चिकित्सक- शिक्षक श्रीकृष्ण
इस महत्त्वपूर्ण पाँचवें अध्याय का
छठाँ श्लोक
हमें बड़े स्पष्ट रूप में कह रहा है कि कर्मों के संपादन के
बिना कर्मों का त्याग संभव नहीं है अर्थात् मन, इंद्रिय और शरीर
द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त
होना कठिन है। योग के आचरण से शुद्ध हुआ
भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है (न
चिरेण ब्रह्म
अधिगच्छति)।
अब इस बात को समझने का प्रयास करें। यज्ञीय भाव से
निरंतर कर्म में लगे रहना ही श्रेयस्कर है, ऐसा श्रीकृष्ण का
आदेश है। कर्मों का संपादन, आसक्ति का त्याग, शुचिता का विकास,
ध्यानयोगी बनने का अध्यवसाय एवं फिर परब्रह्म परमात्मा की- परमपद
की प्राप्ति। यही राजमार्ग वे अर्जुन को व उसके माध्यम से हम
सभी को समझा रहे हैं। वे कहते भी हैं निष्काम कर्म का अनुष्ठान
किए बिना संन्यास मात्र
दुःखप्राप्ति का निमित्त बनकर रह जाता है (
संन्यासस्तु दुःखमाप्तुम् अयोगतः)। ऐसा मार्ग अपनाया ही क्यों जाए, जो दुःख दे व जीवन में शांति कभी आने ही न दे।
हम सबके जीवन में एक स्पष्ट लक्ष्य होना चाहिए और इस
लक्ष्य के प्रति पूरा समर्पण भी होना चाहिए। भीतर छिपी वासनाएँ
हमारे
विचाररूपी
मानसरोवर को सदा गंदा ही करती रहेंगी, यदि हमने उनके क्षय का
मार्ग न निकाला और वासनाओं का क्षय निष्काम कर्मयोग के बिना
संभव नहीं। समाज की सेवा हमारे लिए
हृदयशुद्धि- आत्मसत्ता के लिए एक शिक्षण एवं संस्कृति के विकास का अवसर लेकर आती है। यह समाजसेवा
योगानुशासन
से भरे कर्म से ही संभव है, सकाम कर्म से नहीं। हर किसी के
लिए यह अनिवार्य भी है। कर्मयोग से ध्यानयोग व उसके बाद
योगयुक्त
मुनि बनने का एक सरल- सा मार्ग है, पर संन्यास सभी कर्मों का
त्याग, इस मार्ग पर नहीं ले जाता, इसलिए सभी के लिए कर्मयोग का
मार्ग ही निर्धारित है। जिस योगी ने कर्मयोग का दीर्घकाल तक
अभ्यास कर लिया है, वह संन्यास के मार्ग पर प्रतिष्ठित हो सकता
है, यह सम्मति श्रीकृष्ण की है।
‘अयोगतः’ अर्थात् कर्मयोग न करने वाले के लिए, तो संन्यास दुःख का ही कारण बनता है, यह भी वे बताते हैं।
मानव की सेवा पहले, फिर प्रभु की सेवा यह श्रीकृष्ण का निर्देश है। इस बात को बताते- बताते व अगले
श्लोक की ओर बढ़ते हुए भगवान् एक तथ्य स्पष्ट कर जाते हैं कि अहंभाव से संपादित होने वाले सभी कर्म
कर्ताभाव
से जुड़े होते हैं। यह जब तक विसर्जित नहीं होगा, मनुष्य तनाव-
अशांति में जिएगा, कभी प्रभु से उसका साक्षात्कार हो न पाएगा।
बिना अहंकार के, बिना किसी प्रकार की कामना के जीवन जीने की कला
का शिक्षण देने वाले श्रीकृष्ण एक सर्वश्रेष्ठ शिक्षक भी हैं,
मनोचिकित्सक भी।
अगला
श्लोक कहता है-
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ ५/७
जिसने समर्पित कर्मों द्वारा अपने मन को अपने वश में
कर लिया है, इंद्रियाँ जिसकी वश में हैं एवं जिसकी बुद्धि-
अंतःकरण इन कर्मों से शुद्ध हो गए हैं तथा जो सतत यह अनुभव
करता है कि संपूर्ण प्राणियों की आत्मा रूप परमात्मा ही उसके
भीतर है, ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी उनमें कभी लिप्त नहीं
होता।
सच्चे योगी के तीन लक्षण
भगवान् इस
श्लोक
में एक साथ कई बातें कह गए हैं। वे कहते हैं कि जिसका मन
अपने नियंत्रण में है तथा जो शुद्ध अंतःकरण वाला है, वही योगी
है। इतना ही नहीं, जो जीवन जीते हुए सतत एक ही अनुभूति करता
रहता है कि संपूर्ण प्राणियों की आत्मा परमात्मसत्ता के रूप में
उसके अंदर भी है, वह भी उनके साथ एक भाव रखते हुए सतत कर्म
कर रहा है। यदि वह ऐसा कहता है, तो वह कर्म करते हुए भी उनमें
लिप्त नहीं होता अर्थात् ये कर्म उसके लिए बंधन- आसक्ति का कारण
नहीं बनते। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस बात को इस तरह कहा है,
‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि
भगवन्त’
अर्थात् इस भाव से कर्म किया जाए कि मैं तो सेवक मात्र हूँ,
ये सारे कर्म, तो भगवान् के लिए ही हैं। यह सेव्य भाव जिस दिन आ
जाता है, उस समय व्यक्ति को कोई भी कर्म बंधनों में नहीं
बाँधता। किसी भी कर्म की फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। फिर वे
पुण्यों की सूची में जुड़ते चले जाते हैं। कोई क्रोध दिलाए, तो
क्रोध नहीं आता। कोई तारीफ करे, तो हम प्रभावित नहीं होते। एक तरह
से स्थितप्रज्ञ जैसी स्थिति हमारी हो जाती है। कोई भी कर्म
करते हुए भी ऐसा लगता है कि हम उसमें तनिक भी लिप्त नहीं हैं,
हम तो उस कर्म के निमित्त मात्र हैं।
किसी के भी मन में प्रश्र
आ सकता है कि श्रीकृष्ण यह क्या कह रहे हैं। अहंकाररहित
व्यक्तित्व वाला व्यक्ति क्या कर पाएगा? वह तो कर्मों की दृष्टि
से नाकारा और किसी भी जाति- समाज की उन्नति में बाधक ही सिद्ध
होगा। यदि ऐसा होता, तो श्रीकृष्ण अर्जुन को ऐसी शिक्षा क्यों
देते? वस्तुतः वे इन श्लोकों
के माध्यम से अर्जुन को एक साधक के रूप में विकसित करने का
प्रयास कर रहे हैं। अहंकाररहित दृष्टिकोण का विकास ही वह साधना
है, जो कर्मयोगी के रूप में अर्जुन को करना चाहिए- ऐसा श्रीकृष्ण
का मानना है। वे कहते हैं कि अहंभाव- कर्ताभाव
का समावेश करता है। यह यहाँ तक तो ठीक है कि कर्म का गौरव
हम अनुभव करें, किंतु यदि यह अनावश्यक रूप से निरर्थक
जिम्मेदारियों का बोझ आप पर लाद दे व सारी दुनिया के आप
ठेकेदार स्वयं को महसूस करने लगें, तो फिर मानसिक तनाव- अशांति का
ही कारण बनेगा।
स्वामी चिन्मयानंद जी (चिन्मय मिशन) बड़े सुंदर ढंग से इसे समझाते हैं, ‘‘एक
नदी बह रही है। वह स्वभावतः ही बह रही है, लेकिन आप यदि किसी
चट्टान पर बैठ जाएँ और नदी के जल में अपना पैर डालकर हिलाने
लगें तो यह आपकी मौज है। परंतु यह अनुभव करना और फिर आग्रह
करने लगना कि मेरा पैर हिलाना ही नदी के प्रवाह का कारण है- ‘‘मैं ही नदी को बहा रहा हूँ।’’- एक मिथ्या दृष्टिकोण है। इससे हमें थकावट, चिंता और मानसिक तनाव की ही प्राप्ति होगी।’’ (पृष्ठ २२५, ‘मानव निर्माण कला’ से)।
कर्मों द्वारा वासनाओं से मुक्ति कैसे मिले
हम सभी को अहंकेंद्रित
कामनाओं के बिना जीने और श्रेष्ठतम ढंग से कार्य करते हुए
सेवा करते रहने की कला सीखनी ही होगी। इसी में हमारे जन्म की
सार्थकता है, हमारा गौरव है। ऐसे ही कार्यों से हमें मानसिक शांति
मिलेगी। कर्मों द्वारा अपने व्यक्तित्व को वासनाओं से कैसे मुक्त
किया जाए? इसकी कार्यशैली श्रीकृष्ण इस श्लोक में हमें समझा रहे हैं। ऐसा करने के लिए उनके अनुसार तीन बातों की आवश्यकता है।
१.
सबसे पहले अपने को श्रेष्ठ योगी बनाना, हर श्वास में
योगमय जीवन जीते हुए अपनी बुद्धि- अंतःकरण को शुद्ध करना- ऐसे
कर्म करना।(योगयुक्तोविशुद्धात्मा)
२. फिर अपने मन को अपने वश में करना, इंद्रियों पर अपना नियंत्रण स्थापित करना। (विजितात्मा जितेन्द्रियः)
३.
सभी जीवों में वही परमात्मा समाया है, जो अपने भीतर है,
इस तथ्य की सतत अनुभूति करते हुए निरंतर कर्म करते रहना।
(सर्व भूतात्मभूतात्मा) यदि ऐसा होता है, तो कर्म बंधन का कारण नहीं बनते। (कुर्वन्नपि न लिप्यते)
हर कर्म निःस्वार्थ, समर्पण भाव से हों, दैनंदिन
जीवन में ऐसा करते हुए प्रति क्षण हम अपनी वासनाएँ क्षीण करते
चलें, यही संक्षोभों- विक्षोभों से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है।
इससे बुद्धि में चल रहे सारे विभ्रम शांत हो जाते हैं। बुद्धि
के शांत होते ही मन भी स्वाभाविक रूप से नियंत्रित हो जाता है।
जिस पल हमारी कामनाएँ- इच्छाएँ तिरोहित हो जाएँगी, उसी पल हम
अपने अंदर शांति का साम्राज्य स्थापित कर लेंगे, इंद्रियाँ हमारी
अपने नियंत्रण में आ जाएँगी। जब बुद्धि, मन व काया तीनों हमारे
द्वारा साध लिए गए, तो साधक अपनी आत्मसत्ता में एक ऐसे सत्य की
अनुभूति करने लगता है कि उसकी अंतरात्मा ही सब भूतों में,
जीवमात्र में स्थित आत्मा है। वह एक विलक्षण प्रसन्नता की अनुभूति
करने लगता है।
कुर्वन्नपि न लिप्यते
आत्मतत्त्व की अनुभूति कैसे हो? यह प्रश्र कई साधकों के मन में आता रहता है। इसके लिए वे हाथ- पाँव मारते व कई तरह के पुरुषार्थ करते हैं। कोई किताबें चटकर
जाता है, तरह- तरह के ग्रंथों में उसे ढूँढ़ने की कोशिश करता
है, कोई वैरागी होने का ढोंग रचता है व अकर्मण्य बन किसी तरह
ध्यानस्थ होने की बात मन में विचारता है। पर आत्मा का दर्शन उसे
ही होगा, जो श्रीकृष्ण की इस श्लोक
में कही गई बातों पर अमल करेगा। जब यह होगा एवं उसे सर्वात्मा
के रूप में परमसत्ता ही अपने भीतर चहुँओर दिखाई देने लगेगी, तो
उसे किसी भी अवस्था में कोई भी कर्म कभी भी लिप्त नहीं कर
सकते, वह अनासक्त ही बना रहेगा (कुर्वन्नपि न लिप्यते)।
सच्चा कर्मयोगी वही है, जो जीवन के विभिन्न कर्म करते
हुए भी परमात्मा से कभी विलग नहीं होता। कर्म करते हुए भी कर्म
नहीं करता, अकर्म की स्थिति में जीता है। उसकी आस्था उसके
अनुभवों में बदल जाती है एवं तब सच्चे संन्यास का जन्म होता
है। वह भावुक भी होता है, भावनाशील भी। परमार्थपरायण भी होता है
तथा ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’
की तरह सभी के अंदर उसे वही परमात्मा की सत्ता दिखाई देती
है, जो उसके निज के अंदर भी विद्यमान है। परम पूज्य गुरुदेव का
जीवन इसी दर्शन से ओत- प्रोत हम देखते हैं।
आत्मवत् सर्वभूतेषु
‘हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य
अनुभूतियाँ’ प्रसंग से
अखंड ज्योति पत्रिका में एक धारावाहिक शृंखला परम पूज्य गुरुदेव की विदाई की
पूर्ववेला में प्रकाशित हुई थी। इसमें उनने अपनी जीवन- साधना के तीन चरणों का उल्लेख किया था,
मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत् सर्वभूतेषु। अपने समान सबको देखना। वे लिखते हैं कि
कहने- सुनने में ये शब्द मामूली से लगते हैं और सामान्यतः नागरिक
कर्त्तव्यों
का पालन, शिष्टाचार- सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँचकर बात पूरी हो
गई दीखती है, पर वस्तुतः इस तत्त्वज्ञान की सीमा अति विस्तृत
है। उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है,
जहाँ परमात्मा के साथ घुल जाने
की स्थिति आ पहुँचती है, जहाँ परमात्मा के साथ घुल जाने की
स्थिति आ पहुँचती है। साधना के लिए दूसरे के अंतरंग के साथ अपना
अंतरंग जोड़ना पड़ता है और उसकी संवेदनाओं को अपनी संवेदना समझना
पड़ता है। (सुनसान के सहचर, पुस्तक पृष्ठ
९३ से)
वस्तुतः हमारी गुरुसत्ता ने इस तत्त्वदर्शन को अपने जीवन
में उतारा एवं यही उनकी सिद्धि का मूल बना। वे लिखते हैं कि
ऐसी साधना करने वाला मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रह सकता,
स्वार्थों की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है।
दूसरों का दुःख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिल्कुल ऐसे
लगते हैं मानो यह सब वह नितांत व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए कर
रहा हो। जैसे ही अपनी
‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’
की संवेदना प्रखर हुई, अंदर की निष्ठुरता उसी क्षण गल- जलकर
नष्ट हो गई। जी में केवल करुणा शेष रही। वही अब तक के जीवन के
इस अंतिम अध्याय तक
यथावत् बनी हुई है। उसमें कमी रत्तीभर भी नहीं है, वरन्
दिनोदिन बढ़ोत्तरी
ही होती गई। (सुनसान के सहचर, पृष्ठ
९८)
साक्षीभाव में पहुँचा निष्काम कर्मयोगी
सर्वभूतात्माभूतात्मा शब्द जो सातवें
श्लोक में आया है, उसकी समीचीन व्याख्या ऊपर के शब्दों में हो जाती है। समस्त प्राणियों के
आत्मारूपी
परमेश्वर के साथ अपने को अभिन्न देखने वाले निष्काम कर्मयोगी
के गुणों का वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जो यहाँ किया है, वह
काव्य की दृष्टि से अद्भुत है। ऐसे व्यक्ति
स्वप्र से जाग उठते हैं, जो परम चैतन्य से अब एकाकार हो गए हैं। अब उन्हें
निम्र अवस्थाओं के कर्म प्रभावित नहीं करते। इसीलिए अगले दो
श्लोकों में श्रीकृष्ण कहते हैं-
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् |
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन् अश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ||५-८||.
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन् उन्मिषन्निमिषन्नपि |.
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ||५-९||
इस प्रकार तत्त्व को जानने वाला सांख्य योगी तो देखता
हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन
करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ तथा
आँखों को खोलता-
मूँदता हुआ भी (चक्षु उन्मीलन) सभी इंद्रियाँ अपने- अपने अर्थों में बरत रही हैं। (इंद्रियाँ विषयों में
विचर रही
हैं), ऐसी धारणा करते हुए यह मानता है कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।
यह व्याख्या वस्तुतः पूर्व
श्लोक का उत्तरार्द्ध है, जिसमें पूर्व में कहा गया था, ऐसे
आत्मज्ञ व्यक्ति कर्म करके भी लिप्त नहीं होते। यह कैसे संभव हो सकता है, यहाँ बताया गया है।
‘युक्त’ अर्थात् निष्काम कर्मयोग में लगा व्यक्ति- योगी जब सिद्धियों के
उच्चतम्
आयामों पर पहुँचता है, तो वह पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा
दर्शन- श्रवण ग्रहण तथा कर्मेन्द्रियों के द्वारा गमन, निद्रा,
श्वासग्रहण,
वाक्यकथन, मल-
मूत्रादि त्याग, ग्रहण चक्षु उन्मीलन-
निमीलन करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता, ऐसा मानता
है; क्योंकि उसकी धारणा है कि वह निर्लिप्त है एवं इंद्रियों का सारा व्यापार स्वतः चल रहा है।
ठाकुर
परमहंसदेव ने एक उद्धरण के माध्यम से कहा है, एक चांडाल
मांस
का बोझ लेकर जा रहा था। शंकराचार्य गंगा नहाकर आ रहे थे।
चांडाल ने उन्हें छू लिया। आचार्य ने असंतुष्ट होकर कहा कि तूने
अपवित्र कर दिया। चांडाल ने कहा, महात्मन् मैंने आपको नहीं छुआ, न
आपने मुझे छुआ। आप स्वयं विचार कीजिए कि क्या आप शरीर हैं या
मन या बुद्धि, आप क्या हैं? शुद्ध आत्मा तो निर्लिप्त होती है।
सत्, रज, तम इन तीनों में से किसी में भी वह लिप्त नहीं है। एक
तरह से चांडाल के माध्यम से स्वयं परमात्मा ने
आद्यशंकर को गीता का यह दर्शन समझाया।
द्रष्टा दिव्यकर्मी
जब यह मान्यता हो जाती है, नैव किंचित्
करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। मैं कुछ भी नहीं करता, तो वह
कर्त्ताभाव से मुक्त हो जाता है। इन समस्त शारीरिक क्रियाओं में कहीं भी उसका
कर्त्ताभाव
आड़े नहीं आता। आंतरिक जागरूकता की इस अवस्था में वह देखता और
अनुभव करता है कि इंद्रियाँ ही हैं, जो विषयों में विचरण करती
हैं (
इंद्रियाणीद्रिंयार्थेषु वर्तंत इति
धारयन्)।
ऐसी स्थिति में वह आस- पास के लौकिक क्रियाकलापों के प्रति
साक्षी भाव जाग्रत् कर विकसित स्थिति को प्राप्त हो जाता है।
वस्तुतः द्रष्टा बन जाता है। यह भाव विकसित होना साधना की उच्चतम
स्थिति में पहुँच जाना है। अहंभाव से रहित होते ही हम सही
अर्थों में
दिव्यकर्मी
बन जाते हैं एवं समाज के एक कर्मठ सेवक बनकर पूरे उत्साह के
साथ लग जाते हैं। बंधन मुक्ति का तत्त्वदर्शन- अहंभाव से मुक्ति
का यह चिंतन गीता का अमृत है। जिसने इसे समझ लिया, उसने मानो
ब्रह्म को पा लिया।