व्यक्तित्व निर्माण युवा शिविर - 2

नारी जागरण क्यों और कैसे

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नारी क्या है ?


विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:, स्त्रिया: समस्ता: सकला जगत्सु।

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुति: स्तव्यपरापरोक्ति:॥    - दुर्गा सप्तशती


अर्थात्:- हे देवी! समस्त संसार की सब विद्याएं तुम्हीं से निकली है तथा सब स्त्रियां तुम्हारा ही स्वरुप है। समस्त विश्व एम तुमसे ही पूरित है। अत: तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए।

नास्ति वेदापरं शास्त्रं, नास्ति मातु: समो गुरु:।  - अभिस्मृति

अर्थात्:- वेद से बड़ा कोई शास्त्र नहीं है और माता के समान कोई गुरु नहीं।

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में।

पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥

- सुभद्रा कुमारी चौहान


1. वस्तुत: नारी देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा है- वह दया करुणा, सेवा सहयोग, ममता, वात्सल्य, प्रेम और संवेदना की जीती जागती तस्वीर होती है। अपने परिवार व आसपास के परिवार में उसकी जीवनचर्या में अपनाए जाने वाले क्रम को देखकर सहज ही इस बात को अनुभव किया जा सकता है। पुरुष में साहस, पराक्रम, बल, शौर्य आदि गुण प्रधान होता है परन्तु नारी संवेदना प्रधान होती है। वह ईश्वर की अनुपम कृति है, रचना है जो संसार में प्रेम दिव्यता, संवेदना, ममता, करुणा का संचार करती है। वह मातृत्व व वात्सल्य की विलक्षण विभूति है जो ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है।

उदा. :- वंदनीया माता भगवती शर्मा, माता कस्तूरबा, सिस्टर निवेदिता, माँ शारदामणी, मदर टेरेसा आदि की संवेदना और मातृत्व ने जगत को जीवन दिया।


2. नारी की मूल प्रवृत्ति आध्यात्मिक होती है- उसमें आत्मिक शक्तियों की बहुलता के कारण वह दिव्य शक्ति की अधिक अधिकारिणी बनी है। शास्त्रों में कहा है- दस उपाध्यायों से एक आचार्य श्रेष्ठ है, 100 आचार्यों से एक पिता श्रेष्ठ है, 1000 पिताओं से एक माता उत्तम है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।’


3. नारी शक्ति है, सृजेता है, निर्मात्री है- वह अपनी सन्तान, अपने पति व परिवार का निर्माण करती है। उदा.- आदर्श माता के रूप मेें मदालसा, जीजाबाई, अनुसूइया, शकुन्तला, सीता आदि का नाम जगत प्रसिद्ध है। पति का निर्माण एवं उन्हें धर्माचरण हेतु उपदेश देने वाली पति के लिए गुरु की भूमिका निभाने वाली- रत्नावली, विद्योत्तमा, मन्दोदरी आदि हैं।


4. नारी का संस्कार व संस्कृति कह संवाहिका है- नारी के द्वारा ही संस्कृति जीवन्त रहती है उसी के द्वारा अगली पीढ़ी संचारित होती है।


5. वैदिक युग में ब्रह्मवादिनी व सद्योवधु- वैदिक युग में पारी के दो रुप प्रचलित थे। दोनों अत्यन्त गौरवशाली थे।

1. ब्रह्मवादिनी- यज्ञ करना कराना, वेदपाठ करना, वैदिक ऋचाओं का संघान, निर्माण करने वाली ऋषिकाएं आदि कार्य करती थी। गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोषा, विश्ववारा, यमी, शची, कात्यायनी आदि।

2. सद्योवधू- श्रेष्ठ संस्कारवान गृहणी, साध्वी स्वभाव, परिवार को अपने संस्कार व सद् गुण से सींचकर स्वर्गोपम बनाने वाली, बालकों को संस्कारवान बनाकर राष्ट्र के लिए संस्कारवान, चरित्रवान नागरिक गढऩे वाली महिला सद्योवधू कहलाती थी।

वर्तमान मे नारी का गौरव- नारी रत्न के उदा. जो आज नारियों के लिए रोल मॉडल होने चाहिए।

1.    सामाजिक क्षेत्र में- पं. रमाबाई, मीराबेन, उषा मेहता, तोरूदत्त

2.     शिक्षा के क्षेत्र में (विज्ञान तकनीकी)- कल्पना चावला, एनीबीसेंट, मैडम क्यूरी।

3.     राजनीति के क्षेत्र में- सरोजनी नायडु, श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित, श्रीमती इन्दिरा गांधी, भण्डार नायके।

4.    सेवा के क्षेत्र में- सिस्टर निवेदिता, माता कस्तूरबा, अवन्तिका बाई गोखले, प्रभादेवी , मदर टेरेसा, किरण बेदी, मेधा पाटकर।

5.    राष्ट्रभक्त नारी- रानी लक्ष्मी बाई, रानी भीमा बाई, रानी दुर्गावती, पन्नाधाय।

‘नारी जागरण’ का अर्थ

1.    नारी अपनी पुरातन गौरवशाली अतीत को जाने। अपनी शक्ति को पहचाने। अपनी क्षमता व दिव्यता को पहचानकर उसे पाने व बढ़ाने हेतु प्रयासरत हो एवं उसमें पुन: प्रतिठित हो।

2.    नारी के स्वयं परिष्कार व निर्माण हो, उसका उसे तो मिले ही उसकी क्षमताओं से पावन संवेदना से परिवार, समाज और राष्ट्र लाभान्वित हो।

3.    नारी जागरण के चार आधार- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन और संस्कार। नारी शिक्षित हो साथ ही संस्कारवान हो। स्वथ्य हो तथा स्वावलम्बी हो। इसके साथ वह दूसरों को भी शिक्षित, स्वथ्य और स्वावलम्बी बनाने हेतु सक्षम बनें।

‘‘प्रबुद्ध नारियां आगे आएं, सृजन सैन्य का शंख बजाएं।’’

नारी जागरण की आवश्यकता क्यों है?

1. विश्व  की आधी जनसंख्या नारी है। आधी जनसंख्या व बच्चे नारी के ही साथ है। यदि उनकी स्थिति गई गुजरी रही, तो समाज अपंग जैसी स्थिति में रह जाएगा। समाज को अपंगता की स्थिति से बचाने हेतु नारी जागरण आवश्यक है।

2. नर रत्न की आवश्यकता- नवयुग के अवतरण में विश्व में नवरत्नों का उत्पादन समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह कार्य नारी का ही है। माता अपने शरीर से शिशु का निर्माण तथा गर्भस्थ शिशु में प्रसुप्त चेेतना को जागृत विकसित करने का कार्य स्वयं के चिन्तन तथा संस्कारों से करती रहती है। प्रसवोपरान्त अपने सूक्ष्म संस्कारों से ओतप्रोत दुग्ध रूपी रसायन से बालक के चिन्तन एवं दृष्टि कोण को भी बनाती जाती है। मदालसा ने ब्रह्मज्ञानी संतान व जीजीबाई ने वीर शिवाजी जैसे नररत्न बनाया तो दूसरी ओर नेपोलियन बोनापार्ट की माता का प्रभाव उसे क्रूर, दुस्साहसी व घोर अत्याचारी बनाया।

    आज यमय की मांग है कि पुन: भारत में नानक, सूर, कबीर, राजगुरु, गांधी, तिलक, सुभाष, विवेकानन्द पैदा हो। उसके लिए नासरी अपनी उस भूमिका को समझे और विश्व को जगद् गुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने, भारतमाता के गौरव को वापस लाने हेतु जागे, कमर कसकर आगे आए। यह कार्य जागृत नारी द्वारा  ही सम्भव है जिनके सहारे उत्कृष्ट नई पीढ़ी की खेती हो सकती है व मनुष्यों के नस्ल को सुधारा जा सकता है।

3. परिवार निर्माण हेतु- व्यक्ति और समाज के बीज की कड़ी है ‘परिवार’, और परिवार की धूरी है- ‘नारी’। परिवार मनुष्य के लिए प्रथम पाठशाला है। शिल्पकला, कौशल, भौतिक शिक्षाएं सरकारी या अन्य व्यवसायिक व शैक्षणिक संस्थानों में दी जा सकती है। लेकिन जिस संस्कार संजीवनी रूपी अमृत का शैशवावस्था से ही जिस प्रयोगशाला में पान कराया जाता है, जहां आत्मीयता एवं सहकार, सद् भाव के इंजेक्शन, टेबल से पाशविकता का उपचार किया जाता है वह परिवार ही है। उस परिवार के वातावरण को वातावरण को स्वर्ग के समान या नरक के समान बनाना बहुत हद तक परिवार की नारी के हाथ में होता है। वह चाहे तो अपने परिवार की फुलवारी में झांसी की रानी, मदर टेरेसा, दुर्गावती, स्टिर निवेदिता, गांधी, गौतम बुद्ध और तिलक, सुभाष बना सकती है या चाहे तो आलस्य प्रमाद में पड़ी रहकर भोगवादी संस्कृति और विलासी जीवन के पक्षधर बनकर, दिन भर टी.वी. देखना, गप्प करने, निरर्थक प्रयोजनों में अपनी क्षमता व समय को नष्ट कर बच्चों को कुसंस्कारी वातावरण की भट्टी में डालकर परिवार और समाज के लिए भारमूल सन्तान बना सकती है।

    आज आवश्यकता है कि परिवार पुन: बालकों के नवनिर्माण का केन्द्र बने उसे नारी शक्ति का, माता का अनुदान मिले। ऋषि कहते हैं ‘पृथिव्या माता गरीयसी’ माता पृथ्वी से भी बड़ी है। सन्त, शहीद, सूर का निर्माण हो। इसकी कुञ्जी नारी के हाथ में हो। यह कार्य सुसंस्कृत नारी ही अपने स्नेह, सौजन्य, सहकार, सद् व्यवहार की पूञ्जी से कर सकती है। गृहस्थ एक योग है, गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमे संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।

4. समाज निर्माण में नारी के योगदान के बिना सफलता सम्भव नहीं- परन्तु उसकी प्रतिभा का लाभ, उसके सहयोग का अनुदान, उसके समर्थ व सुसंस्कृत होने पर मिल सकता है। विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समृद्ध समुन्नत बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के संवर्धन में कितना बड़ा योगदान दे सकती है, इसे उन विकसित देशों के उदाहरण में देखा जा सकता है जहां उन्हें आगे बढ़ाया गया, उन्हें अधिकार दिए गये। भारत में भी सुभद्राकुमारी चौहान, श्रीमती एनीबीसेंट, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, प्रभादेवी, भीका जी कामा, सिस्टर निवेदिता का नाम उन देवियों में से है, जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व की आहुतियां दी।

    इन्हीं कारणों से प. पूज्य गुरुदेव व वन्दनीया माता जी ने नारी जागरण पर शंखनाद करते हुए ‘एक्कीसवीं सदी नारी सदी’ का उद् घोष किया। परन्तु यह गौरव नारी तभी प्राप्त कर सकेगी जब अपने दायित्व को समझकर अपने में वांछित  परिवर्तन करेगी।

नारी जागरण हेतु क्या करें? (वर्तमान में प्रचलित नकारात्मक ढर्रे का हवाला देते हुए सकारात्मक पक्षों को रखें व प्रेरणा दें)

नारी स्वयं आगे बढ़े- महिला जागरण के सम्बन्ध में बहुत सी योजनाएं है उन्हें पूरा करने के लिए समाज से बहुत से अंगों को अपनी भूमिका निभानी है, परन्तु सबसे प्रधान भूमिका नारी की ही होगी। इस दिशा में आगे बढऩे से नारी को उसकी झिझक रोकती है क्योंकि लम्बे समय से उसकी सोच पुरानी ढर्रे पर ही सोचने की है। उसे भ्रम और झिझक को निकाल फेंकना होगा। विश्वास होना चाहिए कि कत्र्तव्य की मांग के अनुसार अपने आप को ढाल लेने की अद् भुत क्षमता नारी को जन्म से ही प्राप्त है। इसके लिए प्रथम उसे स्वयं में परिवर्तन लाने हेतु तत्पर होना होगा।

1. स्वयं सुशिक्षित संस्कारवान बने। केवल शिक्षा नहीं विद्या, जीवन विद्या सीखें।

2. स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के तहत उसे मोटी बातों की कम से कम जानकारी हो कि जीभ चटोरापन, वासनात्मक असंयम, अनियमित तथा अस्तव्यस्त दिनचर्या और दिमागी तनाव जैसे कारण ही स्वास्थ्य की बर्बादी के प्रमुख कारण हैं। आलस्य, प्रमाद, अस्वच्छता से बचा जाए एवं आहार विहार में सतर्कता बरती जाए तो स्वास्थ्य रक्षण कर सकना सम्भव हो जाएगा।

3. वस्त्र आभूषण, सौन्दर्य शृंगार, शिक्षा, सम्मान, विनोद आदि में सबसे अधिक महत्व शिक्षा को दें। विद्या से बढक़र और कोई  सम्पत्ति नहीं है। प्राय: महिलाओं का ध्यान वस्त्र आभूषण, नाते रिश्ते में ही अधिक व्यस्त रहते हैं।

4. फैशन परस्ती तथा कथित आधुनिकता के भोंडापन से बचें। सौन्दर्य प्रसाधन तो आधुनिक अन्धविश्वास है। सारा का सारा सौन्दर्य प्रसाधनों का संसार क्रूरता पर टिका हुआ है। न जाने इसके लिए कितने ही निरीह प्राणियों का वध किया जाता है। यदि यह छूत का रोग धोखे से लग गया हो तो दृढ़तापूर्वक इसे व्यक्तित्व का ओछापन मान कर त्यागने का संकल्प साहस जगाएं। आभूषणों का मोह त्यागें, सादगी अपनाएं। वन्दनीया माताजी  के अनुसार ‘‘नारी शृंगारिकता नहीं पवित्रता है।’’

5. अपनी चिरपुरातन आध्यत्मिक शक्ति को पुन: पाने हेतु अनिवार्य रूप से नित्य उपासना एवं स्वाध्याय का क्रम अपनाएं। इसी से वह आत्मशक्ति सम्पन्न एवं दिव्य विचारों की पुञ्ज बनेेगी।

6. स्वावलम्बी बननपे हेतु प्रयासरत हों इसके लिए आवश्यक नहीं कि वह बहुत ऊंची महाविद्यालयीन शिक्षा पाए और नौकरी करे। गृह उद्योग, कपड़ों की धुलाई, सिलाई मरम्मत, टूटफूट की मरम्मत घरेलू शाक वाटिका, घर में ट्यूशप पढ़ाना आदि के काम स्वावलम्बी बनने का अच्छा साधन है, जो कि आज कम पैसे में दिनभर नौकरी में पिसते रहने की तुलना में बहुत बेहतर है।

7. घर का वातावरण आध्यात्मिक बनाएं- दैनिक गायत्री उपासना, बलिवैश्य को अपना अनिवार्य कत्र्तव्य समझें, बच्चों के सभी संस्कार कराएं। भारतीय संस्कृति में प्रचलित संस्कारों का महत्व समझें और अपनाएं। (पुंसवन, नामकरण, मुंडन, अन्नप्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, दीक्षा संस्कार एवं जन्मदिवस संस्कार कराएं)

8. कुरीतियां छोड़ें औरों को भी इसकी प्रेरणा दें (बाल विवाह, परदा, शादी विवाह में अत्यधिक फिजुलखर्ची, सजधज आडम्बर लडक़े व लडक़ी में भेद, फैशनपरस्ती, दहेजप्रथा, बहु और बेटी में अन्तर करना, नारी द्वारा ही नारी निन्दा करना एवं गरिमा को गिराना, जाति-पांति, छुआछूत, गुड़ाखू, तम्बाकू व गुटखा सेवन, मद्यपान आदि)।

9. परिवार निर्माण का महान दायित्व सम्हालें। सुखी परिवार के पांच महामंत्र हैं- 1. परस्पर आदर भाव से देखना। 2. अपनी भूल स्वीकार करना। 3. आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना। 4. भेदभाव न करना। 5. विवादों का निष्पक्ष निपटारा। उसी प्रकार पारिवारिक पंचशील का पालन करें- 1. सुव्यवस्था, 2. नियमितता, 3. सहकारिता, 4. प्रगतिशीलता, 5. शालीनता।

10 महिलाओं के साप्ताहिक पाक्षिक सत्संग में हिस्सा लें।

    जे प्रबुद्ध व समझदार नारी हैं वे अपने तक ही सीमित न रहकर उपरोक्त कार्यों को अन्य बहिनों को करने हेतु प्रेरणा दें व समाज निर्माण में योगदान करें जैसे:-

1. साप्ताहिक सत्संग, गोष्टी चलाएं जिसमें उपरोक्त बिन्दु की चर्चा हो व गतिविधियां क्रियान्वित हों। (गायत्री मंत्र का सामूहिक जप पाठ, स्वाध्याय भी हो)

2. साप्ताहिक बाल संस्कार शाला चलाएं।

3. युग निर्माण के सात आन्दोलन हेतु नेतृत्व करें। नारी संगठन बनाएं।

नारी जागरण में पुरुष की भूमिका:-

    पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ी नारी को आगे बढ़ाने में परिवार के पुरुष की महती भूमिका होती है। उन्हीं की सेवा सुश्रुषा में नारी का अधिकांश समय बीतता है। दूसरी ओर उसके समर्थ होने की स्थिति को पुरुष अपने लिए खतरा नहीं गर्व का विषय समझें एवं उसके प्रति अपनी सद् भावना का प्रमाण परिचय देते हुए नारी को समुन्नत बनाने का प्रयत्न करें। यह उच्चकोटि का परमार्थ भी है और सद् भाव भरा प्रायश्चित भी। परमार्थ यों कि उसने नारी जैसी सृजन शक्ति को समर्थ बनाना समाज के सिंचन पोषण हेतु किया जाने वाला ही कार्य है। प्रायश्चित इसलिए कि नर की अहंमन्यता और संकीर्णता के कारण ही नारी वर्तमान दुर्गति तक पहुँची है। अत: आगे बढक़र उसे परिमार्जित करें। अपने परिवार के प्रभाव क्षेत्र की महिलाओं को उसके लिउ उत्साहित करें। उन्हें आगे रखें, स्वयं पीछे रहकर वातावरण बनाएं। पं. पू. गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, महात्मा गांधी ने यही किया एवं प्रेरणा दी। पुरुष के सहयोग से नारी जागरण का आन्दोलन कई गुना अधिक तीव्र हो जाएगा।


सन्दर्भ पुस्तकें:-


1. नारी श्रृंगारिकता नहीं पवित्रता है- वन्दनीया माताजी।

2. नारी जागरण पुस्तक माला- 10 पाकेट बुक्स का सेट।

3. परिवार बने स्वर्ग।

4. आधुनिक भौंडे फैशन का परित्याग कीजिए। (पॉकेट बुक्स)

5. क्रूरता पर टिका सौंदर्य प्रसाधनों का संसार। (पॉकेट बुक्स)

6. गृहस्थ एक योग।

7. गृहस्थ: एक तपोवन- वाङगय क्र. 61

8. महिला जागरण का उद्देश्य- वन्दनीया माताजी।


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