असामान्य और विलक्षण किंतु संभव और सुलभ

दैहिक सीमाओं से परे आत्मा का विचरण

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आद्य शंकराचार्य ने एक शास्त्रार्थ प्रयोजन में काम-शास्त्र का अनुभव प्राप्त करने के लिए अपने शरीर में से आत्मा को निकालकर मृत सुधन्वा के शरीर में प्रवेश किया था। परकाया प्रवेश की इस प्रक्रिया का उद्देश्य पूरा होने पर वे पुनः अपने शरीर में वापिस लौट आये थे।

रामकृष्ण परमहंस ने अपनी आत्मा को विवेकानन्द में प्रवेश कर दिया था। परमहंस जी के स्वर्गवास के अवसर पर विवेकानन्द को भान हुआ कि कोई दिव्य-प्रकाश उनके शरीर में घुस पड़ा और उनकी नस-नस में नई शक्ति भर गई।

शंकराचार्य के उदाहरण से मृत शरीर पर किसी अन्य जीवात्मा का आधिपत्य हो सकने की बात प्रकाश में आती है और परमहंस जी के परकाया प्रवेश से जीवित मनुष्य में किसी समर्थ व्यक्तित्व के प्रवेश कर जाने का लक्ष्य सामने आता है। परकाया प्रवेश की अध्यात्म सिद्धियों के सन्दर्भ में चर्चा होती रही है। यह आंशिक समान रूप से पारस्परिक विनियोग की तरह सम्भव है। शक्ति-पात दीक्षा में गुरु अपना एक अंश शिष्य के व्यक्तित्व में हस्तांतरित करता है।

आत्मा स्वामी है और शरीर सेवक। आत्मा यात्री है और शरीर वाहन। स्वामी की अपनी दुर्बलताएं ही सेवक के श्रम-सहयोग से वंचित रह सकती हैं। स्वेच्छाचार बरतने वाले सेवकों को देखकर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्वामी को अपने पद का ध्यान नहीं रहा। वाहन रहते हुए भी यदि सवार को पैदल चलना पड़े तो समझना चाहिए कि उसे अपने साधन के उपभोग की समुचित जानकारी नहीं है।अपने शरीर पर तो आत्मा का आधिपत्य होता ही है, यदि उसकी सामर्थ्य बल है तो

वह दूसरों के शरीर का भी अपने लिए उपयोग कर सकता है। ऐसा जीवित अवस्था में भी हो सकता है और प्रेतात्माएं भी वैसा कर सकती हैं।
दो अमरीकी प्रोफेसरों ने मिलकर एक किताब लिखी है, ‘‘बीसवीं सदी में, अचेतन मनोविज्ञान की खोज।’’ इसमें आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता तथा पुनर्जन्म को सिद्ध करने वाले अनेकों प्रमाण दिये गये हैं। इसी पुस्तक में परकाया प्रवेश सम्बन्धी कई घटनाओं तथ्यों का संकलन किया गया है। उनमें से कुछ ये हैं—

एक बर्तन विक्रेता घर से टहलने निकला और गायब हो गया। जाकर मशीनों की मरम्मत का काम करने लगा। दो वर्ष बाद सहसा घर की सुधि आई। जैसे गहरी नींद टूटी हो। घर वापस पहुंचा। पता चला, मशीनों की मरम्मत का वही काम एक अन्य व्यक्ति करता था जो कुछ ही समय पहले मरा था। बर्तन विक्रेता दो वर्ष तक उसी व्यक्ति की तरह काम करता रहा। वहां सभी कर्मचारियों के नाम—व्यवहार सराय, होटल सब उसे याद थे। घर लौटकर धीरे-धीरे आते वह सब भूल गया और पूर्ववत् अपना पुराना कसेरे का धन्धा करने लगा। डा. आसबन ने इस घटना को विस्तार से प्रकाशित किया। अनुमान यह किया गया कि मशीनों की मरम्मत करने वाले व्यक्ति की आत्मा ने कसेरे की आत्मा को दो वर्ष तक अपने कब्जे में रखा। जब वह आत्मा कब्जा छोड़कर चली गई, तो पुरानी आत्मा अपनी स्वतन्त्र सत्ता का परिचय पुनः दें सकी। इस बीच वह दबी रही।

कभी-कभी ऐसे घटनाक्रम भी प्रकाश में आते हैं कि किसी मृतात्मा ने किसी दूसरे जीवित मनुष्य के शरीर पर आधिपत्य जमा लिया और उसका उपयोग मन मर्जी से करती रही। भूत-प्रेतों के आवेश की चर्चा झाड़-फूंक के क्षेत्र में आधे दिन होती रहती है। उनमें अधिकतर तो मानसिक दुर्बलता, मूढ़ मान्यता, अर्ध उन्मुक्त की मनः स्थिति, झूठ-मूठ का नाटक एवं सम्बद्ध व्यक्तियों द्वारा छोड़ी गई छाप ही प्रमुख कारण होती है, फिर भी ऐसे तत्त्वों की कमी नहीं जिनमें मृतात्माओं के अन्य शरीर पर अधिकार जमा लेने की बात सिद्ध होती है। इस प्रकार के अधिकार प्रायः अस्थायी होते हैं। आत्माएं अपना उद्देश्य पूरा करके उस आधिपत्य को अनायास ही छोड़कर चली जाती हैं अथवा उदासीन हो जाती हैं।

किन्हीं विशिष्ट आत्माओं ने दूसरों के शरीर में प्रवेश करके उनसे कुछ विशिष्ट काम कराये ऐसी घटनाएं संसार के अनेक भागों में घटित होती रही हैं।
विश्व विख्यात कलाकार गोया की आत्मा ने अमेरिका की एक विधवा हैनरोट के शरीर में प्रवेश करके उसके द्वारा गवालन नामक एक अद्भुत कलाकृति का सृजन कराया था। यह समाचार उन दिनों अमेरिका में अनेक पत्रों में प्रकाशित हुआ था।
रोड्स नगर के एक नागरिक ऐसेलवर्न बैंक से दस हजार का चैक भुनाकर निकले और सहसा गायब हो गये। घर वाले ढूंढ़-ढूंढ़कर थक गये। ऐसेलबर्न सैकड़ों मील दूर एक नगर में जाकर वहां चीनी का व्यापार करने लगा। नाम बताता अपना—ए.से. ब्राउन। उसने पहले यह व्यापार कभी भी नहीं किया था। अब एक निष्णात व्यापारी की तरह काम कर रहा था। दो माह बाद जैसे स्वप्न टूटा, वह चौंका। यह चीनी का व्यापार मैंने तो कभी नहीं किया और मेरा घर भी यहां नहीं। वह भागा और पुराने घर जा पहुंचा। इस घटना का भी निष्कर्ष यही निकाला कि किसी मृत व्यापारी की आत्मा ने उसे वशवर्ती कर लिया था।

1894 में डॉक्टर डामा के पास एक सुशिक्षित बेहोश रोगी आया। वह चंगा हो गया। पर शिशुवत् आचरण व चिंतन करने लगा। पढ़ना-लिखना भूल चुका था। कई महीनों तक यही दशा रही। फिर उसे जैसे कुछ याद आया और वह पुनः प्रौढ़ व्यक्तित्व का स्वामी बन गया।

वोस्टन के डा. नार्टन प्रिंस के पास आई एक महिला की भी कुछ यही स्थिति थी। वह प्रतिदिन कुछ घन्टे तक एक अन्य ही व्यक्तित्व बन जाती। व्यवहार, क्रिया-कलाप, उच्चारण, सब भिन्न। वह एक स्वस्थ पुरुष जैसा आचरण करती। अपना नाम भी किसी पुरुष का नाम बताती। फिर अपने महिला व्यक्तित्व में लौट आती।

परकाया प्रवेश—

एक ही तारीख, एक ही दिन धरती के ठीक विपरीत दो भागों में एक ही नाम के दो व्यक्ति बीमार पड़े। अचेतावस्था में एक का प्राण दूसरे के शरीर में, दूसरे के प्राण पहले के शरीर में परिवर्तित हो जायें तो? उसे मात्र संयोग नहीं वरन् आत्मा का अद्भुत तत्त्व दर्शन और किसी सर्वोपरि बुद्धिमान सत्ता की अनोखी लीला ही कहेंगे।

प्रस्तुत घटना उसका जीता जागता उदाहरण है। यह घटना सर्वप्रथम सेन्टपीटर्स वर्ग की वीकली मेडिकल जनरल में छपी, उसे के आधार पर उसे ‘‘थियोसॉफिकल इन्क्वारीज’’ ने छापा। 22 सितम्बर सन् 1874 की बात है रूस के यूराल पर्वत स्थित नगर और वर्ग का एक धन कुबेर यहूदी बीमार पड़ा, डाक्टरों ने उसे सन्निपात होना बताया। उसकी नाड़ी लगभग टूट गई, शरीर ठंडा पड़ गया, बत्तियां जला दी गईं अन्तिम प्रार्थना की जाने लगी तभी मरणासन्न यहूदी इब्राहिम चारको के शरीर में फिर से चेतना लौटती दिखाई दी, श्वांस गति धीरे-धीरे तीव्र हो उठी, आंखें खुल गईं उसने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई लगा अब बिल्कुल ठीक हो गया, कुछ गड़बड़ दीख रही थी इतनी ही कि वह कुछ विस्मित, आश्चर्य चकित सा दीख रहा था मानो इस स्थान के लिए वह निरा अनजान हो।

होश में आने के बाद इब्राहीम चारको ने जो शब्द कहे उन्हें सुनकर घर वाले थोड़ा चौंके क्योंकि वह भाषा घर में कोई नहीं समझ पाया। घर वालों ने अपनी भाषा में बात-चीत करनी चाही पर इब्राहीम चारको ने जो कुछ कहा उसे घर का एक भी सदस्य नहीं समझ पाया। लोगों ने समझा इब्राहीम पागल हो गया। वह इसी तरह दिन भर बड़-बढ़ाता, शीशे में चेहरा देखता और घर से भागने की चेष्टा करता। पागलों का इलाज करने वाले डॉक्टर परेशान थे कि पागल होने पर मनुष्य चाहे जितना ऊल-जुलूल बोले पर बोलता अपनी भाषा है और अस्त-व्यस्त बोलता है पर इब्राहीम जो कुछ बोलता है वह सब एक ही भाषा के शब्द हैं। उसने कागज पर कुछ लिखा उसे भाषा विशेषज्ञों से पढ़ाया गया तो पता चला कि उसने जो लिखा वह लैटिन भाषा के क्रमबद्ध शब्द और वाक्य थे जो निरर्थक नहीं थे। इब्राहीम चारको को लैटिन के एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं था यही हैरानी थी कि वह आधे घण्टे के अन्तर से लैटिन किस तरह जान गया।

अब उसे सेन्टीपीटर्स वर्ग की मेडिकल यूनिवर्सिटी में ले जाया गया। वहां लैटिन भाषा जानने वाले प्रोफेसर आरेलो ने उसका परीक्षण किया। पहली बार इब्राहीम ने खुलकर लैटिन में बात की उसने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा आज मैं खुश हूं कि कम से कम आप मेरी बात तो सुन और समझ सकते हैं। आप यकीन नहीं करेंगे पर यह है सच भगवान् जाने कैसे हुआ पर मैं ब्रिटिश कोलम्बिया (उत्तरी अमेरिका) का रहने वाला हूं। न्यूवेस्ट मिनिस्टर में मेरा घर है। मेरी पत्नी भी है और बच्चा भी। मेरा नाम इब्राहीम ही है पर इब्राहीम चारको नहीं इब्राहीम उरहम है। प्रोफेसर आरलो ने उस समय तो यही कहा कि यह सब जासूसी षड्यन्त्र सा लगता है। इससे अधिक वे कुछ जान न पाये। इसी बीच इब्राहीम वहां से चुपचाप भाग निकला फिर बहुत दिनों तक उसका पता न चला लोगों ने समझा वह किसी नदी जोहड़ में डूबकर मर गया।

कुछ दिन बाद ब्रिटिश कोलम्बिया के अखबारों में एक विचित्र घटना छपी। ठीक उसी दिन जिस दिन रूस का इब्राहीम चारको बीमार पड़ा था न्यूवेस्ट मिनिस्टर के एक साधारण परिवार में भी इब्राहीम इरहम नामक अंग्रेज बीमार पड़ा। न्यूवेस्ट मिनिस्टर ग्लोब में ठीक मोरन वर्ग की सीध में पड़ता है यदि कोई लम्बी कील ओरन वर्ग से घुसेड़ी जाये और वह पृथ्वी आर-पार कर जाये तो न्यूवेस्ट मिनिस्टर में ही पहुंचेगी। बीमार थोड़ी देर अचेत रहा और जब होश में आया तब यहूदियों जैसी भाषा बोलने लगा। उसने अपने बच्चों तक को पहचानने से इनकार कर दिया। इसी बीच एक दूसरा इब्राहीम न्यूवेस्ट मिनिस्टर आ पहुंचा उसकी शक्ल सूरत रूसियों की सी थी पर वह लैटिन बोलता था और इब्राहीम उरहम की पत्नी को अपनी पत्नी बताता था। उसने बहुत सी ऐसी बातें बताईं जो केवल वह और उसकी पत्नी ही जानते थे। पत्नी ने वे सारी बातें स्वीकार तो कीं पर उसने कहा—सब बातें सच होने पर भी शक्ल में तो तुम मेरे पति से भिन्न शरीर के हो।

यह समाचार अखबारों में छपा तब प्रो. आरलो स्वयं ब्रिटिश कोलम्बिया आये और यह देखकर हैरान रह गये कि यह वही व्यक्ति था जिसका उन्होंने पूर्व परीक्षण किया था। आत्म-विज्ञान की जानकारी के अभाव में पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इस घटना का कुछ अर्थ न निकाल सके। रहस्य, रहस्य ही बना रह गया किन्तु इस घटना की बात करने वाले अमरीकन आज भी आश्चर्यचकित होकर विचार करते हैं क्या सचमुच शरीर से पृथक कोई आत्म-चेतना है जो शरीर के व्यापार में संलग्न होकर भी मुक्त जीवन तत्त्व हो? इस रहस्य का विश्लेषण भारतीय धर्म विज्ञान और तत्त्व-दर्शन ही कर सकता है। विविध योग साधनाओं द्वारा इस सत्य का यथार्थ ज्ञान और अनुभूति कोई भी मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

15 अप्रैल 1897 को एक पादरी मोटर दुर्घटनाग्रस्त हो गये। बेहोशी में अस्पताल ले जाये गये। होश आया तो एक छोटे बालक का ही आचरण करने लगे। पिछला नाम, पता, व्यवसाय सब भूल गये। पहले वे यहूदी भाषा नहीं जानते थे। शिशु रूप में अब यहूदी बोलते। परेशान होकर डाक्टरों ने उन्हें लन्दन से न्यूयार्क भेजा। वहां चिकित्सा चली। धीरे-धीरे सुधार हुआ। लम्बे समय तक कभी बालक व्यक्तित्व मुखर रहता, कभी पादरी-व्यक्तित्व। अरसे बाद अन्ततः वे असली व्यक्तित्व में लौट सके।

मृतात्माएं दूसरों के शरीर पर किस स्थिति में? किन पर? और किस लिए आधिपत्य स्थापित करती हैं इसका सही उत्तर दें सकना तो आज की स्थिति में कठिन है, पर अनुमान यह लगाया जा सकता है कि कोई मनस्वी आत्मा अपने से दुर्बल पड़ने वाले व्यक्तित्वों पर छा जाने में अधिक सफल होता है। पूर्व परिचय एवं स्नेह-सौहार्द्र भी एक कारण हो सकता है। अतृप्त आत्माएं सांसारिक जीवन का आनन्द लेना चाहती हैं, अथवा अपनी अभिलाषाएं पूरी करने के लिए आतुर होती हैं। यह इन्द्रिय क्षमता से युक्त स्थूल शरीर से ही सम्भव है। सूक्ष्म शरीर मानसिक अनुभूतियां तो ले सकता है, पर स्थूल इन्द्रियों के अभाव से भौतिक वस्तुओं का उपभोग उसके लिए शक्य नहीं होता। अस्तु इस प्रयोजन के लिए वे दूसरों के शरीरों पर आधिपत्य जमाते हैं और अपना मनोरथ पूरा करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी हो सकते हैं।

यह आधिपत्य थोड़े समय के लिए आवेश, उन्माद स्तर का भी हो सकता है और उसका एक रूप यह भी सम्भव है कि शरीर का असली स्वामी जीवात्मा मूर्छित अवस्था में जा पड़े और उस शरीर का उपयोग कोई अधिकार जमाने वाली सत्ता मन चाहे ढंग से करती रहे।

योगसाधना द्वारा भी साधक सिद्धगण परकाया प्रवेश की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। एक सिद्ध पुरुष के आंखों देखे गये परकाया प्रवेश का विवरण कमांडर एल.पी. फैरेल ने लिखा है। घटना सन् 1939 की है। एक दिन पश्चिमी कमान के सैनिक कमाण्डेन्ट श्री एल.पी. फैरेल अपने सहायक अधिकारियों के साथ एक युद्ध सम्बन्धी योजना तैयार कर रहे थे। यह स्थान जहां पर उनका कैम्प लगा हुआ था, आसाम-बर्मा की सीमा पर था। वहीं पास से एक नदी बहती थी। नदी के पास ही यह मंत्रणा चल रही थी।

एकाएक कुछ अधिकारियों का ध्यान नदी की ओर चला गया। श्री फैरेल ने भी उधर देखा तो उनकी भी दृष्टि अटक कर रह गई। टेलेस्कोप उठाकर देखा एक महा जीर्ण-शीर्ण शरीर का वृद्ध संन्यासी पानी में घुसा एक शव को बाहर खींच रहा है। कमजोर शरीर होने से शव ढोने में अड़चन हो रही थी। हांफता जाता था और खींचता भी। बड़ी कठिनाई से शव किनारे आ पाया। श्री एल.पी. फैरेल यद्यपि अंग्रेज थे पर अपनी बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिक विषयों में रुचि उन्हें प्रगाढ़ कर ली थी। भारतवर्ष में एक उच्च सैनिक अफसर नियुक्त होने के बाद तो उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। भारतीय तत्त्व दर्शन का उन्होंने गहरा अध्ययन ही नहीं किया, जिसकी भी जानकारी मिली, वह सिद्ध महात्माओं के पास जा-जाकर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान भी करते रहे। धीरे-धीरे उनका परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल और आत्मा की अमरता पर विश्वास हो चला था। यह घटना तो उनके जीवन में अप्रत्याशित ही थी और उसने उनके उक्त विश्वास को निष्ठा में बदल दिया। श्री फैरेल एक अंग्रेज ऑफिसर के रूप में भारत आये थे पर जब वे यहां से लौटे तब उनकी आत्मा में शुद्ध हिन्दू संस्कार स्थान ले चुके थे।

एक वृद्ध शव क्यों खींच रहा है? इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक ही थी। योजना तो वहीं रखी रह गई, सब लोग एकटक देखने लगे कि वृद्ध संन्यासी इस शव का क्या करता है? वृद्ध शव की खींचकर एक वृक्ष की आड़ में ले गया। फिर थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा, कुछ पता नहीं चला कि वह क्या कर रहा है। कोई 15-20 मिनट पीछे ही दिखाई दिया कि वह युवक जो अभी शव के रूप में नदी में बहता चला आ रहा था, उन्हीं गीले कपड़ों को पहने बाहर निकल आया और कपड़े उतारने लगा। सम्भवतः वह उन्हें सुखाना चाहता होगा।

मृत व्यक्ति का एकाएक जीवित हो जाना एक महान् आश्चर्यजनक घटना थी और एक बड़ा भारी रहस्य भी जो श्री फैरेल के मन से कौतूहल भी उत्पन्न कर रहा था, आशंका भी। उन्होंने कुछ सैनिकों को आदेश दिया—सशस्त्र सिपाहियों ने जाकर युवक को घेर लिया और उसे बन्दी बनाकर श्री फैरेल के पास ले आये।

युवक के वहां आते ही श्री फैरेल ने प्रश्न किया ‘‘वह वृद्ध कहां है’’ इस पर युवक हंसा जैसे इस गिरफ्तारी आदि का उसके मन पर कोई प्रभाव ही न पड़ा हो और फिर बोला ‘‘वह वृद्ध मैं ही हूं।’’ लेकिन अभी कुछ देर पहले तो तुम शव थे, पानी में बह रहे थे, एक बुड्ढा तुम्हें पानी में से खींचकर किनारे पर ले गया था फिर तुम प्रकट हो गये, यह रहस्य क्या है, यदि तुम्हीं वह वृद्ध हो तो उस वृद्ध का शरीर कहां है?’’ आश्चर्यचकित फैरेल ने एक साथ ही इतने प्रश्न पूछ डाले, जिनका एकाएक उत्तर देना असम्भव-सा था।

युवक ने संतोष के साथ बताया—‘‘हम योगी हैं, हमारा स्थूल शरीर वृद्ध हो गया था, काम नहीं देता था, अभी इस पृथ्वी पर रहने की हमारी आकांक्षा तृप्त नहीं हुई थी। किसी को मारकर बलात् शरीर में प्रवेश करना तो पाप होता, इसलिये बहुत दिन से इस प्रतीक्षा में था कि कोई अच्छा शव मिले तो उसमें अपना यह पुराना चोला बदल ले। सौभाग्य से यह इच्छा आज पूरी हुई। मैं ही वह वृद्ध हूं, यह शरीर उस युवक का था, अब मेरा है।’’

इस पर फैरेल ने प्रश्न किया—तब फिर तुम्हारा पहला शरीर कहां है?
संकेत से उस युवक शरीर में प्रवेशधारी संन्यासी ने बताया—वह वहां पेड़ के पीछे अब मृत अवस्था में पड़ा है। अपना प्राण शरीर खींचकर उसे इस शरीर में धारण कर लेने के बाद उसकी कोई उपयोगिता नहीं रही। थोड़ी देर में उसका अग्नि संस्कार कर देते, पर अभी तो इस शरीर के कपड़े भी नहीं सुखा पाये थे कि आपके इन सैनिकों ने हमें बन्दी बना लिया।

श्री फैरेल ने इसके बाद उन संन्यासी से बहुत सारी बातें हिन्दू-दर्शन के बारे में पूछीं और बहुत प्रभावित हुये। वह यह भी जानना चाहते थे कि स्थूल शरीर के अणु-अणु में व्याप्त प्रकाश शरीर के अणुओं को किस प्रकार समेटा जा सकता है, किस प्रकार शरीर से बाहर निकाला और दूसरे शरीर में अथवा मुक्त आकाश में रखा जा सकता है? पर यह सब कष्ट साध्य योग साधनाओं से पूरी होने वाली योजनायें थीं, उसके लिये श्री फैरेल के पास न तो पर्याप्त साहस ही था और न ही समय पर उन्होंने यह अवश्य स्वीकार कर लिया कि सूक्ष्म अन्तर्चेतना से सम्बन्धित भारतीय तत्व-दर्शन कोई गप्प या कल्पना मात्र नहीं, वह वैज्ञानिक तथ्य हैं, जिनकी ओर आज योरोपीय वैज्ञानिक बढ़ रहे हैं।

कोश (सेल) स्थिति नाभिक (न्यूक्लियस) में, जिसमें जीवित चेतना के सूक्ष्मतम संस्कार माला के मनकों की तरह पिरोये हैं, स्वतन्त्र कोष में शरीर निर्माण की क्षमता है, अमीवा के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रकट हो गया है। पर वैज्ञानिक अभी यह स्वीकार नहीं करते कि न्यूक्लियस स्वतन्त्र अवस्था में भी रह सकता है। उस सिद्धान्त की पुष्टि भारतीय दर्शन का यह परकाया प्रवेश सिद्धान्त करेगा। भूत-प्रेत की कल्पना को भले ही लोग एकाकार स्वीकार न करें पर श्री फैरेल के उक्त संस्मरण को धोखा नहीं कहा जा सकता। वे एक जिम्मेदार व्यक्ति थे और यह घटना उन्होंने स्वयं ही 17 मई 1959 के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उद्धृत की थी।

हारवर्ड विश्व विद्यालय अमेरिका के डॉक्टर आसवन ने अपनी मनोवैज्ञानिक खोजों में कई सच्ची घटनाओं का उल्लेख दिया है, जो किसी व्यक्ति में किसी अन्य आत्मा का प्रवेश हो जाना सम्भव बताती हैं। उन्होंने एक कारीगर का उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक दिन अनायास ही वह अपने औजार फैंक कर चिल्लाया कि मैं यहां कैसे आ गया और यह बेकार काम कैसे करने लगा? सही यह है कि दो वर्षों से उसने अपना असली घर छोड़ दिया था। किसी आत्मा के प्रभाव में आकर ही उसने घर छोड़ा और वह काम करने लगा जिसका उसे अभ्यास नहीं था। जब तक वह उस आत्मा के प्रभाव में रहा तब तक वह अपना नाम व असली घर भूला हुआ था।

सम्मोहन और परकाया प्रवेश

सम्मोहन विद्या एक प्रकार से परकाया प्रवेश का ही दूसरा रूप है। प्रयोक्ता अपने प्रचण्ड मनोबल का प्रहार करता है, और जिस पर प्रयोग किया गया है उसके बाह्य मस्तिष्क की चेतना को पीछे अन्तर्मन के धकेल देता है। यह अर्ध मूर्छित स्थिति हुई। सोचने-समझने वाला मस्तिष्क निद्राग्रस्त हो गया और उसकी जगह प्रयोक्ता का मनोबल काम करने लगा। सारे मस्तिष्कीय तन्त्रों का उपयोग तब तक वही करता है जब तक कि उस बलात् निद्रा से मुक्ति नहीं मिल जाती। प्रयोक्ता को प्रहार और उपभोक्ता की सहज स्वीकृति नहीं मिल जाती। प्रयोक्ता को प्रहार और उपभोक्ता की सहज स्वीकृति का समन्वय ही सम्मोहन की स्थिति उत्पन्न करता है। दोनों में से एक पक्ष भी दुर्बल न हो तो प्रयोग सफल न हो सकेगा।

स्व सम्मोहन का स्तर अधिक ऊंचा है उसमें प्रबल आत्म शक्ति के द्वारा ही अपने चेतन मस्तिष्क को अर्धतन्द्रा में धकेल दिया जाता है और अचेतन को सामान्य जीवन संचार की व्यवस्था जुटाते रहने के लिए सीमित कर दिया जाता है। इसे योग-निद्रा या समाधि कहते हैं। इसमें अहिर्निश श्रम संलग्न रहने वाले बाह्य मस्तिष्क की कृत्रिम शक्ति साथ ही दिव्य निद्रा का आनन्द मिलता है। इस विश्रान्ति के उपरान्त एक नई स्फूर्ति का लाभ मिलता है। साथ ही चेतना की अनावश्यक परतों को दुर्बल एवं आवश्यक परतों को सबल बनाने का अवसर मिलता है। योगी लोग आत्मोत्कर्ष के अन्यान्य उच्चस्तरीय लाभ भी इस योग-निद्रा द्वारा प्राप्त करते हैं। सामान्यतया प्रचलित स्व सम्मोहन भी अपना मनोबल बढ़ाने, बुरी आदतें छुड़ाने एवं उपयोगी निष्ठाएं जमाने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहा है।

स्व सम्मोहन कठिन है। आत्मबल को प्रखर बनाने के उपरान्त ही उसमें इतनी क्षमता उत्पन्न होती है कि जागृत मस्तिष्क को शिथिल बना सके और उस स्थिति का लाभ लेकर अनावश्यक को हटाने एवं आवश्यक को जमाने का कार्य पूरा कर सके। आमतौर से जागृत मस्तिष्क ही सबल होता है, और वह अपनी सर्वोपरि सत्ता को चुनौती दी जाना स्वीकार नहीं करता। तर्क और सन्देह के आधार पर वह अपने ऊपर होने वाले आक्रमण को पूरी शक्ति के साथ रोकता है। फलतः स्व सम्मोहन की गहराई उत्पन्न होने से भारी कठिनाई उत्पन्न होती है। इतने पर भी शान्त चित्त से, श्रद्धापूर्वक किन्हीं विचारों को बार-बार दुहराने से भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है और उपयोगी मानसिक परिवर्तन के लिए प्रयासों से कुछ तो सफलताएं मिलती ही हैं। यह कुछ-कुछ भी बूंद बूंद करके घड़ा भरने की उक्ति के अनुरूप लाभदायक ही सिद्ध होता है।

‘‘कान्शस ओटोसजैशन’’ ग्रन्थ में फ्रांस के मनोविज्ञान विशारद प्रो. इमाइल कू ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया है कि किस प्रकार इच्छा शक्ति का प्रयोग करके अपने आप में तथा दूसरों में असाधारण परिवर्तन किया जा सकता है। ये प्रयोग शारीरिक और मानसिक रुग्णता को दूर करने में भी बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं।

स्व सम्मोहन आत्म साधना है, सम्मोहन वैज्ञानिक प्रयोग। मानसिक चिकित्सा जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को अर्ध-मूर्च्छित करने की प्रक्रिया द्वारा ही सम्पन्न होता है। इस प्रकार उत्पन्न हुई योग निद्रा इतनी गहरी होती है कि उसमें छोटे-बड़े आपरेशन भी आसानी से हो सकते हैं। पाश्चात्य देशों में यह विज्ञान अब बहुत आगे तक बढ़ गया है और दन्त चिकित्सक तो आमतौर से इस प्रक्रिया का उपयोग करके बिना सुन्न किये ही दांत उखाड़ते रहते हैं, और रोगी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।

हिप्नोटिज्म का हिन्दी अनुवाद ‘सम्मोहन’ है। उसे सामान्यतः एक विशेष प्रकार की सुझाई हुई नींद ‘नर्वस निन्द्रा’ कहा जा सकता है। साधारण नींद में मनुष्य सुधि-बुधि खोकर अचेत हो जाता है। पर सम्मोहन निद्रा में मनुष्य का आधा सचेतन मस्तिष्क भर सोता है। उसके स्थान पर अचेतन अधिक सक्षम हो जाता है और आदेश कर्त्ता के निर्देशों के प्रति पूर्ण सजगता का परिचय देता है। इसे चेतना की सामान्य स्थिति का असामान्य प्रत्यावर्तन कहा जा सकता है। सक्रिय मस्तिष्क की सुषुप्ति और निष्क्रिय की जागृति इसे कहा जाय तो भी बात बनती नहीं है। क्योंकि सक्रिय की निद्रा वाली बात तो सही है, पर जिसे निष्क्रिय कहा जा रहा है वह अपने क्षेत्र में सक्रिय से भी अधिक सक्रिय रहता है और व्यक्तित्त्व के निर्माण में ज्ञानवास चेतना से भी कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी भूमिका का निर्वाह करता है।

डॉक्टर वार्बर की तरह अन्य लोगों को भी यह सन्देह था कि सम्मोहन प्रदर्शनों में कोई पट्ट-शिष्य बाजीगर को सफल सिद्ध करने के लिए, जान-बूझकर ढोंग बनाता है। किंतु आशंका क्रमशः निर्मूल होती चली गई है। जब तक बाजीगरी के कौतुक-प्रदर्शनों का सम्मोहन विद्या का प्रयोग होता था, तब तक उस पर उंगली उठने की काफी गुंजाइश थी पर अब वैसा कदाचित ही होता है। अब यह विद्या मानसोपचार के क्षेत्र में सम्मिलित हो गई है और प्रायः इसी के लिए इसका उपयोग होता है। मस्तिष्क में तर्क शक्ति, इच्छा शक्ति एवं निष्कर्ष क्षमता के कुछ अपने क्षेत्र हैं। सम्मोहन निद्रा में उसी को निष्क्रिय बना दिया जाता है और सम्मोहित व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है मानो उसकी अपनी निजी विचार बुद्धि का अन्त हो गया।

विज्ञानी एरिक्सन ने सम्मोहित व्यक्ति की रंग पहचानने की क्षमता बदल देने—पानी को ही शराब बताकर उसमें नशे के लक्षण उत्पन्न कर देने में सफलता पाई है। इसी प्रकार ‘जनरल आफ सेक्रेटरी’ में मनः शास्त्री के उलमैन के प्रयोग विवरण लेख में उन सफलताओं का वर्णन है, जिनमें शरीर के विभिन्न अवयवों पर विभिन्न परिवर्तन सम्भव कर दिखाये थे। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति का हाथ ठंडे पानी में डलवाया गया और उसे अत्यधिक उष्ण मनवा लेने पर हाथ में छाले उठ आना सम्भव हो गया था। ऐसे ही अनेक विवरण रूसी मानसोपचारक प्लेटोनोव ने अपनी पुस्तक ‘‘दि वर्ल्ड एज ए फिजियोलॉजिकल एण्ड थैराट्यूटिक फैक्टर’’ में प्रकाशित कराये हैं।

रूसी मनःशास्त्री पावलोव के अनुसार सम्मोहन में जादू जैसी कोई बात नहीं वह मनोविज्ञान सम्मत सहज प्रक्रिया है जिसमें कुछ मस्तिष्कीय कणों की अन्तःक्षमता को कृत्रिम रूप से सुला देने और जगा देने की प्रक्रिया को संकल्प शक्ति के आधार पर सम्पन्न कर दिया जाता है।

सम्मोहन से शरीर की सामान्य स्थिति में भी अन्तर आ जाता है। यह अन्तर शरीर परीक्षा में सहज ही शरीर को सुन्न करने में सम्मोहन प्रयोग बहुत सफल हुए हैं। प्रथम महायुद्ध के दिनों रूसी डॉक्टर पोडिया पोलेस्की ने 30 घायलों के शरीर बिना क्लोरोफार्म के ही सुन्न करके दिखाये थे और उनके पीड़ा रहित आपरेशन सम्पन्न किये थे। ब्रिटिश डॉक्टर एस्टल ने इस प्रयोग के आधार पर लगभग 200 आपरेशन सम्पन्न किये थे। योरोप के अनेक देशों में दन्त चिकित्सक बिना कष्ट दांत उखाड़ने में इस पद्धति का प्रयोग करते हैं। दन्त ही में नहीं प्रसव के लिए भी प्रसूति गृहों में यह प्रक्रिया बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। अमेरिका की मेडीकल ऐसोसिएशन ने चिकित्सा विज्ञान के एक प्रामाणिक पद्धति के रूप में सम्मोहन को सन् 1958 से ही मान्यता दें रखी है। इसी प्रकार ‘ब्रिटिश एण्ड अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन’ ने भी उसे उपयोगी चिकित्सा विधि के रूप में प्रामाणिकता प्रदान की है।

‘सम्मोहन किसी समय जादुई करिश्मा समझा जाता था और उसके समर्थकों और विरोधियों के पक्ष में अपनी-अपनी बातें इतने जोर-शोर से कहते थे कि जन-साधारण के लिए उस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट अभिमत बना सकना सम्भव न हो पाता था, पर ऐसी बात नहीं है। उसे विज्ञान की एक तथ्यपूर्ण धारा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। अब सम्मोहन को कला नहीं विज्ञान के रूप में प्रतिपादित किया जाता है। इसे आश्चर्यजनक प्रदर्शनों के रूप में नहीं मनुष्य के लिए उपयोगी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकने वाली विद्या के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। देखा जा सकता है, जैसे हृदय की गति 82 से बढ़कर 146 तक हो जाना, रक्त का बढ़ाव 105 से उठकर 136 तक जा पहुंचना, —तापमान 99 सेन्टीग्रेड से 101 तक देखा जाना। इतना होने पर भी रक्त में जिन तत्त्वों का समावेश है उनके अनुपात में अन्तर नहीं आता। लवण, शकर आदि की जो मात्रा रक्त में विद्यमान थी उसका परिमाण नहीं बदला जा सका। इसी प्रकार बीमारियों के कारण होने वाले कष्ट की अनुभूति तो उतने समय के लिए रुक सकती है, और रोगी अपने को अच्छा अनुभव कर सकता है। इतने पर भी उस बीमारी की जड़ कट जाना सम्भव नहीं होता। हां सुधार का धीमा सिलसिला चल पड़ सकता है।

पूर्व निर्धारित नैतिक मान्यताओं को बदलने के प्रयोग यदि करने ही हों तो उनमें बहुत समय लगेगा और सफलता बहुत धीरे-धीरे मिलेगी। लड़ाइयों में पकड़े गये शत्रु पक्ष के सैनिकों को पहले की अपेक्षा भिन्न मत का बनाने के लिए सम्मोहन विज्ञान के आधार पर प्रयोग होते रहे हैं। उन्हें ‘ब्रेन वाशिंग’ कहा जाता रहा है। इनसे आंशिक सफलता ही मिली है, क्योंकि यह उनकी परिपक्व देशभक्ति की मूल धारा को बदल देने के लिए किये गये अति कठिन कार्य थे। इनकी तुलना में किसी अनाचारी व्यक्ति का अनाचार छुड़ा देना सरल पड़ता है। क्योंकि उस अनाचार की आदत होते हुए भी अन्तःकरण में उसके लिए विरोधी भावना पहले से ही बनी हुई थी।

सम्मोहित व्यक्ति में उसके विनिर्मित व्यक्तित्व की सीमा के अन्तर्गत ही कार्य कराये जा सकते हैं। अचेतन की गहरी परतें अपने भीतर कुछ नैतिक और आत्मिक मान्यतायें अत्यन्त सघन होकर जमाये रहती हैं। उन्हें सम्मोहित प्रयोगों में नहीं छुआ जाता। सामान्य कामकाजी बातों को ही शरीर और मस्तिष्क द्वारा पूरा कराया जा सकता है। किसी व्यक्ति की आन्तरिक आस्था जीव दया पर आधारित है। उसे सम्मोहित स्थिति में मांस खाने के लिए कहा जाय तो मन की गहरी परतें उसका विरोध करेंगी और वह व्यक्ति उस आदेश का पालन करने से इनकार कर देगा। इसी प्रकार किसी का धन या शील हरण करने, किसी की हत्या करने जैसे कुकृत्यों के लिए सम्मोहन कर्त्ता कोई प्रयोग करे तो अन्तःकरण की अस्वीकृति होने पर वे प्रयोग सफल न हो सकेंगे। इसी प्रकार यह भी संभव नहीं कि किसी व्यक्ति की मूल-भूत क्षमता से बाहर के काम कराये जा सकें। हिन्दी पढ़े व्यक्ति से अंग्रेजी बोलने के लिए कहा जाय तो वह न बोल सकेगा। इसी प्रकार इतना वजन उठाने के लिए कहा जाय जो उसकी शारीरिक क्षमता से बाहर हो, तो भी वह इन प्रयोगों में न बन पड़ेगा। आत्म-हत्या कर लेने जैसे आदेश भी सम्मोहित व्यक्ति को स्वीकार्य नहीं होते। इसका तात्पर्य इतना ही है कि प्रदर्शनों में इतनी ही सफलता मिलेगी जितनी कि किसी अनुशासित व्यक्ति से जीवित अवस्था में सहमत करके कराया जा सकता है। प्रकारान्तर से इन्हें काम-काजी सहमति से लादी हुई सफलता भर कह सकते हैं।

सत्संग और कुसंग का प्रभाव सर्वविदित है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह और गाय एक घाट पानी पीते थे। यह उस आत्म-चेतना का ही प्रभाव था जो प्रचंड होने के कारण अपने क्षेत्र में एक प्रकार से सम्मोहन का वातावरण उत्पन्न किये रहती थी। नारद जी के थोड़े से सम्पर्क से ही प्रहलाद, ध्रुव, पार्वती, वाल्मीकि आदि अनेकों को दिशा मिली और जीवन-क्रम उलट गये। भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आने वाले अंगुलिमाल, अम्बपाली जैसे अगणित अधम जन उच्चस्तर पर पहुंचे। गांधी जी के प्रभाव से अगणित व्यक्ति त्याग और बलिदान के क्षेत्र में उतरे और बढ़े-बढ़े आदर्श उपस्थित करते रहे। इसे प्राण-तत्त्व की प्रखरता का—सुविस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ आलोक ही कह सकते हैं। परकाया प्रवेश एवं सम्मोहन विज्ञान के अनुसार भी इस प्रभाव प्रक्रिया की व्याख्या की जा सकती है।

परकाया प्रवेश उच्चस्तरीय अध्यात्म विज्ञान की परिधि में आने वाली महत्त्वपूर्ण विधि व्यवस्था है। इसका उपभोग सदुद्देश्य के लिए—सज्जनता सम्पन्न आत्माओं द्वारा—सद्भावना पूर्वक किया जा सके तो उसका प्रभाव उसी प्रकार श्रेयस्कर होगा जैसा कि चिकित्सा-विज्ञान आदि के द्वारा सम्भव होता है।
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