशाह का दिया हुआ धन राणाप्रताप के डगमगाते हुए हौसले को बुलंद करने में सहायक सिद्ध हुआ। अध्यात्म क्षेत्र में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिनमें समर्थ शक्तियों ने सत्पात्रों को कहीं से कहीं पहुंचा दिया।

अनगढ़ युवक नरेन्द्र को स्वामी विवेकानन्द की वह भूमिका निभानी पड़ी जिसके न वे इच्छुक थे और न योग्य। किन्तु रामकृष्ण का अनुग्रह उन्हें इस योग्य बना सका, जिसके कारण उन्हें भारतीय संस्कृति का युगदूत कहा जाता है। उन्होंने लाखों करोड़ों के अन्तरंग में अश्रद्धा के स्थान पर श्रद्धा का बीजारोपण कर दिया।

विवेकानन्द ने अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘‘जब मैं बोलने खड़ा होता था तो आरम्भ में चिन्ता रहती थी कि क्या कुछ कह सकूंगा। ज्यों ही बोलना आरंभ करता तो प्रतीत होता कि मस्तिष्क पर किसी दिव्य लोक से ज्ञान वर्षण हो रहा है। वाणी जो बोलती थी, वह भी ऐसा होता था मानो जीभ किसी की है और वाणी किसी की।’’

रामकृष्ण परमहंस के न रहने पर उनकी धर्मपत्नी शारदामणि की भी क्षमता एवं प्रकृति ऐसी हो गयी थी जिससे भक्तजनों को उनकी अनुपस्थिति अखरी नहीं।

परमहंस ने स्थूल शरीर से कम और सूक्ष्म शरीर से अधिक काम किया। उनने बंगाल की अनेक प्रतिभाओं को चमकाया और उनसे बड़े महत्व के काम कराये। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के माध्यम से विधवा विवाह के प्रचलन तथा सती प्रथा बन्द कराने का, विधवाओं को नया जीवन देने का कार्य कराया।

केशवचन्द्र का ब्रह्म समाज भी उन्हीं के परोक्ष सहयोग से फूला-फला। उसके अन्तर्गत आत्म–कल्याण और समाज सुधार की अनेक प्रक्रियायें सम्पन्न होती रहीं।

गुजरात वीरपुर के जलाराम वापा से उनका सूक्ष्म सम्बन्ध था। उन्हें भी उन्होंने उच्चकोटि का सन्त बनाया। पति-पत्नी मिलकर वे भी वही कार्य करते थे जो परमहंस जी ने किया। वापा की परीक्षा लेने भगवान स्वयं उनके घर आये थे और अक्षय अन्न भण्डार की झोली उन्हें उपहार में दे गये थे। जिस माध्यम से जलाराम के सामने से भी अधिक बढ़ा-चढ़ा अन्न क्षेत्र वीरपुर आश्रम में चलता रहता है।

परमहंस जी अपने अन्तरंग सहचरों को बताया करते थे कि इस समय सच्ची भक्ति भावना को फलती-फूलती देखने के लिये गुजरात की भूमि सबसे अधिक उर्वर दृष्टिगोचर होती है। अब हमें उस क्षेत्र को नन्दन वन बनाने और देव मानव उगाने के लिये सर्वतोभावेन जुटना चाहिये। परमहंस अपने जीवनकाल में तथा उसके उपरान्त उस क्षेत्र पर अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे और उच्च आत्माओं को उस क्षेत्र में अवतरित करने का परिपूर्ण प्रयत्न करते रहे, जिसके फलस्वरूप कई यथार्थवादी सन्तों का वहां अवतरण हुआ।

इस प्रकार उनने अपने जीवनकाल में और मरणोपरान्त अनेकों ऐसे सन्त उत्पन्न किये जिनने भक्ति का वास्तविक स्वरूप अपनाया और प्रचार कार्य द्वारा अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप लाखों को समझाया। बंगाल में तो उनने उन दिनों उच्च आत्माओं का भण्डार भर दिया था।

यह एक तथ्य है कि उच्च उद्देश्यों के लिये तपस्वियों की एवं दिव्य आत्माओं की कृपा उपलब्ध होती है। गांधी का व्यक्तित्व दैवी अनुकम्पा से चमका था। महामना मालवीय हिन्दू विश्वविद्यालय की, श्रद्धानन्द गुरुकुल कांगड़ी की, हीरालाल शास्त्री वनस्थली बालिका विद्यालय की स्थापना जैसे कार्य अपने व्यक्तित्व के बलबूते पर नहीं, वरन् दैवी अनुकूलता के सहारे ही कर सके। सुग्रीव, विभीषण, नरसी मेहता, सुदामा आदि को उच्च स्थिति प्राप्त कराने में भगवान ही साथ रहे। भागीरथ द्वारा गंगा के अवतरण की प्रक्रिया में शिवजी का कम योगदान नहीं रहा। शिव से ही परशुराम ने वह कुल्हाड़ा प्राप्त किया था, जिसके द्वारा उन अकेले ने ही अगणित अनीति करने वाले सत्ताधीशों के सिर काट दिये। हनुमान सुग्रीव की चाकरी करते समय नगण्य थे, पर जब वे राम काज के लिये तत्पर हुए तो जामवंत ने अपना विपुल पराक्रम उनके सुपुर्द कर दिया। बुद्ध ने कुमार जीव को वह सामर्थ्य प्रदान की थी, जिसके बलबूते वे चीन तथा उसके समीपवर्ती देशों में बौद्ध धर्म व्यापक बनाने में सफल हुए।

समर्थ गुरु रामदास को देश की पराधीनता पर बड़ा क्षोभ था। चारों ओर जो अत्याचार हो रहे थे वे उनसे सहन न होते थे, किन्तु अपना स्वरूप और उद्देश्य छोड़ना भी उनसे नहीं बन पड़ता था। अपना कार्य किसी और के माध्यम से कराने की सूझी, पर इसके लिये पात्रता आवश्यक थी। कुपात्र के हाथ में शक्ति जाने में तो सर्प को दूध पिलाने जैसा अनर्थ ही हस्तगत होता है। उनकी निगाह शिवाजी पर गई, पर बिना जाने अपना उपार्जन ऐसे ही किसको दे दिया जाय? सिंहनी का दूध लाने और मुस्लिम तरुणी को मां कहकर लौटा देने के उपरान्त उन्हें पात्रता पर विश्वास हो गया। उन्होंने शिवाजी को शक्ति भी दी एवं भवानी तलवार भी। सामान्य मराठा बालक को उन्होंने छत्रपति बना दिया और स्वतंत्रता संग्राम का शुभारम्भ चल पड़ा।

भारत पर मध्य एशिया के शक-हूण बार-बार हमला करते और लूट-पाट कर चले जाते थे। इस स्थिति से चाणक्य को बहुत क्षोभ था। उनने आक्रमणकारियों से निपटने और सीमित भारत को विशाल भारत बनाने के लिये एक दासी की कोख से पैदा हुए चन्द्रगुप्त को चुना। वे स्वयं तो नालंदा विश्वविद्यालय की व्यवस्था में संलग्न थे। चन्द्रगुप्त को सफलतायें मिलती चली गयीं और वे भारत का सुदूर क्षेत्रों तक विस्तार करने में सफल हुए। आक्रमणकारियों की तो उनने कमर ही तोड़ दी।

गांधी जी सर्वोदय का काम करना चाहते थे, पर राजनीति उन्हें छोड़ नहीं रही थी। उनने विनोवा को चुना और वे देश में रचनात्मक कार्यों को अग्रगामी बनाने में सफल हुए। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि महान कार्य व्यक्तिगत पुरुषार्थ के आधार पर संभव नहीं होते। श्रेय प्रदान करने के लिये दैवी अनुग्रह ही पृष्ठभूमि में काम करता है।

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