असामान्य और विलक्षण किंतु संभव और सुलभ

असामान्य और विलक्षण किंतु संभव सुलभ

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उस समय की बात है जब सिकन्दर पंजाब की सीमा पर आ पहुंचा था। एक दिन, रात को उसने अपने पहरेदारों को बुलाया और पूंछा —यह गाने की आवाज कहां से आ रही है? पहरेदारों ने बहुत ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की पर उन्हें तो झींगुर की भी आवाज सुनाई न दी। भौंचक्के पहरेदार एक दूसरे का मुंह देखने लगे, बोले—महाराज! हमें तो कहीं से भी गाने की आवाज सुनाई नहीं दें रही।

दूसरे दिन सिकन्दर को फिर वही ध्वनि सुनाई दी, उसने अपने सेनापति को बुलाकर कहा देखो जी! किसी के गाने की आवाज से मेरी नींद टूट जाती है। पता तो लगाना यह रात को कौन गाता है। सेनापति से भी बहुतेरा ध्यान से सुनने का प्रयत्न किया किन्तु उसे भी कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दी। मन में तो आया कि कह दें आपको भ्रम हो रहा है पर सिकन्दर का भय क्या कम था, धीरे से बोला—महाराज! बहुत प्रयत्न करने पर भी कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा—लेकिन अभी सैनिकों को आपकी बताई दिशा में भेजता हूं अभी पता लगाकर लाते हैं कौन गा रहा है। चुस्त घुड़सवार दौड़ाये गये। जिस दिशा से सिकन्दर ने आवाज का आना बताया था—घुड़सवार सैनिक उधर ही बढ़ते गये। बहुत पास जाने पर उन्हें एक ग्रामीण के गाने का स्वर सुनाई पड़ा। पता चला कि वह स्थान सिकन्दर के राज प्रासाद से 10 मील दूर है। इतनी दूर की आवाज सिकन्दर ने कैसे सुनली सैनिक-सेनापति सभी इस बात के लिये स्तब्ध थे। ग्रामीण एक निर्जन स्थान की झोंपड़ी पर से गाता था और आवाज इतना लम्बा मार्ग तय करके सिकन्दर तक पहुंच जाती थी। प्रश्न है कि सिकन्दर इतनी दूर की आवाज कैसे सुन लेता था? दूसरे लोग क्यों नहीं सुन पाते थे? सेनापति ने स्वीकार किया कि सचमुच ही अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सन्तुष्ट करके केवल वही सत्य नहीं कही जा सकती है अतीन्द्रिय सत्य भी संसार में है उन्हें पहचाने बिना मनुष्य-जीवन की कोई उपयोगिता नहीं।

दूर की आवाज सुनना विज्ञान के वर्तमान युग में कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है ‘रेडियो डिटेक्शन एण्ड रेन्जिंग’ अर्थात् ‘रैडार’ नाम जिन लोगों ने सुना है वे यह भी जानते होंगे कि यह एक ऐसा यंत्र है जो सैकड़ों मील दूर से आ रही आवाज ही नहीं वस्तु की तस्वीर का भी पता दें देता है। हवाई जहाज उड़ते हैं तब उनके आवश्यक निर्देश, संवाद और मौसम आदि की जानकारियां रैडार द्वारा ही भेजी जाती हैं और उनके संदेश रैडार द्वारा ही प्राप्त होते हैं। बादल छाये हैं, कोहरा घना हो रहा है हवाई पट्टी में धुआं छाया है रैडार की आंख उसे भी बेधकर देख सकती है और जहाज को रास्ता बताकर उसे कुशलता पूर्वक हवाई अड्डे पर उतारा जा सकता है। छोटे रैडार 250 मील तक की आवाज सुन सकते हैं। जापान ने 500 मील तक की आवाज सुन सकने वाले रैडार बनाये हैं। अमेरिका के पास तो ऐसे भी रैडार हैं जो ‘ह्यूस्टन’ के चन्द्र वैज्ञानिकों को चन्द्रमा में उतरे हुए यात्रियों तक से बातचीत करा देते हैं। रैडार यन्त्र की इस क्षमता पर और उसकी खोज व निर्माण करने वाले वैज्ञानिकों के बुद्धि कौशल पर जितना ही आश्चर्य किया जाय कम है।

किसी विज्ञान जानने वाले विद्यार्थी से यह बात कही जाये तो वह हंसकर कहेगा भाई साहब! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? साधारण सा रेडियो, तरंगों का सिद्धान्त है। जब ध्वनी लहरियां किसी माध्यम से टकराती हैं तो वे फिर वापस लौट आती हैं और उस स्थान, वस्तु आदि का पता दें देती हैं। हवाई जहाज की ध्वनि को रेडियो तरंगों द्वारा पकड़कर यह पता लगा लिया जाता है कि वे किस दिशा में, कितनी दूर पर हैं। यह कार्य प्रकाश की गति अर्थात् 18600 मील प्रति सेकिण्ड की गति से होता है। रेडियो तरंगों की भी यही गति होती है तात्पर्य यह है कि यदि उपयुक्त संवेदन शीलता वाला रैडार जैसा कोई यंत्र हो तो बड़ी से भी बड़ी दूरी की आवाज को सैकिंडों में सुना जा सकता है। देखा जा सकता है। प्रकाश से भी तीव्र गामी तत्त्वों की खोज ने तो अब इस सम्भावना को और भी बढ़ा दिया है और अब सारे ब्रह्माण्ड को भी कान लगाकर सुने जाने की बात को भी कोई बड़ा आश्चर्य नहीं माना जाता।

मुश्किल इतनी ही है कि कोई भी यन्त्र इतने सम्वेदन शील नहीं बन पाते कि दशों दिशाओं से आने वाली करोड़ों आवाजों में से किसी भी पत्नी से पतली आवाज को जान सकें और भयंकर से भी भयंकर निनाद में भी टूटने-फटने के भय से बची रहें। रैडार इतना उपयोगी है पर भरकम भी इतना कि उसे एक स्थान पर स्थापित करने में वर्षों लग जाते हैं। सैकड़ों फुट ऊंचे एण्टोना, ट्रान्स मीटर, रिसीवर, बहुत अधिक कम्पन वाली (सुपर फ्रिकवेन्सी) रेडियो ऊर्जा, इंडिकेटर, आस्सीलेटर, माडुलेटर, सिंकोनाइजर आदि अनेकों यन्त्र प्रणालियां मिलकर एक रैडार का काम करने योग्य हो पाता है। उस पर भी अनेक कर्मचारी काम करते हैं, लाखों रुपयों का खर्च आता है, तब कहीं वह काम करने के योग्य हो पाता है। कहीं बिजली का बहुत तेज धमाका हो जाये तो यह ‘रैडार’ बेकार भी हो जाते हैं और जहाज यदि ऐसे हो जो अपनी ध्वनि को बाहर फैलने ही न दें तो रैडार उनको पहचान भी नहीं सकें। यह सब देखकर इतने भारी मानवीय बुद्धि कौशल तुच्छ और नगण्य ही दिखाई देते हैं।

दूसरी तरफ एक दूसरा रैडार—मनुष्य का छोटा सा कान एक सर्वशक्तिमान कलाकार-विधाता की याद दिलाता है जिसकी बराबरी का रैडार सम्भवतः मनुष्य कभी भी बना ना पाये। कान हलकी से हलकी आवाज को भी सुन और भयंकर घोष को भी बर्दाश्त कर सकते हैं। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कानों की मदद से मनुष्य लगभग 5 लाख आवाजें सुनकर पहचान सकता है जब कि रैडार का उपयोग अभी तक सीमित ही है।

कान के भीतरी भाग में, जो सन्देशों को मस्तिष्क में पहुंचाने का काम करता है 10500 रोयें पाये जाते हैं, यह रोयें जिस श्रवण झिल्ली से जुड़े होते हैं वह तो 1।250000000000000000 इंच से भी छोटा अर्थात् इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप से भी मुश्किल से दिखाई दें सकने वाला होता है। वैज्ञानिकों का भी अनुमान है कि इतने सूक्ष्म व संवेदनशील यन्त्र को बनाने में मनुष्य जाति एक बार पूरी तरह सभ्य होकर नष्ट हो जाने के बाद फिर नये सिरे से जन्म लेकर विज्ञान की दिशा में प्रगति करे तो ही हो सकती है (अर्थात् मानवीय क्षमता से परे की बात है) इस झिल्ली का यदि पूर्ण उपयोग सम्भव हो सके तो संसार की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों को, लाखों मील दूर की आवाज को भी ऐसे सुना जा सकता है मानो वह यहीं-कहीं अपने पास ही हो या पास बैठे मित्र से ही बात-चीत हो रही हो। महर्षि पातंजलि ने लिखा है—

श्रोमाकाशयोः सम्बन्ध संयमाद्दिव्यं क्षोत्रम् (पयो सूत्र 40) अर्थात्—श्रवणेन्द्रिय (कानों) तथा आकाश के सम्बन्ध पर संयम करने से दिव्य ध्वनियों को सुनने की शक्ति प्राप्त होती है। न केवल दूरवर्ती ध्वनियों की सुनने की दिव्य श्रवण की सिद्धियां सम्भव हैं वरन् योगविद्या के द्वारा और भी कितनी ही चमत्कारिक लगने वाली क्षमतायें प्राप्त की जा सकती हैं। इस तरह के अनेकानेक उदाहरण मिलते भी हैं।

निग्रहीत मन की अपार शक्ति सामर्थ्य

श्री रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर में थे। एक दिन अनेक भक्तों के बीच उनका प्रवचन चल रहा था। तभी यह व्यक्ति उनके दर्शनों के लिये आया। रामकृष्ण परमहंस उसे ऐसे डांटने लगे जैसे उसे वर्षों से जानते हों। कहने लगे ‘‘तू अपनी धर्मपत्नी को पीटकर आया है। जा पहले अपनी साध्वी पत्नी से क्षमा मांग, फिर यहां सत्संग में आना।’’ उस व्यक्ति ने अपनी भूल स्वीकार की और क्षमा मांगने लौट गया। उपस्थित लोग आश्चर्यचकित रह गये कि रामकृष्ण परमहंस ने बिना पूछे यह कैसे जान लिया कि उस व्यक्ति ने अपनी स्त्री को पीटा। वे अपना आश्चर्य रोक न सके, तब परमहंस ने बताया—मन की सामर्थ्य बहुत अधिक है। वह सेकिण्ड के भी हजारवें हिस्से में कहीं भी जाकर सब कुछ गुप्त रूप से देख-सुन आता है, यदि हम उसे अपने वश में किये हों।

गुरु गोरखनाथ से एक कापालिक बहुत चिढ़ा हुआ था। एक दिन आमना-सामना हो गया। कापालिक के हाथ में कुल्हाड़ी थी, उसे ही लेकर वह तेजी से गोरखनाथ को मारने दौड़ा। पर अभी कुल दस कदम ही चला था कि वह जैसे-का-तैसा खड़ा रह गया। कुल्हाड़ी वाला हाथ ऊपर और दूसरा पेट में लगाकर हाय-हाय चिल्लाने लगा। वह इस स्थिति में भी नहीं था कि इधर-उधर हिल-डुल भी सके।

शिष्यों ने गोरखनाथ से पूछा—महाराज! यह कैसे हो गया? तो उन्होंने बताया—निग्रहीत मन बेताल की तरह शक्तिशाली और आज्ञाकारी होता है। यह तो क्या, ऐसे सैकड़ों कापालिकों को मारण क्रिया के द्वारा एक क्षण में मार गिराया जा सकता है।

ब्रह्मचारी व्यासदेव ने आत्म-विज्ञान पुस्तक की भूमिका में बताया है कि उन्हें इस विज्ञान का लाभ कैसे हुआ। उस प्रस्तावना में उन्होंने एक घटना दी है, जो मन की ऐसी ही शक्ति का परिचय देती है। वह लिखते हैं ‘‘मैं उन साधु के पास गया। मुझे क्षुधा सता रही थी। मैंने कहा—भगवन्! कुछ खाने को हो तो दो, भूख के कारण व्याकुलता बढ़ रही है। साधु ने पूछा क्या खायेगा? आज तू जो भी, वस्तु चाहेगा हम तुझे खिलायेंगे। मुझे उस समय देहली की चांदनी चौक की जलेबियों की याद आ गई। मैंने वही इच्छा प्रकट कर दी। साधु गुफा के अन्दर गये और एक बर्तन में कुछ ढककर ले आये। मैंने देखा बिलकुल गर्म जलेबियां, स्वाद और बनावट बिलकुल वैसी ही जैसी देहली में खाई थीं। गुफा में जाकर देखा, वहां तो एक फूटा बर्तन तक न था। मैंने पूछा—भगवन्! यह जलेबियां यहां कैसे आईं? तो उन्होंने हंसकर कहा—योगाभ्यास से वश में किये हुए मन में वह शक्ति आ जाती है कि आकाश में भरी हुई शक्ति का उपयोग एक क्षण में कर ले और भारी-से-भारी पदार्थ को उलट-फेर कर दें।’’

सन् 1902 में बंगाल के साधु अगस्तिया ने हठ-योग की एक प्रतिज्ञा की। प्रतिज्ञा यह थी कि वह लगातार 10 वर्ष तक अपना बायां हाथ उठाये ही रहेगा कभी नीचे नहीं गिरायेगा। और सचमुच ही वह लगातार 10 वर्षों तक बिना हिलाये हाथ ऊंचा किये रहे। इस बीच एक चिड़िया ने समझा यह किसी पेड़ की टहनी है सो उसने बड़े मजे के साथ योगी के उठाये हुए हाथ की हथेली पर घोंसला बना लिया और उस पर अण्डे भी दें दिये। हाथ की हड्डियां सीधी मजबूत हो गई, मुड़ना बन्द हो गया और इस तरह हाथ बेकार हो गया किन्तु योगी का कहना था कि इससे उसे कोई कष्ट नहीं हुआ। योग की ऐसी साधनाओं के पीछे कोई दर्शन नहीं है यदि कुछ है तो इतना ही कि तितीक्षा पूर्ण अभ्यास के द्वारा मनुष्य चाहे तो अपने शरीर की सामान्य क्रियाओं को असामान्य बना सकता है।

शरीर में नन्हीं सी सुई चुभ जाती है तो बड़ा कष्ट होता है किन्तु सिंगापुर के एक भारतीय योगी ने जिसका उल्लेख ‘ए वन्डर बुक आफ स्ट्रेन्ज फैक्ट्स’ में भी है अपने शरीर में नक्की 50 भाले आर-पार घुसेड़ लिये और इस अवस्था में भी वह सब से हंस-हंसकर बातचीत करता रहा। लोगों ने कहा यदि आपको कष्ट नहीं हो रहा हो तो थोड़ा चलकर दिखाइये। इस पर योगी ने 3 मील चलकर भी दिखा दिया। उन्होंने बताया कि कष्ट दरअसल शरीर को होता है आत्मा को नहीं। यदि मनुष्य अपने आपको आत्मा में स्थित कर ले तो जिन्हें सामान्य लोग यातनायें कहते हैं वह कष्ट भी साधारण खेल जैसे लगने लगते हैं।

इसका एक उदाहरण विन्ध्याचल के योगी गणेश गिरि ने प्रस्तुत किया। उन्होंने एक बार अपने होठों के आगे ठोड़ी वाले समतल मैदानी हिस्से में थोड़ी गीली मिट्टी रख कर उसमें सरसों बो दिये जब तक सरसों उगकर बड़े नहीं हो गये और उनकी जड़ों ने खाल चीरकर अपना स्थान मजबूत नहीं कर लिया तब तक वे धूप में चित्त लेटे रहे।

‘‘साहिब अल्लाह शाह’’ नामक लाहौर का एक मुसलमान फकीर 600 पौण्ड से भी अधिक वजन की मोटी लोहे की सांकलें पहने रहता था। वृद्ध हो जाने पर भी अपने अभ्यास के कारण इतना वजन भार नहीं बना। पंजाब में वह ‘‘सांकल वाला’’ और जिंगलिंग के नाम से आज भी याद किया जाता है। उसकी मृत्यु के बाद सांकलों की तौल की गई तो वह 670 पौण्ड निकलीं।

श्रीराव नामक योगी के सम्बन्ध में देश-विदेश में अनेक चमत्कारिक वर्णन प्रचलित हैं। दहकते अंगारों पर चलना, नाइट्रिक एसिड खा लेना, कांच और कीलें खा जाना उनके लिये सामान्य बात थी। वे जल पर चलने के भी कई प्रदर्शन कर चुके हैं।

श्री बल्लभदास बिन्नानी नामक एक व्यक्ति ने एक बार ऐसे चमत्कारों की खोज के उद्देश्य से विन्ध्याचल की यात्रा की। यात्रा के दौरान उन्हें जो अनुभव हुए उनका विवरण देते हुये विन्नानी जी लिखते हैं कि—‘‘मैंने एक योगी महात्मा के दर्शन किये। वह पानी में नंगे पांव चलने की दिव्य क्षमता रखते थे। वह हवा में भी उड़ते थे। मैंने उनको पानी में प्रत्यक्ष चलते हुए देखा और फोटो भी उतारी।’’

यह कहने पर कि योगीजी आप इस तरह की सिद्धियों का सार्वजनिक प्रदर्शन क्यों नहीं करते तो उन्होंने भर्तृहरि का निर्देश सुनाते हुए बताया कि चमत्कारों का प्रदर्शन अहंकार बढ़ाता है और योगी को पथ-भ्रष्ट करता है। सिद्धियां आत्म-कल्याण के लिये हैं न कि प्रदर्शन के लिये? तो भी अनेक सिद्ध-महात्माओं द्वारा ऐसे चमत्कार यदा-कदा देखने को मिल ही जाते हैं। लुम्का में जबर्दस्त बाढ़ आई हुई थी। सारा नगर कुछ ही क्षणों में जलमग्न हो जाने वाला था। इंजीनियरों की सारी शक्ति निष्क्रिय हो गई, सब पाताल समाधि की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय कुछ व्यक्तियों ने फ्रीडियन नामक साधु से जाकर प्रार्थना की—महात्मन्! इस दैवी प्रकोप से बचाव का कुछ उपाय आप ही कीजिये। कहते हैं, महात्मा फ्रीडियन ने ओसर नदी की धारा योग बल से मोड़ दी और नगर को डूबने से बचा लिया।

एग्निस नाम की एक ईसाई महिला हुई हैं। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग योगाभ्यास में लगाया। उनके आश्रम में 20 और साधिकायें रहती थीं, एक बार उन्हें तीन दिन तक कुछ भी खाने को न मिला। एक साधिका भूख से अति व्याकुल होकर बोली—‘‘मैडम! हमें रोटी दो, नहीं तो हम मर जायेंगी।’’ एग्निस ने कहा—‘‘अच्छा बगल वाले कमरे में रोटियां रखी हैं, उठा लाओ।’’ उस बिहार में अन्न का एक दाना भी न था पर उन्होंने इतने विश्वासपूर्वक कहा जैसे वह स्वयं पकाकर रोटियां रख आईं हों। साधिका वहां गई तो सचमुच एक पात्र में रोटियां थीं। उन्हें खाकर सबने भूख मिटाई।

स्वामी ब्रह्मानन्द का एक भाषण काशी में हुआ। उसमें कई रूढ़िवादी उनसे बहुत रुष्ट हो गये। एक दिन स्वामी जी गंगातट पर बैठे ध्यान कर रहे थे, तभी उधर कुछ विरोधी आ पहुंचे। उन्होंने बदला निकालने का यह अच्छा अवसर समझा। इसलिये दो हृष्ट-पुष्ट युवक आगे बढ़े और पद्मासन बैठे स्वामी जी को जबर्दस्ती उठाकर पानी में फेंक दिया। स्वामीजी उन दोनों युवकों को भी हाथ में कसे लेते चले गये पर जब वे डूबने लगे तो उन्हें छोड़ दिया और आपने स्वयं नदी की सतह पर पद्मासन समाधि ले ली। बाहर मुसलमान बड़ी देर तक हाथों में पत्थर लिये खड़े रहे कि स्वामीजी बाहर निकलें तो उन पर पत्थर दें मारें। पर वह स्थिति ही नहीं आई। स्वामी जी शाम तक जल के अन्दर ही बैठे रहे। जब वे वहां से चले गये तो वे शांति-भाव से बाहर निकल आये।

योग विज्ञान की दृष्टि से शारीरिक शक्ति में इस तरह की वृद्धि का उद्गम मस्तिष्क है। विशेष परिस्थितियों में मस्तिष्क मांस-पेशियों को उद्भट कार्य करने का आदेश देता है और उनमें से कुछ सूक्ष्म तत्त्व निकलकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। वैज्ञानिकों ने हाल में ऐसी विधियां ढूंढ़ी हैं, जिनसे कृत्रिम रूप से शारीरिक शक्ति बढ़ाई जा सकती है।

मस्तिष्क के आदेशों को बीच में रोक लिया जाता है और मानव शरीर को एक विशेष प्रकार का ट्रांजिस्टर बनाकर उन आदेशों की शक्ति बढ़ा दी जाती है। इससे मनुष्य अति मानवीय शक्ति सम्पन्न हो जाता है। शरीरस्थ जीवाणुओं को प्राण और संकल्प शक्ति के द्वारा हल्का और भारी करके, सम्मोहन क्रिया द्वारा थोड़ी ही देर में बहुत भारी प्राण की मात्रा खींच करके ऐसे असामान्य कार्य दिखलाये जा सकते हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है।

इन सिद्धियों, सामर्थ्यों को पाकर मनुष्य उन स्थितियों में भी आनन्द पूर्वक रह सकता है, जिनमें साधारण लोग जाकर जीवित नहीं रह सकते। अष्ट सिद्धियां अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व और वशित्व को प्राप्त कर मनुष्य इसी देह में ईश्वर तुल्य शक्ति का अनुभव कर सकता है और संसार में होने वाले घटना-चक्रों को परास्त कर सकता है, विस्फोट कर सकता है, शाप, वरदान, प्राण-संचार या सन्देश-प्रसारण कर दूसरों का भला भी कर सकता है और लोगों के जीवन की दिशायें भी मोड़ सकता है। श्री श्यामाचरण जी लाहिड़ी एक-बार हिमालय गये। वहां एक युवा संन्यासी से उनकी भेंट हुई। साधु उन्हें एक गुफा में ले गया और एकान्त में ले जाकर उनके सिर पर हाथ रखा। श्री लाहिड़ी जी लिखते हैं—‘‘मुझे ऐसा लगा कि यह हाथ नहीं कोई प्रचण्ड विद्युत शक्ति वाला दण्ड था, उससे मेरे शरीर में प्रकाश भरना प्रारम्भ हुआ। मुझे पूर्व जीवन की स्मृतियां उभरने लगीं। यहां तक कि मैंने अनेक वस्तुयें ऐसी भी पहचानी, जिनका मेरे पिछले जन्मों से सम्बन्ध था, मैं अनुभव करता हूं कि गुरुओं का प्राण योग्य शिष्य इसी तरह पाकर स्वल्पकाल में ही दीर्घ-प्राणवान् बनते होंगे। यह तो भारतवर्ष के हठयोगियों की बातें हैं। अन्य देशों में भी अभ्यास द्वारा अर्जित ऐसी विचित्रतायें देखने को मिल जाती हैं जो इस बात की प्रतीक हैं कि मनुष्य कुछ विशेष परिस्थितियों में पैदा अवश्य किया गया है किन्तु यदि वह चाहे तो अपने आपको बिलकुल बदल सकता है।

इन्का जाति के राजा अटाहुल्लापा ने अपने कानों में वजनदार छल्ले डालकर उन्हें 15 इंच तक बढ़ा लिया था। सारा शरीर सामान्य मनुष्य का होते हुये भी कान हाथी के से लगते थे। सिख सम्राट सरसार रणजीतसिंह के दरबार में प्रसिद्ध भारतीय योगी सन्त हरदास ने जनरल वेन्टूरा के सम्मुख अपनी जीभ को निकाल कर माथे का वह हिस्सा जीभ से छूकर दिखा दिया जो दोनों भौंहों के बीच होता है। सन्त हरदास बता रहे थे कि जीभ को मोड़कर गरदन के भीतर जहां चिड़ियां होती हैं उस छेद को बन्द कर लेने से योगी मस्तिष्क में अमृत का पान करता है। ऐसा योगी अपनी मृत्यु को जीत लेता है। अंग्रेजों का कहना था कि जीभ द्वारा ऐसा हो ही नहीं सकता। इस पर सन्त हरदास ने अपनी जीभ को आगे निकालकर दिखा दिया उन्होंने बताया कि कुछ औषधियों द्वारा जीभ को सूंत कर इस योग्य बनाया जाता है।

सरसजिंगा—अफ्रीका के हब्शियों में अपने ओंठ बढ़ाने की प्रथा है इसके लिये वे लकड़ी की तश्तरियां बनाकर उनसे ओठों को बांध देते हैं ओंठ जितने बढ़ते जाते हैं बड़ी तश्तरियां बांध दी जाती हैं और इस प्रकार कई स्त्रियां तो अपने ओंठ 14-15 इंच अर्थात् सवा फुट व्यास की ढक्कनदार तश्तरी की तरह बढ़ा लेती हैं।

फिजी द्वीप के निवासी एक त्यौहार मनाते हैं। उस दिन उन्हें आग पर चलना पड़ता है। इसे अभ्यास भी कहा जा सकता है और आत्मविश्वास की शक्ति भी, कि वे लोग दहकते आग के शोलों में घण्टों नाचते रहते हैं किन्तु कभी ऐसा कोई अवसर नहीं आता कि उनके पैर जल जाते हों।

आयरन ड्यूक आफ वेलिंग्टन कंसास राज्य अमेरिका के जान डब्लू हार्टन ने पेट में न जाने कहां की आग पैदा कर ली थी कि नाश्ते में 40 पौंड तरबूजा खा लेने के बाद भी सोडा की बोतलें, टूटे शीशे, अण्डों के छिलके और केले के अनगिनत छिलके चबा जाते थे। एक बार एक इंजीनियर द्वारा चुनौती दिये जाने पर उन्होंने भरपूर भोजन करने के बाद सीमेन्ट का पूरा कट्टा सीमेन्ट खा लिया। और उसे इस स्वाद के साथ एक एक चम्मच भक्षण किया जैसे छोटे बच्चे प्रेम पूर्वक शक्कर या मिठाई खाते हैं उन्होंने यह भी कहा कि मैं कुछ और अभ्यास करूं तो इतनी ही मात्रा में विष तक खाकर दिखा सकता हूं।

. भारतीय योगी चांगदेव की योग-गाथायें सारे भारतवासी जानते हैं। एक एक कर चौदह बार उन्होंने अपनी मृत्यु को वापस लौटाया। उनकी आयु 1400 वर्ष की हो गई थी। ईसामसीह के समय से लेकर 12 वीं शताब्दी—संत ज्ञानेश्वर के समय तक उनकी गाथाओं के उल्लेख मिलते हैं। वह शेर की सवारी किया करते थे और शेर को हांकने के लिए जहरीले सांप की चाबुक लिये रहते थे। एक बार उनके हवा में स्थिर हरने को चुनौती दी गई तब महाराष्ट्र के एक गांव में उन्होंने हजारों लोगों के सम्मुख भाषण देने का प्रस्ताव किया। एक-एक कर 24 चौकियां रखी गईं। सबसे ऊपरी चौकी पर बैठकर उन्होंने प्रवचन प्रारम्भ किया। पीछे उनके पूर्व आदेशानुसार शिष्यों ने एक-एक सभी चौकियां हटा लीं। चांगदेव वैसे ही हवा में स्थिर प्रवचन करते रहे। लोगों ने उनकी जय जयकार की तो वे बोले—भाइयो! इसमें मेरा कुछ बड़प्पन नहीं। योग क्रियाओं के अभ्यास द्वारा मनुष्य चाहे तो पक्षियों की तरह हवा में उड़ सकता है, सितारों की तरह हवा में अधर लटक कर संसार का दृश्य देखता रह सकता है।

मानव शरीर की क्षमतायें अब तक हुई जानकारी से हजारों गुनी अधिक हैं। भयानक सर्प या कुत्ते से बचने के लिए कई व्यक्ति जो कभी 1 फुट भी नहीं उछल सकते थे, भयावेश में तीन तीन मीटर ऊंची दीवार कूद जाते हैं। जेल से भागते हुये कैदी लोहे की सलाखें मोड़ सकते हैं, यह सब क्रियायें यह बताती हैं कि मनुष्य शरीर की सामर्थ्य बहुत अधिक है। शरीर में कुछ तत्त्व और सूक्ष्म एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान हैं, उनमें भरी हुई हिमनदियों को जागृत कर मनुष्य टीम की तरह बलवान, नागार्जुन की तरह रसायनज्ञ, संजय की तरह दिव्य दृष्टि सम्पन्न, अर्जुन की तरह लोक-लोकान्तर में आने-जाने की क्षमता वाला, रामकृष्ण की तरह परमहंस और गुरु गोरख नाथ की भी चमत्कारिक सिद्धियां पा सकता है।

अतीन्द्रिय क्षमता विकसित करने का एक क्रमबद्ध विज्ञान है—योग। आज तो हर क्षेत्र में नकली ही नकली की भरमार है। नकली योग भी इतना बढ़ गया है कि उस घटाटोप में से असली को ढूंढ़ निकालना कठिन पड़ रहा है। तो भी तथ्य अपने स्थान पर यथावत् अडिग है। यदि अन्तःचेतना पर चढ़े हुए कषाय-कल्मषों को प्रयत्नपूर्वक धो डाला जाय तो आत्मसत्ता की प्रखरता जग पड़ेगी और उसके साथ-साथ ही अतीन्द्रिय परीक्षानुभूतियां होने लगेंगी। अप्रत्यक्ष भी प्रत्यक्षवत् परिलक्षित होने लगेगा।

प्रयत्नपूर्वक आत्मबल को बढ़ाना और सिद्धियों के क्षेत्र में प्रवेश करना यह एक तर्क और विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता है कि कितने ही व्यक्तियों में इस प्रकार की विशेषताएं अनायास ही प्रकट हो जाती हैं। उन्होंने कुछ भी साधन या प्रयत्न नहीं किया तो भी उनमें ऐसी क्षमताएं उभरीं जो अन्य व्यक्तियों में नहीं पाई जातीं। असामान्य को ही चमत्कार कहते हैं। अस्तु ऐसे व्यक्तियों को चमत्कारी माना गया। होता यह है कि किन्हीं व्यक्तियों के पास पूर्व संचित ऐसे संस्कार होते हैं जो परिस्थितिवश अनायास ही उभर आते हैं। वर्षा के दिनों अनायास ही कितनेक पौधे उपज पड़ते हैं, वस्तुतः उनके बीज जमीन में पहले से ही दबे होते हैं। यही बात उन व्यक्तियों के बारे में कही जा सकती है जो बिना किसी प्रकार की अध्यात्म साधनाएं किये ही अपनी अलौकिक क्षमताओं का परिचय देते हैं।
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