व्यक्तित्व परिष्कार में श्रद्धा ही समर्थ

व्यक्तित्व-परिष्कार में श्रद्धा ही समर्थ

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जीवात्मा के तीन कलेवर ओढ़ रखे हैं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर की शक्ति क्रिया है। इसके माध्यम से विभिन्न प्रकार के उपार्जन होते हैं। धन का महत्व हम सभी जानते हैं। जो कुछ कमाया उगाया जाता है उसका प्रमुख आधार श्रम ही होता है, सक्रियता के अभाव में अभीष्ट उपलब्धियां तो प्राप्त करना दूर—जीवित रह सकना तक सम्भव न हो सकेगा।

दूसरा कलेवर है, सूक्ष्म शरीर। जिसे मनःसंस्थान कहा जा सकता है। चिन्तन इसी की शक्ति है। कल्पना, निर्णय, विश्वास के नाम से-बुद्धि, चित्त के नाम से—चेत-अचेतन, उच्च-चेतन के नाम से—इस चिन्तन को चित्त शक्ति के नाम से जाना जाता है। शरीर में सक्रियता, मन में सूझबूझ यही दो प्रमुख आधार भौतिक जीवन की विभिन्न क्षेत्रों की प्रगतियों और समृद्धियों को उपलब्ध करते हैं। श्रम और बुद्धि का ही वह सब कुछ उत्पादन है, जिसे हम सम्पदाओं और सहानुभूति के साधनों की तरह देखते हैं। भौतिक उपलब्धियों का रथ इन्हीं दो चक्रों के सहारे घूमता है। इन्हीं की न्यूनता से पिछड़ापन बना रहता है और जब वे पर्याप्त मात्रा में होते हैं तो सफलताओं के अम्बार लगाते चले जाते हैं। इस तथ्य को सभी जानते हैं और क्रियाशक्ति बढ़ाने के लिए शरीर को तथा बुद्धिमत्ता बढ़ाने के लिए मन को परिपुष्ट बनाने के लिए यथासम्भव प्रयत्न भी करते हैं।

शरीरों के क्रमशः एक के बाद दूसरा अधिक श्रेष्ठ है—अति श्रेष्ठ है। शरीरगत श्रम से थोड़ा-सा ही पारिश्रमिक प्राप्त किया जा सकता है किन्तु बुद्धिबल के सहारे प्रबुद्ध व्यक्ति प्रचुर परिणाम में धन और यश प्राप्त करते हैं। आलस्य से होने वाली हानि की तुलना में प्रमाद द्वारा प्रस्तुत हानि अत्यधिक होती है। इस प्रकार श्रमजीवी की तुलना में बुद्धिजीवी को अधिक श्रेय मिलता है। स्पष्ट है कि स्थूल शरीर का महत्व होते हुए भी सूक्ष्म शरीर की क्षमता का मूल्य अधिक है। श्रम की तुलना में चिन्तन की गरिमा का स्तर ऊंचा है।

तीसरा कारण शरीर है। इसे अन्तःकरण-अन्तरात्मा आदि नामों से पुकारा जाता है। भाव सम्वेदनाओं का क्षेत्र यही है। विश्वासों की नींव उसी में जमती है। आस्थायें और निष्ठायें इसी मर्मस्थल में जमी रहती है। समूचा व्यक्तित्व इसी क्षेत्र से निश्चित होने वाली प्रेरणाओं के आधार पर ढलता है। आकांक्षायें-अभिलाषायें यहीं से उभरती हैं। व्यक्तित्व को हिला डालने वाली और मनुष्य को कहीं से कहीं घसीट ले जाने वाली भाव-सम्वेदनाओं की गंगोत्री इसी केन्द्र को कह सकते हैं। व्यक्ति जैसा कुछ है इसी अन्तःकरण की प्रतिमूर्ति है। क्या पिछड़े, क्या प्रगतिशील, क्या सुर, क्या असुर इसी क्षेत्र की स्थिति के अनुरूप ढलते हैं।

जीवन की दिशाधारा को मस्तिष्क निर्धारित नहीं करता और न शरीर की क्रियाशीलता स्वतंत्र है। इन दोनों को अन्तःकरण का गुलाम कह सकते हैं। उनका अपना अस्तित्व निर्दिष्ट दिशा में चलता रहता है। किधर चलना है इसका निर्धारण आकांक्षाओं का क्षेत्र अन्तःकरण ही करता है। जैसी आकांक्षायें उभरती हैं, उसी के अनुरूप मस्तिष्क की सारी मशीन सोचने में लग जाती है और शरीर ही काम करते दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुतः वे यन्त्रवत हैं और अपने असली मालिक अन्तःकरण की प्रेरणाओं के अनुरूप उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही निरन्तर काम करते हैं। व्यक्तित्व के मूल में आस्थायें ही काम करती हैं। गतिविधियों का संचालन आकांक्षाओं के अनुरूप होता है। यही है मानव-तत्त्व का सार। मनुष्यों की शारीरिक संरचना लगभग एक जैसी ही है और उनके बीच नगण्य-सा ही अन्तर पाया जाता है किन्तु पतित, प्रखर और उत्कृष्ट स्तर के मनुष्यों के बीच जो अन्तर पाया जाता है, उसे जमीन, आसमान जैसा कहा जा सकता है। सौभाग्य एवं दुर्भाग्य की आधारशिला यहीं रखी जाती है। व्यक्तित्व की ढलाई इसी दिव्य संस्थान में होती रहती है।

अन्तःकरण की उत्कृष्टता को श्रद्धा के नाम से जाना जाता है, उसका व्यावहारिक स्वरूप है भक्ति। यों साधारण बोलचाल में दोनों का उपयोग पर्यायवाची शब्दों के रूप में होता है, फिर भी कुछ अन्तर तो है ही, श्रद्धा अन्तरात्मा की आस्था है। श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार के रूप में उसकी व्याख्या की जा सकती है। भक्ति उसका व्यावहारिक रूप है। करुणा, उदारता, सेवा, आत्मीयता के आधार पर चलने वाले विभिन्न गतिविधियों को भक्ति कहा जा सकता है। देश भक्ति, आदर्श भक्ति, ईश्वर भक्ति आदि के रूपों में त्याग बलिदान के, तप-साधना के, अनुकरणीय आदर्शवादिता के अनेकों उदाहरण इसी भक्ति की प्रेरणा से बन पड़ते हैं।

आस्थाएं-आकांक्षाएं जब परिपक्व स्थिति में पहुंचती हैं और निश्चयपूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती हैं तो उन्हें संकल्प कहते हैं। संकल्प की प्रखरता मस्तिष्क और शरीर दोनों को अभीष्ट दिशा में घसीट ले जाती है और असंख्यों अवरोधों से टकराती हुई उस लक्ष्य तक पहुंच जाती है, जिसे आरम्भ में असंभव तक समझा जाता था। पुरुषार्थियों की यश गाथा से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। वस्तुतः उन्हें संकल्प शक्ति का चमत्कार ही कह सकते हैं। यहां इतना और समझने की आवश्यकता है कि संकल्प उभर कर आने से पूर्व विश्वास बनकर मनःक्षेत्र में अपनी जड़ें जमाता है या उस बीज का प्रत्यक्ष पौधा संकल्प में प्रकट होता है। विश्वास की प्रतिक्रिया ही संकल्प है। यही कारण है कि अन्तःकरण की उच्चस्तरीय आस्थाओं को श्रद्धा विश्वास का रूप दिया गया है। वे उत्कृष्ट स्तर की होने पर शिव पार्वती का युग्म बनते हैं और निकृष्ट होने पर आसुरी क्रूर कर्मों में इस प्रकार निरत दिखाई पड़ते हैं जैसा कि उपाख्यानों में दानवों एवं शैतान का चित्रण किया जाता है।

जीवात्मा के उच्चतम आवरण-कारण शरीर की, अन्तःकरण की, स्थिति एवं शक्ति को यदि ठीक तरह समझा जा सके तो मात्र उसी को व्यक्तित्व का सारतत्व कहा जायगा। गीताकार ने इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा है— ‘‘श्रद्धा मनोयं परुष, यौ यच्छद्धः स एवस’’ अर्थात् जीव की स्थिति श्रद्धा के साथ लिपटी हुई है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही है। क्रिया, विचारणा और भावना यही चेतना की तीन शक्तियां हैं। श्रेष्ठता की दिशा में जब वे बढ़ती हैं तो सत्कर्म, सद्ज्ञान एवं सद्भाव के रूप में उन्हें काम करते देखते हैं। इन्हें सुविकसित करने के विज्ञान को अध्यात्म कहते हैं। ब्रह्मविद्या का विशाल ढांचा उसी के निमित्त खड़ा किया गया है। चेतना को श्रेष्ठता के साथ जोड़ देने के प्रयास को ही योग कहते हैं। योग साधना की तीन प्रमुख धाराएं हैं— कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग इन्हीं के सहारे जीवन लक्ष्य प्राप्त होने की स्थिति बनती है। इसी त्रिवेणी में स्नान करने से परम पद की प्राप्ति का लाभ मिलता है।

उपरोक्त विवेचना के सहारे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मानव जीवन में सबसे बड़ी, सबसे ऊंची, सबसे समर्थ शक्ति ‘श्रद्धा’ की ही है। मनःस्थिति को परिस्थितियों का सृजनकर्ता कहा गया है। शरीर को जन्म तो माता-पिता के प्रयत्न से मिलता है, पर आत्मा को उत्कृष्टता, श्रद्धा और विश्वास रूपी दिव्य-जननी और जनक की अनुकम्पा का फल माना जा सकता है। विधाता द्वारा भाग्य लिखे जाने के अलंकार में तथ्य इतना ही है कि अपना अन्तःकरण अपने स्तर के अनुरूप मनुष्य की प्रगति, अवनति आदि का ताना-बाना बनता है। अदृश्य कृपा—दैवी अनुग्रह—आदि का सात्विक स्वरूप समझना हो तो उन्हें अन्तःकरण के ही वरदान, अभिशाप कह सकते हैं। लोक व्यवहार में कहा जाता है कि ‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।’ गीता कहती है— ‘‘आत्मैवह्यात्मन् बन्धु-आत्मैव रिपुरात्मेनः’’ अर्थात् मनुष्य स्वतः ही अपना मित्र और शत्रु है। उत्थान और पतन की कुंजी पूरी तरह उसके अपने हाथ में है और वह सुरक्षित एवं सुनिश्चित रूप में अन्तःकरण में रखी रहती है। इसी चाबी को शास्त्रकारों ने आस्था, निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, संकल्प आदि के नामों से पुकारा है। भावनाओं और आकांक्षाओं के रूप में भी इसी तथ्य की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की जाती है। उल्लसित वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण पूर्णतया सत् श्रद्धा के हाथ में है। उसी का महत्व, मर्म, उपार्जन, अभिवर्धन सिखाने के लिए भूतकाल की कथा-गाथाओं को पुरातन उपाख्यानों में पुराण के माध्यम से जाना और जनाया जाता है। भूत, भविष्य और वर्तमान की सुखद सम्भावनाओं का निर्माण अन्तःकरण के जिस क्षेत्र में विनिर्मित होता है, उसका स्वरूप समझना हो तो एक ‘श्रद्धा’ शब्द का उपयोग करने से वह प्रयोजन पूरा हो सकता है।

बीज ही वृक्ष बनता है और श्रद्धा ही व्यक्तित्व का रूप धारण करती है, मनुष्य जो कुछ बनता है— जो कुछ पाता है वह समूचा निर्माण ‘श्रद्धा’ शक्ति के चमत्कार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि इस ब्रह्म विज्ञान के, आत्म-विज्ञान के गूढ़ रहस्य को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि तत्वदर्शियों ने वेदान्त प्रतिपादित सनातन सत्य को अयमात्मा ब्रह्म— प्रज्ञातं ब्रह्म, तत्वमसि, सोहम्, शिवोहम्, सच्चिदानन्दोहम् आदि सूत्र में घोषित किया है। पतन से बचने और उत्थान अपनाने का सुनिश्चित उपाय बताते हुए शास्त्रकार इस उत्तरदायित्व को मनुष्य के अपने कन्धे पर लाद देते हैं, वे कहते हैं—‘‘उद्धरेत आत्मनात्मानं नात्मानभवसादयेत्’’ अर्थात्— अपना उद्धार आप करो— अपने को गिराओ मत। उनका सुनिश्चित मत है कि उत्थान पतन की मुहीम हर मनुष्य स्वतः ही सम्हालता है। परिस्थितियां तो उसका अनुगमन भर करती हैं। दिशा निर्धारण और प्रगति प्रयास अपना होता है—साधन और सहयोग तो उसी चुम्बकत्व के सहारे खिंचते भर चले जाते हैं। उत्थान या पतन में से जो भी अपना गन्तव्य हो—व्यक्तियों, साधनों एवं परिस्थितियों का सरंजाम भी उसी स्तर का जुटता चला जाता है। श्रद्धा की इसी गरिमा को देखते हुए अध्यात्म शास्त्र ने मानवी सत्ता में विद्यमान साक्षात् ईश्वरीय शक्ति के रूपा में अभिवन्दन किया है। उसी की उपलब्धि को आत्मोपलब्धि कहा गया है और जीवन लक्ष्य की पूर्ति का केन्द्र बिन्दु माना है। न केवल आत्मिक वरन् भौतिक प्रगति का आधार भी सहज और समर्थ व्यक्तित्व ही रहता है। उसका निर्माण भी उसी स्तर की निष्ठाएं करती हैं। इतना ही नहीं दुष्ट दुरात्मा, क्रूरकर्मों और दुस्साहसी समझे जाने वाले लोग भी अपनी दानवी क्षमताओं का विकास इसी श्रद्धा तत्व के अहंकारी आसुरी स्तर का सहारा लेकर सम्मान करते हैं। ईश्वर ने अपने संसार का स्वामित्व अपने हाथ में रखा है, किन्तु एक छोटी दुनिया को निजी व्यक्तित्व के रूप में मनुष्य के हाथ में ही सौंप दिया है। कर्मफल पाने की व्यवस्था में तो वह पराधीन हैं, किन्तु कर्म कुछ भी करते रहने की पूरी छूट ही है। इसी स्वाधीनता के सहारे वह अपने भाग्य का विधाता और स्तर निर्माता बन सकने में पूर्णतया सफल होता है। वह जैसे व्यक्तित्व एवं लक्ष्य के प्रति अपनी आस्था सुदृढ़ कर लेगा, वैसा ही बनता जाएगा।

जीवन श्रद्धा और शालीनता युक्त जियें!

हमारे चिन्तन में गहराई हो, साथ ही श्रद्धायुक्त नम्रता भी। अन्तरात्मा में दिव्य-प्रकाश की ज्योति जलती रहे। उसे प्रखरता और पवित्रता बनी रहे तो पर्याप्त है। पूजा के दीपक इसी प्रकार टिमटिमाते हैं। आवश्यक नहीं उनका प्रकाश बहुत दूर तक फैले। छोटे से क्षेत्र में पुनीत आलोक जीवित रखा जा सके तो वह पर्याप्त है।

अल्वर्ट श्वाइत्जर कहते थे—आदर्शों को चरितार्थ करने के लिए मुहूर्त की प्रतीक्षा आवश्यक नहीं। उसके लिए सदा सुअवसर है। वह अभी भी है और कभी भी। सबसे अच्छा समय तब है जब परिस्थितियां सर्वथा प्रतिकूल जा रही हों।

हम आकाश में बिखरी सुविस्तृत महानता को देखें। साथ ही समुद्र जैसी गहराइयों को भी। मनुष्य इन सबसे बड़ा है उसका वजन पर्वत से भारी है। पर्वत बेजान हैं और आदमी जानदार। संसार को बनाया तो भगवान ने है, पर उसे सुधारा और संभाला आदमी ने है। इस पृथ्वी की शोभा, सज्जा और उपयोगिता आज जिस रूप में दीख पड़ती है वैसी पहले नहीं थी, यह आदमी की सूझ-बूझ और मेहनत है, जिसने इतने प्रभावशाली परिवर्तन प्रस्तुत किये और प्रगति के चरण उठाये हैं। इतने पर भी ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि वही जेलखानों और पागलखानों में भी बन्द है। कुकृत्यों से वही सृष्टा की इस कलाकृति मानवी काया को कलंकित करने में भी पीछे नहीं है। अपने आप को तो पूरी तरह नष्ट कर सकता है, साथ ही दूसरों को भी क्षति पहुंचा सकता है।

जीवन का सम्मान ही आचार शास्त्र है। अनीति ही जीवन को नष्ट करती है। मूर्खता और लापरवाही से तो उसका अपव्यय भर होता है। बुरी तो बर्बादी भी है पर विनाश तो पूरी विपत्ति है। बर्बादी के बाद तो सुधरने के लिए कुछ बच भी जाता है पर विनाश के साथ तो आशा भी समाप्त होती है। अनीति अपनाने से बढ़कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो नहीं सकता। पाप अनेकों हैं उनमें प्रायः आर्थिक अनाचार और शरीरों को क्षति पहुंचाने जैसी घटनाएं ही प्रधान होती हैं। इनमें सबसे बड़ा पातक जीवन का तिरस्कार है। अनीति अपनाकर हम उसे क्षतिग्रस्त, कुण्ठित, हेय और अप्रमाणिक बनाते हैं। दूसरों को हानि पहुंचाना जितनी बुरी बात है—दूसरों के ऊपर पतन और पराभव थोपना जितना निन्दनीय है उससे कम पातक यह भी नहीं है कि हम अपने जीवन का गला अपने हाथों घोटे और उसे कुत्सित, कुण्ठित, बाधित, अपंगों एवं तिरस्कृत स्तर का ऐसा बना दें जो मरण से भी अधिक कष्टदायक हो।

अन्तरात्मा में यदि किसी दिव्यवाणी को सुनने की शक्ति हो तो अपने भीतर बैठा हुआ कोई ‘नैतिक’ यह कहते हुए पाया जायेगा कि जो सुख-साधन समाज के अनुग्रह से मिले हैं उन्हें लूट का माल न समझा जाय। अपने पास जो स्वस्थता, शिक्षा, प्रतिभा, योग्यता, सुविधा, सम्पदा, प्रतिष्ठा उपलब्ध है वह अनेकों ज्ञात एवं अज्ञात, जीवित एवं दिवंगत—मनुष्यों के ही सहयोग से सम्भव हुई है। उसे ऐसे हजम नहीं कर जाना चाहिए और न परिवार वालों के लिए यह सब कुछ संग्रह करके रखना चाहिए। इसमें अन्यों को भी हिस्सेदार बनाया जाय—विशेषतया जो अपने पैरों दूर तक चल नहीं सकते, जिन्हें किसी की सहायता की अपेक्षा है, यदि इस आत्मा की पुकार को न सुना जाय तो उसका प्रतिफल यह होगा कि ऋणग्रस्तों की तरह अपना अन्तःकरण भारी होता चला जायगा और उस उल्लास की अनुभूति न हो सकेगी जो जीवन देवता के अनुग्रह से हर घड़ी होती रहनी चाहिए।

मानव-देह में एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छुपा हुआ है, जब तक वह मिल नहीं जाता इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है, न कोई इच्छा तृप्त होती है न आत्मसंतोष होता है जबकि मनुष्य की सारी क्रियाशक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसी की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहती है।

अपने, आपको, अपनी चेतन सत्यता को पहचानना आसान बात नहीं है। विद्यमान परिस्थितियां ही धोखा देने के लिए पर्याप्त होती हैं फिर जन्म-जन्मान्तरों के प्रारब्ध इतने भले नहीं होते जो मनुष्य को साधारणतः ही क्षमा कर दें। हमारा असली व्यक्तित्व इतना स्पष्ट है कि उसकी भावानुभूति एक क्षण में हो जाती है, वह परदों में नहीं रहता फिर भी वह इतना जटिल और कामनाओं के परदों में छुपा हुआ है कि उसके असली स्वरूप को जानना टेढ़ा पड़ जाता है। साधना-उपासना करते हुए भी बार-बार पथ से विचलित होना पड़ता है। ऐसी असफलतायें ही जीवन लक्ष्य में बाधक हैं।

श्रद्धा वह प्रकाश है जो आत्मा की, सत्य की प्राप्ति के लिए बनाये गये मार्ग को दिखाये रहती हैं। जब भी मनुष्य एक क्षण के लिए लौकिक चमक-दमक, कामिनी और कंचन के लिए मोहग्रस्त होता है तो माता की तरह ठंडे जल से मुंह धोकर जगा देने वाली शक्ति यह श्रद्धा ही होती है। सत्य के सद्गुण, ऐश्वर्य-स्वरूप एवम् ज्ञान की थाह अपनी बुद्धि से नहीं मिलती उसके प्रति सविनय प्रेम भावना विकसित होती है उसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा सत्य की सीमा तक साधक को साधे रहता है, संभाले रहता है।

श्रद्धा के बल पर ही मलिन चित्त अशुद्ध चिन्तन का परित्याग करके बार-बार परमात्मा के चिन्तन में लगा रहता है। बुद्धि भी जड़-पदार्थों में तन्मय न रहकर परमात्म ज्ञान में अधिक से अधिक सूक्ष्मदर्शी होकर दिव्य भाव में बदल जाती है। स्वयं का ज्ञान और तार्किक शक्ति इतनी बलवान नहीं होतीं कि मनुष्य निरन्तर उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक के यथार्थ और दूरवर्ती परिणामों को आत्मा के अनुकूल होने का विश्वास दे सके। तर्क प्रायः व्यर्थ से दिखाई देते हैं। ऐसे समय जब अपने कर्मों के औचित्य या अनौचित्य को परम प्रेरक शक्ति के हाथों सौंप देते हैं तो एक प्रकार की निश्चिन्तता मन में आ जाती है। मन का बोझ हलका हो जाता है। जिसकी जीवन पतवार परमात्मा के हाथ में हो उसे किसका भय? सर्वशक्तिमान से सम्बन्ध स्थापित करके ही मनुष्य निर्भय हो जाता है, उसके स्पर्श से ही मनुष्य में अजेय बल आ जाता है। व्यक्तित्व में सद्गुणों का प्रकाश और दिव्यता झरने लगती है। जीवन में आनन्द झलकने लगता है। यह सम्बन्ध और स्पर्श जब तक कि पूर्ण प्राप्ति नहीं होती तब तक श्रद्धा के रूप में प्रकट और विकसित होता है। वह एक प्रकार से पाथेय है इसलिए उसका मूल्य और महत्व उतना ही है जितना अपने लक्ष्य का, गन्तव्य का अभीष्ट का, आत्मा, सत्य अथवा परमात्मा की प्राप्ति का।

परमात्मा के प्रति अत्यन्त उदारतापूर्वक आत्म भावना पैदा होती है वही श्रद्धा है। सात्विक श्रद्धा की पूर्णता में अन्तःकरण स्वतः पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य स्वभाव में ऐसी सुन्दरता बढ़ती जाती है जिसको देखकर श्रद्धावान् स्वयं सन्तुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रीतियुक्त भावना है जो श्रेष्ठ पथ की सिद्धि कराती है। इसी लिए शास्त्रकार कहते हैं—

भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ। याध्यां बिन न पश्यन्ति सिद्धः स्वान्तस्थमीक्ष्वरम्॥ (रामायण बाल कांड)

‘‘हम सर्वप्रथम भवानी और भगवान्, प्रकृति और परमात्मा को श्रद्धा और विश्वास के रूप में वन्दन करते हैं जिसके बिना सिद्धि और ईश्वर-दर्शन की आकांक्षा पूर्ण नहीं होती।’’

ज्ञान-भक्ति का निरूपण करते हुए तुलसीदास जी उत्तरकांड में लिखते हैं—

सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जो हरि कृपा हृदय बस आई॥ जप तप व्रत जम नियम अपारा। तो श्रुति कह शुभ धर्म अचारा॥ तेई तृन हरित चरै जब गाई। एहि विधि लेसै दीप तेजराशि विज्ञानमय। जातहि जासु समीप जरहिं मदादिक सुलभ सब॥

जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में श्रद्धारूपी गाय का जन्म नहीं होता तब तक जप, तप, यम, नियम, व्रत आदि जितने भी धर्माचरण हैं उनमें मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं रहती। यह श्रद्धा ही जीवन की कठिनाइयों में मनुष्य को पार लगाती है और आत्मगुणों का विकास करती हुई उसे विज्ञानयुक्त परमात्मा के प्रकाश तक जा पहुंचाती है। श्रद्धा का आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है। पार्थिव वस्तुओं से ऊपर उठने के लिए सरलता और पवित्रता इन्हीं दो गुणों की अत्यन्त आवश्यकता होती है। इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती है और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति। श्रद्धा दोनों का सम्मिलित स्वरूप है। उसमें भावना भी है रस भी। जहां उसका उदय हो वहां लक्ष्य प्राप्ति की कठिनाई का समाधान तुरन्त हो जाता है। अविश्वस्त व्यक्तियों के आगे थोड़ा-सा भी काम आ जाता है तो उससे उन्हें बड़ी हड़बड़ाहट होती है। किन्तु यदि उसी काम को साहस और भावना के साथ हाथ में लिया जाता है तो घबराहट और कठिनता भी आनन्द में बदल जाती है। जो बोझ का काम प्रतीत होता था वही सरलता से प्राप्त कर लेने योग्य बन जाता है।

प्राचीन काल में पवित्र अन्तःकरण वाले महान् पुरुषों द्वारा अज्ञान अन्धकार में भटकते हुए लोक-जीवन को सत्यमार्ग पर अग्रसर करने का माध्यम उनके द्वारा जगाई हुई श्रद्धा ही होती रही है। शिष्य को श्रद्धा का पूर्ण पाठ तथा साधना की स्थिरता के लिए तप भी आवश्यक था, युग और परिस्थितियां बदल जाने पर आज भी आवश्यक है। परमात्मा सत्य है उसके गुण और स्वभाव अपरिवर्तनशील हैं इसी तरह वहां तक पहुंचने का मार्ग और माध्यम भी अपरिवर्तित ही है। उसे आज भी पाया और अनुभव किया जा सकता है, पर उस स्थिति की परिपक्वता के बीच में जो साधनायें, परिवर्तन, हलचल, कठिनाइयां और दुरभिसन्धियां आती हैं उनके लक्ष्य प्राप्ति की भावना की स्थिरता के लिए श्रद्धा आवश्यक है।

श्रद्धा तप है। वह ईश्वरीय आदेशों पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा देती है। आलस्य से बचाती है। कर्तव्यपालन में प्रमाद से बचाती है। कर्तव्यपालन में प्रमाद से बचाती है। सेवा-धर्म सिखाती है। अन्तरात्मा को प्रफुल्ल, प्रसन्न रखती है। इस प्रकार के तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के हृदय में पवित्रता एवं शक्ति का भण्डार अपने आप भरता चला जाता है। गुरु कुछ भी न दे तो भी श्रद्धा में वह शक्ति है जो अनन्त आकाश से अपनी सफलता में तत्व और साधन को आश्चर्यजनक रूप से खींच लेती है। ध्रुव, एकलव्य, अज, दिलीप की साधनाओं में सफलता का रहस्य उनके अन्तःकरण की श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओं ने तो केवल उसकी परख की थी। यदि इस तरह की श्रद्धा आज भी लोगों में आ जाए तो लोग पूर्ण रूप से परमात्मा की इच्छाओं पर चलने को कटिबद्ध हो जायें तो विश्व शान्ति, चिर-सन्तोष और अनन्त समृद्धि की परिस्थितियां बनते देर न लगे। उसके द्वारा सत्य का उदय, प्राकट्य और प्राप्ति तो अवश्यम्भावी हो जाता है। इसी बात को शास्त्रों में संक्षेप में इस प्रकार कहा गया है। श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञान लब्ध्वा परां शान्तिचिरेणाधिगच्छति॥ (गीता)

‘‘जितेन्द्रिय तथा श्रद्धावान पुरुषों को ही ज्ञान मिलता है और ज्ञान से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। सत्य समुपलब्ध होता है।’’

भवानी शंकरो वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ—

आदि शक्ति गौरी को श्रद्धा और देवाधिदेव परमात्मा को विश्वास के रूप में भजन करने वाला सिद्धि प्राप्त करता है। बाइबिल की मान्यता है विश्वासपूर्वक की गयी प्रार्थना बीमार को भी स्वस्थ कर देती है (एण्ड दि ऑफ फेथ शैल सैव दि सिक)।

हमारे देश में यह विश्वास जनजीवन में गहराई तक घुला हुआ है कि विश्वासपूर्वक की गई ईश्वरीय प्रार्थनायें चमत्कारिक लाभ देती हैं तथापि आज का तर्कवादी जगत पश्चिम के उदाहरण देकर कहता है यह मान्यतायें विभ्रम हैं। लोग यह नहीं जानते कि जिन बातों को इस देश का अन्धविश्वास कहा जाता है उन्हीं को पश्चिम में विज्ञान की भांति मानते और लाभ प्राप्त करते हैं।

अमेरिका के सीनेटर एडवर्ड डिक्शन के जीवन की एक घटना है। 1947 में अचानक उनकी दांई आंख की रोशनी जाती रही। डॉक्टरों ने उस आंख को निकलवा देने की सलाह दी। डिक्शन को यह शब्द बाण की तरह हृदय में चुभ गये। सोचने लगे यदि मनुष्य इतना बेबस है तो भगवान ने उसे बनाया ही क्यों? दुःख और निराश्रित अवस्था न आती तो मनुष्य आध्यात्मिक सत्यों को कहां समझता? भगवान की याद आते ही उन्हें याद आये यह शब्द— ‘‘प्रेयर इज ए डायरेक्ट पाइपलाइन टु गॉड, प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचने का सीधा मार्ग है।’’ उन्होंने डॉक्टर की बात अमान्य कर दी। एक बार वे रात में अत्यन्त दुःखी होकर भगवान की प्रार्थना के लिए बैठे। एक क्षण के लिए आत्मा परमात्मा में विलीन हो गयी। उस क्षण की सुखद अनुभूति को जब तक स्मरण करें समाधि टूट गयी और उन्होंने एक सुखद आश्चर्य अनुभव किया कि उनकी आंख की रोशनी लौट आयी है और अब वे पहली आंख से भी अधिक साफ देख सकते थे।

केंटकी के तशबर कॉलेज के एक छात्र को समाचार मिला— तुम्हारी मां मरणासन्न स्थिति में है। डॉक्टरों ने घोषित कर दिया है कि मृत्यु दो-ढाई घण्टे से अधिक तक नहीं टल सकती। डॉ. एल्सन इस घटना का विवरण देते हुए लिखते हैं- यह समाचार पाते ही लड़का वहां गया जहां अपने राष्ट्रपति के जीवन काल में श्री आयजन होवर और उनकी धर्मपत्नी नित्य प्रार्थना किया करते थे। युवक ने भरे अन्तःकरण से परमात्मा से प्रार्थना की— प्रभो! मां को अब आप ही अच्छा कर सकते हैं। जिस समय विद्यार्थी इधर प्रार्थना कर रहा था ठीक उसी समय उधर उसकी मां की स्थिति में सुधार हुआ, डाक्टरों ने परीक्षा की। सब कुछ अस्वाभाविक गति से बदल रहा है शरीर का कष्ट दूर हो रहा है। डॉक्टर एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे और कह रहे थे ‘गॉड इज द वैरी बिग डॉक्टर’ भगवान बड़ा भारी डॉक्टर है। मां अच्छी हो गयी और काफी दिन तक स्वस्थ जीती रही। ‘‘दि मैंन इन द नेक्स्ट रूम’’— (बगल के कमरे का आदमी) शीर्षक अध्याय में अपनी पुस्तक ‘‘सत्य की खोज’’ (ए सर्च आफ द्रुथ) में श्रीमती रूथ माण्ड गुमरी ने लिखा है— मैं अस्पताल में थी। मेरे बगल के कमरे में एक मरीज के जोर-जोर से खांसने की आवाज आ रही थी। नर्स ने बताया— ‘‘बेचारा यक्ष्मा से पीड़ित है आज रात किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती है।’’ यह सुनते ही मुझे बड़ा दुःख हुआ। लेटे-लेटे परमात्मा से प्रार्थना करने लगी— हे प्रभु! इस बीमार को नया जीवन दो—प्रार्थना करते-करते न जाने कब नींद आ गयी। प्रातःकाल उठी तो रोगी की खांसी की आवाज नहीं सुनाई दी। नर्स को बुलाकर पूछा— नर्स ने बताया—रोगी अच्छा हो रहा है। जिस दिन में अस्पताल से छूटी, उसी दिन उसे भी ओ. के. सर्टिफिकेट देकर अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी।

श्रद्धा विश्वासपूर्वक की गयी ईश्वर-प्रार्थना से कुछ भी असम्भव नहीं।

श्रद्धा सत्य माप्यते—

जीवन को किसी निर्दिष्ट ढांचे में ढाल देने वाली, सबसे प्रबल एवं उच्चस्तरीय शक्ति श्रद्धा है। यह अन्तःकरण की दिव्यभूमि में उत्पन्न होकर समस्त जीवन को हरियाली से सजा देती है। श्रद्धा का अर्थ श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था। यह आस्था जब सिद्धान्त एवं व्यवहार में उतरती है तो उसे निष्ठा कहते हैं। यही जब आत्मा के स्वरूप, जीवन एवं ईश्वर भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो श्रद्धा कहलाती है।

आत्म-कल्याण चाहने वाले के लिए और ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न प्रयासों के लिए इस शक्ति का उभार अवलम्बन आवश्यक है। इसके बिना उस महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने अंतरात्मा में बैठे हुए परमात्मा को देखने, उसे प्राप्त करने का उपाय बताते हुए मनीषियों ने इसी श्रद्धा की गरिमा को प्रस्तुत किया है। रामचरितमानस में श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर बताया है। इन्हीं दोनों की सहायता से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।

श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में देवता का उदय किया जा सकता है। हिन्दू संस्कृति में प्रतिभा प्रतिस्थापित करने तथा उनकी पूजा-उपासना करने का दर्शन इसी श्रद्धातत्व पर आधारित है। अपने इष्ट के प्रति अटूट श्रद्धा आरोपित करके ही उपासक, उसके साथ अनन्य एकता स्थापित कर लेते हैं। ईश्वर, कर्मफल, जीवनोद्देश्य, कर्तव्यपालन, आत्मा की गरिमा जैसे सत्य तथ्यों पर सघन श्रद्धा रखने वाले लोग ही सामान्य जीवन से उठकर, महामानवों, देवदूतों की पंक्ति में बैठ सकते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र की उच्चस्तरीय साधनाओं में श्रद्धा की ही अपरिमेय शक्ति काम करती है। श्रद्धाहीन कर्मकाण्ड तो सामान्य अंग संचालन के व्यायाम के सान ही लाभप्रद हो सकते हैं, किन्तु वे ही श्रद्धा और विश्वास के आधार पर साधना के लक्ष्य प्राप्ति में सिद्धिदायक सिद्ध होते हैं। श्रद्धा भावना न केवल उपासनात्मक क्षेत्र में वरन् जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण तथा उद्देश्य को भी प्रभावित करती है।

जिन लोगों की आस्था मानवीय जीवन की श्रेष्ठता तथा महानता में नहीं होती, वे इसे पशुवत् पेट भरने एवं प्रजनन के सुखों तक ही सीमित रखते हैं। उनकी यह अनास्था मानवीय समाज के प्रति अविश्वास ही उत्पन्न करती है।

आस्थाओं की कमी के कारण ही अगणित समस्यायें तथा विविध-विधि उलझनें खड़ी होती और समाज व्यवस्था को विचलित करती हैं। आदर्शों और मर्यादाओं की उपेक्षा होने से ही व्यक्तिगत जीवन में दुष्टता, उद्दण्डता और सामाजिक जीवन में भ्रष्टता, अनैतिकता, अव्यवस्था पनपती जा रही है। इस विकट परिस्थिति में समाज में रहने वाला हर व्यक्ति स्वयं को विपन्न तथा असुरक्षित पाता है। साधनों की विपुल मात्रा और सुखोपभोग के कुबेर जैसे भण्डार भी उसे तृप्त नहीं कर सकते। क्योंकि शरीर की अपनी सीमा मर्यादा है। केवल उसके ही सुखों की तृष्णा की पूर्ति में जुट पड़ने वालों का भौतिक जीवन तो व्याधि ग्रस्त बनता ही है, अन्तःकरण क्षेत्र भी शुष्क, नीरस, भावना विहीन, चिन्ताग्रस्त, द्वेष और आवेशग्रस्त हो जाता है। इस तरह के व्यक्तियों की स्थिति प्रेत-पिशाच से कम नहीं होती। स्पष्ट है यह स्थिति कितनी भयंकरता उत्पन्न कर सकती है। आज पश्चिमी देशों में यही सब हो रहा है।

मनुष्य स्थूल कम सूक्ष्म अधिक है। वह भावनाओं के सहारे पैदा होता, भावनाओं में ही जीवित रहता और भाव जगत में ही विलीन होता है। भावनाओं के प्रति सम्मान ही श्रद्धा है। सम्वेदना जहां भी होगी वहीं सन्तोष की निर्झरिणी प्रवाहित हो रही होगी। भगवान कृष्ण ने कहा है—

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धा मयोऽयं पुरुषा या यच्खृद्व से एव सः॥ (गीता—17/3)

अर्थात्— हे अर्जुन! यह सृष्टि श्रद्धा से विनिर्मित है जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह पुरुष वैसा ही बन जाता है अर्थात् बुराइयों के प्रति श्रद्धा व्यक्ति को समस्याओं में कैद कर देती है तो आदर्शों के प्रति आस्था मनुष्य जीवन को सुख-शान्ति और प्रसन्नता से भर देती है। श्रद्धा में ही व्यक्तित्व के परिष्कार की वास्तविक सामर्थ्य है।
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