विवेक की कसौटी

शास्त्रों का आदेश और विवेक

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अनेक व्यक्ति प्रत्येक बात में शास्त्र का नाम ले देना ही बहुत बड़ी बात समझ बैठे हैं । कोई भी छोटी या बड़ी बात क्यों न हो वे उसके लिए शास्त्र को प्रमाण खोजते रहते हैं । यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय नहीं है । न तो आजकल की प्रत्येक बात का प्रमाण शास्त्रों में मिल सकता है और न वह उपयोगी हो सकता है । हमारे अधिकांश काम तो विवेक द्वारा निर्णय किए जाने से ही चल सकते हैं ।

सिद्धांतों का परीक्षण करना आवश्यक है क्योंकि परस्पर विरोधी सिद्धांतों का सर्वत्र अस्तित्व प्राप्त होता है । एक ओर जहाँ हिंसा को बलिदान या कुरबानी को धर्मों में समर्थन प्राप्त है, वहाँ ऐसे भी धर्म हैं जो जीवों की हत्या तो दूर उन्हें कष्ट पहुँचाना भी पाप समझते हैं । इसी प्रकार ईश्वर परलोक पुनर्जन्म, अहिंसा, पवित्र पुस्तक अवतार, पूजाविधि कर्मकांड देवता आदि विषयों के मतभेदों से धार्मिक क्षेत्र पटे पड़े हैं । सामाजिक क्षेत्र में वर्णभेद स्त्री अधिकार, शिक्षा रोटी, बेटी आदि प्रश्नों के संबंध में परस्पर विरोधी विचारों की प्रबलता है । राजनीति में प्रजातंत्र, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, अधिनायकवाद समाजवाद आदि अनेक प्रकार की परस्पर विरोधी विचारधाराएँ काम कर रही हैं । उपरोक्त सभी प्रकार की विचारधाराएँ आपस में खूब टकराती भी हैं । उनके समर्थक और विरोधी व्यक्तियों की संख्या भी कम नहीं है ।

जब सिद्धांतों में इस प्रकार के घोर मतभेद विद्यमान हैं तो एक निष्पक्ष जिज्ञासु के लिए सत्यशोधक के लिए उनका परीक्षण आवश्यक है । जब तक यह परख न लिया जाए कि किस पक्ष की बात सही है किसकी गलत ? किसका कथन उचित है किसका अनुचित ? तब तक सत्य के समीप तक नहीं पहुँचा जा सकता । यदि परीक्षा और समीक्षा को आधार न बनाया जाए तो किसी प्रकार उपयोगी और अनुपयोगी की परख नहीं हो सकती ।

'महाजनो येन गतो स पन्था' के अनुसार महाजनों का बड़े आदमियों का अनुसरण करने की प्रणाली प्रचलित है । साधारणत: लोग सैद्धांतिक बातों के संबंध में अधिक माथा-पच्ची करना पसंद नहीं करते । दूसरे की नकल करना सुगम पडता है, निकटवर्ती बड़े आदमी जो कह दें उसे मान लेने में दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता अधिकांश जनता की मनोवृत्ति ऐसी ही होती हैं, परंतु इस प्रणाली से सत्य-असत्य की समस्या सुलझती नहीं क्योंकि जिन्हें हम महापुरुष-महाजन समझते हैं, संभव है वे भ्रांत रहे हों और दूसरे लोग जिन्हें महापुरुष समझते हैं संभव है उन्हीं की बात ठीक हो । जबकि अनेक व्यक्ति एक प्रकार के विचार वाले महाजन की बात ठीक मानते हैं और उसी प्रकार अनेक व्यक्ति दूसरें 'महाजन' की बातों को महत्त्व देते हैं और दूसरे प्रकार के विचारों को मान्यता देते हैं, तब यह निर्णय कठिन हो जाता है कि इन दोनों के कथनों में किसका कथन उचित है और किसका अनुचित महापुरुष दो प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करते हें- (१) लेखनी द्वारा (२) वाणी द्वारा । वाणी द्वारा प्रकट किए हुए विचार क्षणस्थायी होते हैं इसलिए उन्हें चिरस्थायी करने के लिए लेखनीबद्ध किया जाता है । विचारों के व्यवस्थित रूप को लेखन-बही ग्रंथ या पुस्तक कहते हैं । जिन ग्रंथों में धार्मिक या आध्यात्मिक विचार लिपिबद्ध होते हैं, उन्हें शास्त्र कहते हैं । शास्त्रों को लोग एक् स्वतंत्र सत्ता का रूप देने लगे हैं । जैसे देवता की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता समझी जाती है, वैसे ही शास्त्र भी स्वतंत्र सत्ता बनने लगे हैं । परंतु बात ऐसी नहीं है । वे महाजनों के विचार ही तो हैं । जैसे 'महाजन' भ्रांत हो सकते हैं, होते हैं, वैसे ही शास्त्र भी हो सकते हैं । एक शास्त्र द्वारा दूसरे शास्त्र के अभिमत का खंडन करना यही प्रकट करता है किएक समान श्रेणी के 'महाजनों' में प्राचीनकाल में भी इसी प्रकार मतभेद रहता था जैसा कि आजकल अनेक समस्याओं के संबंध में हमारे नेता आपसी मतभेद रखते हैं ।

आज नेताओं के मतभेद में से छानकर हम वही बात ग्रहण करते हैं जो हमारी बुद्धि को अधिक उचित और आवश्यक जँचती है । किसी नेता के मत से सम्मति न रखते हुए भी उसके प्रति आदर भाव रहता है । इसी प्रकार स्वर्गीय महाजनों महापुरुषों की लेखबद्ध विचार प्रणाली के संबंध में भी होना चाहिए । शास्त्र का अंधानुकरण नहीं होना चाहिए वरन उनके प्रकाश में सत्य को खोजना चाहिए । अंधानुकरण किया भी नहीं जा सकता । क्योंकि कभी-कभी एक ही शास्त्र में दो विरोधी आदर्श मिलते हैं । हमारे शास्त्रों में जीवित प्राणियों को मारकर अग्नि में होम देने का भी विधान है और जीवात्मा पर दया करने का भी । दोनों ही आदेश पवित्र धर्मग्रंथों में मौजूद हैं । वे शास्त्र हमारे परम आदरणीय और मान्य हैं तो भी इनके आदेशों में से हम वही बात आचरण में लाते हैं जो बुद्धिसंगत उचित और समयानुकूल दिखाई पड़ती है ।

हिंदू धर्म किसी व्यक्ति या उसके लेखबद्ध विचारों को अत्यधिक महत्त्व नहीं देता । चाहे वह व्यक्ति कितना ही बड़ा महापुरुष ऋषि महात्मा या ईश्वर ही क्यों न रहा हो! हिंदू धर्म में सिद्धांतों की समीक्षा और उसके बुद्धिसंगत अंश को ही ग्रहण करने की परिपाटी का समर्थन किया गया है । किसी बड़े से बड़े व्यक्ति या ग्रंथ से मतभेद रखने और उसके मंतव्यों को स्वीकार करने, न करने की उसमें पूर्ण सुविधा है । हाँ किसी की महानता को कम करने की आज्ञा नहीं है । महापुरुषों और पवित्र ग्रंथों का समुचित आदर करते हुए भी उनकी सम्मति में से बुद्धिसंगत अंश को ही ग्रहण करने का आदेश है । इसी आदेश के आधार पर प्राचीन समय में सच्चे जिज्ञासुओं ने सत्य की शोध की है और अब भी वही मार्ग अपनाना होता है ।

हिंदू धर्म में भगवान बुद्ध को ईश्वर का अवतार माना गया है । दस अवतारों में उनकी गणना है । इससे अधिक ऊँचा आदर, श्रद्धा महत्त्व और क्या हो सकता है ? भगवान बुद्ध भी हिंदुओं के लिए वैसे ही पूज्य हैं जैसे अन्य अवतार । उनके महान व्यक्तित्व, त्याग; तप, संयम, ज्ञान एवं साधन के आगे सहज ही हर व्यक्ति का मस्तक नत हो जाता है । उनके चरणों पर हृदय के अंतःस्थल से निकली हुई गहरी श्रद्धा के फूल चढ़ाकर हम लोग अपने को धन्य मानते हैं । इतने पर भी भगवान बुद्ध के विचारों का हिंदू धर्म में प्रबल विरोध है । श्री शंकराचार्य ने उनके मत का खंडन करने का प्राणपण से प्रयत्न किया है । बौद्ध विचारों को उनके संप्रदाय को स्वीकार करने के लिए कोई हिंदू तैयार नहीं है, तो भी उनके व्यक्तित्व में भगवान का दर्शन करता है ।

बात यह है कि व्यक्तित्व और सिद्धांत दो भिन्न वस्तुएँ हैं । कोई सिद्धांत इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि उसे अमुक महापुरुष ने या अमुक ग्रंथ ने प्रकाशित किया है । इसी प्रकार किसी मृणित व्यक्ति द्वारा कहे जाने या प्रतिपादन किए जाने से कोई सिद्धांत अमान्य नहीं ठहरता । यदि कोई चोर यह कहे कि 'सत्य बोलना उचित है ।'' तो उसे इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह बात चोर ने कही है । चोर का घृणित व्यक्तित्व भिन्न बात है और 'सत्य बोलने ' का सिद्धांत अलग चीज है । दोनों को मिला देने से तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा । चूँकि चोर ने सत्य बोलने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है इसलिए यह सिद्धांत अमान्य नहीं ठहराया जा सकता । इसी प्रकार कोई बड़ा महात्मा किसी अनुपयोगी बात का उपदेश करे तो उसे मान्य भी नहीं ठहराया जा सकता । कई अघोरी साधु अभक्ष्य भक्षण करते हैं । यद्यपि उनकी तपश्चर्या ऊँची होती है तो भी उनके आचरण का कोई अनुकरण नहीं करता । निश्चय ही व्यक्तित्व अलग चीज है और सिद्धांत अलग चीज है । महात्मा कार्लमार्क्स, ऐंजिल, लेनिन आदि का चरित्र बड़ा ऊँचा था, वे अपने विषय के उत्कट विद्वान भी थे । उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के लिए दुनिया सिर नवाती है, पर उनका अनीश्वरवादी मत मान्य नहीं किया जाता ।

प्राचीन समय में आज की भांति ही परस्पर विरोधी मत प्रचलित थे । जैसे आज अनेकानेक विचारधाराओं के मतभेदों पर बारीक दृष्टि डालकर उनमें से उपयोगी तत्त्व ग्रहण करने को विवश होना पड़ता है, वही बात प्राचीन समय के संबंध में लागू होती है । आधुनिक महापुरुषों के विचारों से जीवन-निर्माण कार्य में हमें मदद मिलती है, उसी प्रकार प्राचीनकाल में स्वर्गीय महापुरुषों के लेखबद्ध विचारों से- धर्मग्रंथों से लाभ उठाना चाहिए । परंतु अंधभक्त किसी का भी नहीं होना चाहिए । यह हो सकता है कि प्राचीनकाल की और आज की स्थिति में अंतर पड गया हो जिससे सबके सब विचार आज के लिए उपयोगी न रहे हों, यह भी हो सकता है कि उन्होंने किसी बात को अन्य दृष्टिकोण से देखा हो और आज उसे किसी अन्य दृष्टि से देखा जा रहा हो । एक समय समझा जाता था कि चातक स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है, पर अब प्राणिशास्त्र के अन्वेषकों ने देखा है कि चातक रोज पानी पिता है । हंसों को मोती चुगना है या दूध-पानी को अलग कर देना भी अब अविश्वस्त ठहरा दिया गया है । इसी प्रकार अन्य अनेक बातों में भी प्राचीनकाल के सिद्धांतों में हमें परीक्षक बुद्धि से कोई मत निर्धारित करना पड़ता है । आधुनिक या प्राचीन होने से ही कोई सिद्धांत मान्य या अमान्य नहीं ठहरता । शास्त्रकारों का भी यही मत है-''बालक के भी युक्तियुक्त वचनों को मान लें, परंतु यदि युक्ति विरुद्ध हो तो ब्रह्मा की बात को तृण के समान त्याग दें ।''
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