विवेक की कसौटी

विवेक और मानसिक दासता

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विवेक की हीनता के कारण मनुष्य परमुखापेक्षी और पराश्रित हो जाता है । वह अपने को सब प्रकार से गया बीता समझ लेता है । उसके हृदय में प्राय: यही विचार आया करता है कि 'जो कुछ हमारे पूर्वज कर चुके हैं जो कुछ हमारे समाज के बड़े आदमी कर रहे हैं उससे ज्यादा हम क्या कर सकते हैं । हमको तो यथाशक्ति उनका ही अनुकरण करना चाहिए । ऐसी मनोवृत्ति से हर दर्जे की मानसिक निर्बलता उत्पन्न होती है और उन्नति का मार्ग रुक जाता है ।

मानसिक दासता सब प्रकार की दासताओं की जननी है । जब शरीर का चालक मन अशक्त है तो शरीर का अणु-अणु अपाहिज है । उसकी शक्ति को प्रकाशित होने का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं उसका कोई निश्चित उद्देश्य नहीं । वह एक ऐसी नौका है जो जिधर चाहे बहक सकती है ।

समस्त मानव जीवन की प्रवर्तक 'भावनाएँ, होती हैं । इन भावों का अनुसरण हमारी मूल प्रवृत्तियाँ किया करते हैं । भावनाएँ मन में विनिर्मित होती हैं । उनका उच्चाशय या निंद्य स्वरूप मन की प्रेरक शक्तियों पर अधिष्ठित है ।

मन के अपाहिज हो जाने पर आत्मा जड़ से गया बीता हो जाता है । उसकी महत्त्वाकांक्षा का निरंतर क्षय होता रहता है । आशाओं पर तुषारापात होता है । ऐसा व्यक्ति नहीं जानता कि वह क्या है ? इसका वास्तविक स्वरूप क्या है ? उसे किस दिशा की ओर अग्रसर होना है ? दासता की कुलिश-कठोर बेड़ियों में जकड़ा हुआ मन स्वयं अपना ही नहीं, अपने स्वामी का भी सर्वनाश कर देता है ।

हम दूसरों को डरपोक देखते हैं तो समझ लेते हैं कि ऐसे ही हमें भी होना चाहिए । ऐसा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है । हम अपने चारों ओर ऐसा ही कुत्सित वातावरण देखते हैं । हम बिना कटु अनुभवों को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व देते हैं । हम स्वयं विचारशक्ति का उपयोग न कर विचार की गति को पंगु कर डालते हैं । हम स्वयं निज मानसिक शक्ति का उपयोग न कर दूसरे के उदाहरण, प्रणाली पर निज जीवन को अधिष्ठित कर देते हैं । हम सोचते हैं कि जो हमारे पूर्वज कर गए हैं, जो हमारे नेतागण चरितार्थ कर रहे हैं जो कुछ हमारे अन्य भ्राताओं ने अर्जन किया है, वही हमारा भी साध्य है । उसी को हमें प्राप्त करना चाहिए । हम अपने वातावरण से दासता ही दासता एकत्रित करते हैं मन में कूड़ा-करकट एकत्रित करते रहते हैं, कालांतर में मन का वातावरण कलुषित हो जाता है । हमारा समाज, कभी हमारा गृह, कभी हमारा वातावरण या जीविका उपार्जन का कार्य मानसिक दासता का सहायक बन जाता है तथा हमें दीन- दुनिया कहीं का भी नहीं छोड़ता । कृत्रिम साधनों द्वारा मन का विकास रुक जाना ही मानसिक दासता है ।

हम मानसिक दासत्व को एक मनोवैज्ञानिक रोग मान सकते हैं । अनेक प्रकार के भ्रम, अभद्र कल्पनाएँ निराशा निरुत्साह इत्यादि मन: क्षेत्र में आत्महीनता की जटिल ग्रंथि उत्पन्न कर देते हैं । कालांतर में ये ग्रंथियाँ अत्यंत शक्तिशाली हो उठती है । फिर दिन-प्रतिदिन के विविध कार्यो में इन्हीं की प्रतिक्रिया चलती रहती हैं । हमारे डरपोकपन के कार्य प्राय: इसी ग्रंथि के परिणामस्वरूप होते हैं । अनेक मनगढ़ंत विरुद्ध संस्कार स्मृति पटल पर अंकित रहते हैं । पुरानी असफलताएँ अप्रिय अनुभव अव्यक्त मन से चेतन मन में प्रवेश करती हैं तथा प्रत्येक अवसर पर अपनी रोशनी फेंका करती हैं । जैसे एक बारीक कपड़े से प्रकाश की किरणें हलकी-हलकी छनकर बाहर अती हैं उसी प्रकार आत्महीनता तथा दासत्व की ग्रंथियों की झलक प्राय: प्रत्येक कार्य में प्रकट होकर उसे अपूर्ण बनाया करती है । कभी-कभी मनुष्य की शरीरिक निर्बलता, कमजोरियाँ व्याधियाँ अंग-प्रत्यंगों की छोटाई-मोटाई, सामाजिक परिस्थितियों निर्धनता देश की कमजोरियाँ सब मानसिक दासत्व की अभिवृद्धि किया करते हैं । भारत में मानिसक दासत्व का कारण अंधकारमय वातावरण तथा पाशविक वृत्तियों का अनाचार है । समय-समय पर देश में होने वाले आदोलनों से मानसिक दासत्व में भी न्यूनता या अभिवृद्धि का क्रम चला करता है ।

वर्तमान रूप में व्यवहृत हमारा धर्म मानसिक दासता का मित्र बना हुआ है । मनुष्य का मन प्रत्येक तत्त्व को समझने, मनन करने के लिए प्रदान किया गया है । वह सोच-समझकर प्रत्येक वस्तु ग्रहण करें, यों ही प्रत्येक तत्त्व को अंधों की तरह ग्रहण न करे, यही इष्ट है । धर्म के आधुनिक रूप ने मानव मन को अत्यंत संकुचित, डरपोक बना दिया है । किताब, कलमा, जादू टोना, तीर्थ न जाने कितनी आफतें मानव मन पर सवार हैं । वह धार्मिक श्रृंखलाओं के कारण इधर से उधर, टस से मस नहीं हो पाता । हजार आदमी उसके ऊपर उँगलियों उठाने को प्रस्तुत हैं । अत: बेचारे को अन्य व्यक्तियों का अनुकरण करना होता है । अनुकरण अबोध के लिए उपयुक्त हो सकता है किंतु विवेकशील हो उस जंजीर में बाँधने से उसके मन: क्षेत्र में प्रबल उत्तेजना उत्पन्न होती है । इस प्रकार मन की गुलामी उत्पन्न होती है ।

जब मन उत्तम तथा, निकृष्ट में विवेक न कर सके तो उसे 'दास' कहेंगे, उसे तो स्वच्छंदतापूर्वक निज कर्म करना चाहिए । यदि मनुष्य का मन स्वतंत्र रूप से विवेक की शक्ति नहीं रखता तो वह किसी अन्य शक्ति के वश में अवश्य रहेगा । स्वयं जब मन का इच्छाशक्ति पर प्रभुत्व नहीं तो उस पर किसी विजातीय शक्ति का प्रभुत्व अवश्य रहेगा ।

यदि एक छोटे पौधे को एक शीशी में बंद कर दें और केवल 'ऊपर से खुला रहे, तो वह क्रमश: ऊपर ही को बढ़ेगा । उसे इधर-उधर फैलने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि उसे संकीर्ण वातावरण में रख दिया है । इसी प्रकार यदि आप कूपमंडूक बने रहेंगे, तो मन विकसित न हो सकेगा । वह एकांगी रहेगा तथा उसमें सहृदयता, दयालुता सत्यवादिता निर्भीकता या निर्णय शक्ति का विकास न हो सकेगा । मन को छोटे दायरे में बंद रखने से मनुष्य सब वैभव होते हुए भी अंतर्वेदना से पीड़ित रहता है । उसमें आत्मसम्मान का प्रादुर्भाव नहीं होता ।

मन को स्वाधीनता दीजिए । उसे चारों ओर फैलने का अवसर दीजिए । मानसिक स्वतंत्रता से ही मनुष्य में दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है । मन को स्वच्छंदतापूर्वक विचारने की, मनन करने की स्वतंत्रता दीजिए तो वह आपका सच्चा मित्र, सलाहकार बन जाएगा । वह निकृष्ट भोगेच्छाओ में परितृप्त न होगा । वह अन्य व्यक्तियों की कृपा पर आश्रित न रहेगा । मानसिक स्वतंत्रता प्राप्त करते ही मनुष्य का संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है । मानसिक स्वच्छंदता के बिना मनुष्य प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता ।

कल्पना कीजिए कि आपको बात-बात पर अन्य व्यक्तियों के इशारों पर नर्तन करना पडता है, जहाँ आप तनिक सी मौलिकता प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं कि आपको तीखी डाँट पडती हैं । ऐसी स्थिति में मन परिपक्व नहीं होता । उसकी समस्त मौलिकता नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है । वह मन मनुष्य का शत्रु तथा उन्नति में बाधक बन जाता है ।

मानसिक परिपुष्टि का मुख्य साधन है-शिक्षा । जिस मस्तिष्क को शिक्षा नहीं मिलती वह थोड़ा-बहुत अनुभव से बढ़कर रुक जाता है । शिक्षा ऐसी हो जिससे मन की सभी शक्तियों-तर्क शक्ति तुलना शक्ति स्मरण शक्ति, लेखन शक्ति कल्पना शक्ति का थोड़ा-बहुत विकास हो सके । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हम अपनी इच्छानुसार इन सभी शक्तियों को बढ़ा सकते हैं । आवश्यकता है केवल ठीक प्रकार की शिक्षा की । शिक्षा ऐसी मिले कि मनुष्य का विकास उत्तरोत्तर होता रहे, वह रूढ़ियों का गुलाम न बन जाए अन्यथा मानसिक दासता का फल भयंकर होगा ।

दूसरा साधन है अनुकूल संगति तथा परिस्थितियाँ । जिन परिस्थितियों में मनुष्य निवास करता है प्राय: वे ही मानसिक शक्तियाँ उसमें जाग्रत होती हैं । जिस मनुष्य के परिवार में कवि अधिक मात्रा में होते हैं, वह प्राय: कवि होता है । हर पत्तों में निवास करने वाला कीड़ा हरित वर्ण का ही हो जाता है । अत: पुस्तकों की संगत में रहिए विद्वानों से तर्क कीजिए शंकाओं का समाधान कीजिए ।

तीसरा साधन है, उपयुक्त मानसिक व्यायाम । जिस प्रकार नियमित व्यायाम से हमारा शरीर विकसित होता है, उसी प्रकार मानसिक व्यायाम (अभ्यास) द्वारा मन में भिन्न-भिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है । एकाग्रता का अभ्यास अपूर्व शक्ति प्रदान करता है । खेद है कि अनेक व्यक्ति निज जीवन में एकाग्रता को वह महत्त्व प्रदान नहीं करते जो वास्तव में उन्हें करना चाहिए । एकाग्रता से काय शक्ति बहुत बढ जाती है । यदि दृढ़ एकाग्रता रखने वाले व्यक्ति से तुम्हारा साक्षात्कार हो तो तुम्हें अनुभव होगा कि वह पर्वत सदृश अचल होकर कार्य करता है । तुम उसे छेड़ो चाहे कुछ करो किंतु वह विचलित न हो सकेगा । इसी का नाम दृढ़ एकाग्रता है । इसी से मन वश में आ सकता है । मन अभ्यास का दास है । जैसे-जैसे आपका अभ्यास बढ़ेगा, वैसे-वैसे एकाग्रता की वृद्धि होगी । चौथा साधन है- अंतर्दृष्टि । तुम समाज की रूढ़ियों तथा बिरादरी के गुलाम न बनो । धर्म की रूढ़ि और धर्माचार्यों की लकीरों से पस्त हिम्मत न हो जाओ वरन अपनी मौलिकता की वृद्धि करो । न कोई मुल्ला, न कोई पंडित और न राज्य का फैलाया हुआ कुसंस्कारों का जाल, तुम्हें दैवी उच्च भूमिका से हटा सकता है । यदि तुम मन की उच्च भूमिका में निवास करते रहोगे, तो तुम मैं यथार्थ बल प्रकट होगा ।

विश्व में सबसे अधिक महान कार्य मन की शक्तियों को बढ़ाना है । तुम्हारा आभ्यंतर प्रदेश अनंत और अपार है । अभ्यास तथा मनन द्वारा तुम अपनी नैसर्गिक शक्ति को प्राप्त कर सकते हो ।

स्मरण रहे, तुम्हें अपना विकास करना है । अल्पज्ञ, निसत्व नहीं बने रहना है । तुम्हें उचित है कि निज सामर्थ्यों में विश्वास एवं श्रद्धा रखना सीखो । सदा-सर्वदा आंतरिक मन की भावनाओं के प्रति लक्ष्य दिए रहो । यह मत सोचो कि हमें तो इतना ही विकसित होना है, वरन यह सोचो कि अब अभिवृद्धि का वास्तविक समय आया है । अपनी विशालता, अतुल सामर्थ्य का चिंतन करो । मानसिक दासता से छुटकारा पाओ और विवेक से काम लेकर संसार में विजयी योद्धा की तरह जीवन व्यतीत करो ।
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