एक ही राजमार्ग
योगेश्वर श्रीकृष्ण का स्पष्ट मत है कि
योगारूढ़
होकर मन को प्रभु में तल्लीन कर ध्यानस्थ हुआ जाए, तो मन को
शांति मिल सकती है। ऐसी स्थिति में पहुँचा साधक फिर प्रभु-
समर्पित दिव्य कर्म ही करता है। उससे जाने- अनजाने भी कोई गलत
काम नहीं हो पाता। निष्काम कर्म ही ब्राह्मी स्थिति तक किसी साधक
को पहुँचा पाते हैं। कर्मयोग- ध्यानयोग का एक अनूठा
संश्रोषित प्रयोग अध्याय छह के तीसरे व चौथे
श्लोक
में वासुदेव बताते हैं। वे कहते हैं कि आध्यात्मिक पुरुषार्थ
यदि व्यक्ति को करना हो, तो उसे योग पर सवारी करना अर्थात्
योगस्थ
होकर कर्म करना, मन पर नियंत्रण स्थापित कर उसकी शक्ति को
पहचानना तथा उसे समस्त वासनाओं की ओर से शांत कर लेना सीखना
चाहिए। जिसने यह सीख लिया, उसका जीवन सुख- भोग के बीच भी कभी
अस्त- व्यस्त नहीं होगा, वह निर्लिप्त भाव से एक
दिव्यकर्मी बन अपने जीवनपथ पर यात्रा को और सरल बना सकेगा।
अब यह जानना जरूरी है कि
सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष
योगारूढ़
कब बनता है, कब उसे वह उच्चस्तरीय एकाग्रता मिल पाती है, जहाँ
वह (आत्मा) परमात्मा से एकाकार हो सके? क्या कोई मदद बाहर से आती
है या स्वयं ही पुरुषार्थ करना पड़ता है? यदि स्वयं ही करना
होता है, तो किस स्तर पर उसे सक्रिय होना चाहिए? क्या मन इतना
शक्तिशाली है कि वह सारे आकर्षणों से विरत होकर आत्मसत्ता को
सच्चा साक्षात्कार करा सके? इन्हीं का उत्तर अगले
श्लोक में आया है-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ ६/५
पहले शब्दार्थ देखते हैं—
विवेकयुक्त मन के द्वारा (आत्मना)
जीवत्वाभिमानी बुद्धि को (
आत्मनं) नीचे न उतरने दें (गिरने न दें) (न अवसादयेत्) क्योंकि (हि) शुद्ध मन ही (आत्मा एव)
जीवत्व अभिमानी बुद्धि का (
आत्मानः) उपकार करने वाला मित्र है (
बन्धुः), मन ही (आत्मा एव) जीवात्मा का (आत्मनः) शत्रु है (
रिपुः)।
भावार्थ इस प्रकार हुआ—
‘‘मनुष्य
को अपने आप को स्वयं अपने द्वारा ही ऊँचा उठाना चाहिए और
अपने आपको अधोगति में नहीं डालना चाहिए, क्योंकि यह मनुष्य
(आत्मा) आप ही तो अपना मित्र है और वास्तव में यही आत्मा आप ही
अपना शत्रु
है।’’
अपनी सहायता स्वयं करो
यहाँ युद्धक्षेत्र में खड़े अर्जुन के लिए
गीतोपनिषद् का एक ही संदेश है, जो योगेश्वर के श्रीमुख से निस्सृत हुआ
है—‘‘अपनी सहायता स्वयं
करो।’’ जो अपनी सहायता करता है, परमात्मा सहित सभी दैवी शक्तियाँ आकर उसकी मदद करती हैं।
‘‘दैव- दैव आलसी
पुकारा’’—एक
जानी- मानी उक्ति है। भाग्य की शरण में, दैवी सहायता के लिए
याचना- गुहार लगाने वालों को आलसी- प्रमादी कहा जाता है। अतः सबसे
महत्त्वपूर्ण बात यह कि मनुष्य को स्वयं अपनी ही मदद करने के
लिए आगे आना चाहिए। मनोविज्ञान की यह एक महत्त्वपूर्ण स्थापना है
कि जितने भी सफलता के शिखर पर पहुँचे हैं या पहुँचते हैं, वे
सदैव अपनी आत्मशक्ति का आश्रय लेकर, उसे सशक्त बनाकर ही पहुँचे
हैं।
सांसारिक मानव होने के कारण हम जब कभी भी किन्हीं
कठिनाइयों में फँस जाते हैं, उनमें से अपने को उबारने के लिए हम
सामान्यतः दूसरों की ओर निहारते हैं। लगता है कि इन्हीं
मित्रों, हमारे सहयोगी- साथियों में से हमें कोई मदद कर देगा। अपनी
ओर हम देखते भी नहीं। लौकिक जीवन में यह तथ्य ठीक भी है कि
दूसरों की हमने कभी सहायता की है, हमारी सहायता वे
करेंगे;
किंतु आंतरिक जीवन में ऐसा नहीं है। हमारी आंतरिक व्यवस्था में
हमारे अलावा, हमारे आत्मबल के अलावा और कोई शक्ति हमारी मदद
नहीं कर सकती। आत्मविकास के लिए हर व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से
स्वयं निज का पुरुषार्थ ही करना होगा, यह एक स्पष्ट सूत्र इस
प्रसिद्ध
श्लोक में दिया गया है।
हमारे निकट का एक ही संबंधी हमारा मन
इस शीर्षक से परमपूज्य गुरुदेव ने
१९६७-
६८ के दिनों में एक पुस्तक भी लिखी
है—उद्धरेत् आत्मनाऽत्मानं। परम पूज्य गुरुदेव लिखते
हैं—‘‘मन
हमारा सबसे निकट का संबंधी है। पत्नी, बच्चे, भाई, मित्र, पड़ोसी तो
दूर, वह शरीर से भी अधिक समीप रहने वाला हमारा स्वजन है। शरीर
से तो सोते समय संबंध ढीले हो जाते हैं, मरने पर साथ छूट जाता
है, पर मन तो जन्म- जन्मांतरों का साथी है और जब तक अपना
अस्तित्व रहेगा, तब तक उसका साथ भी छूटने वाला नहीं है। मन मुख्य
और शरीर गौण
है।......मन
की समझदारी से शरीर की अस्त- व्यस्तता दूर हो सकती है। शरीर
परिपुष्ट होने से मनोविकार दूर नहीं किए जा सकते। शरीर की
सामर्थ्य तुच्छ है, मन की महान। मन का शासन शरीर पर ही
नहीं,जीवन
के प्रत्येक क्षेत्र पर है। उत्थान- पतन का वही सूत्रधार है।
निंदा और प्रशंसा उसी की गतिविधियों की होती है। किसी को संत,
ऋषि, देवदूत और महापुरुष बना देना, यह मन की सज्जनता का ही
परिणाम
है।’’ (वाङ्मय
क्र०—२२ ‘चेतन अचेतन और सुपरचेतन
मन’ १.५३)
‘‘हम स्वयं अपना उद्धार करें’’ यह संदेश सीधा
है—किसी भी साधक के लिए,
योगारूढ़ हो ध्यानयोग में प्रविष्ट होने के इच्छुक
दिव्यकर्मी
के लिए, गीता के मार्ग पर चलकर मन की शांति पाने वाले किसी
भी मानव के लिए। यदि हम इंद्रिय- भोगों की ओर खिंचते नहीं चले
जाते, हम जितेंद्रिय हैं, ऊँचे उद्देश्यों में, उच्चस्तरीय प्रयोजनों
में रुचि रखते हैं, तो हम अपने निज के, अपने मन के मित्र हैं।
उसको ऊँचा उठने में हम मदद कर रहे हैं और यदि हम भोग- ऐश्वर्य
के प्रवाह में खिंच जाते हैं, हम स्वयं को बिखेर देते हैं,
उच्छृंखल विचारों में बहते चले जाते हैं, मनोबल कमजोर होने से
कोई भी कार्य हाथ में नहीं ले पाते तो हम अपने मन के शत्रु
हैं। हमारा आपा ही हमारा बंधु है और अपना आपा ही हमारा दुश्मन
है। जिस दिन हम मन को मित्र बनाकर उसे जीत लेते हैं, तो फिर हम
अध्यात्म- क्षेत्र के साथ लौकिक जगत् में भी एक सफल मानव बनते
चले जाते हैं।
शुद्ध मन—शुद्ध अहं की शक्ति
इस
श्लोक में आत्मानं, आत्मना शब्द बार- बार आया है और कहीं उसका अर्थ है विवेकयुक्त मन और कहीं है
जीवत्वाभिमानी
बुद्धि और कहीं शुद्ध आत्मसत्ता। आत्मसत्ता और मन की एक ही
शब्द से व्याख्या करके गीताकार ने अपने काव्य- कौशल का परिचय
दिया है। जब हम कहते हैं कि शुद्ध मन ही हमारी बुद्धि की
उन्नति करने वाला, आत्मसत्ता को ऊँचा उठाने वाला है तो हमारा आशय
है कि ऐसा मन ही मुक्ति में सहायक होता है। विषयासक्त मन तो
अवसादग्रस्त, गिरा हुआ मन है। वह तो जीवात्मा के लिए शत्रु की
भूमिका निभाता है और पतन का कारण बनता है।
योगशास्त्र कहते
हैं—तदा दृष्टुः स्वरूपे
अवस्थानम् अर्थात् चित्तवृत्तियों के शांत हो जाने पर द्रष्टा
पुरुष अपने स्वरूप में स्थिर हो जाते हैं, अवस्थित रहते हैं। मन
को जब भी
विषयादि भोगों से हटाकर आत्मनिष्ठ किया, तभी निज की
सच्चिदानंदघनरूपी
आत्मसत्ता में अवस्थिति होगी। जीव का मन माया से ढके होने के
कारण नर- पशु, नर कीटक, नर- पामर, नर- पिशाच स्तर के व्यक्तियों को
अपना आत्मस्वरूप स्पष्ट दिखाई नहीं देता, जबकि देवमानव स्तर के
व्यक्ति उस आवरण को हटाकर, मन को अपना मित्र बनाकर उसकी अपार
सामर्थ्य से
जीवन्मुक्ति का लाभ उठा लेते हैं।
फिर बंधन क्या हैं? विषयासक्त मन ही जीवात्मा के बंधन
का कारण है। सदैव उसी चिंतन में रत रहने वाला, अपनी कल्पनाओं का
जगत् वैसा ही बनाने वाला व्यक्ति कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर
पाता। शुद्ध मन ही मोक्ष का कारण है। मन एव मनुष्याणां कारणं
बंधमोक्षयोः इसी संदर्भ में कहा गया
है—मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मुक्ति का कारण है। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं,
‘‘मन
आसक्तिरहित होने से ही भगवान् का (परिष्कृत आत्मसत्ता का) दर्शन
होता है। शुद्ध मन से जो वाक्य निकलता है, वही भगवान् की वाणी
है। शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि आत्मा के समान
है; क्योंकि उनके अतिरिक्त और कोई शुद्ध पदार्थ इस धरती पर नहीं
है।’’ आगे वे कहते हैं,
‘‘शुद्ध मन ही जीवात्मा को
ब्रह्माभिमुखी करता है और संसार- सागर से उसका उद्धार करता है। दूसरी ओर वासना में आसक्त मन जीव को नरक में गिराता है।
वासनायुक्त जीव,
वासनायुक्त शिव।’’
सारा खेल मनःशक्ति का
सारी बात स्पष्ट है। मन ही मन को गिराता है, मन ही मन
को उठाता है। सारा खेल संसार में इसी मनःशक्ति का चल रहा है।
मन को सशक्त बनाकर प्रतिकूलताओं में भी अपना अस्तित्व बनाए रख
सकते हैं, स्वस्थ बने रह सकते हैं एवं उल्लास भरा जीवन बिता
सकते हैं। इसी मन के दुर्बल पड़ने पर हम जीवित रहते हुए नारकीय
वेदना की अनुभूति भी कर सकते हैं एवं घोर निराशा की स्थिति में
जीते हुए आत्मघात करने की भी सोचने लगे हैं। समर्थ, शिवा,
वाल्टेयर, नेपोलियन, गैरीबाल्डी, जोन ऑफ आर्क,
स्वमी रामतीर्थ, स्वामी
विवेकानंद, वीर भगतसिंह,
गांधी
आदि वे नाम हैं, जिनने मन की इसी शक्ति का आश्रय ले स्वयं को
ऊँचा उठाया और अन्य अनेकों के लिए पथ प्रशस्त किया।
‘‘मन के हारे हार है, मन के जीते
जीत’’
इसी आधार पर कहा जाता है। धरती पर स्वर्ग जैसी उत्कृष्ट
परिस्थितियाँ विनिर्मित करनी हों, तो मन को ऊँचा उठाना होगा,
मानवों में देवत्व का समावेश करना होगा, विधेयात्मक चिंतन ढेरों
व्यक्तियों का बनाना होगा।
‘‘पॉजिटिव मेण्टल एटीच्यूड’’ (पीएमए)
विधेयात्मक मनःस्थिति की चर्चा करते हुए अगणित मनःचिकित्सक,
अध्यात्मवादी चिंतक लोगों की मानसिकता में परिवर्तन कर उन्हें
प्रगति के मार्ग पर बढ़ाते रहे हैं। आंतरिक व बहिरंग दोनों ही
जगत् की सिद्धि का एक ही राजमार्ग है—मनःशक्ति का सार्थक सुनियोजन। ढेरों ईसाई पादरी इसी एक विषय पर अपने उद्बोधन से समूह में आत्मविश्वास जाग्रत् कर उनसे धर्मसम्मत परोपकार के अगणित कार्य संपन्न करा लेते हैं। नारमन विंसेंट पील,
नेपोलियन हिल जैसे लेखकों ने इस विषय पर अगणित पुस्तकें लिखी
हैं एवं ढेरों अवसादग्रस्त लोगों को नई राह दिखाई है।
शिक्षा नहीं, भीतर से उबारने वाली विद्या जरूरी
शिक्षा की, अध्यापकों की जरूरत को हम सभी समझते हैं व यह मानते हैं कि इनकी अनगढ़ को
सुगढ़
बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मन के लिए ज्ञानप्राप्ति हेतु
अनुकूल वातावरण विनिर्मित करने में पुस्तकों- अध्यापकों, सभी की
उपयोगिता है। उससे कोई इनकार नहीं कर
सकता;
किंतु यदि उनसे मनःशक्ति का संवर्द्धन होता, तो सभी शिक्षित-
भाषण सुनने वाले, सशक्त मनोबल वाले एवं सफल उद्यमी, शिक्षित या
उच्च प्रतिष्ठित व्यक्ति होते। आत्मविकास की जब बात आती है तो यह
बहिरंग की शिक्षा अधूरी रह जाती है, यदि हमने अपने भीतर से
इसके लिए स्वतंत्र रूप से प्रयास नहीं किया। बाह्य साधन हमें
नूतन विचार दे सकते हैं, परंतु अंतिम लक्ष्य तो आत्मपरिवर्तन ही
है। इसकी प्राप्ति मनुष्य को ही निज का आध्यात्मिक पुरुषार्थ
संपन्न करने पर होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण कहते
हैं—अपने आप ही अपने आप को ऊँचा उठाओ (
उद्धारेदात्मात्मानं)।
श्रीकृष्ण बार- बार अर्जुन को जीवन के चिरपुरातन ढर्रे,
सोच को बदलने हेतु चेतावनी देते हैं। वे जानते हैं कि हमारी
आदतें, स्वभाव,
कोमोद्वेग,
वासनाएँ, ईर्ष्या, द्वेष हमें बार- बार प्रभावित करेंगे। इनसे बचने
और आत्मा को अपयश की ओर ले जाने वाली, पुनः फिसलन की ओर
ढकेलने वाली प्रवृत्ति के विरुद्ध वे चेतावनी देते हैं। कहते हैं, अपने आपको नीचे नहीं गिरने देना चाहिए (
नात्मानमवसादयेत्)। ऐसे
पतनों से सावधानीपूर्वक-
प्रयासपूर्वक
अपने आपको बचाना चाहिए। पुरानी आदतें बड़ी कठिनाई से छूटती हैं,
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह नवीन लक्ष्य को, जो विधेयात्मक है,
दृढ़ता से पकड़े रहे, पीछे फिसलने से इनकार कर दे। पर्याप्त लंबे
समय तक ऊँचाई पर टिका रहने वाला मनुष्य फिर गिरता नहीं, पतन के
मार्ग पर उसके फिसलने के अवसर कम हो जाते हैं।
जीवन जीने की कला के महत्त्वपूर्ण सूत्र
अंतःसिद्धि का यह उपदेश प्रभु का हम सबके लिए है।
गीताचार्य
हमें अपनी सांस्कृतिक उन्नति के इस मार्ग में आत्मानुशासन का
पाठ पढ़ाते हैं और संकेत करते हैं कि तुम्हारी अपनी आत्मा (शुद्ध
अहंकार) ही तुम्हारी सच्ची मित्र है (
आत्मैवह्यात्मनो बंधुः) और तुम्हारी अपनी आत्मा (शुद्ध अहंकार) ही तुम्हारी शत्रु है (आत्मैव
रिपुरात्मनः)। जीवन- दर्शन के इन सूत्रों को जिसने समझ लिया, उसे जीवन जीना आ गया। वह सच्चा
दिव्यकर्मी, एक सफल जीवन जीने की कला का पारंगत बन गया। उसे प्रगति का एक
आत्मावलंबन प्रधान पथ मिल गया। अब वह बाहरी परिस्थितियों, वातावरण पर निर्भर न रह
आत्मजगत् के स्तर पर पुरुषार्थ कर सकता
है; क्योंकि उसे उसकी सत्ता पर, अनंत संभावनाओं पर विश्वास हो गया है।
मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री
है—यह
आत्मिकी का, अध्यात्म का मूल मर्म है। जो इस सूत्र पर विश्वास
रखता है, वह संसार में कहीं भी रहते हुए अपनी आत्मशक्ति के
सहारे अपने लिए अनुकूल वातावरण- परिस्थितियाँ बना लेगा। संत
इमर्सन कहते थे,
‘‘तुम मुझे नरक में भेज दो, मैं अपनी आत्मशक्ति द्वारा वहाँ भी अपने लिए स्वर्ग बना
लूँगा।’’ सारा तत्त्वदर्शन एक ही धुरी पर टिका
है—आत्मावलंबन। हम हैं कि वातावरण का, परिस्थितियों का ही रोना रोते रहते हैं।
गीताचार्य
हमें बार- बार कह रहे हैं कि बाह्य अवस्थाओं, वातावरण,
परिस्थितियों पर अपनी निर्भरता को समाप्त करो। चाहे वे कैसे भी
क्यों न हों, बड़े आकर्षक नजर आते हों, वे न तो हमारे सच्चे
मित्र हो सकते हैं और न सच्चे शत्रु ही। आत्मविश्वास के चार
सोपान—
आत्मावलोकन,
आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण (आत्मविकास) में एकमात्र मित्र
हमारा अपना आपा ही है, जो हमारे सबसे निकट है। हम स्वयं ही अपने
मित्र अथवा शत्रु हैं। कोई भी दूसरा न तो हमारी सहायता कर
सकता है, न ही हमें किसी तरह का नुकसान पहुँचा सकता है।
परिस्थिति नहीं, मनःस्थिति प्रधान है
आज का भोगवादी विज्ञान कहता है,
उपभोक्तावादी पाश्चात्य चिंतन कहता
है—परिस्थितियाँ ठीक कर दो, मन स्वतः ठीक हो जाएगा। चाहे कितनी ही भौतिक जगत् की सुविधाएँ हों, चाहे
वातवरण
कितना ही हमारे अनुकूल साधन हमें जुटाकर दे दे, यदि हमारी
मनःस्थिति कमजोर है तो वे हमारा कुछ भी लाभ न कर सकेंगे। उलटे
हमें अपयश की ओर, वासनात्मक जीवन की ओर, बिगड़ती आदतों से
परावलंबन
की ओर धकेल देंगे। भोगवादी मानसिकता, अनुकूल सुविधाओं की बहुलता
में क्यों इतने मनोरोग पनप रहे हैं? क्यों मन अशांत है? क्या
कारण है कि आत्मघात की दर बढ़ती जा रही है? अवसाद (डिप्रेशन) की
मनःस्थिति वाले रोगियों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है? असंतोष
और
उद्विग्रता, संक्षोभ- विक्षोभ, मानसिक तनाव इतनी बढ़ोत्तरी पर क्यों है? इन सबका एक ही उत्तर
है—आत्मावलंबन छोड़कर
परावलंबन
का पल्ला पकड़ लेना। परिस्थितियों की विवशता का रोना रोते रह
तथा अपनी आत्मशक्ति को अधोगति की ओर डाल देना। जब तक आत्मिक
जगत् से पुरुषार्थ का पहला कदम नहीं बढ़ेगा, सफलता का राजमार्ग
हमसे उतना ही दूर होता चला जाएगा। भगवान् उन्हीं की मदद करते
हैं, जो अपनी मदद स्वयं करते हैं। हमें अपने प्रचंड मनोबल एवं
अनंत शक्ति संपन्न आत्मसत्ता पर भरोसा रख उसी का आश्रय लेना
चाहिए, यही पूरे इस पाँचवें
श्लोक का सार संक्षेप है।