असामान्य और विलक्षण किंतु संभव और सुलभ

अतीन्द्रिय-क्षमताओं का आधार और विज्ञान

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घटना इंग्लैंड के चेशायर नगर की है। यहां रहने वाली जिना ब्यूचम्प जो एक सेक्रेटरी का काम करती थीं एक दिन विक्टोरिया स्टेशन पर बैठी अपनी मां से बात-चीत कर रही थीं। स्टेशन वे इसलिए आईं थीं कि उन्हें ट्रेन द्वारा मेन्स्टन सिटी जाना था और वहां से हवाई जहाज द्वारा ‘कारेटा ब्रेबा’।

ट्रेन आने में अभी थोड़ी देर थी इसीलिये मां—बेटी एकान्त में बैठी बात-चीत कर रही थीं। अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि एकाएक ‘जिना’ बोली—मां मुझे बार-बार डर लग रहा है और ऐसा लगता है कि मेरे अवचेतन मन में कोई कह रहा है कि यह यात्रा खतरे से खाली नहीं है। मैं तो यह यात्रा नहीं करूंगी।

मां बोली—‘बेटी! यह तेरा वहम है। तू तो व्यर्थ ही डर रही है इस तरह का अन्ध-विश्वास एक प्रकार का पिछड़ापन है तुझे न करते देखकर बड़ा असमंजस हो रहा है। इस पर जिना बोली—मां तुम कुछ भी कहो पर मुझे तो यह विश्वास है कि संसार अपनी प्रेरक सत्ता से रिक्त नहीं मेरे अन्तःकरण में उठ रही दैवी स्फुरणा झूठ नहीं हो सकती?’

मां ने बहुतेरा समझाया पर जिना ने एक न सुनी वह फिर जाने के लिए तैयार ही नहीं हुई। मां ने यात्रा अकेले ही की। यात्रा क्या थी मौत का बुलावा था। कहते हैं संसार के प्राणियों की जन्म मृत्यु का हिसाब रखने वाली कोई सत्ता है जिसे यमराज कहते हैं, वे हर व्यक्ति को निश्चित समय पर मृत्यु के लिए प्रेरित कर देते हैं और संसार के पालक, पोषक, संरक्षक भगवान् जिसे बचाना चाहते हैं मौत के मुंह से झपटकर बचा लेते हैं कोई अनुभव करे या न करे कि संसार सचमुच सूक्ष्म शक्तियों के विधान पर चल रहा है—यहां प्रस्तुत की जा रही घटनायें इस बात की पुष्टि करती हैं। जिना को स्टेशन से घर लौटे 4-5 घण्टे ही हुये थे तभी—‘अरजैन्ट’ (द्रुतगामी) तार आया। अब तक जो मात्र प्रेरणा और आशंका थी वह सच निकली। तार में सूचना थी आपकी मां श्रीमती व्यूचैम्प जिस जहाज से कोरटा ब्रेवा जा रही थीं वह परफ्गिनान (फ्रांस) के पास गिर कर नष्ट हो गया और आपकी मां की मृत्यु हो गई। इस विमान दुर्घटना में विमान में सवार एक भी व्यक्ति नहीं मरा। जिना को अन्तिम समय प्रेरणा और कार्यक्रम का परिवर्तन क्या किसी भूत और भविष्य को जानने वाली मनुष्य से उच्च सत्ता का काम नहीं है?

ड्यूक विश्वविद्यालय में परामनोविज्ञान से सम्बन्धित एक स्त्री से सम्बन्धित घटना इस प्रकार है। ‘‘दूसरा महायुद्ध प्रारम्भ हो चुका था। तब मेरे पति को स्नायु सन्निपात (नर्वस ब्रेक डाउन) हो गया। वे घर से लगभग 50 मील दूर एक चिकित्सालय में चिकित्सा करा रहे थे। हम दोनों प्रतिदिन एक दूसरे को पत्र लिखते। एक दिन शाम को मैं अपने ड्रॉइंगरूम में अकेली बैठी थी। आठ बजने को थे कि एकाएक मुझे बेचैनी होने लगी। बहुत प्रयत्न करने पर भी व्यग्रता बढ़ती ही गई। इस अनायास परिताप का कारण समझ नहीं पा रही थी। मुझे ऐसा लगा, जैसे मुझे कोई टेलीफोन की ओर आकर्षित कर रहा है। मुझे ऐसा लगा कि अपने पति को टेलीफोन करूं, इसी गरज से टेलीफोन के पास तक चली गई। मुझे अनावश्यक फोन करने की मनाही करदी गई थी, इसलिये आस-पास चक्कर तो काटती रही पर फोन न कर सकी और फिर चुपचाप लौट आई।

दूसरे दिन पति के दो पत्र आये। एक तो प्रतिदिन लिखा जाने वाला पत्र था, जो नियमित रूप से आता था। दूसरा उससे पहले लिखा गया था और उसमें पतिदेव ने मुझसे ठीक आठ बजे फोन पर बातचीत करने को लिखा था। इसके दूसरे दिन एक और पत्र आया, जिसमें लिखा था ‘‘मैं आठ बजे टेलीफोन पर तुम्हारी व्यग्रता से प्रतीक्षा करता रहा। मुझे बहुत बेचैनी रही।’’

गेटे ने अपनी आत्मकथा में लिखा है एक बार वह अपने निवास स्थान वाइम्नर में था तो अचानक तीव्र अनुभूति हुई कि वहां से हजारों मील दूर सिसली में एक भयंकर भूकम्प आया है। यह बात उसने अपने मित्रों को बताई पर किसी को विश्वास न हुआ कि बिना किसी आधार के इतनी दूर की बात इस प्रकार कैसे मालूम हो सकती है। पर कुछ दिन बाद आये समाचारों से पता चला कि ठीक उसी समय वैसा ही भूकम्प सिसली में आया था जैसा कि उसने अपने मित्रों को बताया था।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा. केन गार्डनर की सहजानुभूति के रहस्य पर बड़ी जिज्ञासा है। उन्होंने ऐसी सैकड़ों घटनायें एकत्रित की हैं, जो भूत या भविष्य की जानकारी देती हैं और बाद में उनके सत्य होने का प्रमाण मिलता है। इन घटनाओं को उन्होंने दुनिया के अनेक अखबारों में छपाया है। लन्दन में रोनाल्ड आर्थर नामक एक व्यक्ति ट्रोव ब्रिज के जार्ज होटल में नाश्ते के लिये गया। वहां जाने का एक आकर्षण यह भी था कि उस होटल में एक ऐसी लड़की रहती थी, जो लोगों का भविष्य बता सकती थी।

रोनाल्उ आर्थर को उसने बहुत-सी बातें बतायीं, जो भविष्य से सम्बन्धित थीं। वह जितनी ही सत्य थीं, रोनाल्ड की जिज्ञासा उतनी ही बढ़ती गई। लड़की एकाएक रुक गई तो उन्होंने पूछा आगे मेरा भविष्य में क्या होगा? तो लड़की बोली—दुर्भाग्य कि नवम्बर के बाद आपका कोई भविष्य ही नहीं है। यह कहकर वह वहां से चली गई। सचमुच उसी वर्ष नवम्बर में रोनाल्ड की मृत्यु हो गई। ड्यूक यूनिवर्सिटी कैरोलाइना (अमेरिका) के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जे.बी. राइन ने भी इस तथ्य को माना है कि कोई एक महान् सत्ता (सुपर पावर) है, जो मानवीय चेतना की तरह ही है और यदि मनुष्य उसका विकास कर ले तो वह आगत-अनागत की इन सब बातों को सहज ही जान सकता है, जो साधारण अवस्था में कभी कल्पना में भी नहीं आतीं।

मनोगतिशीलता वस्तुतः शरीर या किसी शारीरिक ऊर्जा से सम्बन्ध नहीं रखता। उसका सम्बन्ध प्राण और संकल्प (सूक्ष्म शरीर) से रहता है पर उसकी शक्ति अपरिमित होती है, शाप और वरदान तक उससे सफल होते देखे जाते हैं। एक बाद दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में भक्तों के एक मेले में रानी रासमणि भी सम्मिलित हुईं। रानी से दक्षिणेश्वर मन्दिर को बहुत धन मिलता था स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने सहसा उन्हें जोर का तमाचा मार दिया। तो उनके अंग-रक्षक बहुत नाराज हुये पर रानी ने उन्हें शान्त करते हुए स्वीकार किया कि उन्हें ऐसे पवित्र स्थान में जो बात नहीं सोचनी थी, वह सोच रही थीं। उसे रामकृष्ण परमहंस किस प्रकार जान गये इसे तब बड़ी आश्चर्य की दृष्टि से देखा गया पर अब परामनोविज्ञान इसे मन की संकल्प-सिद्धि का छोटा-सा चमत्कार मानता है। स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता को इसी तरह अपनी मृत्यु का पूर्व-ज्ञान करा दिया था।

स्वामी शिवानन्द ने एक बार एक ग्रामीण की जो उन्हें दूध पहुंचाने आता था, एक सांप से रक्षा की। जब वह स्वामी जी के पास पहुंचा तो उन्होंने आते ही पूछा—‘‘सांप ने कहां काटा?’’ वह व्यक्ति यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गया। रास्ते में सांप ने जहां काटा था, वह स्थान दिखाया और स्वामी जी ने मन्त्र बल से उसे अच्छा कर दिया।

इन घटनाओं से सिद्ध होता है कि हमारे अन्तःकरण और मन में उठा कोई भी भाव या विचार नष्ट नहीं होता वरन् वह सम्बन्धित व्यक्ति तक पहुंचता है और भावनायें जितनी हार्दिक और प्रखर होती हैं, उतनी ही तेजी से प्रभावित और प्रेरित भी करती हैं। देव उपासनाओं से मिलने वाला अनुग्रह और प्रार्थना से मिलने वाला आशीर्वाद भी इसी तरह होता है। उससे अधिक अतीन्द्रिय ज्ञान से जीवन की अमरता सिद्ध होती है।

वह इस तरह कि जब हम स्वप्नावस्था में होते हैं तो भी इन्द्रियातीत ज्ञान की अनुभूति होती रहती है। ऐसा लगता है, जैसे हम प्रत्यक्ष शरीर से चल-फिर, उठ-बैठ और क्रियायें कर रहे हों। उस समय की कितनी ही अनुभूतियां इतनी सच्ची निकलती हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। अपने पति की हत्या से पूर्व ही राष्ट्रपति अब्राहमलिंकन की पत्नी ने एक सुस्पष्ट स्वप्न में अपने पति की मृत्यु का दृश्य देखा था।

पौराणिक कथा है कि ‘‘भरत ने कई दिन पूर्व ही अयोध्या में होने वाले विग्रह और दशरथ की मृत्यु का भविष्य-दर्शन स्वप्न में किया था।’’ प्राचीन टेस्टामेंट की एक घटना से यह भी सिद्ध होता है कि इस तरह का इन्द्रियातीत ज्ञान जागृत अवस्था में भी हो सकता है और किसी को विचार-संचार भी किया जा सकता है एक बार राजा बेलसज्जार अपने मेहमानों के साथ भोजन के लिये बैठे, तभी उन्हें किसी के हाथ ऊपर उठते और उंगली से दीवार पर कुछ शब्द लिखे दीखे। भविष्य वक्ता डेनियल ने उक्त सारी घटना की व्याख्या करते हुये बताया कि ‘‘राजा का राज्य और अस्तित्व खतरे में है।’’ वैसा ही हुआ भी। प्रातःकाल होने से पूर्व ही सम्राट् की हत्या कर दी गई और डेरिस नाम के एक उच्च-पदाधिकारी ने राज्य सत्ता पर अपना अधिकार कर लिया।

अपने भावों को व्यक्त करने के लिये जब आत्मा को बोलने की इच्छा होती है तो वह बुद्धि द्वारा अर्थों को संग्रहीत कर मन को इस कार्य के लिये प्रेरित करती है। मन शरीरस्थ अग्नि द्वारा प्राण-वायु को गरम करके उसे अपने प्रयोजन के लिये गतिमान करता है। नाभि प्रदेश से उठता हुआ, यह वायु छाती (उरस) आदि स्थानों में से उत्क्रमण कर कण्ठ प्रदेश में पहुंचता है। उपरोक्त प्रक्रिया वायु और आकाश तत्त्वों से मिलकर कम्पन करती है, इन ध्वनि कम्पनों को अभ्यान्तर प्रयत्नों से किसी के भी पास पहुंचाया जा सकता है।

चन्द्र यात्रा में एक प्रयोग

अपोलो 14 अन्तरिक्षयान के तीन सदस्यों में से एक थे-एडगर मिचेल। उन्होंने अपनी यात्रा के साथ-साथ एक व्यक्तिगत परीक्षण भी सम्मिलित रखा। क्या पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के बाहर भी विचार संचालन का क्रम चल सकता है? क्या लोक-लोकान्तरों के निवासी परस्पर विचार विनिमय कर सकते हैं? यदि ऐसा सम्भव हो सके तो इसे चेतना के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जायगा।

मिचेल ने चन्द्र यात्रा की लम्बी उड़ान में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने के बाद अपने कुछ मित्रों के साथ टेलीपैथी के आधार पर विचार विनिमय किया। कुछ सन्देश भेजने और कुछ पाने के लिए समय निर्धारित रखा जो उन्होंने भेजा उसे उनके मित्रों ने और जो मित्रों ने भेजा उसे उन्होंने ग्रहण किया। लौटने पर लेखा-जोखा लिया गया तो उसमें शत-प्रतिशत तो नहीं, पर बड़ी मात्रा में यथार्थता पाई। श्री मिचेल ने इस सन्दर्भ में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए कहा—‘यह स्थापना हो चुकी है कि टेलीपैथी एक यथार्थता है। उसकी शोध उसी प्रकार होनी चाहिए जिस प्रकार अन्य वैज्ञानिक तथ्यों की होती है।

अब वे दिन लद गये जिनमें यह कहा जाता था कि—‘मस्तिष्क में इन्द्रिय छिद्रों के अतिरिक्त अन्य किसी माध्यम से ज्ञान का प्रवेश नहीं हो सकता।’ प्लेटो की मान्यताएं ऐसी ही थीं। पर अब वैसा कोई नहीं कहता—ई.सी.पी. के विद्युताग्र मस्तिष्क को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। उस सफलता के आधार पर यह वायदा किया जाने लगा है कि बिना सर्जरी के ही अमुक विचार प्रवाह से किसी के या किन्हीं के मस्तिष्क की स्थिति बदली जा सकेगी। उसे अपनी मान्यताएं बदलने, चिन्तन की धारा बदलने और नये किस्म का कुछ भी सोचने के लिए विवश किया जा सकेगा। अब मस्तिष्क व्यक्तिगत सम्पत्ति न रहकर सार्वजनिक प्रयोग परीक्षण का—क्रीड़ा विनोद का—क्षेत्र बनता जा रहा है। पार्क में सैर करने की तरह किसी के मस्तिष्क में भी अनिच्छित विचार प्रवेश कर सकते हैं और उन्हें स्थान देने के लिए किसी भी व्यक्ति को बाध्य किया जा सकता है।

शब्द वेधी बाण

तथाकथित पिछड़े हुए लोगों के हाथों में कभी-कभी ऐसी क्षमतायें दृष्टिगोचर होती हैं—जिन्हें देखकर अवाक् रह जाना पड़ता है। अफ्रीकी और आस्ट्रेलियाई जन जातियों में अभी भी कई ऐसे करतब देखे जा सकते हैं जिनका कारण आधार और अभ्यास समुन्नत और क्रिया कुशल समझे जाने वाले लोगों के लिए भी एक पहेली ही बना हुआ है। आस्ट्रेलिया के वनवासियों की भोजन समस्या को हल करने का आधार बूमरेंग अस्त्र उस क्षेत्र के बच्चे-बच्चे के अभ्यास में आया हुआ है। यह हस्त कौशल एवं बुद्धि कौशल से चलने वाले हथियार बन्दूक को पीछे छोड़ता है और शब्द वेधी की उन दन्त कथाओं को सत्य सिद्ध करता है जिनमें लक्ष्य बेधने के उपरान्त तीर फिर से प्रयोगकर्त्ता के तरकस में स्वयं ही वापिस आ जाता था।

इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय और उनके प्रति ड्यूक आफ एडनवरा सन् 1954 में आस्ट्रेलिया के दौरे पर गये। शाही अतिथियों के सम्मान में आयोजित एक समारोह में इस देश के आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त होने वाले ‘बूमरेंग’ अस्त्र के आश्चर्यजनक करतब दिखाये गये। जिसे देखकर महारानी मन्त्रमुग्ध रह गईं और प्रदर्शनकारी जोटम्बरी की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की और उस शस्त्र संचालन को कई बार देखा।

बूमरैंग एक विचित्र प्रकार का हथियार है उसकी लम्बाई डेढ़ से तीन फुट तक की होती है। इस रहस्यमय अस्त्र के बनाने का ढंग भी बड़ा विचित्र है। दोनों सिरे एक समान नहीं होते फिर भी उनका वजन समान होता है। एक सपाट दूसरा लगभग गोल। एक कुछ इंच छोटा दूसरा बड़ा। किनारों पर लोहे के नुकीले तथा तेज धार वाले फल लगे होते हैं। उनकी बनावट में तिरछापन होता है। कीकर के पेड़ की एक गीली लकड़ी को काट कर उसे आग पर सेंकते हुए नरम करके बीच में से इच्छानुसार मोड़ लिया जाता है। बस तैयार हो गया ‘बूमरैंग’। देखने में वह हंसिये जैसी सकल का मामूली सा औजार लगता है पर उसका प्रयोग इतना अद्भुत और चमत्कारपूर्ण है कि आज के बुद्धि कौशल को उसने अपने ढंग से चुनौती ही दे रखी है।

बूमरैंग को एक प्रकार का शब्दबेधी बाण कहना चाहिए। वह प्रयोक्ता द्वारा हवा में उछाला जाता है। तीर की तरह सनसनाता हुआ ऊपर उड़ता है—अमुक ऊंचाई पर पहुंच कर मुड़ता है और एक विशेष कक्षा में चक्कर लगाता हुआ निर्धारित निशाने पर जा लगता है। अथवा लौट कर चलाने वाले के पास ही वापिस आ जाता है।

आस्ट्रेलिया के आदिवासी शिकारी इसी से पशु-पक्षियों का शिकार करके अपना पेट पालते हैं। दौड़ते हुए कंगारू पर सही निशाना साधना और कितनी देर में जानवर किस गति से कहां पहुंचेगा और उतने समय में बूमरैंग हवा में तैरता हुआ उस तक पहुंचने में कितना समय लेगा यह हिसाब लगाना किसी शक्तिशाली कम्प्यूटर के लिए ही सम्भव हो सकता है पर आस्ट्रेलियाई आदिवासी इस कला में इतने निष्णात होते हैं कि उनके लिये दौड़ते-उड़ते पशु-पक्षियों को इसी छोटे से लकड़ी के टुकड़े की सहायता से मार देना ‘बांये हाथ का खेल जैसा सरल होता है। वे पांच मिनट में चलते भागते कंगारू को धराशायी बना देते हैं। प्रायः सिर पर चोट करना इस अस्त्र का लक्ष्य होता है। निशाना प्रायः कभी भी खानी नहीं जाता।

कभी-कभी इन आदिवासियों के प्रतियोगिता समारोह होते हैं तब ‘बूमरैंग’ के करतब देख कर दांतों तले उंगली दबाकर रह जाना पड़ता है। पेड़ के चारों ओर चक्कर काटकर फिर फेंकने वाले के हाथ में आ जाना अथवा पैर के आगे कुछ ही इंच जमीन में आधे फुट गहराई तक घुस जाना ऐसा खतरनाक प्रयोग है कि गलती होने पर फेंकने वाला ही प्राण गंवा सकता है। पर वे बचपन से ही अभ्यास करते हैं और युवा होने तक उस कला में पारंगत हो जाते हैं। इस अस्त्र की सारी विशेषता उसकी लकड़ी तथा फलों के भार तथा तिरछेपन के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं में सन्निहित रहती है। अब से सौ वर्ष पूर्व यह अस्त्र प्रायः पांच फुट लम्बा होता था, वह निशाना तो ठीक लगाता था पर लौट कर प्रयोक्ता के पास वापिस नहीं आता था, पर अब उनमें उन लोगों ने आवश्यक सुधार कर लिये हैं और इस योग्य बना लिया है कि बढ़िया-बन्दूकें भी उसका मुकाबला न कर सकें।

महारानी एलिजाबेथ के सामने लंगोटीधारी—वनवासी—जोटम्बरी ने जब बूमरैंग फेंका तो वह एक सौ बीस फुट तक सीधा तीर की तरह गया। फिर एक सैकिण्ड के लिए रुका—और देखते-देखते 90 अंश का कोण बनाते हुए आकाश में 100 फुट ऊंचा उड़ा। वहां उसने अपने आप कई चक्कर लगाये पीछे वह फेंकने वाले की और मुड़ गया। अस्त्र शिरे के समीप आ चुका था कि जोटम्बरी ने अपना एक पैर उठाया और उसी से बूमरैंग को पकड़ लिया। यह सारा दृश्य ऐसा लगता था मानो कोई वायुयान किसी प्रशिक्षित पायलट के कुशल संचालन में यह सारे करतब दिखा रहा हो। ऐसे कई प्रयोग उसने दिखाये और बताया कि यह कोई नट विद्या नहीं वरन् उसकी जाति के लिए जीवन-मरण जैसा आवश्यक अभ्यास है।

क्षमताओं की जागृति

इस तरह की क्षमतायें विशेष अभ्यासों द्वारा जागृत की जा सकती हैं। ये होती तो प्रत्येक मनुष्य में हैं पर अधिकांश व्यक्तियों में सुखी स्थिति में ही रहती है। इन क्षमताओं को जागृत करने के लिए अनेक प्रकार के साधन विधान हैं। उन सबका आधारभूत सिद्धांत अपनी मनःस्थिति और आत्मिक स्तर को क्रमशः परिष्कृत, परिपक्व तथा उन्नत करते चलना है। जापान में बौद्धधर्म की एक शाखा है, जिसके अनुयायी जैन कहे जाते हैं। सम्भव है भारत में प्रचलित जैनधर्म का इस शाखा पर प्रभाव रहा है और इसका वैसा ही नामकरण किया गया हो।

इस सम्प्रदाय के अनुयायी ध्यानयोग पर बहुत आस्था रखते हैं और अपनी आस्था इस हद तक सुदृढ़ करते हैं कि उन्हें कठिन तितिक्षाजन्य कष्ट सहने में भी दुःख अनुभव नहीं होता। एकाग्रता की गहराई इस हद तक वे लोग विकसित करते हैं कि बाह्य कष्टों के सहन करने की तपश्चर्या उन्हें अपने साधना क्रम से विचलित न कर सके।

दक्षिण जापान के कई बौद्ध मन्दिरों में ऐसे धर्मानुष्ठान होते हैं जिनमें छह फुट लम्बी दहकते हुए कोयलों से सजाई हुई वेदी पर नंगे पैरों चलकर उसे पार करना पड़ता है। पुरोहित आगे चलता है और अनुयायी पीछे। जो लोग इस रास्ते को हंसते हुए पार कर लेते हैं वे सच्चे जैन विश्वासी माने जाते हैं।

ऐसी अग्नि परीक्षा मलेशिया के कई क्षेत्रों में धर्मानुष्ठानों के रूप में प्रचलित है। होली के अवसर पर भारत के कई स्थानों में पुरोहित लोग जलती हुई ऊंची लपटों में नंगे होकर पांवों और नंगे शरीर पार निकलने का प्रदर्शन करते हैं।

सर्प जैसे क्रोधी और स्नेह शून्य प्राणी को मनुष्य का परम सहयोगी और विश्वस्त बना लेना असामान्य तथा कठिन ही दीखता है और सिंह-शावक, कुत्ते की तरह मनुष्य के पीछे फिरे यह भी प्रकृति विरुद्ध है फिर भी अनेक घटनाएं ऐसी होती रहती हैं और बताती हैं कि मानवी चेतना अन्य प्राणियों की प्रकृति में भी परिवर्तन कर सकती है।

अंग्रेज साहित्यकार डी.एच. लारेन्स ने अपनी मैक्सिको यात्रा का सचित्र विवरण छपाते हुए उस देश के आदिवासियों—रैडइण्डियनों के—सर्प प्रेम की चर्चा की है और बताया है कि किस प्रकार वर्ष में एकबार वे भयंकर विषधरों के साथ मिलकर सर्प पूजा की परम्परा निवाहते हैं।

यह सर्पपूजा वर्षा के प्रथम महीने में रविवार के दिन से आरम्भ होती है और सोमवार की शाम तक चलती है। इसे देखने के लिए आदिवासी ही नहीं सुशिक्षित गोरे भी अपनी मोटरें लेकर उस छोटी देहात में पहुंचते हैं। एक मेला सा लग जाता है। इस मेले को दृष्टि में रखते हुए ही वहां तक पहुंचने के लिए एक कच्ची-पक्की सड़क भी बना दी गई है।

सर्प अनुष्ठान नवाजो प्रान्त के आरिजोना रेगिस्तान से कोई 70 मील उत्तर की ओर ‘वल्पि’ गांव में होता है। निर्धारित तिथि पर उपस्थित होने के लिए सुपरिचित सर्प गुफाओं में होपी कबीले के पुरोहित उन्हें निमन्त्रण देने जाते हैं और उपस्थिति के लिए मन्त्रोच्चारण पूर्वक अनुरोध करते हैं। यह क्रम प्रायः साल भर तक चलता रहता है। आश्चर्य यह है कि वह निमन्त्रण स्वीकार भी हो जाता है और निर्विष और विषधर सर्प बड़ी संख्या में उसे आयोजन में सम्मिलित होने के लिए स्वेच्छापूर्वक सम्मिलित होते हैं।

यह सर्पानुष्ठान कोई मनोरंजन या मेला-तमाशा नहीं है। दर्शक उसे जो भी समझें पर इसका आयोजन करने वाले होपी कबीले के आदिवासी सर्पों को सूर्य देवता का विशेष प्रतिनिधि मानते हैं और उन्हें इस पूजा समारोह में आमन्त्रित करके परस्पर मैत्री पर घनिष्ठता की नई परत चढ़ाते हैं और उनके माध्यम से समस्त सर्प परिवार तक तथा सूर्य देवता तक अपनी शुभकामनाएं भिजवाते हैं। उनका विश्वास है कि न केवल मनुष्य वरन् सभी प्राणी भाई-भाई हैं। यहां तक कि मनुष्य और सर्प में भारी प्रकृति भिन्नता होते हुए भी उनके बीच स्नेह सौजन्य के सम्बन्ध बने रहने में कोई अड़चन नहीं है। रैड इण्डियनों के यह विचार भारतीय धर्मानुयायियों से बहुत अंशों में मेल खाते हैं। अपनी इस मान्यता को हर वर्ष पुष्ट करते रहना भी इस धर्मानुष्ठान का एक प्रयोजन है।

लारेन्स के कथनानुसार परम्परागत स्थान पर—नियत दिन यह आयोजन होता है। इसमें प्रधान भूमिका निवाहने वाले याजक नौ दिन तक उपवास करते हैं और पवित्र मन्त्र जपते रहते हैं। निर्धारित समय पर वे अपनी विचित्र वेषभूषा में सर्प नृत्य आरम्भ करते हैं। दर्शकों से कह दिया जाता है कि पूर्णतया मौन रहें। अन्यथा आगन्तुक सर्प भयंकर उपद्रव कर सकते हैं। दर्शक उस आदेश का पूर्णरूपेण पालन करते हैं।

पत्तों से ढके एक गड्ढे में न जाने कितने सर्प कब से छिपे बैठे होते हैं। अनुष्ठानकर्त्ता मन्त्रोच्चार पूर्वक उनमें से थोड़े-थोड़े सर्प पकड़ कर लाते हैं। उन्हें गले में पहनते हैं, शरीर से लपेटते हैं, उनका मुंह अपने मुंह में दबाते हैं और विचित्र मुद्राओं में सर्प नृत्य करते हैं; इसमें नर्तकों के शरीर पर लिपटे हुए सर्प भी भाग लेते हैं और अपने अंगों को हिलाते, घुमाते हुए यह सिद्ध करते हैं कि उन्हें भी इस आयोजन में आयोजनकर्ताओं की तरह ही दिलचस्पी तथा प्रसन्नता है।

नर्तक लोग अपने साथ लिपटे हुए सांपों से कुछ को जमीन पर छोड़कर उन्हें स्वतन्त्र क्रीड़ा-कल्लोल करने देते हैं। कुछ को दर्शकों पर भी फेंक देते हैं पर कभी कोई दुर्घटना नहीं होती। देखने वाले तरह-तरह के अनुमान लगाते हैं और कहते हैं यह पाले हुए हैं, जहर निकाले हुए—बूढ़े मद्य मूर्च्छित सर्प हैं। याजकों के पास कोई सर्प विष नाशक जड़ी-बूटी है जिसे खाकर वे दंशन हानि से बचे रहते हैं। जो हो, सर्प इतने बलिष्ठ और विषधर भी होते हैं जिनकी जहरीली मार न सही, शारीरिक पकड़ भी किसी का कचूमर निकाल सकती है। फिर भी आमंत्रित सैंकड़ों सर्पों में से एक भी इस तरह का उत्पात नहीं करता और ऐसा लगता रहता है मानो मनुष्य और सर्प दोनों ही छोटे बालकों की तरह सौहार्दपूर्ण क्रीड़ा विनोद कर रहे हैं।

अनुष्ठान के अन्त में सायंकाल एक निर्धारित स्थान पर समस्त सर्पों को विसर्जित कर दिया जाता है और अपने सम्बन्धित अन्य देव परिवार तक उनका अभिवादन पहुंचाने और बदले में सुख-शान्ति का वरदान भिजवाने की वे लोग भूमिका निभाते हैं विदाई के समय सर्पों को अगले वर्ष फिर आने का निमन्त्रण दिया जाता है और वे आते भी हैं।

मैसूर क्षेत्र के दक्षिण कनारा जिले का निवासी चालीस वर्षीय वेनारी बेक्टारमन कुछ समय पूर्व एक विचित्र प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध था उसने अपनी दाढ़ी में मधुमक्खियों का छत्ता जमा रखा था उसमें मक्खियां भली प्रकार जीवन निर्वाह करती थीं दक्षिण कनारा के मधुमक्खी पालकों का एक सम्मेलन हुआ उसमें वेक्टारमन को अध्यक्ष बनाया गया। उस सम्मेलन में मधुमक्खी पालकों के अतिरिक्त अधिक संख्या उन लोगों की थी जो दाढ़ी में लगे हुए सफल मधुमक्खी छत्ते का विचित्र दृश्य आंखों देखने के लिए एकत्रित हुए थे।

मानसिक चेतना की नीची परतों में तो केवल इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और बुद्धि जैसा लौकिक प्रयोजन सिद्ध कर सकने वाली सामान्य एवं विशिष्ट क्षमताएं पाई जाती हैं, पर उसकी उच्चस्तरीय संकल्प शक्ति में वे क्षमताएं विद्यमान हैं जिसे चमत्कारी सिद्धियों के रूप में जब तब जहां-तहां देखा जाता है। यह सब भी अनायास नहीं वरन् क्रमबद्ध हैं। श्रद्धा और विश्वास के आधार पर परिपक्व हुआ अन्तःकरण मनुष्य में वैसी अनेक विशेषताएं पैदा कर सकता है जिनमें से कुछ की चर्चा ऊपर की गई है।

समर्थ सत्ता का अनुदान

विज्ञानमय कोष की विशिष्ट क्षमताओं का एक केन्द्र उच्च चेतन मन है। दूसरा एक और भी आधार है—प्राण विद्युत। यह एक चुम्बक है जो सांसारिक जीवन में प्रभावोत्पादन शक्ति एवं प्रतिभा के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यह आकर्षण तत्त्व यदि अधिक सक्षम हो सके तो उसके माध्यम से कई तरह की ऐसी विशेषताएं उत्पन्न हो सकती हैं जिनसे व्यक्तित्व के उभरने के असाधारण अवसर उत्पन्न हो सकें। इस ऊर्जा में यह शक्ति भी है कि सूक्ष्म जगत के प्रवाहों को अपनी ओर मोड़ सकना और उनके सम्पर्क से कई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध करना भी सम्भव हो सकता है। साधक अपने व्यक्तित्व को साधना मार्ग पर चलते हुए जिस प्रखरता को प्राप्त करता है उससे भौतिक सफलताओं और आत्मिक सिद्धियों के उभयपक्षीय लाभ मिल सकते हैं।

मनःशक्ति जड़ जगत और चेतन सत्ता के बीच का एक घटक है इसलिए ज्ञात जीवन में उसका सर्वोपरि महत्व है। जीव विज्ञान (जेनेटिक साइन्स) की नवीनतम जानकारियां यह बताती हैं कि शरीर जिन कोशिकाओं से बना है वह तथा शरीरगत परमाणु पूरी तरह मनःशक्ति के नियन्त्रण में हैं। यही नहीं वंशानुक्रम में भी वह गतिशील रहता है तथा मरणोत्तर जीवन में भी उसकी गतिशीलता समान रूप से बनी रहती है। फ्रायड के ‘‘सुपरईगो’’ और ‘‘सेन्सस’’ की परिधि वाले मन को जर्मन मनोवैज्ञानिक हेन्सावेन्डर अतीन्द्रिय क्षमता तक ले जाने में सफल हुए। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रमाण तक उपलब्ध कराये। टेलेपैथी पर अत्यधिक खोजबीन करने वाले रेने बार्कोलियर ने कहा है—‘‘मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों द्वारा सम्भव नहीं।’’

मस्तिष्क की स्थिति जीवनयापन के सामान्य क्रियाकलाप पूरे करने जितनी सीमित नहीं है अपितु उसमें एक से एक विलक्षणताएं, संभावनाएं प्रतीत होती हैं। वैज्ञानिक परमाणु में भार, घनत्व, विस्फुटन तथा चुम्बकीय क्षेत्र आदि भौतिक परिचय देने वाले तत्वों की खोज करते हुए एक ऐसे सूक्ष्म विद्युतीय कण के सम्पर्क में आये हैं जिनमें भौतिक परमाणु में पाये जाने वाले उपरोक्त एक भी लक्षण नहीं। यह विद्युत कण शरीरों के पोले भाग तथा समस्त आकाश में निर्वाध विचरण करते हैं। ये भौतिक परमाणुओं को भी बेधकर पार निकल जाते हैं, पर अभी तक कोई ऐसी यन्त्र प्रणाली या विज्ञान विकसित नहीं हो पाया जो इन विद्युत कणों को कैद कर सके। जब तक वह पकड़ में न आयें उनकी अन्तःसंरचना का अध्ययन कैसे हो?

इन कणों की उपस्थिति का बोध भी उन्हीं के परस्पर टकराव की स्थिति में ही हो पाता है। गणित शास्त्री ‘एड्रियां ड्राब्स’ ने इनको ‘न्यूट्रिनो’ नाम दिया है। कुछ वैज्ञानिकों ने इसी तरह के कणों को ‘साइन्नोन’ नाम दिया है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जब मस्तिष्क के ‘न्यूरोन’ कण विचारों और भावनाओं के प्रवाह के रूप में इन कणों से सम्पर्क स्थापित करते हैं तो उस क्षणिक सम्पर्क से ही पूर्वाभास जैसी घटनाओं की अनुभूति होती है। इससे दो सत्य उद्घाटित होते हैं। (1) पहला यह कि ब्रह्माण्ड-व्यापी घटनाओं का मूल उद्गम एक है यह उद्गम काल, दिशा और पदार्थ से अतीत है। संसार का नियमन और नियन्त्रण इसी के अधिकार में है। (2) मानवीय चेतना का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में इस उद्गम से निश्चित है।

न्यूट्रिनो कणों का मनुष्य की मस्तिष्कीय चेतना तथा तन्तु समूह पर क्या और किस तरह प्रभाव पड़ता है, इस पर गम्भीर शोधें चल रही हैं वैज्ञानिक ‘‘एक्सेल फरसेफि’’ का कथन है कि यह कण जब मानसिक चेतना पर प्रभाव डालते हैं तो नई जाति के ‘‘माइन्जेन’’ नामक ऊर्जा कणों का जन्म होता है। यह अनुमान है कि इस तत्व की व्यापक प्रक्रिया मस्तिष्क में चल पड़े तो मनुष्य सहज ही ब्रह्माण्ड-व्यापी ऊर्जा के साथ सम्बन्ध स्थापित करने लगेगा और अपनी ज्ञान परिधि को इतना असीम बना लेगा कि उसकी कल्पना करना भी कठिन हो। उस स्थिति में मनुष्य धरती की एक बन्द कोठरी में ही वह सारे दृश्य फिल्म की भांति देख सकेगा जो चन्द्रमा या मंगल पर जाकर कोई मनुष्य या उपकरण देख सकता है और उतना ही स्पष्ट।

इन समस्त अलौकिक क्षमताओं के केन्द्र व्यक्ति-मस्तिष्क में विद्यमान हैं। किन्तु वे केन्द्र ही चेतना नहीं हैं। चेतन सत्ता उससे भिन्न और सर्वव्यापी है। व्यक्ति-मस्तिष्क उसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकने में समर्थ है। कोट खूंटी पर टांगा जा सकता है। खूंटी के गिर जाने पर उस पर टंगा कोट भी गिर जाएगा। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि खूंटी ही कोट है या कि कोट ही खूंटी है। मानव-शरीर से निरन्तर विद्युत-चुम्बकीय, इन्फ्रारेड, अल्ट्रावायलेट आदि विकिरण होते रहते हैं। इसी से विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। शरीर के भीतर के कार्बन, पोटेशियम, सोडियम, रेडियम, थोरियम, स्वर्ण, सीसियम, कोबाल्ट, आयोडीन आदि तत्व विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र तथा अन्य क्षेत्रों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मनुष्य की सम्पूर्ण त्वचा से पीजीइलेक्ट्रिक इफेक्ट, पाइरोइलेक्ट्रिक इफेक्ट, विद्युत चुम्बकीय विकिरण आदि प्रसारित भी होते रहते हैं तथा बाहर के ऐसे ही विकिरणों एवं प्रभावों (इफेक्टस) को मनुष्य की त्वचा ग्रहण भी करती रहती है। इन्हीं विकिरणों तथा प्रभावों के फलस्वरूप क्वैण्टम-फील्ड तैयार होता है अर्थात् इनकी समन्वित प्रक्रिया का क्षेत्र। उस क्षेत्र की किरणों को क्वैन्टम किरणें कहते हैं। क्वैन्टम किरणें प्रकाश की गति से चलती हैं और उनका तरंग दैर्घ्य (वेवलेंथ) प्रायः 1 सेन्टी मीटर होता है। उनकी फ्रीक्वेन्सी एक अरब ‘इर्त्स’ तक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि क्रमशः क्षीण होते जाने पर भी वे लाखों मील की दूरियां पार कर लेती हैं। अभी इनकी विस्तृत खोज सम्भव नहीं हो सकी है। इन क्वैन्टम किरणों द्वारा ही मनुष्य दूरस्थ नक्षत्र पिण्डों का प्रभाव ग्रहण करता है। साथ ही उसका प्रभाव दूर-दूर तक बिखरता भी रहता है।

भौतिक विज्ञान परमाणु सत्ता की सूक्ष्म प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंच रहा है कि एक ही अणु में सक्रिय दो इलेक्ट्रानों को पृथक दिशा में खदेड़ दिया जाये तो भी उनके बीच पूर्व सम्बन्ध बना रहता है। वे कितनी ही दूर रहें दर्पण में प्रतिबिम्ब की तरह अपनी स्थिति का परिचय एक दूसरे को देते रहते हैं। एक इलेक्ट्रान को किसी तरह प्रभावित किया जाय तो इतनी दूर चले जाने पर भी दूसरा पहले इलेक्ट्रान के समान ही प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। इस सत्य का प्रतिपादन करते हुए आइन्स्टीन रोजेन, पाटोल्स्की जैसे महान् वैज्ञानिकों ने भी यह माना है कि इस छोटे से घटक की यह गति निःसन्देह एक विश्व-व्यापी ड्रामे का ही छोटा रूप हो सकता है।

डा. एफ केफ्रा ने तो यहां तक स्वीकार कर लिया कि परमाणु का प्रत्येक घटक विश्व ब्रह्माण्ड का परिपूर्ण घटक है अर्थात् प्रत्येक अणु में ब्रह्माण्ड सत्ता ओत-प्रोत है। अणु में ही विराट् ब्रह्माण्ड के दर्शन किये जा सकते हैं। यह पारस्परिक सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ हैं कि इन्हें कभी निरस्त नहीं किया जा सकता। जहां इस तरह का प्रयास होता है वहां भयंकर दुष्परिणाम उपस्थित हो उठते हैं।

वैज्ञानिक गेटे ने ब्रह्माण्डीय चेतना के अस्तित्व को कटु सत्य के रूप में स्वीकार किया है। रूडोल्फ स्टीनर ने भी गेटे के तथ्यों का पूर्ण समर्थन ही नहीं किया अपितु उसके आधार भी प्रस्तुत किये हैं। टामस हक्सले ने एक कदम आगे बढ़कर स्वीकार किया है कि ब्रह्माण्ड में एक मूलभूत चेतना काम कर रही है जो जीवाणुओं में तथा परमाणुओं में पृथक्-पृथक् ढंग से काम करती है। भारतीय दर्शन में ब्रह्म की परा और अपरा दो शक्तियां इसी तथ्य का निरूपण करती हैं। इस की पुष्टि उन्होंने अपनी ‘‘हेवेन एण्ड हेल’’ पुस्तक में विस्तार से की है।

परमाणु की इलेक्ट्रान प्रक्रिया को यन्त्रों से जितना जाना जा सकता है, वह अत्यल्प है अधिकांश की जानकारी गणितीय सिद्धान्तों पर होती है उसी तरह जीवाणुओं की मूलभूत प्रक्रिया के लिए जो यन्त्र बनाया गया है उसका नाम है ‘मस्तिष्क’। इस यन्त्र की योग-पद्धति से सर्वांग पूर्ण जानकारी कर लेने के कारण ही भारतीय दर्शन वेद वेदान्त के उस अलभ्य ज्ञान तक पहुंच गया, पर विज्ञान अभी तक मस्तिष्क के बारे में बहुत ही सीमित जानकारी ही प्राप्त कर सका है। शेष अविज्ञात को अन्धकार क्षेत्र ‘डार्क एरिया’ घोषित किया हुआ है। इसी कारण ब्रह्माण्ड व्यापी सूक्ष्म सत्ता से अभी तक उसका तालमेल नहीं हो पाया। परमाणुओं की इलेक्ट्रानिक प्रक्रिया का भी अधिकांश हल गणित के रूप में यह मस्तिष्क ही करता है। अतएव ब्रह्माण्डीय चेतना का स्वरूप पहचानने से पूर्व मस्तिष्क की अथ इति जानकारी होनी आवश्यक है। ज्ञात रहे कि जो अतीन्द्रिय घटनाएं प्रकाश में आती हैं उनमें भी प्रधान माध्यम मस्तिष्कीय बोध ही होता है चाहे वह पूर्व जन्म का ज्ञान हो, पूर्वाभास या भूत-प्रेतों के दर्शन।

मानवीय काया में सन्निहित विलक्षण अति समर्थ अतीन्द्रिय क्षमताओं की उपलब्धि यद्यपि कठिन योगाभ्यास से ही सम्भव है तथापि रेडियो की सुई घुमाते-घुमाते कई बार अनायास ही किसी प्रिय स्टेशन में लग जाती है जब कि उसका साइकिल नम्बर अथवा ‘फ्रिक्वेन्सी’ का पता नहीं होता। उसी प्रकार दुनिया भर में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनमें ऐसी क्षमताओं के अयाचित उपलब्ध हो जाने के विवरण मिलते रहते हैं। यह घटनाएं इस बात की प्रमाण हैं कि मनुष्य उतना ही नहीं जितना वह स्थूल आंखें से हाड़-मांस के पिण्ड रूप में दिखाई देता है अपितु उसकी सूक्ष्म और सनातन सत्ता तो अपने परमपिता की सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वसमर्थ सत्ता से ओत-प्रोत है।
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