युगगीता (भाग-३)

कैसे बनें पूरी तरह युक्तपुरुष

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दिव्यकर्मी-साधक बनें

  योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शिष्य को बड़े स्नेह के साथ समझा रहे हैं कि आत्मा को परमात्मा से मिलाना—तद्रूप कराना ही योग का, ध्यान का परमलक्ष्य होता है। संसार से मन को हटाते चलें , शरणागति भाव विकसित करें; परमात्मा में अपने जीते हुए मन को अर्पित करते चलें—फिर हम सतत प्रसन्न बने रह सकते हैं। जब हमारे ज्ञान में—मन, बुद्धि, चित्त समुच्चय में मात्र परमात्मा विद्यमान है और कुछ नहीं तो इससे श्रेष्ठ आत्मिक प्रगति की स्थिति और क्या हो सकती है! इस स्थिति को पहुँचने के बाद चैतन्यता की निरंतरता एक सिद्धि के रूप में प्राप्त होती है। ऐसे व्यक्ति—दिव्यकर्मी महामानव, जिसने अपने व्यक्तित्व के सभी धरातलों पर एक समुचित तालमेल बिठा लिया है, उसकी व्याख्या भगवान् आठवें श्लोक में करते हैं—

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥ -६/८


शब्दार्थ इस प्रकार हुआ—

ज्ञान- विज्ञान प्राप्त करके तृप्तचित्त हुआ (ज्ञान विज्ञान तृप्तात्मा), निर्विकार (कूटस्थः, इंद्रियों को जीतने वाला (विजितेन्द्रियः, मिट्टी- पत्थर और स्वर्ण में समान दृष्टि रखने वाला (समलोष्ट- अश्म) योगी पुरुष (योगी) ब्रह्म में प्रतिष्ठित (युक्तः इति, कहे जाते हैं (उच्यते
भावार्थ देखें तो कुछ इस तरह बनता है—

‘‘जिसका अंतःकरण ज्ञान- विज्ञान से तृप्त है। शास्त्रोपदेशों से प्राप्त ज्ञान और अपरोक्षानुभूति द्वारा परितृप्त, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इंद्रियाँ भली भाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण एक समान हैं, वह योगी—दिव्यकर्मी पूर्णतया युक्तपुरुष अर्थात् भगवत्सत्ता को प्राप्त है; ऐसा कहा जाता है; (छठें अध्याय का आठवाँ श्लोक 

यह है गीता का सार

प्रस्तुत श्लोक अपने आप में समग्र गीता है। सारा उपदेश मानो इस एक ही श्लोक में ऐसे समा गया है, जैसे कि एक गुणसूत्र में सारे शरीर का विराट् वैभव समाया होता है। श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि पूर्ण युक्तपुरुष (पूरी तरह से योग में स्थित) वह है, जो ज्ञान- विज्ञान में तृप्त है। जब उसका शाब्दिक तर्कसम्मत ज्ञान अनुभव में परिणत हो गया हो। ऐसा ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। इस तरह से ज्ञान को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सभी अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियों में अचल- निर्भय हो खड़ा रहता है और अपने दिव्य अनुभव में पूरी दृढ़ता से आरूढ़ रहता है। इसी कारण उसे ‘कूटस्थ’ भी कहते हैं। कूटस्थ शब्द का वेदव्यास ने यहाँ प्रयोग एक प्रतीक के रूप में किया है। शब्दशः अर्थ देखा जाए तो यह होगा निहाई की भाँति स्थिर। निहाई पर ही लोहार लोहे के टुकड़ों को पीट- पीटकर तरह- तरह के आकार में ढालता रहता है। निहाई वैसी ही बनी रहती है; किंतु उस पर ठोंक- पीटकर भिन्न- भिन्न आकारों में ढाले गए टुकड़े बदलते रहते हैं। एक दिव्यकर्मी- योगस्थ पुरुष को अपने स्वरूप से, जो उसने बड़े सोच- समझकर विवेकपूर्वक बनाया है, बदलना नहीं चाहिए, उस स्थिति से च्युत नहीं होना चाहिए, चाहे संपर्क में आने वाले व्यक्ति बदल जाएँ, लौकिक प्रवाह में बह क्यों न जाएँ। यह इस काव्य की शोभा है कि कुछ शब्दों के माध्यम से कवि ने योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुँह से वह कहलवा लिया है, जो बड़ी- बड़ी व्याख्या से भी संभव नहीं हो पाता।

योगी की विशेषताएँ

योग में स्थित श्रीकृष्ण अपने ईश्वरीय स्वरूप में जो तथ्य अर्जुन को समझा रहे हैं, वह है पूर्ण योगी का स्वरूप, जो ध्यान की स्थिति में आने से पूर्व अपने को कैसा बनाए। पहला उनसे बताया—ज्ञान और विज्ञान में तृप्त, दूसरा बताया—पूरी तरह अविकारी (कूटस्थ) तथा तीसरा है जितेंद्रिय होना अर्थात् इंद्रिय विषयों में तनिक भी आकृष्ट न होकर उन पर अपना नियंत्रण होना। इन तीन विशेषताओं वाला, ज्ञान- विज्ञान तृप्तात्मा, अविकारी, जितेंद्रिय व्यक्ति ही भगवान की दृष्टि में ऐसा योगी है, जिसे ब्रह्म में प्रतिष्ठित योगी कहा जा सकता है, किंतु ऐसे व्यक्ति को बहिरंग जगत् में पहचानें कैसे? उसके लक्षण क्या होते हैं? श्रीकृष्ण आगे इसी श्लोक में कहते हैं ‘‘समलोष्ट- अश्म अर्थात् वह मिट्टी- पत्थर और स्वर्ण में समान दृष्टि रखता है। उसके लिए मिट्टी का ढेला, पारस पत्थर या कीमती हीरा और स्वर्ण शिला भी महत्त्वहीन हैं—एक समान हैं। विजितेंद्रिय होते ही वह कामिनी से तथा ‘समलोष्टा- श्मकाञ्चनः’ होते ही कंचन के प्रलोभनों से मुक्त हो गया है। अब उसे लोभ, लालच, तृष्णा जैसे विकार परेशान नहीं करते। बहिरंग जगत् में उसे आनंद नहीं आता। उसे वहाँ संतुष्टि, सुख, तृप्ति नहीं मिलती; क्योंकि उसे अपने अंतरंग जगत् में अखंड आनंद के स्रोत का पता लग गया है।

कामिनी- कांचन से परे

ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस अपने भक्तगणों को, जो कि सैकड़ों की संख्या में उनके पास आते थे, कहा करते थे कि कामिनी- कांचन, दोनों चीजें ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में विशेष रूप से बाधक हैं। बुरे आचरण वाली नारी में भी वे जगन्माता का साक्षात् स्वरूप देखते थे और इसी भाव से उसका आदर करते थे। उनका कांचन- त्याग इतना पूर्ण था कि यदि वे पैसे या रुपये को छू लेते तो इनकी उँगलियाँ ही टेढ़ी- मेढ़ी होने लगती थीं। कभी- कभी वे गिन्नियों और मिट्टी को एक साथ अंजुलि में लेकर गंगाजी के किनारे बैठ जाते थे और मिट्टी- पैसा, पैसा- मिट्टी (टाका- माटी, माटी- टाका बंगाली में) कहते हुए दोनों चीजों को मलते- मलते श्री गंगाजी की धार में बहा देते थे। वे कहते थे, ‘‘विषय की वासना तथा कामिनी- कांचन पर मोह रखने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यदि विषयासक्ति रहे तो संन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता—जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना।’’ (श्री रामकृष्ण वचनामृत, भाग प्रथम, परिच्छेद ३५, पृष्ठ ३१२)

इसी तरह एक प्रसंग में वे कहते हैं, ‘‘जिस कमरे में इमली का अचार और पानी का मटका है, यदि उसी कमरे में सन्निपात का रोगी भी रहे तो बीमारी कैसे दूर हो? फिर इमली की तो याद आते ही मुँह में पानी भर आता है। पुरुषों के लिए स्त्रियाँ इमली के अचार की तरह हैं और विषय की तृष्णा तो सदा लगी ही है। यही पानी का मटका है। इस तृष्णा का अंत नहीं है। सन्निपात का रोगी कहता है कि मैं एक मटका पानी पीऊँगा। बड़ा कठिन है। संसार में बहुत कठिनाइयाँ हैं। जिधर जाओ, उधर ही कोई- न बला आ खड़ी होती है।’’ (उपर्युक्त, परिच्छेद ४०, पृष्ठ ३५६, ३५७)

तीव्र वैराग्य मन से हो

श्री रामकृष्ण कहते थे, ‘‘योगी को, साधक को अंदर से तीव्र वैराग्य भाव होना चाहिए। ईश्वर प्राप्ति इससे कम में नहीं होगी। कामिनी और कांचन ईश्वर के मार्ग के विरोधी हैं, उनसे मन को हटा लेना चाहिए।’’ (श्री रामकृष्ण वचनामृत, भाग तीन, परिच्छेद , पृष्ठ ११८) उनका मत था, ‘‘ईश्वर का आनंद जिसे एक बार मिल गया, उसे संसार काकविष्ठावत् जान पड़ता है।’’ परम पूज्य गुरुदेव ने भी कामिनी और काम के विषय में लिखा है। वे ‘आध्यात्मिक काम विज्ञान’ नामक पुस्तक में लिखते हैं— ‘‘काम का अर्थ विनोद, उल्लास और आनंद है। मैथुन को ही काम नहीं कहते। कामक्षेत्र की परिधि में वह भी एक बहुत ही छोटा और नगण्य- सा माध्यम हो सकता है, पर वह कोई निरंतर की वस्तु तो है नहीं।....स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्चस्तरीय अभिव्यक्तियाँ जिस परिधि में आती हैं, उसे आध्यात्मिक काम कह सकते हैं। नर और नारी को भी इस भावप्रवाह से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।’’ (पृष्ठ ३५)

दोनों महापुरुषों के कहने की शैली में अंतर है, पर आशय वही है। अधिकांश लोग शारीरिक ब्रह्मचर्य तो साध लेते हैं, पर मन उनका कामुक बना रहता है, उस स्तर पर ब्रह्मचर्य नहीं सध पाता। गीताकार कहते हैं—निर्विकार रहो और अपनी इंद्रियों को जीतो। तृष्णा का कहीं कोई अंत नहीं है। हम कितना भी प्रयास करें, कभी तृष्णा हमारी पूरी नहीं होगी। मनुष्य आज जिस तरह पैसे के पीछे भाग रहा है, उसे देखकर लगता है कि इस अंतहीन दौड़ ने कितने कष्ट दिए हैं—शारीरिक रोगों के साथ मानसिक तनाव, अशांति, फिर भी यह बात समझ में नहीं आ रही। परमपूज्य गुरुदेव कह रहे हैं, ‘‘प्रसन्न रहने के दो ही उपाय हैं—अपनी आवश्यकताएँ कम करें और परिस्थितियों से तालमेल बिठाएँ।’’ पर क्या मनुष्य यह कर पाता है?

गीताकार ने जो शब्द प्रयुक्त किया है—‘समलोष्टाश्म- कांचनः’ उसका एक उदाहरण राका व बाँका हैं। चैतन्य महाप्रभु ने ‘राका तारे बाँका तारे’ नाम से एक पूरी स्तुति लिखी है। अभाव की स्थिति में रहते हुए दोनों ने भगवत्कर्मों को रोका नहीं। पति ने देखा कि सोने का कंगन पड़ा है, पत्नी कहीं न देख ले, उसे लोभ न आ जाए तो उसके ऊपर मिट्टी डाल दी। पत्नी ने कहा—मिट्टी के ऊपर मिट्टी डाल रहे हो। जब सोना हमारे लिए मिट्टी है तो फिर लोभ कैसा! यह आदर्श पत्नी ने तब प्रस्तुत किया, जब वे सब कुछ अपना परहितार्थाय बाँट चुके थे एवं स्वयं के पास कुछ भी नहीं था। राका और बाँका भक्त के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जो सोने व मिट्टी में भेद न रखे, वह आदमी योगी के रूप में स्थापित हो जाता है।

कुछ पूर्व शर्तें

शास्त्रों का ज्ञान और अनुभूतिजन्य विज्ञान, निर्विकार भाव तथा जितेंद्रिय बन पाने की सिद्धि मनुष्य को इस प्रकार पूर्णतः एक योगी साधक बना देती है। फिर उसे जीवन- साधना के क्षेत्र में कहीं व्यवधान नहीं आता। उसका ध्यान जब लगता है तो फिर ईश्वर में ही लगता है। वह आनंद के स्रोत में जाकर स्थित हो जाता है। इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए भगवान् नवें श्लोक में कहते हैं—

सुहृन्मित्रार्यु दासीन मध्यस्थ द्वेष्यबन्धुषु
साधुषु च पापेषु समबुद्धि र्विशिष्यते॥ -६/९


इसका शब्दार्थ पहले देखते हैं—
बंधु (सुहृत्), हितैषी मित्र (मित्र), शत्रु (अरि), झगड़ों, वाद- विवादों में उपेक्षा का रुख रखनेवाले (उदासीन), मध्यस्थ (मध्यस्थ), विद्वेषी द्वेष्य तथा बंधु में (बंधुषु), साधुओं में भी (साधुषु अपि) और पापी या अनिष्टकारी में भी (पापेषु च अपि) समान बुद्धि रखने वाले, समान समझने वाले (समबुद्धिः) श्रेष्ठ होते हैं (विशिष्यते )।

भावार्थ कुछ इस प्रकार बनता है—

जिसकी हितैषी, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी, बंधुगण, धर्मात्मा तथा पापीजनों में समदृष्टि है, वह अत्यंत श्रेष्ठ है।

हम यह स्पष्ट चिंतन रखें कि ध्यान की स्थिति में जाकर परमात्मा में प्रतिष्ठित होने की यह पूर्वभूमिका चल रही है। यदि व्यक्ति के मन में किसी के भी प्रति कुछ भिन्न भाव है—वैसा ही है, जैसा उसके मन में है, द्वेष का, शत्रुता का अथवा हितैषी- मित्र होने का, साधुजन और पाप में लिप्त होने वाले पुरुष का, तो फिर उसका चित्त अभी द्वंद्वों से, विक्षोभों से मुक्त नहीं हुआ। अचेतन ऐसी स्थिति में तैयार नहीं है—ध्यान की स्थिति में जाने को। अपना हो या पराया, मित्र हो या शत्रु—हमारी दृष्टि सबके प्रति एक जैसी हो। ऐसा नहीं कि हम भिन्न- भिन्न लोगों के साथ अपने संबंधों में उनके प्रति भिन्न- भिन्न दृष्टिकोण अपनाएँ। एक योगी पुरुष इनसे परे होता है।

हो श्रेष्ठ एकत्व का भाव

ये जो अंतर हम रखते हैं, वे तो केवल हमारे भौतिक स्तरों अर्थात् शारीरिक हाव- भाव, हमारे भावनाशील स्वभाव तथा बौद्धिक मूल्यों में ही होते हैं। यदि हम गहराई में जाकर विचारें, तो हम पाएँगे कि हम तो विशुद्ध आत्मा हैं, शुद्ध अहं में स्थित परमात्मा का एक अंश। सब हृदयों में जो जीवन स्फुल्लिंग हमें दिखाई दे रहे हैं, वे तो एक ही हैं। भिन्न- भिन्न कहाँ हैं। जिसने स्वयं को अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित कर लिया, वह तो योगारूढ़ ब्रह्मणि स्थितः अथवा युक्तः (योगी) हो गया। जिसने यह पहचान लिया कि उसके भीतर की आत्मा ही सबकी आत्मा (सर्वभूतात्म- भूतात्मा) है, तो फिर उसके बाद उसके लिए सब प्राणियों, पदार्थों में छिपे बैठे इस श्रेष्ठ एकत्व के अनुभव के बिना बाह्य संबंधों का निर्वाह असंभव है। ऐसा योगी पुरुष न किसी से मित्र या शत्रु का भाव रखता है, न साधु या पापी पुरुष का। उसके लिए आत्मा के स्तर पर सभी समान होते हैं। जब इस स्तर का आत्मानुभव होने लगता है तो हमारे अंतस् से ऐसी ज्योति प्रज्वलित होती है, जो आस- पास के संसार को भी देदीप्यमान- आलोकित कर देती है। तब हमारी जीवनदृष्टि बदल जाती है। वह अहंकार केंद्रित नहीं होती। (अयं निजः परोवेति) यह मेरा है यह दूसरा है, यह भाव नहीं रहता; क्योंकि ऐसी गिनती- मूल्यांकन (गणना लघुचेतसाम्) छोटे- संकीर्ण मनोवृत्ति वाले ही करते हैं। विराट् हृदय वाले—शुद्ध अहं में स्थित (उदारचरितानां तु) सारी विश्ववसुधा को अपना परिवार मानते हैं (वसुधैव कुटुंबकम्)। यह विश्वव्यापी भाव होने व एकत्व का भाव बने रहने से व्यक्ति की आंतरिक संरचना में आनंद, शांति व तृप्ति स्थापित हो जाती है। फिर उसकी तैयारी पूरी हो जाती है कि परमात्मा उसके माध्यम से झरे, अपनी पूरी चैतन्यता के साथ उसकी ऊर्जा उसमें से बहे। ऐसा व्यक्ति ही ध्यानस्थ योगी बन सकता है। हम सभी, जो पूर्ण योगी, दिव्यकर्मी, ध्यान- धारणा करने योग्य साधक बनना चाहते हैं, पहले यह एकत्व भाव स्थापित करें। तो ही हम सही मायने में परमात्मा के एक उपकरण (वि एन इंस्ट्रूमेंट इन हैंड्स ऑफ गॉड) बन पाते हैं।

यात्रा की पूर्व तैयारी अच्छी हो

जो यात्रा योगेश्वर ने इंद्रियजयी होने, राग- द्वेषरहित होने, आत्मनिष्ठ बनने, शीत- उष्ण आदि द्वंद्वों का अतिक्रमण कर ब्रह्म में समाहित होने, मान- अपमान से परे चलने से आरंभ की थी (श्लोक नं. ) उसे उनने ज्ञान- विज्ञान से परितृप्त, निर्विकार, कूटस्थ बनने एवं मिट्टी- सोने में अंतर न कर तृष्णामुक्त होने तक आगे बढ़ाया (आठवाँ श्लोक) एवं अब जाकर उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचे हैं कि एकत्व का भाव हर किसी के प्रति, शत्रु और मित्र, बंधु या उदासीन या मध्यस्थ तथा पापी और साधु व्यक्ति के प्रति समबुद्धि बनाए रखने के रूप में स्थापित करें। ऐसे व्यक्ति ही श्रेष्ठ योगी या साधक बन पाते हैं। पाठक समझ सकते हैं कि अंतर्जगत् की यात्रा की पूर्व तैयारी कितनी महत्त्वपूर्ण है। उसी की विशद व्याख्या छठे अध्याय के इन प्रारंभिक श्लोकों में आई है। इतना हो जाए तो फिर योगाभ्यास हेतु परिपक्व स्थिति बन जाएगी। यहाँ हम युगगीता का तीसरा खण्ड समाप्त करते हैं। ध्यानयोग का विस्तृत विवेचन युगगीता के अगले खण्ड में विस्तार से आया है जो छठे अध्याय के दसवें श्लोक से सैंतालीसवें श्लोक की युगानुकूल व्याख्या के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
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