ईश्वर उपासना का प्रभाव मनुष्य के जीवन निर्माण में किस प्रकार होता है इसको समझने के लिये आत्मा के स्वरूप और उसका परमात्मा के साथ क्या सम्बन्ध है यह जानना बहुत जरूरी है। जब मनुष्य अपने आप को शरीर तथा इन्द्रियों से पृथक देखता है। और आत्मिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करता है तो उसकी बुद्धि में एक नये ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है। वह समझता है कि यह इन्द्रियां यह शरीर आत्मोत्थान के महत्वपूर्ण साधन मात्र हैं अतः इनका सदुपयोग भी करना चाहिए। पर इनके विषय में आसक्त न होना चाहिए। इस प्रकार की धारणा जब तक नहीं बन जाती तब तक मनुष्य को विचार-विभ्रम होता रहता है, पर जैसे ही इस प्रकार की निश्चयात्मक बुद्धि बनी कि यह शरीर तो कोई नष्ट हो जाने वाली वस्तु है, वहीं मृत्यु का भय छूट जाता है, भय और प्रलोभनों से मुक्त होना अथवा आत्मा के स्ववश होना ही जीवन-मुक्ति है इसी का नाम ब्रह्म-विद्या है।
वेद और उपनिषदों में जो ज्ञान संग्रहीत है उससे मालूम पड़ता है कि ऋषियों ने इसी विद्या के प्रकाश में अनन्त ऐश्वर्यशाली परमात्मा का साक्षात्कार किया। मनुष्य के साथ उस परमात्मा का क्या सम्बन्ध है। इसे भी स्थान स्थान पर प्रकट किया है। परम्परा, प्रतिपादन पद्धति तथा ज्ञातव्य आदि के भेद से इन वर्णनों में अनेकरूपता तो है, पर उनमें विरोधी भाव नहीं है। कुछ अंश तो एक दूसरे के पूरक हैं, कुछ में केवल साधना पद्धति की भिन्नता है, तथापि ब्रह्म विद्या के इन अनेक रूपों के अन्तस्तल में स्वरूपगत एकता बनी हुई है। ब्रह्म की शक्ति और उसके जीवन को भव्य बनाने के सम्बन्ध में उनमें कहीं भी मतभेद नहीं है। परमात्मा की उपासना चरित्र निर्माण का अत्यन्त आवश्यक अंग है, यह बात सब स्वीकार करते हैं।
परमात्मा की दिव्य-शक्ति का अवतरण मनुष्य के जीवन में किस प्रकार होता है इस सम्बन्ध में ऋषियों की सैद्धान्तिक मान्यता यह है—
या आत्मदा बलदायस्य विश्व उपासतेप्रशिष यस्य देवाः यस्यच्छाया अमृतयस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम। यजु. 25/13
‘‘यह परमेश्वर उपासनीय है क्योंकि उसके चिन्तन से मनुष्य को आत्मा के स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है। आत्म-ज्ञान उसके अन्दर महान् बल पैदा करता है सारे विश्व में उसका महत्व आच्छादित है पर उसे पाते वही हैं जो उसके प्रशासन में रहते हैं अर्थात् उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं।’’
ब्रह्मविद्या का सम्पूर्ण गूढ़ तत्व इस मन्त्र में निचोड़ कर रख दिया है। यह सच बात है कि जब तक लोगों में ऐसा विश्वास या जिज्ञासा नहीं पैदा होती कि इस विश्व का अन्तिम निर्णायक कोई परमेश्वर है तब तक वे केवल सांसारिक कर्मों में लौकिक और भौतिक सुखों की उपलब्धि में ही लगे रहते हैं। ईश्वर की बात और उसके अस्तित्व पर विश्वास होते ही भौतिक दृष्टिकोण का एकाएक विराम होता है और उसकी मानसिक चेष्टायें अन्तर्मुखी होने लगती हैं। मनुष्य के विचार और अनुभव का क्षेत्र जितना अधिक विकसित होता है उतना ही उसे इन्द्रियों और उसके विषयों की निस्सारता समझ में आने लगती है। जिन कार्यों में लोग प्रमादवश अपनी शक्ति और सामर्थ्य ही गंवाया करते हैं वह उन्हें रोक कर आत्म शोधन की साधना में लगाता है। फलस्वरूप उसकी आत्मिक प्रगति होती है और वह अपने सूक्ष्म आध्यात्मिक स्वरूप को भी समझने लगता है।
आत्मा की मान्यता जितनी ही दृढ़ होती जाती है मृत्यु का भय उतना ही दूर होता जाता है इससे उसके हृदय में बल का संचार होता है किन्तु इस समय मन की अधोगामी प्रवृत्तियां भी चुप नहीं रहती। संसार के दूषित तत्व भी उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसलिये कहा है कि इस संघर्ष काल में जो जागृत पहरेदार की तरह सदैव सावधान रहते हैं और ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं, ईश्वर की पूर्ण कृपा उसे ही प्राप्त होती है। उसी का जीवन भव्य बनता है।
ईश्वर की आज्ञायें क्या है, हमारे लिये समझने के लिये यह सबसे कठिन बात नहीं है। आमतौर पर हमारे जीवन की प्रत्येक गतिविधि का संचालन मन करता है और अपना अच्छा बुरा जैसा भी कुछ मन है उसकी बातों को ही ईश्वर की आज्ञायें मानकर पूरा किया करते हैं। किन्तु जब कभी मन कोई बुरा कर्म करता है तो उसे अन्तःकरण में दुःख प्रकट होता है। परमात्मा का आदेश समझने की सीधी कसौटी यह है कि जिन कर्मों में आत्महीनता, असन्तोष और अशान्ति उत्पन्न होती हो उन्हें न करना और जिनसे दिव्य तत्वों की वृद्धि होती हो आत्म सुख, सन्तोष और शान्ति मिलती हो उनका विकास करना ही ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना है।
मन की प्रवृत्ति आमतौर पर अधोमुखी होती है इसलिये आत्मा को अपनी बुद्धि और सामर्थ्य का प्रयोग करना चाहिये। मन को बुरे कर्मों से बार बार हटाने और उसे शुभ कर्मों में लगाये रखने में कुछ दिन में उसकी प्रवृत्ति भी सतोगुणी हो जाती है। पाप करने या बुद्धि का दुरुपयोग करने से ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार उसको लज्जित होना पड़ेगा और उसका सिर झुका रहेगा। पर सत्कर्म लौकिक या आत्मिक सभी दृष्टियों से मनुष्य को सुख प्रदान करने वाले ही होते हैं और उनसे अपना आत्माभिमान भी विकसित होता है, तथा शक्तियों और सामर्थ्यों का विकास भी उसी क्रम से होता जाता है।
यह बात तो सभी चाहते हैं कि हमारे मन में बुरे विचर कभी न आवें। हम सदा शान्त और आनन्दमय रहें, दुःख का भान न हो। इसके लिये लोग प्रयत्न भी करते हैं किन्तु संसार की गति भी कुछ ऐसी है कि मन को आघात पहुंचाने वाली घटनायें यहां घटती रहती हैं, उन घटनाओं को सहते हुए भी जो मन को वश में रखता है और उसे शुभ संकल्पों से रिक्त नहीं होने देता ईश्वर की आज्ञाओं का सच्चे मन से वही पालन करता है। जो मन को चंचल, अस्थिर या विकारपूर्ण नहीं होने देते वह सच्चे साहसी वीर और गंभीर होते हैं। इन दैवी सत्प्रवृत्तियों के आधार पर निरन्तर उसे परमात्मा की कृपा प्राप्त होती रहती है और वह आत्म विकास की साधना में उत्तरोत्तर सफल होता हुआ आगे बढ़ता रहता है।
आत्मा के विकास और ईश्वर की प्राप्ति के लिये केवल दैवी गुण भी चिरकाल तक नहीं टिक सकते, ईश्वर भक्ति, जप, उपासना आदि आवश्यक हैं किन्तु जहां भक्ति हो वहां श्रद्धा, प्रेम, विश्वास, दया, करुणा, उदारता, त्याग, सहयोग, सहानुभूति, क्षमा आदि दैवी गुण भी अवश्य होने चाहिये। कर्म जैसा चाहे करो, ईश्वर सब क्षमा करेगा—इस मान्यता ने व्यक्ति और समाज दोनों का बड़ा अहित किया है। ईश्वर को मानने का दावा करने वाले लोग दैवी गुणों की परवाह न करके इस भ्रम में पड़ गये हैं कि गुणों का विकास चाहे हो या न हो ईश्वर भक्ति से हमारा सब कुछ ठीक हो जायेगा। इस संकीर्ण दृष्टिकोण ने ब्रह्म-विद्या के सच्चे स्वरूप की आस्थाओं को भी नष्ट कर दिया है और बुद्धि प्रधान लोग उसे सन्देह की दृष्टि से देखने लगे हैं। यह स्वाभाविक भी है। ब्रह्म-विद्या का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व का उत्कर्ष, मनुष्य में देवत्व का उदय, ईश्वरीय प्रकाश का अन्तःकरण में अवतरण और जीवन में दैनन्दिन आचरण, में उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
सूक्ष्म और कारण शरीर को परिष्कृत-विकसित करना ब्रह्मविद्या का उद्देश्य है। यह विकास-परिष्कार निश्चय ही स्थूल-शरीर पर भी प्रभाव डालेगा। सत्परिणाम उत्पन्न करेगा। श्रद्धा आस्था की भाव-सम्वेदना, शरीर, मन, वचन और कर्म पर सुनिश्चित एवं सुस्पष्ट प्रभाव डालती हैं। और व्यक्तित्व का स्वरूप विनिर्मित करती हैं।