वशीकरण की सच्ची सिद्धि

प्रियजन का वशीकरण

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बाहर के लोगों का राग-द्वेष इतना महत्त्व नहीं रखता, जितना परिवार का। बाहर के विरोधी को परास्त करने के लिए अनेक प्रकार के मार्ग ढूंढ़े जाते हैं, किंतु परिवार के सदस्य की बात दूसरी है। यदि पुत्र नाराज हो जाए, तो उससे वैसा व्यवहार नहीं किया जाएगा जैसा कि पड़ोसी से किया है। इस देश में सम्मिलित परिवार में रहने की प्रथा होने के कारण प्रायः कई व्यक्ति अपने स्त्री-बच्चों सहित एक साथ रहते हैं। इस पूरे परिवार का एक व्यक्ति प्रमुख संचालक होता है। साधारणतः इस संचालक के हाथ में परिवार की शांति-सुव्यवस्था होती है। यदि वह चाहे तो सबको प्रसन्न रख सकता है। सम्मिलित परिवारों में आर्थिक भेदभाव के कारण अक्सर मनमुटाव पैदा होते देखा जाता है। भोजन, वस्त्र तथा अन्य खर्चों में भेदभाव या पक्षपात का व्यवहार करने से असंतोष के अंकुर उत्पन्न होते हैं। योग्यता, अवस्था, स्थिति के अनुसार घर के लोगों से अलग-अलग व्यवहार होता है, पर उसमें न्याय बुद्धि होनी चाहिए, पक्षपात नहीं। सम्मिलित परिवार तभी तक चल सकते हैं, जब तक कि कपट भाव का समावेश नहीं होता, इसलिए गृहपति की यदि यह इच्छा है कि मेरा परिवार अलग-अलग न हो और मैं सबको वश में किए रहूं, तो उसे बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ अपने कार्यों का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि कहीं इसमें ऐसा प्रसंग तो उपस्थित नहीं हो रहा है, जिसमें किसी को उंगली उठाने का अवसर मिले, यदि गृहसंचालक अज्ञानवश ऐसा कर रहा हो, तो उसे सचेत हो जाना या कर देना चाहिए। यदि घर के किन्हीं लोगों में झगड़ा चल रहा हो, तो उसे प्रेमपूर्वक सुलझा देना चाहिए। झगड़े की जड़ आरंभ में ही काट देनी सुगम होती है, पर आगे जब उसकी बेल बहुत बढ़ जाती है, तो संभालना कठिन होता है।

वाद-विवाद और पैसे के लेन-देन में बड़ी साफ प्रवृत्ति की आवश्यकता है। यदि छोटे दिल के लोग राजनैतिक, धार्मिक या अन्य विषयों को भी अपनी क्षुद्रता के कारण व्यक्तिगत रूप में ले आते हैं। किसी दूर के विषय पर बातचीत करते, ताश, शतरंज खेलते या मामूली हंसी-मजाक करते-करते लोग लड़ने-मरने लगते हैं, इसका कारण ‘‘तंग दिली’’ है। वे खेल, मजाक या वाद-विवाद के विषय की हार-जीत को अपनी हार मान लेते हैं, बस उनका पारा गरम हो जाता है। यदि किसी विषय पर वाद-विवाद करना हो, तो देख लेना चाहिए कि इसका तंग दिल तो नहीं है। उसकी हार्दिक विशालता पर संदेह हो, तो विवाह से पूर्व ही तय कर लेना चाहिए कि इसका परिणाम लड़ाई तो न होगी? फिर भी जहां तक हो, किसी भी प्रकार की प्रतियोगिता का कम से कम अवसर आने देना चाहिए, क्योंकि हार-जीत झूंठी ही क्यों न हो, उनका प्रभाव हुए बिना रहता नहीं। पैसे का लेन-देन भी इसी प्रकार का है। हर आदमी को लेना अच्छा और देना बुरा लगता है। छोटे दिल के लोग देने की इच्छा नहीं करते, उनके पास हो तो भी नहीं देना चाहते। इसलिए जब तक दिल खुले न हों, पैसे का देन-लेन आपस में न बढ़ावें, क्योंकि यह मित्रता को भंग कर सकता है।

छोटे बच्चे बिलकुल अज्ञानी ही हों, ऐसी बात नहीं। अभी यह क्या समझता है, ऐसा समझकर बालकों के साथ हीनता का व्यवहार करना वैसा ही बुरा है जैसा बड़े आदमियों के साथ दुर्व्यवहार करना। बालकों की बाह्य बुद्धि भले ही अविकसित हो, पर उनकी अंतरात्मा सदैव चैतन्य है। आपकी भावना का उस पर अवश्य ही प्रभाव होगा। वास्तविक और बनावटी प्रेम को बालक तुरंत ताड़ जाते हैं। यदि किसी बच्चे के साथ छोटेपन में हीनता का बर्ताव किया जाए, तो वह बड़ा होने पर उस मनुष्य से कदापि प्रेम न करेगा। उसका आंतरिक मस्तिष्क अप्रिय व्यवहार की ठोकरें खाकर ऐसा हो जावेगा कि उससे फिर किसी प्रकार मिल न सकेगा। जिन बालकों को बड़ा होने पर अपना स्नेही बनाना चाहें, उनसे उनके बचपन में उचित और प्रेमपूर्ण व्यवहार कीजिए। बिना इसके बड़ी आयु में उन्हें अपना प्रिय पात्र नहीं बनाया जा सकता। मार-पीट, डाट-फटकार करना, मूर्ख बताना या उन्हें तिरस्कृत लांछित करना बहुत ही बुरा है, इसका प्रभाव यह होता है कि आगे चलकर वे बालक उद्दंड और अवज्ञा करने वाले बन जाते हैं।

दस-बारह वर्ष के बच्चे का स्वाभिमान अधिक जाग्रत हो जाता है, उनका वैसा ही आदर करना चाहिए जैसा बड़ी आयु के मनुष्यों का किया जाता है। बेशक उनका ज्ञान बड़ी आयु के व्यक्तियों की अपेक्षा कुछ कम होता है, पर इसी से वे नीची दृष्टि से नहीं देखे जाने चाहिए। कितने ही बड़ी आयु के मनुष्य ऐसे हो सकते हैं, जो अनेक बातों में इन बालकों से भी कम ज्ञान रखते हों, पर क्या उन्हें अपमानित किया जाता है? छोटा होना ही यदि तिरस्कार की बात होती, तो राजा बड़ा होने के कारण हम सबको अपमानित करता और ईश्वर राजा से भी अपनी जूती उठवाता। यह बड़ी अनुचित बात है कि किशोर बालकों को शारीरिक दंड दिया जाए या उनसे अपशब्द कहे जाएं। यदि आप प्रेम और समझदारी से किसी को वश में नहीं कर सकते तो, विश्वास रखिए कि मार-पीट करके भी किसी को काबू में नहीं रख सकते। नित्य ऐसी घटनाएं हमारे सुनने में आती हैं कि अमुक का लड़का घर छोड़कर भाग गया और उसकी जोरों से तलाश हो रही है। असल में घर छोड़कर भागना बाल बुद्धि के अनुसार एक प्रकार की आत्महत्या है, जिसे हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ बालक ही करते हैं। कुछ बहकावे में आए हुए या मटरगश्त लड़कों को छोड़कर अधिकांश भगोड़े बालक ऐसे ही होते हैं, जो घर वालों के दुर्व्यवहार के कारण भागते हैं। कभी-कभी बालकों के मन में भ्रमण आदि की उत्कट इच्छाएं उठती हैं, उन्हें मसलना न चाहिए, वरन् यथाशक्ति उनका कुछ अंश पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। बीस-बाईस वर्ष से अधिक उम्र के लड़के जो पढ़ नहीं रहे हैं, वरन् उद्योग कर रहे हैं, वे घरेलू कार्य से हाथ खर्च के लिए कुछ नहीं पाते, तो बाहर नौकरी करने के लिए भागते हैं, ताकि घर वाले उनसे कुछ कहा-सुनी न करें। ऐसे लड़कों की वृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह है कि वे अपनी उपार्जन शक्ति का फल स्वतंत्र रूप से देखना चाहते हैं। उन्हें यदि सम्मिलित रखना है, तो उनकी आमदनी-खर्च का हिसाब उनके सामने रखना चाहिए और नफा-नुकसान की जिम्मेदारी हिस्सेदार की तरह उन पर भी डालनी चाहिए। कोरा कागजी जमा खर्च नहीं। कभी-कभी उनके हाथ में पैसा आना भी चाहिए। यदि ऐसी सुविधा न हो तो द्वेष भाव से नहीं, वरन् प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अलग कोई रोजगार करने की स्वीकृति देनी चाहिए। विदेशों में वयस्क लड़कों को उनके संरक्षक आर्थिक दृष्टि से प्रायः पूरा स्वतंत्र कर देते हैं। माता-पिता उन्हें नौकरी पर लगाने या कारोबार चलाने में पूरी-पूरी मदद करते हैं और लड़कों को स्वावलंबी देखकर अपनी तौहीन नहीं, बल्कि इज्जत अनुभव करते हैं। जवान लड़कों को आर्थिक स्वाधीनता देने से ‘बना घर बिगड़ता’ नहीं, वरन् बिगड़ा घर बन जाता है। व्यवहार की उत्तमता प्रियजनों के लिए बहुत ही बढ़िया वशीकरण प्रमाणित होती है।

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