असामान्य और विलक्षण किंतु संभव और सुलभ

प्रकृति अनुसरण का पुरस्कार

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महाबलिपुरम से मद्रास जाते समय कोई सात मील आगे एक छोटा सा नगर है ‘पक्षितीर्थम’ यहां 550 सीढ़ियां चढ़ने पर पहाड़ी पर अवस्थिति एक मन्दिर है जिसमें अनेकों देवी देवताओं की मूर्तियां रखी हैं।

मन्दिर के पिछवाड़े लगभग 150 फुट लम्बी और पन्द्रह फुट चौड़ी ढलवां चट्टान है। इस पर मध्याह्न को 11-12 बजे के बीच दो सफेद गिद्ध पक्षियों का जोड़ा नित्य ही मन्दिर का प्रसाद ग्रहण करने आता है, प्रतिमाओं के दर्शन से भी कहीं अधिक उत्सुकता दर्शकों को इन पक्षियों को देखने की होती है अस्तु वे बड़ी संख्या में दस बजे तक इकट्ठे हो जाते हैं।

दर्शकों की भारी भीड़ के बीच मन्दिर का पुजारी दोनों हाथों में दो प्रसाद की कटोरियां लेकर खड़े हो जाते हैं सफेद गिद्ध नियत समय पर निश्चिंत मुद्रा में आते हैं और चोंचों में प्रसाद भर कर पुनः आकाश में उड़ जाते हैं।

किम्वदन्ती के अनुसार ये पक्षी कोई दो पुण्यात्मा हैं जो नित्य वाराणसी गंगा स्नान करने जाते हैं वहां से लौट कर यह प्रसाद ग्रहण करते हैं और फिर कहीं एकान्त में जाकर भजन करते हैं। जो हो, दो विलक्षण पक्षियों का नियत समय पर, नियत स्थान पर, नियमित रूप से भोजन करने आना आश्चर्यजनक तो है ही।

तथ्य यह बताया जाता है कि यह पक्षी बचपन से ही पाले जाते हैं और उन्हें एक विशेष प्रकार के ऐसे नशीले आहार का अभ्यस्त कराया जाता है जो उन्हें अन्यत्र नहीं मिलता। समय पर ही यह आहार उन्हें मिलता रहा है इसलिए उनकी चेतना नियत समय का ध्यान रखती है और ठीक निर्धारित समय पर उनके भीतर ऐसी छट-पटाहट उत्पन्न होती है जिससे प्रेरित होकर वे उपरोक्त मन्दिर की ओर धर दौड़ते हैं। समय दिशा और उपलब्धि के सम्बन्ध में अन्तः चेतना के प्रशिक्षित होने के कारण वे पक्षी ऐसा आचरण करते हैं जिसे कोई अद्भुत अध्यात्म कहा जा सके।

वस्तुस्थिति जो भी हो पर काल और दिशा के सम्बन्ध में अन्य प्राणधारी प्रकृति प्रेरणा की तनिक भी अवज्ञा नहीं करते। इतना ही नहीं अन्य प्रकृति प्रेरणाओं को भी प्राणधारी पूरी निष्ठा के साथ सुनते और तदनुसार आचरण करते हैं इस कारण उनमें अद्भुत विशेषतायें देखने में आती हैं। इस तथ्य को यों भी समझा जा सकता है कि प्राणियों की शारीरिक मानसिक व भौतिक शक्तियों का सृजन उनकी आवश्यकता और इच्छा के अनुरूप ही होता है। इस तथ्य को थोड़ा अधिक गहराई से विचार करे पर सहज ही जाना जा सकता है और अनेकों प्रमाण पाये जा सकते हैं।

समझा जाता था कि वर्षा होने से वृक्ष वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, पर पाया यह गया है कि वृक्षों की आवश्यकता उधर उड़ने वाले बादलों को पकड़ कर घसीट लाती हैं और उस अपने क्षेत्र पर बरसाने के लिए उन्हें बाध्य करती हैं। कुछ दिन पूर्व जहां बड़े रेगिस्तान थे पानी नहीं बरसता था और बादल उधर से सूखे ही उड़ जाते थे, पर अब जब वहां वन लगा दिये गये हैं तो प्रकृति का पुराना क्रम बदल गया और अनायास ही वर्षा होने लगी है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों के बारे में अब यह नया सिद्धान्त स्वीकार किया गया है कि वहां की वन सम्पदा बादलों पर बरसने के लिए दबाव डालती है। बादलों की तुलना में चेतना का अंश वृक्षों में अधिक है इसलिए वे विस्तार में बादलों से कम होते हुए भी सामर्थ्य में अधिक हैं। अतएव दोनों की खींचतान में चेतना का प्रतिनिधि वृक्ष ही भारी पड़ता है।

आत्म रक्षा प्राणियों की एक महती आवश्यकता है। जीवों में जागरुकता और पराक्रम वृद्धि को जीवन्त बनाये रखने के लिए प्रकृति ने शत्रु पक्ष का निर्माण किया है। यदि सभी जीवों को शान्तिपूर्वक और सुरक्षित रहने की सुविधा मिली होती तो फिर वे आलसी और प्रमादी होते चले जाते। उनमें जो स्फूर्ति और कुशलता पाई जाती है वे या तो विकसित ही न होतीं या फिर जल्दी ही समाप्त हो जाती।

सिंह, व्याघ्र, सूअर, हाथी, मगर आदि विशालकाय जन्तु अपने पैने दांतों से आत्म-रक्षा करते हैं और उनकी सहायता से आहार भी प्राप्त करते हैं। सांप, बिच्छू, बर्रे, ततैया, मधुमक्खी आदि अपने डंक चुभो कर शत्रु को परास्त करते हैं। घोंघा, केंचुआ आदि के शरीर से जो दुर्गन्ध निकलती है उससे शत्रुओं को नाक बन्द करके भागना पड़ता है। गैंडा, कछुआ, घोंघा, शंख, आर्मेडिलो आदि की त्वचा पर जो कठोर कवच चढ़ा रहता है उससे उनकी बचत होती है। टिड्डे का घास का रंग, तितली फूलों का रंग, चीते पेड़-पत्तों की छाया जैसा चितकबरापन, गिरगिट मौसमी परिवर्तन के अनुरूप अपना रंग बदलता है। ध्रुवीय भालू बर्फ जैसा श्वेत रंग अपनाकर समीपवर्ती वातावरण में अपने को आसानी से छिपा लेते हैं और शत्रु की पकड़ में नहीं आते। कंकड़, पत्थर, रेत, मिट्टी, कूड़ा-करकट आदि के रंग में अपने को रंग कर कितने ही प्राणी आत्म-रक्षा करते हैं शार्क मछली बिजली के करेंट जैसा झटका मारने के लिए प्रसिद्ध है। कई प्राणियों की बनावट एवं मुद्रा ही ऐसी भयंकर होती है कि उसे देखकर शत्रु को बहुत समझ-बूझ कर ही हमला करना पड़ता है।

शिकारी जानवरों को अधिक पराक्रम करना पड़ता है इस दृष्टि से उन्हें दांत, नाखून, पंजे ही असाधारण रूप से मजबूत नहीं मिले वरन् पूंछ तक की अपनी विशेषता है। यह अनुदान उन्होंने अपनी संकल्प शक्ति के बल पर प्रकृति से प्राप्त किये हैं।

शेर का वजन अधिक से अधिक 400 पौंड होता है जब कि गाय का वजन उससे दूना होता है। फिर भी शेर पूंछ के सन्तुलन से उसे मुंह में दबाये हुए 12 फुट ऊंची बाड़ को मजे में फांद जाता है। प्राणियों की शरीर रचना और बुद्धि संस्थान भी अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है, पर उनकी सबसे बड़ी विशेषता है संकल्प शक्ति, इच्छा तथा आवश्यकता। यह सम्वेदनाएं जिस प्राणी की जितनी तीव्र हैं वे उतने ही बड़े अनुदान प्रकृति से प्राप्त कर लेते हैं।

इसके साथ ही यह भी देखा गया है कि जिन प्राणियों की संवेदनायें जितनी शून्य दुर्बल या कमजोर होती हैं वे अन्य प्राणियों की तुलना में काफी पिछड़े होते हैं।

अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि मांसाहारी पशु, जो दूसरों की हिंसा करके ही अपना उदर पोषण करते हैं वे भावना और सहृदयता की दृष्टि से अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत पिछड़े हुए होते हैं उनकी क्रूरता शिकार तक ही सीमित नहीं होती वरन् अपने निज के बच्चों के प्रति भी वे वैसे ही निर्दय होते हैं। मौका मिल जाय तो अपने बच्चों का सफाया करने में वे चूकते नहीं। रीछ और बाघों की मादायें अपने पति देवताओं की इस क्रूरता से भली-भांति परिचित होती हैं इसलिए वे छोटे बच्चों को छिपाये फिरती हैं। कहीं इधर-उधर जाती हैं तो बच्चों को झाड़ियों में छिपा जाती हैं। बच्चे भी डरे सहमे तब तक चुपचाप अपनी जान बचाये बैठे रहते हैं जब तक कि उनकी मां लौटकर नहीं आ जाती। इस सिलसिले में कई बार तो बच्चों की हिमायत में मादा को नर से काफी झगड़ना पड़ता है और उसमें चोट चपेट तक हो जाती है।

सिंह स्वभावतः बहादुर नहीं होता। शिकार करते समय लुक-छिपकर आक्रमण करने की, और तनिक सा खतरा दिखाई पड़ने पर भाग खड़े होने की, प्रवृत्ति उसकी कायरता ही प्रकट करती है। हां दांत, पंजे, शरीर की बनावट और क्रोध की मात्रा ही उसे वीर बनाये हुए है।

ईशागढ़ के राजा ने एक शेर का बच्चा पाला। उसे कटघरे में रखा जाता था और कटा हुआ मास दिया जाता था। जवान हो गया तो एक दिन जिन्दा बकरा उसके कटघरे में घुमाया गया और उसके द्वारा शिकार किये जाने का दृश्य देखने का प्रबन्ध किया गया। पर बकरे को देखते ही शेर डर गया और एक कोने में मुंह छिपाये बैठा रहा। दो घण्टे तक यही स्थिति रही। जब बकरा बाहर निकाला गया तक कहीं सिंह की जान में जान आई।

ऐसी ही एक घटना भरतपुर राज्य में बहुत दिन पूर्व हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर हुई थी। सूअर सिंह के कटघरे में छोड़ा गया तो सिंह डरकर हक्का-बक्का हो गया और सूअर को छेड़ने की बजाय अपनी ही जान बचाने की तह ढूंढ़ता रहा।

मन की दृष्टि से ही नहीं शरीर की दृष्टि से भी हिंस्र पशु पिछड़े हुए होते हैं और जल्दी थकते हैं। मांसाहारी प्राणी शक्तिशाली होते हैं और शाकाहारी दुर्बल। यह मान्यता सही नहीं है। मांसाहारियों में क्रूरता और धूर्तता की मात्रा अधिक होती है। शाकाहारी सरल स्वभाव के होते हैं। सरलता का अनुचित लाभ उठाकर ही मांसाहारी जीतते हैं अन्यता शक्ति की दृष्टि से उनका पिछड़ापन ही सिद्ध होता है।

यदि सूंड़ को अस्त-व्यस्त करने में सिंह सफल न हो सके तो हाथी निश्चय ही सिंह को मार देगा। सिंह और हाथी के युद्ध में यदि दाव लग जाय तो सिंह को सूंड़ में लपेट कर पछाड़ देना और पैरों तले कुचल देना हाथी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। बाघ, चीते आदि अपनी दहाड़ से ही हिरन को डरा कर भयाक्रान्त कर देते हैं और उसे दबोच लेते हैं। अन्यथा दौड़ में हिरन ही आगे रहेगा। उसकी छलांग 11 गज की होती है जबकि शेर, चीते 6 गज से अधिक नहीं उछल सकते। भेड़िये, लोमड़ी, खरगोश, को दौड़ में नहीं पकड़ सकते। वे धूर्तता से उन्हें घेर कर ही दबोचते हैं। खुले मैदान में यदि दौड़ने की प्रतिद्वंदिता का सामना करना पड़े तो भेड़िये हताश हो जाते हैं। पहले ही झपट्टे में यदि उनका दांव न लगा तो पीछा करना छोड़ देते हैं और वापिस लौट आते हैं। स्नेह सहानुभूति सीखें

बन्दर के जीवन में स्नेह और सहानुभूति का वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध जीवशास्त्री बेट्स एक घटना का उदाहरण देते हुए लिखते हैं—‘‘एक बार बन्दरों के एक उपनिवेश में एक शिशु बन्दर बीमार पड़ गया। दिन भर दूसरे बन्दर तो इधर-उधर उछलते कूदते रहे किन्तु एक बन्दरिया अपने बच्चे को छोड़कर कहीं नहीं गई। सम्भवतः अन्य बन्दरों के साथ अपने दल में उसे न पाकर किसी बन्दर का ध्यान उधर गया होगा। वह खोजता हुआ बन्दरिया के पास पहुंचा। हाथ पकड़कर और सूंघकर उसने वास्तविकता का पता लगाया। अपने दल में लौटकर उसने न जाने किस विचित्र खीं-खीं की आवाज में सभी सदस्यों को बात बताई उनका राजा तुरन्त उठकर बन्दरिया के पास गया। कई बन्दर इधर-उधर से फल तोड़कर लाए। सभी बन्दर उस बन्दरिया के किनारे उसे घेर कर बैठ गये। इसके बाद बच्चा जब तक स्वस्थ नहीं हो गया उसके पास कुछ न कुछ बन्दर बैठे ही रहे। परस्पर आत्मीयता का यह उत्कृष्ट उदाहरण था जो सृष्टि के अबुद्धिमान मानवेत्तर प्राणियों में भी पाया जाता है।’’

कृतज्ञता मनुष्य जाति का एक ऐसा गुण है कि यदि लोग दूसरे लोगों के उपकार, उनकी सेवाओं के प्रति थोड़ा सा भी श्रद्धा और सम्मान का भाव रखें तो संसार से कलह और झगड़ों की 90 प्रतिशत जड़ तुरन्त नष्ट हो जाये। कृतज्ञता आत्मा की प्यास और उसकी चिरन्तन आवश्यकता है। लगता है यह आदर्श भी मनुष्य को अन्य जन्तुओं से ही सीखना पड़ेगा। मासिक कल्याण के एक अंक में कृतज्ञता की एक बहुत ही मार्मिक घटना छपी थी। एक डाकिया प्रतिदिन डाक लेकर जंगल से गुजरता था और दूसरे गांव डाक बांटने जाया करता था। एक दिन उसने देखा पेड़ की एक डाल में छोटे से छेद से निकलने के प्रयास में एक बन्दर फंस गया है। दूसरे बन्दर कें-कें तो कर रहे थे आपत्ति ग्रस्त बन्दर भी बुरी तरह चिल्ला रहा था; किन्तु उस संकट से छूटना उसके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था। इसी बीच डाकिया उधर से निकला उसे बन्दर की यह दशा देखकर दया आ गयी। उसके पास कुल्हाड़ी थी। पहले तो वह कुछ भयभीत हुआ, पर पीछे उसने अनुभव किया जग मैं भलाई करना चाहता हूं तो बन्दर बुराई क्यों करेंगे। वह वृक्ष पर चढ़ गया और सावधानी से छेद बड़ा कर उसने फंसे हुए बन्दर को बाहर निकाल लिया। बन्दर बड़ी खुशी खुशी वहां से चले गये उन्होंने डाकिये को न डराया न काटा। डाकिया अपनी राह चला गया।

एक सप्ताह भी न बीता था कि एक दिन उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ठीक उसके आने के समय वहां बीसियों बन्दर रास्ते के इधर-उधर बैठे हैं पहले तो पोस्टमैन डरा पर चूंकि कुल्हाड़ी हाथ में थी इसलिए वह निःशंक चला ही गया। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ा बन्दर इकट्ठे होते गये और डाकिया डरता गया किन्तु पास पहुंच कर उसे आश्चर्य हुआ कि यह सभी बन्दर अपने-अपने एक एक हाथ में जंगली प्रदेश में पाया जाने वाला एक-एक लाल रंग का दुर्लभ फल लिए हुए हैं। डाकिये के पास आते ही उन सब ने उसे घेर लिया और अपने-अपने फल उसके हाथ में देकर पल भर में इधर-उधर तितर-वितर हो गये। डाकिये की आंखों में आंसू आ गये। उसने अनुभव किया कि आखिर यह जीव भी तो आत्मा ही है यदि मनुष्य जीव मात्र के प्रति दया का व्यवहार करे तो संसार स्वर्ग बन जाये और नहीं तो कृतज्ञ तो एक दूसरे के प्रति होना ही चाहिए।

श्री सुरेश सिंह लिखित पुस्तक ‘जीव-जगत’ में मगर के गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है कि उदारता के गुणों से तो यह धोखेबाज और मक्कार जीव भी रिक्त नहीं। जलाशय में घूमते-घामते, शिकार आदि खाने के बाद कई बार जब वह बाहर निकलता है तो अपना मुंह खोलकर लेट जाता है। पास-पड़ौस के पक्षी उसके दांतों और मुंह में लगे चारे को देख कर दौड़ पड़ते हैं और मुंह में घुस कर दांत कुरेद कुरेद का आहार ग्रहण करने लगते हैं मगर चाहे तो मुंह बन्द करके उन्हें एक बार में गुडप कर सकता है किन्तु ऐसा पाप उसे भी पसन्द नहीं। शरणागत पक्षियों की सेवा वह तब तक करता है जब तक कि पक्षी अपने आप न उड़ जाएं इस बीच मगर धोखे से भी मुंह बन्द नहीं करता।

बाघ बड़ा उत्पाती जीव है, भूख लगने पर प्राकृतिक प्रेरणा से उसे आक्रमण भी करना पड़ता है किन्तु उस जैसा एकनिष्ठ पतिव्रत और पत्निव्रत देखते ही बनता है। अपना अधिकांश जीवन जंगलों में व्यतीत करने वाले जंगली जानवरों की प्रवृत्तियों का समीप रहकर अध्ययन करने वाले डा. स्टेफर्ड ने एक बहुत ही रोचक घटना दी है। दक्षिण अफ्रीका के जंगल के एक बाघ ने अभी कुछ ही दिन पूर्व अपना जोड़ा चुना था बाघिन—वधू बीमार पड़ गई और उसी अवस्था में एक दिन उसकी मृत्यु भी हो गई। उस जंगल में और भी अनेक बाघ-कुमारियां उसे मिल सकती थीं; किन्तु उस बाघ ने फिर किसी को अपना साथी नहीं चुना। बहुत दिन पीछे उसे एक ऐसी मादा मिली जो स्वयं भी एकाकी जी रही थी उसके प्रति का सम्भवतः देहावसान हो गया था। दोनों विधुरों ने अपना युगल फिर से स्थापित कर लिया पर सामान्य स्थिति में वे सदैव एकनिष्ठ ही रहते हैं। कोई भी जोड़ा एक दूसरे को बुरी दृष्टि से नहीं देखता होगा; किन्तु अपनी सच्चरित्रता के कारण वह सशक्त और समर्थ भी इतना होता है कि जंगल के दूसरे जीव उसको दूर से ही नमस्कार करते हैं।

स्वास्थ्य के लिये दुनिया भर की औषधियां, टानिक और तरह-तरह के संतुलित आहार खोजने वाले मनुष्य चाहें तो घोड़े को देख कर जान सकते हैं कि शक्ति, अधिक संख्या के व्यंजनों में नहीं रूखे सूखे भोजन में है। घास खाने वाले एक जर्मनी के घोड़े को 10 वर्ष तक केवल सूखी हरी घास दी गई और उसे किसी भी प्रकार सहवास से अलग रखा गया। अरबी नस्ल के इस घोड़े को परीक्षण के तौर पर एक-एक कर ऊपर तक पत्थर के कोयले से भरे पांच बैंगनों के साथ जोड़ दिया गया उस घोड़े ने एक मील तक खींचकर अपनी अद्वितीय सामर्थ्य का परिचय दिया।

मनुष्य विश्वासघात करता है तो यह देखकर लज्जा आती है कि जीवन भर दूसरों को बोझा ढोने वाले बैल जिनमें बुद्धि और विवेक के नाम पर कुछ भी तो नहीं होता, वे परस्पर ऐसी प्रगाढ़ मैत्री का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। डा. मूर ने हैम्बर्ग के एक जोड़ी बैलों का हृदय स्पर्शी वर्णन ‘दो बैलों की कहानी’ नामक सत्य घटना में दिया है और लिखा है कि एक किसान के यह दोनों बैल काम तो साथ करते ही थे। खाने पीने से लेकर यात्रा करने तक सदैव साथ रहते थे। कभी-कभी उन्हें अलग होना पड़ता तो दोनों तब तक भोजन नहीं करते थे जब तक कि दूसरा नहीं आ जाता। एक दिन अचानक एक बैल एक खंदक में गिर गया। निकल तो आया वह पर उसके चारों पैर टूट गये। उनकी मरहम पट्टी की गई। वह बीमार भी हो गया। चिकित्सा के इन दिनों में दूसरे ने एक भी तिनका मुंह में नहीं दिया। बीमारी 10 दिन चली दस दिन पीछे लूला बैल संसार से चल बसा, इतने दिन तक कुछ न खाने पीने के कारण दूसरा भी बिलकुल दुर्बल हो गया था, आटा-चून, दलिया सब कुछ देकर आकर्षित करने का प्रयास किया किसान ने, किंतु उस बैल ने खाना तो दूर जिस दिन पहला बैल मरा जल भी छोड़ दिया और तीन दिन पीछे उसने भी इस संसार से विदा ले ली।

लोगों को असीमित साधन जुटाते देखकर लगता है कि मनुष्य कृत्रिम साधनों की बदौलत ही जी रहा है कदाचित यह साधन न मिलें तो उसका जीवित रहना दूभर हो जाय, किन्तु जीव-जन्तु अपवाद हैं और उनकी जीवन शैली यह बताती है कि यदि प्राकृतिक जीवन जिया जाये तो ऐसी क्षमताएं अपने आप अन्दर से उपज पड़ती हैं जो कठिन से कठिन विपरीत परिस्थिति में भी मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। ऊंट एक अच्छा उदाहरण है वह एक बार में 70 लीटर तक पानी पी जाता है पर फिर कई-कई दिनों तक पानी न भी मिले तो भी उसे कोई कष्ट नहीं होता उसकी घ्राणेन्द्रिय इतनी सूक्ष्म होती है कि वह केवल सूंघ कर ही पानी का पता लगा लेता है।

छोटे-छोटे अभावों का रोना रोने वाले आदमियों के लिये दीमक ही योग्य शिक्षक है। जन्म से ही अन्धे यह छोटे-छोटे जीव, जीवन भर अविराम काम करते हैं और ऐसे विलक्षण काम करते हैं कि देखकर आश्चर्य होता है। 10 से 13 फुट तक ऊंचे मकान उठाना इन्हीं का काम है, उस पर वर्षा आंधी तूफान और ऊपर से वृक्ष कट कर गिर पड़े तो भी इनका कुछ बिगड़ेगा नहीं। पुलों के निर्माण से लेकर सड़कें बनाने और सारे दीमक राज्य को अनुशासन एवं नियम व्यवस्था में रखने के उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य वे पूरा करके मनुष्य को बाती हैं कि अनुशासन, नियमबद्धता और तत्परतापूर्वक काम किया जाय तो संसार का छोटे से छोटा व्यक्ति भी असाधारण कार्य सम्पादित कर सकता है।

इस स्तर की स्नेह-सहानुभूति अन्य प्राणियों में प्रचुरता से मिलती है। सम्भवतः यही कारण है कि अन्य जीवों को प्रकृति के अनुदान अधिक मिले हैं कि जीव-जन्तु उसकी प्रेरणाओं का अनुगमन करते हैं।

प्रकृति के अनुदान

जिस ज्ञान पर मनुष्य गर्व करता है और उसके आधार पर अपने को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझता है। उसी क्षेत्र में कई प्राणी मनुष्य को काफी पीछे छोड़ चुके हैं। उदाहरण के लिए वनस्पतियों का ज्ञान पशु-पक्षियों से अधिक एक आयुर्वेदाचार्य भी नहीं रखता। वे देखते अथवा सूंघते ही पहचान लेते हैं कि अमुक वनस्पति विषैली अथवा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है, जबकि मनुष्य उन्हें बड़े-बड़े प्रयोगों के आधार पर ही पहचान पाते है। यदि ऐसा न हो तो बीहड़ जंगलों में जहां हितकर तथा अहितकर वनस्पतियां एक दूसरे के पास ही नहीं; एक दूसरे से लिपट-चिपटकर आती हैं, वे अपना गुजर कैसे कर सकें। शीघ्र ही अज्ञान वश कोई विषैली वनस्पति खाकर जीवन खोते रहते, जबकि न तो उनके लिए कोई मेडिकल कालेज ही खुले हैं और न कोई आयुर्वेदाचार्य उन्हें इस ज्ञान की शिक्षा देने जाता है। इस प्रकार इन साधारण बातों में देख सकते हैं कि पशु-पक्षी, बल, बुद्धि, विद्या, परिश्रम तथा शिल्प आदि में मनुष्यों से कहीं आगे हैं। तब इस आधार पर अपने को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानना कहां तक न्याय संगत है।

कर्त्तव्य के सम्बन्ध में भी मनुष्य पशु-पक्षी की तुलना में कहां आते हैं। परमात्मा ने उन्हें जो भी थोड़े-बहुत, बड़े-छोटे कर्त्तव्य सौंपे हैं उनका वे पूरी तरह से उत्साहपूर्वक निर्वाह करते हैं। वे नित्य नियम से प्रातःकाल जागते अपनी-अपनी भाषा में परमात्मा का गुण-गान करते हैं। दिनभर अपनी जीविका के लिये दौड़ते-घूमते तथा परिश्रम करते हैं और संध्या समय नियत समय पर अपने-अपने निवासों पर लौट आते हैं। वे अपनी आजीविका आप तलाश करते न किसी चीज पर निर्भर रहते और न चुराने का प्रयत्न करते हैं। वे प्रकृति के विशाल प्रांगण से अपना आहार चुग आते और दूसरों के लिये छोड़ आते हैं। न तो संग्रह करने की कोशिश करते हैं और न कुछ चुराने अथवा छीन लाने की। हजारों पशु अपने नियत स्थान पर और न जाने कितने पक्षी एक ही पेड़, खेत अथवा मैदान में साथ-साथ खाते और मौज करते रहते हैं। न तो कोई किसी को भगाता है और न खाने से मना करता है। किसने कितना खा लिया इस ओर तो उनका कभी ध्यान ही नहीं जाता। यदि एक जाति के पक्षियों के बीच विजातीय पक्षियों का झुण्ड आ जाता है तो वे उन्हें भी आहार ग्रहण करने का पूरा अवसर तथा स्वतन्त्रता देते हैं।

कभी भी देखा जा सकता है कि जब कोई पशु-पक्षी कहीं आहार का संग्रह देख लेता है तो चुपचाप चोर की तरह खाने नहीं लगता, वह सबसे पहले अपनी भाषा में अपने सहचरों को बुला लेता है और तब सबके साथ मिलकर खाया करता है। आप कभी भी किसी स्थान पर दाने डालकर देख सकते हैं कि जहां एक पक्षी ने देखा कि उसने दूसरों को पुकारना शुरू किया और थोड़ी ही देर में पंडुक, गौरैया तोते आदि न जाने कितने पक्षी वहां पर जमा हो जायेंगे। लोग बन्दरों को चने अथवा गेहूं डालते हैं। वहां एक बन्दर ने देखा नहीं कि उसने ऊहऊह करके आवाज देना शुरू किया और क्षेत्र के सारे छोटे-बड़े बन्दर आकर उसका लाभ उठाते हैं। खाते समय भी कोई सबल कदाचित ही किसी निर्बल को भगाता हो। नर एवं मर्दाना का भी उनमें कोई अन्तर नहीं देखा जाता।

अपने नीड़ में सुरक्षित ही क्यों न बैठा हो किन्तु खतरा देखते ही कोई भी पक्षी तत्काल चीख-चीख कर सबको उस खतरे के प्रति सावधान कर देता है। कभी भी देखा जा सकता है कि किसी विलाव अथवा बाज को कोई ऐसा पक्षी देखले जो उनकी आंखों से ओट में बैठा हो अथवा उनकी पहुंच से परे हो, और उनका खतरा किसी अन्य पक्षी को ही क्यों न हो तथापि यह विचार किये बिना कि बाज या विलाव उसे देख लेगा, वह चीख-चीखकर अपने साथियों को सजग कर देता है। गिलहरी बिल्ली के देखते ही किर-किर करती हुई तब तक पेड़ पर दौड़ती रहती है जब तक बिल्ली ही न भाग जाये अथवा सारी गिलहरियों के साथ पक्षी तक सजग एवं सतर्क नहीं हो जाते। किसी कारण से कभी लड़ चुकने पर भी पक्षी अथवा पशु खतरे से अपने उस द्वेषी को भी सावधान करने के अपने कर्त्तव्य से नहीं चूकता। पशु-पक्षी एक दूसरे को, खुजलाते, सहलाते, चाटते तथा रोमों की कीट बीनते कभी भी देखे जा सकते हैं। यह सब देखकर स्पष्ट कहा जा सकता है कि सहायता, सहयोग तथा पारस्परिकता के आधार पर मनुष्य पशु-पक्षियों से किसी भी दशा में आगे नहीं है।

मजबूरी के कारण हिंस्र जीवों को छोड़कर अन्य कोई भी पशु-पक्षी मनुष्य को कभी भी कोई क्षति नहीं पहुंचाता। बल्कि मनुष्य ही उल्टा अपने मनोरंजन के लिए पिंजड़ों में बन्दी कर लेता है, स्वाद के लिये मारकर खा जाता है। काम लेने के लिए अपने अधीन बना लेता है। चमड़ा, हड्डी तथा चरबी के लिये उनका वध करता रहता है। मनुष्य पशु-पक्षियों को क्षुद्र तथा उनके साथ उठ-बैठ सकता है; अपने से हीन मानता है किन्तु यह नहीं देखता कि पशु-पक्षी उसे कितना क्षुद्र तथा अविश्वासी मानते हैं। जंगली हिरन गायों के बीच जा सकता है भैंसों, बैलों तथा अन्य तृण जीवों पशुओं के बीच चर सकता है किन्तु मनुष्य की छाया से घृणा करता है उसे देखते ही दूर भाग जाता है। एक पक्षी बैल के सींग पर बैठ सकता है, उसकी आंख नाक में लगी चीजों को निर्भयता पूर्वक अपनी चोंच से खा सकता है। शेर तक की पीठ पर बैठकर उसके रोओं के कीटाणु चुन सकता है, किन्तु मनुष्य पर भूलकर भी विश्वास नहीं करता। दूर से ही इस अपने को दिव्य प्राणी कहने वाले को देखकर ‘फुर’ से उड़ जाते हैं। इस तुलना में तो सच पूछा जाये तो मनुष्य पशु-पक्षियों से गया बीता ही है।

कृतज्ञता तथा वफादारी में मनुष्य पशु-पक्षियों की तुलना ही नहीं कर सकता। आप किसी कुत्ते के बच्चे को पालिये। उसका प्रेमपूर्वक पालन कीजिये तो वह होश संभालते ही रात-रात भर आपके घर की चौकसी करता रहेगा। जरा सा खटका होते ही भौंक-भौंक कर आपको सजग कर देगा। आपत्ति के समय प्राण देकर भी आपकी रक्षा करेगा। आपके आक्रमणकारी पर आपसे पहले ही जा पहुंचेगा। फिर भी इसके लिये वह आप पर कोई अहसान न दिखलायेगा। आपसे कोई विशेष सुविधा अथवा अच्छा भोजन न मांगेगा। आप जो कुछ जूठा, सीठा, ताजा वासी दें देंगे खोकर सन्तुष्ट रहेगा और कृतज्ञता पूर्वक आपके चारों ओर दुम हिलाता घूमेगा आपके पैरों में प्रेम से लिपटेगा। न जाने कितने चेतक आदि स्वामी भक्त घोड़ों और हाथियों ने अपने पालन कर्त्ता की जान बचाने में अपनी जान गंवा दी है और आज भी गंवा देते होंगे। कितने मनुष्यों के ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं जिन्होंने अपनी उपकारी पशु के लिये खतरा झेल लिया हो, उसकी रक्षा में जान खोई अथवा क्षति उठाई हो। इन सब बातों के होते हुए भी यदि मनुष्य अपने आपको पशु-पक्षियों से ऊंचा और सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता है तो यह उसका दम्भ ही कहा जायगा।

हां मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी तब माना जा सकता है जब वह इन पशु-पक्षियों की विशेषताओं तथा गुणों से आगे बहुत आगे निकल जाये। उसमें इतने प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा तथा उदारता एवं सम्वेदना का विकास हो जाये कि परस्पर संघर्ष, शोषण तथा असहयोग, द्वेष, ईर्ष्या आदि के विचार तो दूर ही हो जायें साथ ही संसार के अन्य पशु-पक्षियों तक पर भी उसका प्रभाव पड़े। वह मनुष्य को देखते ही प्रेम विभोर होकर अपनी-अपनी बोली में ‘‘हमारा जेष्ठ एवम् श्रेष्ठ आ गया’’ कहते हुये उसका स्वागत करने लगें और चारों ओर घेरकर अपना स्नेह तथा श्रद्धा व्यक्त करने लगें। अभी वह दिन दूर है जब मनुष्य अपने को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाने के योग्य होगा।
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