जब हमारे सामने अनेक समस्याएँ विभिन्न प्रकार के विचार होते हैं, तब यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि इनमें कौन हितकारी है और कौन हित के विपरीत, कौन सही है और कौन गलत है ? ऐसी अवस्था में विवेक ही हमारा मार्गदर्शन कर सकता है । जिसमें विवेक की कमी होती है, वे नाजुक क्षणों में अपना सही मार्ग निश्चित नहीं कर पाते और गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं, जिसके कारण उन्हें पतन और असफलता के गर्त में गिरकर लांछित और अपमानित होना पडता है । जिनमें विवेक शक्ति का प्राधान्य होता है, वे दूरदर्शी होते हैं और इसलिए उपयुक्त मार्ग को अपनाते हैं । यही शक्ति साधारण व्यक्ति को नेता, महात्मा और युगपुरुष बनाती है ।
विवेक प्रत्येक व्यक्ति में जन्मजात रूप से वर्तमान रहता है । इस पर हमारे संचित और क्रियमाण कर्मों की छाया का प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह किसी में कम और किसी में अधिक दिखाई देता है । दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि हम अपने संचित एवं क्रियमाण कर्मों से इतने अधिक प्रभावित रहते हैं कि विवेक की पुकार हमें ठीक से सुनाई नहीं पडती । यही विवेक हमारी वास्तविक मानवता का प्रतीक और सद्बुद्धि का द्योतक है । इसके अभाव में मनुष्य पशु या उससे भी गया बीता बन जाता है और स्वयं के लिए समाज के लिए राष्ट्र के लिए और अंतत: सृष्टि के लिए एक भार एवं अभिशाप हो जाता है ।
मानव होने के नाते हमारा यह प्राथमिक कर्त्तव्य है कि हम इस विवेक को जाग्रत करें और उसकी आवाज को सुनना सीखें । संसार में छोटे से छोटे और बड़े से बड़े सभी मनुष्य इसकी कृपा के लिए लालायित रहते हैं ।
इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मनुष्य के लिए अपने विवेक की सदैव रक्षा करना परमावश्यक है । किसी स्वार्थ के लिए भी विवेक की हत्या करने से उसका कुफल भोगना पड़ता' है । चाहे वैयक्तिक विषय हो और चाहे सामाजिक चाहे राजनीतिक समस्या हो अथवा धार्मिक; हमको विवेकयुक्त निर्णय का सदैव ध्यान रखना चाहिए । लकीर के फकीर बन जाने या ''बाबा वाक्यं प्रमाण'' मान लेने से मनुष्य की बुद्धि कुंठित हो जाती है और वह गलत मार्ग पर चलने लग जाता है । इसलिए प्राचीन या नवीन कोई भी विषय हो हमको उसका निर्णय उचित- अनुचित, सत्य- असत्य का पूर्ण विचार करके ही करना चाहिए ।