व्यक्तित्व परिष्कार में श्रद्धा ही समर्थ

भावनात्मक गरिमा की मापदंड : श्रद्धा

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बौद्धिक क्षमता को किन्हीं गणितीय सूत्रों से किसी सीमा तक आंका-नापा भी जा सकता है। उसकी उपलब्धियों के नियम आंकड़ों की भाषा में भी समझे जा सकते हैं। स्मरण-शक्ति, रचना शक्ति, क्रिया-शक्ति, भाषागत क्षमता, भाषण क्षमता, लेखन क्षमता, संगठन क्षमता, अनुसंधान-विश्लेषण क्षमता तथा गुत्थियों को सुलझाने वाली क्षमताएं माप की परिधि में नहीं मापी जा सकती। श्रद्धा-आस्था, भावना की क्षमताएं गणितीय रूप में नहीं मापी जा सकतीं। उनके परिणाम भी गणितीय नियम-सूत्रों के अनुसार नहीं होते। इसलिये वे चमत्कारी लगती हैं।

अपने किसी मित्र की मृत्यु हुई। डॉक्टर की दृष्टि में उसके दिल का धड़कना बन्द हुआ अथवा दिमाग की नस फट गई। रासायनिक विश्लेषणकर्ता की दृष्टि से मरण का अर्थ शरीरगत रासायनिक प्रक्रिया में असन्तुलन और अवरोध उत्पन्न हो गया। पर उस मरण से अपने अन्तःकरण पर जो मार्मिक प्रतिक्रिया हुई उसके फलस्वरूप भावी जीवन का सारा चिन्तन एवं क्रियाकलाप ही बदल गया, इसका आधार क्या है इसे बता सकने में न तो डॉक्टर समर्थ है और न रसायनवेत्ता। भौतिक विज्ञानी केवल पदार्थों की स्थिति का विवेचन विश्लेषण करते हैं। वे उस भावनात्मक उथल-पुथल की व्याख्या करने में अपने को असमर्थ पाते हैं, जो मानव जीवन को अत्यधिक प्रभावित करती है। कोई यात्री सुदूर समुद्र पार किसी जलयान या वायुयान पर चढ़कर चला गया। यातायात विभाग के अधिकारी और वाहन कर्मचारी इसे एक व्यक्ति का स्थानान्तर मात्र कहेंगे और उसे यान्त्रिक अथवा आर्थिक प्रयोजनों के लिए घटित हुई एक मध्यवर्ती क्रिया मात्र कहेंगे। पर उस यात्री और उसके स्नेही को जो वियोग व्यथा आन्दोलित किये डाल रही है उसकी व्याख्या इन लोगों के पास क्या है? और वे उस अन्तर्वेदना के समाधान का क्या उपाय प्रस्तुत कर सकते हैं।

चन्द्रमा एक निर्जीव पिण्ड है पर चकोर से लेकर कवियों तक पर जो भावनात्मक प्रतिक्रियाएं होती हैं वे क्या हैं, और क्यों हैं? पुष्प की व्याख्या कोई वनस्पति विज्ञानी एक पादप अवयव के रूप में ही कर सकता है। उसकी समीपता से दृष्टि को जो सौन्दर्य बोध होता है वह एक दूसरे के उपहार प्रस्तुत करते समय वह पुष्प किन भाव संवेदनाओं का आदान-प्रदान करता है, इनका विवेचन विज्ञानी के बस से बाहर की चीज है।

तरुण नारियों में से एक के साथ पवित्र और दूसरों के साथ वासनात्मक दृष्टि क्यों उभरती है, उसका उत्तर शरीर विज्ञानी क्या दे सकते हैं? आदर्शों के लिए आत्म रक्षा और स्वार्थ संग्रह को छोड़कर लोग प्राण संकट तक का स्वागत करते हुए त्याग-बलिदान के उदाहरण क्यों उपस्थित करते हैं, इसका उत्तर मनोविज्ञान के पास—गुणी की मूल प्रवृत्तियों का विवेचन करने वालों के पास क्या हो सकता है?

सौन्दर्य क्या है? आंखें जिन वस्तुओं और प्राणियों को सुन्दर या कुरूप मानती हैं, उनका कुछ आधार विज्ञान नहीं बता सकता। नैतिकता, कर्तव्य निष्ठा, सौन्दर्य, धर्म, आदर्श, संयम, उदारता जैसी आस्थाओं के लिए विज्ञान की उपलब्धियां कुछ प्रकाश डाल सकने में अपने को असमर्थ पाती हैं।

विज्ञान की दृष्टि से मनुष्य शरीर मात्र कुछ रासायनिक तत्वों का—जीवाणुओं का—संयोजन, उत्पादन मात्र है। उसका संयोग वियोग ही जीवन अथवा मृत्यु है। इस मान्यता के आधार पर वे परखनली— और टेस्टट्यूबों में कृत्रिम जीवधारियों के निर्माण में संलग्न है। इतना संभव होने पर भी यह प्रश्न बना ही रहेगा कि उस प्राणधारी उत्पादनों में मात्र वैज्ञानिक आधार एवं व्यक्तित्व, चरित्र, विवेक एवं उत्कृष्ट चिन्तन का समावेश हो सकेगा। यदि नहीं तो क्या वे चलते फिरते खिलौने भर नहीं रह जायेंगे। मनुष्य तत्व वस्तुतः भावनात्मक स्तर पर खड़ा है। उसकी गरिमा को नापना देखना हो तो गहराई में उतर कर देखना होगा कि किसका चिन्तन और दृष्टिकोण क्या है, उसकी आस्था, निष्ठा और आकांक्षा किस केन्द्र बिन्दु पर टिकी है। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण के आधार पर ही मनुष्य की महानता निर्भर है। फिर भले ही उसे अभावग्रस्त साधनों से ही जीवनयापन क्यों न करना पड़ रहा हो।

श्रद्धा ही व्यक्ति को वह सम्बल प्रदान करती है कि वह अपने आदर्शों के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहकर भी प्रसन्न ही रहा आता है। जिसकी आकांक्षा और आस्था का केन्द्र जितना उच्च होगा, उसकी श्रद्धा उतनी ही प्रगाढ़, परिष्कृत समझनी चाहिए।

ईश्वर के प्रति या धर्म के प्रति श्रद्धा की भी प्रगाढ़ता का परिचय इसी से मिलता है कि ईश्वर या धर्म से श्रद्धालु की आकांक्षा का स्तर एवं स्वरूप क्या है? सच्ची और गहनतम श्रद्धा तो वह है जिसमें ईश्वर से कोई भी अपेक्षा नहीं की जाती, ईश्वर की ही अपेक्षा के अनुसार स्वयं को ढाला जाता है।

ईश्वर-श्रद्धा का सच्चा स्वरूप ईश्वर की आकांक्षा में स्वयं को घुला मिला लेना है। यही श्रद्धा की सही परिणति और आस्तिकता की कसौटी है। यदि आप सचमुच आस्तिक हैं, तो परमेश्वर को अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए विवश न करें। वरन् उसकी इच्छा पूर्ति के निमित्त स्वयं बनें अब तक के उपलब्ध अनुदान कम नहीं, उन पर संतोष करना चाहिये और यदि अधिक की अपेक्षा है तो बुद्धि और पुरुषार्थ के मूल्य पर उसके लिए प्रयत्न करना चाहिये।

इच्छाओं और कल्पनाओं की पूर्ति के लिए भगवान के सम्मुख गिडगिड़ाना अशोभनीय है। जो मिला है उसी का सदुपयोग कहां कर सके जो और अधिक मांगने की हिम्मत करें। कर्मफल भोगने के लिये हमें साहसी और ईमानदार व्यक्ति की तरह तैयार रहना चाहिये। गलती करने में कभी भी जो दुस्साहस दिखाया था, आज उसका एक अंश प्रस्तुत कर्मफल को भोगते समय भी दिखाना चाहिए। विशेषतया तब जबकि कर्मफल अनिवार्य है। उस विधान से कोई छूट नहीं सकता। स्वयं भगवान तक न छूट सके। तो हम ही क्यों साहस खोकर दीनता प्रकट करें। जो सहना ही ठहरा—उसे हंसते हुए बहादुरी के साथ क्यों न सहें।

कर्मफल के छुटकारे के लिए, पात्रता से अधिक उपलब्धियों के लिए प्रायः लोग ईश्वर का दरवाजा खटखटाते हैं और पूजा—परिचर्या की व्यवस्था बनाते हैं। यह भक्ति नहीं है। न इसमें श्रद्धा का पुट है। ऐसी ओछी दृष्टि से की गई उपासना से आत्म कल्याण का पथ-प्रशस्त नहीं होता और न वह परमेश्वर को ही प्रभावित करती है। ईश्वर को अपना आज्ञानुवर्ती बनाने की अपेक्षा यह उचित है कि हम ईश्वर के आज्ञानुवर्ती बनें। ईश्वर को अपनी इच्छानुसार चलाने और अपनी नियम व्यवस्था बिगाड़ देने के लिए कहने की अपेक्षा यह उचित है कि हम ईश्वर की इच्छानुसार चलें और अपनी वासना, तृष्णाओं का ताना-बाना समेट लें। ईश्वर को अपना अनुचर बनाने की अपेक्षा यही उचित है कि हम उसके अनुचर बनें। मालिक की तरह ईश्वर पर हुक्म चलाना उचित नहीं। उपयुक्त यही है कि हम उसके आदर्शों को समझें और तदनुरूप अपनी गति-विधियों का पुनःनिर्माण—पुनर्निर्धारण करें।

आस्तिकता का अर्थ केवल ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करना ही नहीं वरन् यह भी है कि उसके निर्देशों का पालन यथावत किया जाये, उपासना का अर्थ समृद्धि और सुविधा के लिये गिड़गिड़ाना नहीं वरन् यह है कि हमारा यह शौर्य सजग हो जिसमें अन्धकार में भटकते लोगों का अनुकरण छोड़ कर ईश्वर के पीछे एकाकी चल सकें। अच्छा हो हम ईश्वर के लिए जियें—उसके बनकर रहें और उसकी प्रेरणाओं का अनुकरण करें। उपासना का अर्थ है—पास बैठना। पास बैठें और बिठायें। जीवन के उद्देश्य और सदुपयोग का मार्ग पूछें और उस पर चलने की अपनी तत्परता बनायें। बैठने की दूरी क्रमशः घटनी चाहिए और निकटता इतनी बढ़ानी चाहिए कि अपना—परमेश्वर में तल्लीन हो जाय और उस परमज्योति से अपना कण-कण जगमगाने लगे।

अपनी आकांक्षाओं में ईश्वरीय आकांक्षा घुली रहे। हम वही चाहना करें—वहीं सोचें जो ईश्वरीय प्रेरणा प्रवाह के अनुकूल हो। हम वही करें जो ईश्वर को अपेक्षित है। मन का शासन अस्वीकार करके— ईश्वर के हाथों अपने को सौंप दें और उसी के संकेतों पर अपने चिन्तन और कर्तृत्व की शिक्षा का निर्धारण करें।

अपने लिए नहीं हम ईश्वर के लिए जिएं। यह घाटे का नहीं सबसे अधिक लाभ का कदम है। यह निश्चित है कि जो ईश्वर का होकर रहता है ईश्वर भी उसी का हो जाता है। परमात्मा तो हमें अपनी गोदी में लेने के लिए—छाती से लगाने के लिए दोनों भुजाएं पसार कर खड़ा है। एक भुजा है पीड़ितों, पतितों और पिछड़े हुओं का क्रन्दन। दूसरी भुजा है—सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की पुकार। यह निगाह दिशाओं के अन्तराल में गूंजता रहता है। बहरे कान उसे सुन नहीं पाते—जो इन निनादों को सुन सके समझना चाहिए, उसके कानों ने ईश्वर का सन्देश सुन लिया।

परमात्मा के पास एक ही सर्वोपरि उपहार था—मानव शरीर। इससे बढ़कर और कोई बड़ी सम्पदा उसके भण्डार में है नहीं। जिस प्राणी को यह उपहार मिला, समझना चाहिए वह कृतकृत्य हो गया। सृष्टि के किसी भी जीवधारी को जो सुविधाएं हैं, वे मनुष्य को मिली हैं। यह उसी का काम है कि इस विभूति का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करके उच्चस्तर तक आ पहुंचे जहां स्वयं परमात्मा विराजमान है। चेतना के साथ जुड़े हुए बहुमूल्य साधनों का मूल्यांकन न कर पाने और उनके सदुपयोग की व्यवस्था न बता पाने के कारण ही हमें दुःख-दैन्य की कंटीली झाड़ियों में भटकना पड़ता है। जीवन—लक्ष्य को समझना और उसके लिए समुचित प्रयास करना यदि किसी के लिए संभव हो सके तो निश्चित रूप से उसे नर-पशु से आगे बढ़कर नर-देव की दिव्य भूमिका में प्रवेश करने का सुअवसर मिल सकता है।

मनुष्य शरीर का अनुपम उपहार देने के उपरान्त परमात्मा अपने अन्तिम अनुग्रह का एक और अनुदान देने का इच्छुक है। इसी के लिए वह अपने लाड़लों को पास बुलाना चाहता है, गोदी में लेना चाहता है, छाती से लगाना चाहता है और उस अनुदान को देना चाहता है जिसे प्राप्त करने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, इसी आमन्त्रण के लिए उसने अपनी भुजाएं पंसारी हुई हैं। जो उनमें आबद्ध हो सका वही प्रभु की समीपता और उसकी दुलार भरी मनुहार का अधिकारी बन सका। पतन और पीड़ा से ग्रसित पिछड़े हुए मनुष्य भले ही अपने अकर्म या अज्ञान का फल भुगत रहे हों, पर वे हमारी दृष्टि में इसी उद्देश्य से आते हैं कि सहानुभूति और सेवा, भावुकता सहयोग द्वारा उन्हें ऊंचा उठाने सहारा देने- का प्रयास करते हुए अपनी बहुमूल्य आत्मिक चेतना को उभारें। दया, करुणा, उदारता, सेवा जैसी दिव्य संपदाओं में अपने को सुसज्जित करें। इस प्रकार के प्रयासों में जो समय, श्रम, मनोयोग एवं धन खर्च होता है। उसकी तुलना में लाखों गुने मूल्य का आत्मबल और आत्म-संतोष मिलता है। व्यक्तित्व में देवत्व का उदय होता है। प्रयत्नों में हुए खर्च और परिणाम में मिले लाभ को यदि ठीक तरह तोला जा सके तो प्रतीत होगा कि जो खोया गया, उससे लाखों गुना पा लिया।

भगवान की पहली भुजा संसार में व्याप्त अधःपतन के प्रति अधिकाधिक सहृदय होने के आमंत्रण लेकर पसरी हुई है। दूसरी भुजा का आह्वान यह है कि इस विश्व वसुधा को सुन्दर समुन्नत बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान दिया जाय। कोई व्यक्ति एकाकी सुख सम्पदा एकत्रित करके सुखी नहीं बन सकता। कुटुम्ब, परिवार को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हुए मनुष्य अपनी सुखानुभूति को कई गुना बढ़ाता है। यदि ऐसा न होता तो परिवार-पालन में जो कष्ट उठाना पड़ता है और त्याग करना पड़ता है उसके लिए कोई कदापि तैयार न हुआ होता। इस सुख का जितना अधिक विस्तार करना अभीष्ट हो उतना ही अधिक विस्तृत क्षेत्र में अपनी आत्मीयता को विस्तृत करना पड़ता है। यह आत्मविस्तार, सहज ही अधिक लोगों का अधिक सुख किस प्रकार संभव हो यही सोचता है और अपनी क्षमता का बड़ा भाग इसी के लिए नियोजित करता है। कहना न होगा कि सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं के अभिवर्धन से ही व्यक्ति और समाज सर्वतोमुखी प्रगति का पथ-प्रशस्त होता है।

ईश्वर को पाने के लिए हमें अपनी ओर से कुछ नहीं करना है। केवल उसकी पसरी हुई भुजाओं में प्रवेश करना है। उसके आह्वान को सुनना और उसके आमंत्रण को स्वीकार करना भर ईश्वर मिलन का प्रयोजन पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

जिसने ईश्वर की भावनात्मक पुकार सुन ली, उसका जीवन धन्य हो गया। उसकी भावनाएं पीड़ा और पतन के निवारण की व्याकुलता से भर उठती है। वह ईश्वरीय कार्य के लिए स्वयं को समर्पित कर देता है। वही व्यक्ति भक्त कहलाने का अधिकारी है जिसने पतितों-पीड़ितों के क्रन्दन और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन आह्वान के रूप में फैली भगवान की भुजाओं का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। जिसने अपनी भावनाओं को बिखरने नहीं दिया और उनको उत्कृष्टता की दिशा में केन्द्रित कर दिया वही भक्त है, उसी की भक्ति में शक्ति होती है।

भावनाएं भक्ति मार्ग में नियोजित की जायें

भावनाओं की शक्ति भाप की तरह है यदि उसका सदुपयोग कर लिया जाय तो विशालकाय इंजन चल सकते हैं पर यदि उसे ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाय तो वह बर्बाद ही होगी किसी के काम आ सकेगी।

भावनाओं में भक्ति का स्थान बहुत ऊंचा है। उसका सहारा लेकर मनुष्य नर से नारायण बन सकता है। किन्तु यदि उसे एक कल्पना आवेश मात्र मन बहलाव रहने दिया जाय तो उससे किसी का कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।

रविशंकर महाराज ने आज के भक्तों को तीन रोगों से ग्रसित गिनाया है (1) गाना (2) रोना (3) दिखावा।

भजन कीर्तन के नाम पर दिन-रात झांझ बजती और हल्ला होता है। गाना वही सार्थक है जो विवेकपूर्वक गाया जाय जिसमें प्रेरणा हो और उसे हृदयंगम करने का लक्ष्य सामने रखा गया हो। जहां केवल कोलाहल ही उद्देश्य हो वहां भक्ति का प्रकाश कैसे उत्पन्न होगा?

रोना—अर्थात् संसार को शोक-संताप से भरा भव-सागर मानना। इस दुनिया से छुटकारा पाकर—किसी अन्य लोक में जा बसने की कल्पना, अपने आप से भागने के बराबर है। भगवान के सुरम्य उद्यान का सौन्दर्य निहार कर आनन्द विभोर होने की भक्ति भावना यदि विश्व के कण-कण में संव्याप्त भगवान को देखने की अपेक्षा सर्वत्र दुःख और पाप ही देखें तो इसे बुद्धि विपर्यय ही कहा जायगा, भक्तिभाव नहीं। पलायन नहीं—भक्ति का तात्पर्य दुःखों का निराकरण एवं दुखियों की सहायता करना है। जहां केवल घृणा का विषाद छाया रहे वहां भक्ति की आत्मा जीवित कैसे रहेगी। अपने को आर्त और दुःखी के रूप में प्रस्तुत करने वाला इस कुरूप चित्रण से अपने सृष्टा को ही अपमानित करता है।

भक्ति का तीसरा छन्द है—दिखावा। इन दिनों धार्मिक आडम्बर पहाड़ जितना बढ़ चला है पर उसकी मर्म सम्वेदनायें हृदयंगम कर सकने वाले लोग कितने हैं? धर्म का आडम्बर इतना अधिक बढ़ता चला जा रहा है कि कई बार तो यह भ्रम होने लगता है कि हम धर्मयुग में रह रहे हैं। कथा, कीर्तन, प्रवचन, सत्संग, पारायण, लीला, सम्मेलन आदि के माध्यम से जगह-जगह विशालकाय आयोजन होते हैं और उनमें एकत्रित विशाल भीड़ को देखने से प्रतीत होता है कि धर्म रुचि आकाश छूने जा रही है, पर जब गहराई में उतर कर देखते हैं तो लगता है कि यह धर्म दिखावा बहुत से लोग अपना आन्तरिक अधार्मिकता को झुठलाकर आत्म प्रवंचना करने के लिए अथवा लोगों की दृष्टि में धार्मिक बनने के लिए खड़ा करते हैं। यह आवरण इसलिए खड़े किए जाते हैं ताकि उनकी यथार्थता पर पर्दा पड़ा रहे और लोग उन्हें उस ऊंचे स्तर का समझते रहें जिस पर कि वे वस्तुतः नहीं हैं।

कुछ लोग वस्तुतः इन आयोजनों को सद्भावना के साथ सदुद्देश्य के लिए भी करते हैं पर वे यह भूल जाते हैं कि धर्म आवरण का आरम्भिक प्रयोग भक्ति-भावना जागृत करने के लिए ही हो सकता है। उसका वास्तविक लाभ तो तभी मिलेगा जब आस्थाओं और क्रिया-कलापों में उच्चस्तरीय परिवर्तन संभव हो। इस कार्य के लिए उपयुक्त पथ-प्रदर्शक वे हो सकते हैं जिनने अपने को मन, वचन, कर्म से सच्चा भक्त बनने में सफलता प्राप्त की हो और इस श्रेय पथ में प्रगति का प्रकाश वे ही पा सकते हैं, जिन्होंने आवरण से आगे बढ़कर अपने आपको सुधारने सम्हालने के लिए उत्कट प्रयास किया हो।

भावनाओं की शक्ति को भक्ति मार्ग में नियोजित किया जा सके तो मनुष्य इतनी प्रगति कर सकता है। जिससे उसकी अपूर्णता, चरम पूर्णता में परिणत हो सके।
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