व्यक्तित्व परिष्कार में श्रद्धा ही समर्थ

श्रद्धाहीन बुद्धिवाद अभिशाप ही है

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आज का युग बुद्धि-युग कहा जाता है। मनुष्य पूरी तरह से बुद्धिवादी बन गया है। प्रत्येक व्यवहार को बुद्धि की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करना चाहता है। यह बुरा नहीं। बुद्धिमान होना मनुष्य की शोभा है। अन्य प्राणियों से बुद्धि में बढ़ा-चढ़ा होने से ही मनुष्य उन सबसे श्रेष्ठ माना गया है किन्तु आज के बौद्धिक चमत्कारों के जो फल हमारे सामने आ रहे हैं, वे बड़े ही निराशाजनक तथा भयप्रद हैं।

बुद्धिमान होना अच्छा है किन्तु बुद्धिवादी होना उतना अच्छा नहीं है। आज हम अपने को विगत युगों के मानवों से अधिक बुद्धिमान तथा सभ्य मानते हैं। आज हम अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर गर्व करते हैं और कहते हैं कि हमने अपने पूर्वकालीन पूर्वजों से अधिक उन्नति और विकास किया है। यह ठीक है कि आज के मनुष्य ने उन्नति की है, किन्तु यान्त्रिक क्षेत्र में, मानवता के क्षेत्र में नहीं। जब तक हम बुद्धि के बल पर मानव मूल्यों की प्रतिस्थापना नहीं करते, सही मानों में बुद्धिमान कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते।

किसी ओर भी दृष्टि डालकर देख लीजिये, प्रश्नों, परेशानियों, समस्याओं तथा असमाधानों के ही दृश्य दिखाई देते हैं। न कोई प्रसन्न दिखता है और न निश्चित। संशय, भय, आशंका मानव अस्तित्व को घेरे हुए दृष्टिगोचर होंगे। सुबह से शाम तक यन्त्र की तरह काम करता हुआ भी मनुष्य न तो आश्वस्त दीखता है और न अभाव मुक्त। लोग बड़े उत्साह से जीवन क्षेत्र में उतरते हैं, किन्तु कुछ ही समय में उन्हें अनुभव होने लगता है कि उनके उत्साह के लिए संसार में कोई मार्ग नहीं है और तब वह उतरे हुए ज्वार की तरह सिमट कर एक संकुचित सीमा में धीरे-धीरे, थका-थका, रेंगता हुआ चलने लगता है। मानो न वह जी रहा है और न जीना चाहता है। ज्यों-त्यों मिली हुई श्वासों का बोझ उतार रहा है। यह सब निराशा एवं अवसाद, बुद्धि का फल नहीं है बल्कि बुद्धिवादिता की देन है। केवल बुद्धिवादी बने रहने से मनुष्य में एक नीरसता, शून्यता का आ जाना स्वाभाविक ही है।

किन्तु इस मानवीय क्षति की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। साक्षरता, शिक्षा, विद्या, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, प्रशिक्षण केन्द्रों तथा वैज्ञानिक संस्थानों को दिनों दिन बढ़ाया जा रहा है। किसलिये? जिससे कि मनुष्य अधिक से अधिक बुद्धिमान बने, अपने जीवन में विकास करे और समाज की उन्नति में सहायता दे। किन्तु इन प्रयत्नों के परिणामों पर कोई सोचने को तैयार ही नहीं दिखता। भौतिक उपलब्धियों के पीछे मनुष्य को इस सीमा तक डाल दिया गया है कि यह सोच सकना उसकी शक्ति के परे की बात हो गई है कि इन भौतिक उपलब्धियों का उद्देश्य केवल उपलब्धि ही नहीं है। इनका उद्देश्य है, इनके द्वारा मानवता का दुःख दर्द दूर करना, उसके अभावों तथा समाधानों का निराकरण करना, किन्तु इस वांछित बुद्धि को जगाने के बजाय भुलाई गई है— एक सर्वभक्षी होड़ एक आर्थिक प्रतिस्पर्धा जिसका फल यह हो रहा है कि मनुष्य-मनुष्य को कुचल कर भौतिक उन्नति में आगे निकल जाना चाहता है। जीवन के मूल उद्देश्य मानव के प्रति, मानव का स्नेह, अनुशासन, सेवा, सहयोग, सहायता तथा बन्धुभाव का सर्वथा अभाव होता जा रहा है। संसार में दिखने वाली व्यग्रता, व्यस्तता तथा आपाधापी इसी अभाव की विकृतियां हैं। विद्यार्थी पढ़ते हैं अपने लिये—मनुष्य परिश्रम करता है अपने लिये, व्यापार करता है तो अपने लिये। तात्पर्य यह है कि वह जो कुछ करता है सब अपने लिये— जो कुछ चाहता है सब अपने लिये। इस ‘‘अपने लिये’’ ने मनुष्य को इतना शुष्क तथा संकीर्ण बना दिया है कि उसकी सारी मन बुद्धि अपने तक ही सीमित हो गई है, जिससे स्वार्थ संघर्षों के फलस्वरूप समाज में शोक सन्तापों की वृद्धि होती जा रही है। आज आपा बढ़ाना ही मनुष्य ने अपनी बुद्धि विकास का लक्ष्य बना रखा है। यह सब स्वार्थ पूर्ण बुद्धिवाद का ही विकार है।

जिस परमात्मा के सर्वोत्कृष्ट प्रसाद बुद्धि का उपयोग मानव मूल्यों को बढ़ाने में किया जाना चाहिये था, उसका उपयोग निकृष्ट से निकृष्ट स्वार्थ साधनों में किया जाने लगा है। अनैतिकता पर परदे के रूप में दूसरों के अधिकार अपहरण करने में पटुता के रूप में अपने अनधिकृत स्वार्थ सिद्धि में, सकुशलता के रूप में, आय के अनुचित साधन बढ़ाने के लिये चतुराई के रूप में बुद्धि का उपयोग कर सकना ही बुद्धिमत्ता की परिभाषा बन गई है। ऐसा नहीं कि इस अमानवीय मान्यता के कुफल न भोगने पड़ते हों। खूब अच्छी तरह भोगने पड़ रहे हैं, किन्तु युग की विशेषता बुद्धिवादिता के कारण धारणा बदलने को तैयार नहीं। अपने ही कारण अपने पर आये दुःख कष्टों का हेतु दूसरों को मान लेना और उसका बदला तीसरे से लेने का प्रयत्न करना बुद्धिवादिता की विशेष प्रेरणा बन गई हैं।

आज एक ओर सौभाग्य से जहां मनुष्य की बुद्धि ने विस्मयकारक विकास किया है, वहां दूसरी ओर दुर्भाग्य से उनका नियन्त्रण तथा सदुपयोग का भाव शिथिल हो गया है। बुद्धि का तीव्र विकास जितना लाभकारी है उससे कहीं अधिक हानिकारक उसका अनियंत्रिण तथा असंयमित होना है। यही कारण है कि आज बुद्धि के चमत्कारी वैज्ञानिक अनुसंधान मनुष्य के सिर मृत्यु की छाया की तरह मंडराते नजर आते हैं। यहीं पर यदि मनुष्य की विचारधारा नियन्त्रित भी हो सकी होती तो यह वैज्ञानिक उपलब्धियां सुख और सन्तोष के वरदान होतीं। पर बुद्धिवाद के अभिशापित मनुष्य का विश्वास मनुष्य पर से उठता जा रहा है।

पूर्वकालीन मानवों से अपने को अधिक बुद्धिमान मानने तथा सभ्य एवं विकासशील कहने वाले यह नहीं सोच पाते कि अपेक्षाकृत कम बुद्धिमान होने पर भी वे एक दूसरे की तरह आज की भांति खतरा नहीं बने हुए थे। उनमें आपस में कितना सौहार्द्र, स्नेह तथा सहयोग रहा है? उनका समय आज के समय से कितना निश्चित तथा समाधान पूर्ण था? यही कारण है कि उस समय जिस प्रकार अध्यात्म पूर्ण मानवता का विकास हुआ है उसका शतांश भी आज देखने को नहीं मिल रहा है। जो, सभ्यता, संस्कृति कला-कौशल तथा परोपकार एवं पारस्परिकता की भावना पूर्वकालीनों ने संसार को दी थी, हम बहुत कुछ उसी के आधार पर चलते हुए आज इतना बढ़ पाये हैं। जहां पूर्वकालीनों ने विचार करके सभ्यता के सन्देश सारे संसार को देकर प्रबुद्ध बना दिया था, वहां आज लगभग पूरा संसार सभ्य होकर मानवीय सभ्यता के विनाश पर तूल गया है। संसार के अधिक सभ्य एवं प्रबुद्ध होने से तो सुख-शांति की सम्भावनाओं की वृद्धि होनी चाहिए थी, वहां भय, शोक और संताप ही बढ़े हैं। यह सब नीरस एवं अनियन्त्रित बुद्धिवाद का ही कुपरिणाम है।

अब प्रश्न यह है कि आज के इस बुद्धि-विकास के युग में इन विकृतियों का कारण क्या है और क्या है इनके समाधान का उपाय? अब वह समय आ गया है जबकि मनुष्य को रुक कर सोचना, विचार करना आवश्यक हो गया अन्यथा बुद्धिवाद से हांका हुआ संसार शीघ्र ही अपना विनाश कर लेगा।

इसी आत्मिक अश्रद्धा के कारण उसके हृदय से आत्मीयता का भाव उठ गया है। उसे किसी दूसरे के प्रति न तो सहानुभूति रह गई है और न स्नेह। उसमें एक शुष्क स्वार्थ का बाहुल्य हो गया है। अधिक बुद्धि पाकर यदि वह अपने से कम बुद्धि वालों के प्रति अपने कर्तव्य समझ उनको अपने साथ ले चलने की नैतिकता के प्रति श्रद्धावान हो सकता तो निश्चय ही जहां संसार में आज संशय, भय, अविश्वास एवं असमाधान दीखता है, वहां आश्वासन, प्रसन्नता, विश्वास तथा सुख समाधान की ही परिस्थितियां दीखतीं।

अश्रद्धावान व्यक्ति में स्वभावतः ही स्वार्थ, असन्तोष तथा अतृप्ति का दोष उत्पन्न हो जाता है। श्रद्धा ही एक ऐसा प्रकाश है, जो मनुष्य को अनात्मिक अन्धकार में खोने से बचाये रहता है। श्रद्धावान को जहां अपने प्रति स्नेह रहता है, वहां दूसरों के प्रति भी आज के बुध्यातिरेकता के युग में इसी श्रद्धा नाक मानव मूल्य का अभाव हो गया है। जिस दिन मनुष्य में श्रद्धा के भाव की बहुलता हो जायेगी—बुद्धिवादिता का नियमन होगा, तब आज के ध्वंस सूचक बौद्धिक चमत्कार सृजन सम्बन्धी वरदान बन जायेंगे।

बुद्धि का नियमन कीजिए—

मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि नामक एक अतुलनीय शक्ति प्रदान की है इसी के आधार पर मनुष्य लाखों करोड़ों अन्य प्राणियों के बीच सृष्टि का अप्रतिम स्वामी बना है। इतना ही नहीं, मनुष्य ने बुद्धि बल पर संसार को सुन्दर से सुन्दर बनाया है। बिना किसी के बतलाये उसने सृष्टि के गोपनीय रहस्यों को बुद्धि बल पर खोज निकाला है। जीवन में न जाने कितनी सुख-सुविधाओं का समावेश किया है।

मनुष्य में अतीत का अध्ययन कर उसके व्यवहारों, मान्यताओं एवं धारणाओं के हानि-लाभ को समझकर नित्य नये भविष्य के लिए पथ-प्रशस्त करते हुए महान् से महान्तर सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का सृजन किया है। संसार में प्रत्यक्ष सुन्दर कला-कृतियां, ऊंचे-ऊंचे महल, दुर्ग, प्रासाद तथा अट्टालिकायें, यान, जलयान-वायुयान जो कुछ भी विस्मयकारक तथा लाभकारक दिखाई दे रहा, वह सब मनुष्य की बुद्धि शक्ति का ही चमत्कार है।

बुद्धि ने मानव को केवल भौतिक विभूतियों तक ही ले जाकर नहीं छोड़ दिया, बल्कि उसने उसे आत्मा परमात्मा, पुरुष और प्रकृति के रहस्यों तक भी पहुंचा दिया है। सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय चेतनायें, पारस्परिक व्यवहार, कर्तव्य एवं अधिकारों का ज्ञान बुद्धि ने ही कराया है।

बुद्धि की शक्ति का एक उज्ज्वल पक्ष तो यह रहा। इस शक्ति का एक अन्धेरा पक्ष भी है। आक्रमण, अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, लाभ-लोभ, छल-कपट, वंचना-प्रताड़ना, विजय, आतंक, अभियान, नोंच-खसोट, लूट-मार, छीना-झपटी, चोरी-मक्कारी, ध्वंस अथवा विनाश की आसुरी वृत्तियां भी मनुष्य बुद्धि बल पर ही सफल करता है।

मनुष्य शारीरिक बल से नहीं, बुद्धि-बल से ही अभियानों का संचालन और सेनाओं का नियन्त्रण करता है। बड़ी-बड़ी लड़ाइयों की हार-जीत बुद्धिबल पर ही निर्भर करती है। राष्ट्रों के नेतृत्व और राज्यों के शासन व्यवस्था के काम भी बुद्धि-शक्ति से ही चलते हैं। व्यापार, व्यवसाय उद्योग योजनायें एवं उपाय सब बुद्धि के अधीन रहते हैं। तात्पर्य यह है कि संसार में जो सृजनात्मक अथवा ध्वंसात्मक क्रिया-कलाप होता दिखाई देता है वह सब बुद्धि से ही संचालित एवं नियन्त्रित होता है बुद्धि एक अनुपम एक अतुलनीय सर्व समर्थ शक्ति है।

आज के वैज्ञानिक युग में तो मानव-बुद्धि चमत्कारिक क्षमता से सम्पन्न हो गई है। असम्भव जैसे कार्य आज सम्भव होते दिखाई दे रहे हैं। मनुष्य की बुद्धि आज जीवन-मृत्यु के रहस्यों को खोज निकालने पर तुली हुई है। संसार के कारण भूत पंच-तत्वों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपना आज्ञाकारी बना रही है। प्रकृति की पराधीनता से मुक्त होकर मानव आज बुद्धि बल पर स्व-निर्भर होने का प्रयत्न कर रहा है। प्रगति देखते हुए यह बात असम्भव नहीं दिखाई देती कि जब वह जिस ऋतु को चाहे उत्पन्न कर ले और जब जिस वातावरण को चाहे निर्माण कर ले। आज का युग मानवीय बुद्धि-शक्ति का प्रमाण सूचक साक्षी बना हुआ है।

ऐसी अमोघ है मानव बुद्धि की शक्ति! यदि यह चाहे तो संसार को दो दिन में ही नष्ट कर दे और चाहे तो इसे स्वर्ग बना दे! किन्तु आज की परिस्थितियां देखते हुए ऐसा नहीं लग रहा है कि बुद्धि-शक्ति संसार को स्वर्ग रूप में परिणत करेगी। इसके अधिकाधिक नरक बनने की सम्भावनायें अवश्य दृष्टिगोचर होने लगी हैं। आगे की बात छोड़ दीजिए, आज के दिन भी संसार एक नरक से क्या कम बन गया है? जिधर देखो, दुःख पीड़ा, शोक-संताप, आवश्यकता एवं अभाव का ही ताण्डव होता दृष्टिगोचर हो रहा है मनुष्य, मनुष्य के लिए भूत प्रेतों की तरह शंका का स्वरूप बना हुआ है। सुख-सुविधा के अगणित साधन संचय हो जाने पर भी मनुष्य को उनका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। जिस एक अश्वस्तता एवं निश्चिंतता प्राप्त करने के लिए मनुष्य की बुद्धि तन-मन से लगी हुई है, उसके दर्शन भी संभव नहीं हो रहे हैं। निःसन्देह आज के युग का बुद्धि बलिष्ठ मनुष्य की यह दुर्दशा तरस का ही विषय है।

अब एक प्रश्न मन में उठे बिना नहीं रहता। क्या कारण है कि जो समर्थ बुद्धि आकाश-पाताल को मिला देने की क्षमता रखती है, उस बुद्धि का मानव मस्तिष्क में आज चरम-विकास हो रहा है, किन्तु वह वंचित उन सुखों से भी होता जा रहा है, जो उसने कम बुद्धि के युग में उपभोग किये थे। वह उल्टा परिणाम कुछ कम विस्मयकारक नहीं है। इस पर शान्त मस्तिष्क से विचार करने की नितान्त आवश्यकता है।

बात वास्तव में यह है कि मनुष्य ने आज बुद्धि को तो विकट रूप से बढ़ा लिया है, किन्तु उस पर नियन्त्रण करना नहीं सीखा है, उचित नियन्त्रण के अभाव में यह निरंकुश मातंगिनी अथवा अतट-तटिनी की भांति चारों ओर ध्वंस के दृश्य उपस्थित करती दृष्टिगोचर हो रही है। बुद्धि-शक्ति में कोई मर्यादा तो होती नहीं। स्वयं मनुष्य को ही अपनी इस शक्ति को नियन्त्रित करना होता है।

बुद्धि का अनियन्त्रित विकास केवल दूसरों के लिये ही दुःखदायी नहीं होता, स्वयं अपने लिये भी हानिकारक होता है। अति बुद्धि मानव को चिन्तन असंतोष की ज्वाला में ही जलना होता है। वह बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाता। एक बुद्धिवादी कितना ही शास्त्रज्ञ, विशेषज्ञ, दार्शनिक, वैज्ञानिक, तत्ववेत्ता आदि क्यों न हो बुद्धि का अहंकार उसके हृदय में शान्ति को न ठहरने देगा। वह दूसरों को ज्ञान देता हुआ भी आत्मिक शांति के लिए तड़पता ही रहेगा। बुद्धि की तीव्रता पैनी छुरी की तरह किसी दूसरे अथवा उसको दिन रात काटती ही रहती है। मानव की अनियन्त्रित बुद्धि-शक्ति मनुष्य जाति की बहुत बड़ी शत्रु है। अतएव बुद्धि के विकास के साथ-साथ उसका नियन्त्रण भी आवश्यक है।

किसी शक्तिशाली का नियन्त्रण तो उससे अधिक शक्ति से ही हो सकता तब भला समग्र सृष्टि को अपनी मुट्ठी में शक्ति बुद्धि का नियन्त्रण करने के लिये कौन सी दूसरी शक्ति मनुष्य के पास हो सकती है? मनुष्य की वह दूसरी शक्ति है—श्रद्धा! जिससे बुद्धि जैसी उच्छृंखल शक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, उसका नियंत्रण किया जा सकता है। ध्वंस की ओर जाने से रोककर सृजन के मार्ग पर अग्रसर किया जा सकता है। श्रद्धा के आधार के बिना बुद्धि एक बावले बवण्डर से अधिक कुछ भी नहीं है। श्रद्धा रहित बुद्धि जिधर भी चलेगी उधर दुःखद परिस्थितियां ही उत्पन्न करेगी।

विशुद्ध बुद्धिवादी के पास स्नेह, सौजन्य, सौहार्द्र, सहानुभूति, भ्रातृत्व भाव जैसी कोमलताएं होती हैं। इन मानवीय गुणों की जननी श्रद्धा ही है। श्रद्धालु अन्तःकरण वाला मनुष्य सेवा-सहयोग, क्षमा-दया, परोपकार तथा परमार्थ में विश्वास करता है, न्याय और नियम उसकी विशेषताएं हुआ करती हैं।

मानवता के इतिहास में दो परस्पर विरोधी ख्याति के व्यक्तियों के नाम पाये जाते हैं। एक वर्ग तो वह है, जिसने संसार को नष्ट कर डालने, जातियों को मिटा डालने तथा मानवता को जला डालने का प्रयत्न किया है। दूसरा वर्ग वह है जिसने मानवता का कष्ट दूर करने, संसार की रक्षा करने देश और जातियों को बचाने के लिए तप किया है। संघर्ष किया है और प्राण दिया है। इतिहास के पन्नों पर आने वाले यह दोनों वर्ग निश्चित रूप से बुद्धि-बल वाले रहे हैं। अन्तर केवल यह रहा है कि श्रद्धा के अभाव में एक की बुद्धि शक्ति अनियन्त्रित होकर बर्बरता का सम्पादन कर सकी है और दूसरे का बुद्धि बल श्रद्धा से नियन्त्रित होने से सज्जनता का प्रतिपादन करता रहा है।

यदि आज की चमत्कारिणी बुद्धि का ठीक दिशा में उपयोग करना है, संसार से दुःख दर्दों को मार भगाना है, अपनी धरती-माता को स्वर्ग बनाना है, मानव सभ्यता की रक्षा के साथ-साथ उसका विकास करना है, तो अन्तःकरण में श्रद्धा की प्रतिस्थापना करनी होगी। बिना श्रद्धा के मनुष्य की बुद्धि-शक्ति उसकी शत्रु बनकर मानवता का विनाश किये बिना नहीं मानेगी। आज अवसर है, साधन हैं, मनुष्य चाहे तो सृजन का देवदूत बन सकता है और चाहे तो शैतान का अनुचर!
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