तत्वदृष्टि से बंधन मुक्ति

तत्वदर्शन से आनन्द और मोक्ष

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पेंगल तब महर्षि नहीं बने थे। उसके लिए आत्म-सिद्धि आवश्यक थी। पर पेंगल साधना करते-करते पदार्थों की विविधता में ही उलझ कर रह गये। पशु-पक्षी, अन्य जन्तु, मछलियां, सांप, कीड़े मकोड़ों में शरीरों और प्रवृत्तियों की भिन्नता होने पर भी शुद्ध अहंकार और चेतना की एकता तो समझ में आ गई पर विस्तृत पहाड़, टीले, जंगल, नदी, नाले, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, प्रकाश और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विविध खनिज, धातुयें, गैसें, ठोस आदि क्या हैं, क्यों हैं, और उनमें यह विविधता कहां से आई है—यह उनकी समझ में नहीं आया। इससे उनकी आत्म-दर्शन की आकांक्षा और बेचैन हो उठी।

ये याज्ञवल्क्य के पास गये और उसकी बाहर वर्ष तक सेवा सुश्रुषा कर पदार्थ-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। इस अध्ययन से पेंगल का मस्तिष्क साफ हो गया कि जड़ पदार्थ भी एक ही मूल सत्ता के अंश हैं। सब कुछ एक ही तत्व से उपजा है। ‘एकोऽहं बहुस्यामः’, ‘एक नूर से सब जग उपजिआ’ वाली बात उन्हें पदार्थ विषम में भी अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई। पेंगलोपनिषद् में इस कैवल्य का उपदेश मुनि याज्ञवलक्य ने इस प्रकार दिया है—

‘‘सदैव सोग्रयदमग्र आसीत् । तन्नित्यनुक्तमविक्रियं सत्य ज्ञानानन्द परिपूर्ण सनातनमेकवातीयं ब्रह्म ।। तस्मिन् मरुशुक्तिमस्थाणुस्फाटि कादो जल रौप्य पुरुष रेखाऽऽदिशल्लोहित शुक्ल कृष्ण गुणमयी गुण साम्या निर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं यत्तद् साक्षि चैतन्यमासीत् ।।—’’

—पैंगलोपनिषद् 1।2-3

हे पैंगल! पहले केवल एक ही तत्व था। वह नित्य मुक्त, अविकारी, ज्ञानरूप चैतन्य और आनन्द से परिपूर्ण था, वही ब्रह्म है। उससे लाल, श्वेत, कृष्ण वर्ण की तीन प्रकाश किरणों या गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई। यह ऐसा था जैसे सीपी में मोती, स्थाणु में पुरुष और मणि में रेखायें होती हैं। तीन गुणों से बना हुआ साक्षी भी चैतन्य हुआ। वह मूल प्रकृति फिर विकारयुक्त हुई तब वह सत्व गुण वाली आवरण शक्ति हुई, जिसे अवयक्त कहते हैं।.....उसी में समस्त विश्व लपेटे हुए वस्त्र के समान रहता है। ईश्वर में अधिष्ठित आवरण शक्ति से रजोगुणमयी विक्षेप शक्ति होती है, जिसे महत् कहते हैं। उसका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह चैतन्य हिरण्य गर्भ कहा जाता है। वह महत्तत्व वाला कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट आकार का होता है.....।

इसी उपनिषद् में आगे क्रमशः इसे विक्षेप से आत्मा, आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी आदि उत्पन्न हुए बताये हैं। वस्तुतः यह परतें एक ही तत्व की क्रमशः स्थूल अवस्थायें हैं, जो स्थूल होता गया वह अधिकाधिक दृश्य, स्पर्श होता गया। ऊपरी कक्षा अर्थात् ईश्वर की ओर वही तत्व अधिक चेतन और निर्विकार होता गया। वायु की लहरों के समान विभिन्न तत्व प्रतिभासिक होते हुए भी संसार के सब तत्व एक ही मूल तत्व से आविर्भूत हुए हैं उसे महाशक्ति कहा जाये, आत्मा या परमात्मा सब एक ही सत्ता के अनेक नाम हैं।

विज्ञान की आधुनिक जानकारियां भी उपरोक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करती हैं। कैवल्योपनिषद् में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है— यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् । सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।

अणोरणीयान्हमेव तद्वत्महान् विश्वमिदं विचित्रम् । पुरातनोऽहं पुरुषोऽमीशो हिरण्ययोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।

अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोश से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना देने की क्षमता से परिपूर्ण है। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उनमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान् हैं, जैसे समुद्र की एक बूंद में पानी के सब गुण विद्यमान् होते हैं।

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

आइन्स्टाइन एक ऐसे फार्मूले की खोज में थे, जिससे जड़ और चेतन की भिन्नता को एकता में निरस्त किया जा सके। प्रकृति अपने आप में पूर्ण नहीं है, उसे पुरुष द्वारा प्रेरित प्रोत्साहित और फलवती किया जा रहा है। यह युग्म जब तक सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक विज्ञान के कदम लंगड़ाते हुए ही चलेंगे।

जड़ और चेतन के बीच की खाई अब पटने ही वाली है। द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का समय अब बहुत समीप आ गया है। विज्ञान क्रमशः इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह जड़ को चेतन और चेतन को जड़ सिद्ध करके दोनों को एक ही स्थान पर संयुक्त बनाकर खड़ा करके। जीवन रासायनिक पदार्थों से—पंचतत्वों से बना है इस सिद्धान्त को सिद्ध करते-करते हम वहीं पहुंच जाते हैं जहां यह सिद्ध हो सकता है कि जीवन से पदार्थों की उत्पत्ति हुई है।

उपनिषद् का कहना है कि ईश्वर ने एक से बहुत बनने की इच्छा की, फलतः यह बहुसंख्यक प्राणी और पदार्थ बन गये। यह चेतन से जड़ की उत्पत्ति हुई। नर-नारी कामेच्छा से प्रेरित होकर रति कर्म में निरत होते हैं फलतः रज शुक्र के संयोग से भ्रूण का आरम्भ होता है। यह भी मानवी चेतना से जड़ शरीर की उत्पत्ति है। जड़ से चेतन उत्पन्न होता है, इसे पानी में काई और मिट्टी में घास उत्पन्न होते समय देखते हैं। गन्दगी में मक्खी-मच्छरों का पैदा होना, सड़े हुए फलों में कीड़े उत्पन्न होना यह जड़ से चेतन की उत्पत्ति है।

पदार्थ विज्ञानी इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि ‘जड़’ प्रमुख है। चेतन उसी की एक स्थिति है। ग्रामोफोन का रिकार्ड और उसकी सुई का घर्षण प्रारम्भ होने पर आवाज आरम्भ हो जाती है, उसी प्रकार अमुक स्थिति में—अमुक अनुपात में इकट्ठे होने पर चेतन जीव की स्थिति में जड़ पदार्थ विकसित हो जाते हैं। जीव-विज्ञानी अपने प्रतिपादनों में इसी तथ्य को प्रमुखता देते हैं।

जीव-विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है। वनस्पति विज्ञान (वौटनी), प्राणि विज्ञान (जूलौजी) इन दो विभाजनों से भी इस महा समुद्र का ठीक तरह विवेचन नहीं हो सकता। इसलिए इसे अन्य भेद-उपभेदों में विभक्त करना पड़ता है।

सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से जिन जीवधारियों को देखा समझा जाता है उसके सम्बन्ध में जानकारी सूक्ष्म जैविकी (माइक्रो बायोलॉजी) कही जाती है।

आकारिकी (मारफोलाजी) शारीरिकी (अनाटोमी) ऊतिकी (हिस्टोलाजी) कोशिकी (साइटोलोजी) भ्रूणी (एम्ब्रोलाजी) शरीर क्रिया (फिजियोलॉजी) परिस्थिति की (एकोलाजी) आनुवंशिकी (जैनेटिक्स) जैव विकास (आरगैनिक एवूलेशन) आदि।

इन सभी जीव-विज्ञान धाराओं ने यह सिद्ध किया है कि जीवन और कुछ नहीं जड़ पदार्थों का ही विकसित रूप है।

रासायनिक दृष्टि से जीवन सेल और अणु के एक ही तराजू पर तोला जा सकता है। दोनों में प्रायः समान स्तर के प्राकृतिक नियम काम करते हैं। एकाकी एटम—मालेक्यूल्स और इलेक्ट्रोन्स के बारे में अभी भी वैसी ही खोज जारी है जैसी कि पिछली तीन शताब्दियों में चलती रही है। विकरण—रेडियेशन और गुरुत्वाकर्षण ग्रेविटेशन के अभी बहुत से स्पष्टीकरण होने बाकी हैं। जो समझा जा सका है वह अपर्याप्त ही नहीं असन्तोषजनक भी है।

यों कोशिकाएं निरन्तर जन्मती-मरती रहती हैं, पर उनमें एक के बाद दूसरी में जीवन तत्व का संचार अनवरत रूप से होता रहता है। मृत होने से पूर्व कोशिकाएं अपना जीवन तत्व नवजात कोषा को दे जाती हैं, इस प्रकार मरण के साथ ही जीवन की अविच्छिन्न परम्परा निरन्तर चलती रहती है। उन्हें मरण धर्मा होने के साथ-साथ अजर-अमर भी कह सकते हैं। वस्त्र बदलने जैसी प्रक्रिया चलते रहने पर भी उनकी अविनाशी सत्ता पर कोई आंच नहीं आती।

नोवल पुरस्कार विजेता डा. एलेक्सिस कारेल उन दिनों न्यूयार्क के राक फेलर चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र में काम कर रहे थे। एक दिन उन्होंने एक मुर्गी के बच्चे के हृदय के जीवित तन्तु का एक रेशा लेकर उसे रक्त एवं प्लाज्मा के घोल में रख दिया। वह रेशा अपने कोष्टकों की वृद्धि करता हुआ विकास करने लगा। उसे यदि काटा-छांटा न जाता तो वह अपनी वृद्धि करते हुए वजनदार मांस पिण्ड बन जाता। उस प्रयोग से डा. कारेल ने यह निष्कर्ष निकाला कि जीवन जिन तत्वों से बनता है यदि उसे ठीक तरह जाना जा सके और टूट-फूट को सुधारना सम्भव हो सके तो अनन्तकाल तक जीवित रह सकने की सभी सम्भावनायें विद्यमान हैं।

प्रोटोप्लाज्म जीवन का मूल तत्व है। यह तत्व अमरता की विशेषता युक्त है। एक कोश वाला अमीवा प्राणी निरन्तर अपने आपको विभक्त करते हुये वंश वृद्धि करता रहता है। कोई शत्रु उसकी सत्ता ही समाप्त करदे यह दूसरी बात है अन्यथा वह अनन्त काल तक जीवित ही नहीं रहेगा वरन् वंश वृद्धि करते रहने में भी समर्थ रहेगा। रासायनिक सम्मिश्रण से कृत्रिम जीवन उत्पन्न किये जाने की इन दिनों बहुत चर्चा है। छोटे जीवाणु बनाने में ऐसी कुछ सफलता मिली भी हैं, पर उतने से ही यह दावा करने लगना उचित नहीं कि मनुष्य ने जीवन का—सृजन करने में सफलता प्राप्त करली।

जिन रसायनों से जीवन विनिर्मित किये जाने की चर्चा है क्या उन्हें भी—उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं को भी मनुष्य द्वारा बनाया जाना सम्भव है? इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों को मौन ही साधे रहना पड़ रहा है। पदार्थ की जो मूल प्रकृति एवं विशेषता है यदि उसे भी मनुष्य कृत प्रयत्नों से नहीं बनाया जा सकता तो इतना ही कहना पड़ेगा कि उसने ढले हुए पुर्जे जोड़कर मशीन खड़ी कर देने जैसे बाल प्रयोजन ही पूरा किया है। ऐसा तो लकड़ी के टुकड़े जोड़कर अक्षर बनाने वाले किन्डर गार्डन कक्षाओं के छात्र भी कर लेते हैं। इतनी भर सफलता से जीव निर्माण जैसे दुस्साध्य कार्य को पूरा कर सकने का दावा करना उपहासास्पद गर्वोक्ति है।

कुछ मशीनें बिजली पैदा करती हैं—कुछ तार बिजली बहाते हैं, पर वे सब बिजली तो नहीं हैं। अमुक रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से जीवन पैदा हो सकता है सो ठीक है, पर उन पदार्थों में जो जीवन पैदा करने की शक्ति है वह अलौकिक एवं सूक्ष्म है। उस शक्ति को उत्पन्न करना जब तक सम्भव न हो तब तक जीवन का सृजेता कहला सकने का गौरव मनुष्य को नहीं नहीं मिल सकता।

ब्रह्माण्ड की शक्तियों का और पिण्ड की—मनुष्य की शक्तियों का एकीकरण कहां होता है शरीर शास्त्री इसके लिए सुषुम्ना शीर्षक, मेडुला आवलांगाटा—की ओर इशारा करते हैं। पर वस्तुतः वह वहां है नहीं। मस्तिष्क स्थित ब्रह्मरन्ध्र को ही वह केन्द्र मानना पड़ेगा, जहां ब्राह्मी और जैवी चेतना का समन्वय सम्मिलन होता है।

ऊपर के तथ्यों पर विचार करने से यह एकांगी मान्यता ही सीमित नहीं रहती कि जड़ से ही चेतन उत्पन्न होता है इन्हीं तथ्यों से यह भी प्रमाणित होता है कि चेतन भी जड़ की उत्पत्ति का कारण है। मुर्गी से अण्डा या अण्डे से मुर्गी—नर से नारी या नारी से नर—बीज से वृक्ष या वृक्ष से बीज जैसे प्रश्न अभी भी अनिर्णीत पड़े हैं। उनका हल न मिलने पर भी किसी को कोई परेशानी नहीं। दोनों को अन्योन्याश्रित मानकर भी काम चल सकता है। ठीक इसी प्रकार जड़ और चेतन में कौन प्रमुख है इस बात पर जोर न देकर यही मानना उचित है कि दोनों एक ही ब्रह्म सत्ता की दो परिस्थितियां मात्र हैं। द्वैत दीखता भर है वस्तुतः यह अद्वैत ही बिखरा पड़ा है।

न केवल चेतन समुदाय अपितु सृष्टि का प्रत्येक कण पूर्णता के लिये लालायित और गतिशील है। भौतिक-जीवन में जिसके पास स्वल्प सम्पदा है वह और अधिक की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है, पर जो धनाढ्य हैं उन्हें भी सन्तोष नहीं। उसी के परिमाण में बह और अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देता है। बड़े-बड़े सम्राट तक अपनी इस अपूर्णता को पाटने के लिये आपाधापी मचाते और दूसरे साम्राज्यों की लूटपाट करते पाये जाते हैं तो लगता है सृष्टि का हर प्राणी साधनों की दृष्टि से अपूर्ण है इस दिशा में पूर्णता प्राप्त करने की हुड़क हर किसी में चढ़ी बैठी दिखाई देती है।

इतिहास का विद्यार्थी अपने आपको गणित में शून्य पाता है तो वह अपने आपको अपूर्ण अनुभव करता है, भूगोल का चप्पा छान डालने वाले को संगीत के स्वर बेचैन कर देते हैं उसे अपना ज्ञान थोथा दिखाई देने लगता है, बड़े-बड़े चतुर वकील और बैरिस्टरों को जब रोग बीमारी के कारण डाक्टरों की शरण जाना पड़ता है तो उनका अपने ज्ञान का—अभिमान चकनाचूर हो जाता है। बौद्धिक दृष्टि से हर प्राणी सीमित है और हर कोई अगाध ज्ञान का पण्डित बनने की तत्पर दिखाई देता है।

नदियां अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिये सागर की ओर भागती हैं, वृक्ष आकाश छूने दौड़ते हैं, धरती स्वयं भी अपने आपको नचाती हुई न जाने किस गन्तव्य की ओर अधर आकाश में भागी जा रही है, अपूर्णता की इस दौड़ में समूचा सौर-मण्डल और उससे परे का अदृश्य संसार सम्मिलित है। पूर्णता प्राप्ति की बेचैनी न होती तो सम्भवतः संसार में रत्ती भर भी सक्रियता न होती सर्वत्र नीरव सुनसान पड़ा होता, न समुद्र उबलता, न मेघ बरसते, न वृक्ष उगते, न तारागण चमकते और न ही वे विराट् की प्रदक्षिणा में मारे-मारे घूमते?

जीवन की सार्थकता पूर्णता प्राप्ति में है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभी हम अपूर्ण हैं, असत्य हैं, अन्धकार में हैं। हमारे सामने मृत्यु मुंह बांये खड़ी है। अन्धकार, असत्य और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये हम प्रकाश, सत्य और अमरता की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। पर हो कोई नहीं पाता। हर कोई अपने आपको अशक्त और असहाय पाता है, अज्ञान के अन्धकार में हाथ-पैर पटकता रहता है।

इस अपूर्णता पर जब कभी विचार जाता है तब एक ही तथ्य सामने आता है और वह है ‘‘परमात्मा’’ अर्थात् एक ऐसी सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके लिए कुछ भी अपूर्ण नहीं है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी, सर्वदृष्टा, नियामक और एकमात्र अपनी इच्छा से सम्पूर्ण सृष्टि में संचरण कर सकने की क्षमता से ओत-प्रोत है।

विकासवाद के जनक डार्विन ने यह सिद्धान्त तो प्रतिपादित कर दिया कि प्रारम्भ में एक कोशीय जीव-अमीबा की उत्पत्ति हुई यही अमीबा फिर ‘‘हाइड्रो’’ में विकसित हुआ, हाइड्रा मछली, मण्डूक, समर्पणशील पक्षी, स्तनधारी जीवों आदि की श्रेणियों में विकसित होता हुआ वह बन्दर की शक्ल तक पहुंचा, आज का विकसित मनुष्य शरीर इसी बन्दर की सन्तान है। इसके लिए शरीर रचना के कुछ खांचे भी मिलाये गये। जहां नहीं मिले वहां यह मान लिया गया कि वह कड़ियां लुप्त हैं और कभी समय पर उसकी भी जानकारी हो सकती है।

इस प्रतिपादन में डार्विन और इस सिद्धान्त के अध्येता यह भूल गये कि अमीबा से ही नर-मादा दो श्रेणियां कैसे विकसित हुईं। अमीबा एक कोशीय था उससे दो कोशीय हाइड्रा पैदा हुआ क्या अन्य सभी जीव इसी गुणोत्तर श्रेणी में आ सकते हैं यदि सर्पणशील जीवों से परधारी जीव विकसित हुये तो वह कृमि जैसे चींटे, पतिंगे, मच्छर आदि कृमि जो उड़ लेते हैं वे किस विकास प्रक्रिया में रखे जायेंगे? पक्षी, जल-जन्तु और कीड़े सभी मांस खाते हैं। स्तनधारी उन्हीं से विकसित हुए तो गाय, भैंस, बकरी, हाथी आदि मांस क्यों नहीं खाते। हाथी के दांत होते हैं हथनियों के नहीं, मुर्गे में कलंगी होती है मुर्गी में नहीं। मोर के रंग-बिरंगे पंख और मोरनियां बिना पंख वाली, विकास प्रक्रिया में एक ही जीव श्रेणी में यह अन्तर क्यों? प्राणियों में दांतों की संख्या, आकृति, प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। घोड़े के स्तन नहीं होते बैल के अण्डकोश के पास स्तन होते हैं। पक्षियों की अपेक्षा सर्प और कछुये हजारों वर्ष की आयु वाले होते हैं, यह सभी असमानतायें इस बात का प्रमाण हैं कि सृष्टि रचना किसी विकास का परिणाम नहीं अपितु किसी स्वयम्भू सत्ता द्वारा विधिवत् रची गई कलाकृति है।

विकासवाद के सिद्धान्त के समर्थक यह कहते हैं कि अपने सुविधापूर्ण जीवन के लिए इच्छा ने उन जीवों के शरीर संस्थानों में अन्तर किया और यह अन्तर स्पष्ट होते-होते एक जीव से दूसरी किस्म का उसी से मिलता हुआ जीव विकसित होता गया। थोड़ी देर के लिये यह बात मान लें और मनुष्य शरीर को इस कसौटी पर कसें तो भी बात विकासवाद के विपरीत ही बैठेगी। मनुष्य कब से पक्षियों को देखकर आकाश में स्वतन्त्र उड़ने को लालायित है किन्तु उसके शरीर में कहीं कोई पंख उगा क्या, समुद्र में तैरते जहाज देखकर हर किसी का मन करने लगता है कि हम भी गोता लगायें और मछलियों की तरह कहीं से कहीं जाकर घूम आयें, पर वह डूबने से बच पायेगा क्या? यह प्रश्न अब उन लोगों को भी विपरीत दिशा में सोचने और परमात्म-सत्ता के अस्तित्व में होने की बात मानने को विवश करते हैं जो कभी इस सिद्धान्त के समर्थक रहे हैं। राबर्ट ए मिल्लीकान का कथन है—विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में ही वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण करता है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा पैदा करती है आम के बीज से इमली पैदा करने की शक्ति प्रकृति में नहीं है। इस तरह के बीज और ऊपर वर्णित विलक्षण रचनायें पैदा करने वाली सत्ता एकमात्र परमात्मा ही हो सकता है। वही अपने आप में एक परिपूर्ण सत्ता है और वही विभिन्न इच्छाओं, अनुभूतियों, गुण तथा धर्म वाली परिपूर्ण रचनायें सृजन करता है।

क्रमिक विकास को नहीं भारतीय दर्शन पूर्णता-पूर्णता की उत्पत्ति मानता है। श्रुति कहती है।

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते ।।

अर्थात्—पूर्ण परम ब्रह्म परमात्मा से पूर्ण जगत—पूर्ण मानव की उत्पत्ति हुई। पूर्ण से पूर्ण निकाल देने से पूर्ण ही शेष रहता है।

नदी का एक किनारा समुद्र से जुड़ा रहता है और दूसरा किनारा उससे दूर होता है। दूर होते हुए भी नदी समुद्र से अलग नहीं। नदी को जल समुद्र द्वारा प्राप्त होता है और पुनः समुद्र में मिल जाता है। जगत उस पूर्ण ब्रह्म से अलग नहीं। मनुष्य उसी पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ इसलिये अपने में स्वयं पूर्ण है यदि इस पूर्णता का भान नहीं होता, यदि मनुष्य कष्ट और दुःखों से त्राण नहीं पाता तो इसका एकमात्र कारण उसका अज्ञान और अहंकार में पड़े रहना ही हो सकता है। इतने पर भी पूर्णता हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा है और वह नैसर्गिक रूप से हर किसी में विद्यमान रहती है।

क्षुद्रता की परिधि को तोड़कर पूर्णता प्राप्त कर लेना हर किस के लिये सम्भव है। मनुष्य की चेतन सत्ता में वह क्षमता मौजूद है, जिसके सहारे वह अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का उपयोग कर देवोपम जीवन जी सकता है। यह क्षमता उसने खो दी है। मात्र जीवन निर्वाह क्रम पूरा होते रहने भर का लाभ उस क्षमता से उठा सकना सम्भव होता है। यह उस प्रचण्ड क्षमता का एक स्वरूप अंश मात्र है।

बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?

अधिकांश क्षमता तो भव बन्धनों में ही पड़ी जकड़ी रहती है। भ्ज्ञव बन्धन क्या है? व्यामोह ही भव बन्धन है। भव बन्धनों में पड़ा हुआ प्राणी कराहता रहता है और हाथ पैर बंधे होने के कारण प्रगति पथ पर बढ़ सकने में असमर्थ रहता है। व्यामोह का माया कहते हैं।माया का अर्थ है नशे जैसी खुमारी जिसमें एक विशेष प्रकार की मस्ती होती है। साथ ही अपनी मूल स्थिति की विस्मृति भी जुड़ी रहती है। संक्षेप में विस्मृति और मस्ती के समन्वय को नशे की पिनक कहा जा सकता है, चेतना की इसी विचित्र स्थिति को माया, मूढ़ता, अविद्या, भव बन्धन आदि नामों से पुकारा जाता है।

ऐसी विडम्बना में किस कारण प्राणी बंधता, फंसता है? इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए आत्म दृष्टाओं ने विषयवती वृत्ति को इसका दोषी बताया है। विषयवती वृत्ति की प्रबलता को बन्धन का मूल कारण बताते हुये महर्षि पातंजलि ने योग दर्शन के कुछ सूत्रों में वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला है।

विषयवती वा प्रवृत्तित्पत्रा मनसः स्थिति निबंधिनि ।

—यो. द. 1-35

सत्व पुरुषायोरत्यन्ता संकीर्णयोः प्रत्यया विशेषो भोगः । परार्धात्स्वार्थ संयतात्पुरुषा ज्ञानम् । —यो. द. 3-35

ततः प्रतिम श्रावण वेदनादर्शी स्वाद वार्ता जायन्ते । —यो. द. 3-36

उपरोक्त सूत्रीं में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि शारीरिक विषय विकारों में आसक्ति बढ़ जाने से जीव अपनी मूल स्थिति को भूल जाता है और उन रसास्वादनों में निमग्न होकर भव बन्धनों में बंधता है।

लालची मक्खी और चींटी की आसक्ति, आतुरता उसे विपत्ति के बन्धनों में जकड़ देती है और प्राण संकट उपस्थित करती है। चासनी को आतुरतापूर्वक निगल जाने के लोभ में यह अबोध प्राणी उस पर बेतरह टूट पड़ते हैं और अपने पंख, पैर उसी में फंसा कर जान गंवाते हैं। मछली के आटे की गोली निगलने और पक्षी के जाल में जा फंसने के पीछे भी वह आतुर अशक्ति ही कारण होती है, जिसके कारण आगा-पीछा सोचने की विवेक बुद्धि को काम कर सकने का अवसर ही नहीं मिलता।

शरीर के साथ जीव का अत्यधिक तादात्म्य बन जाना ही आसक्ति एवं माया है। होना यह चाहिए कि आत्मा और शरीर के साथ स्वामी सेवक का—शिल्पी उपकरण का भाव बना रहे। जीव समझता रहे कि मेरी स्वतन्त्र सत्ता है। शरीर के वाहन, साधन, प्रकृति यात्रा की सुविधा भर के लिए मिले हैं। साधन की सुरक्षा उचित है। किन्तु शिल्पी अपने को—अपने सृजन प्रयोजन को भूल कर—उपकरणों में खिलवाड़ करते रहने में सारी सुधि-बुद्धि खोकर तल्लीन बन जाया तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो होगी। तीनों शरीर तीन बन्धनों में बंधते हैं। स्थूल शरीर इन्द्रिय लिप्सा में, वासना में। सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क) सम्बन्धियों तथा सम्पदा के व्यामोह में। कारण शरीर-अहंता के आतंक फैलाने वाले उद्धत प्रदर्शनों में। इस प्रकार तीनों शरीर—तीन बन्धनों में बंधते हैं और आत्मा उन्हीं में तन्मय रहने की स्थिति में स्वयं ही भव बंधनों में बंध जाता है। यह लिप्सा लालसायें इतनी मादक होती है कि जीव उन्हें छोड़कर अपने स्वरूप एवं लक्ष्य को ही विस्मृति के गर्त में फेंक देता है। वेणुनाद पर मोहित होने वाले मृग वधिक के हाथों पड़ते हैं। पराग लोलुप भ्रमर-कमल में कैद होकर दम घुटने का कष्ट सहता है। दीपक की चमक से आकर्षित पतंगे की जो दुर्गति होती है व सर्वविदित है। लगभग ऐसी ही स्थिति व्यामोह ग्रसित जीव की भी होती है। उसे इस बात की न तो इच्छा उठती है और न फुरसत होती है कि अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचाने। उत्कर्ष के लिए आवश्यक संकल्प शक्ति जगाई जा सकती तो इस महान प्रयोजन के लिये मिली हुई विशिष्ट क्षमताओं को भी खोजा जगाया जा सकता था। किन्तु उसके लिये प्रयत्न कौन करे? क्यों करे? जब विषयानन्द की ललक ही मदिरा की तरह नस-नस पर छाई हुई है तो ब्रह्मानन्द की बात कौन सोचे? क्यों सोचे?

इस दुर्गति में पड़े रहने से आज का समय किसी प्रकार कट भी सकता है, पर भविष्य तो अन्धकार से ही भरा रहेगा। विवेक की एक किरण भी कभी चमक सके तो उसकी प्रतिक्रिया परिवर्तन के लिये तड़पन उठने के रूप में ही होगी। प्रस्तुत दुर्दशा की विडम्बना और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का तुलनात्मक विवेचन करने पर निश्चित रूप से यही उमंग उभरेगी कि परिवर्तन के लिये साहस जुटाया जाय। इसी उभार के द्वारा अध्यात्म जीवन में प्रवेश और साधना प्रयोजनों का अवलम्बन आरम्भ होता है। परिवर्तन का प्रथम चरण है, बन्धनों का शिथिल करना। आकर्षणों के अवरोधों से विमुख होना। आसक्ति को वैराग्य की मनःस्थिति में बदलना। इसके लिये कई तरह के संयम परक उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है। साधना रुचि परिवर्तन की प्रवृत्ति को उकसाने से आरम्भ होती है। इस संदर्भ में महर्षि पातंजलि का कथन है। बन्धकारण शैथिल्यात्प्राचार सम्वेदनस्य । चित्तस्य पर शरीरावेशः ।। —योग दर्शन 3-38

बन्धनों के कारण डीले हो जाने पर चित्त की सीमा, परिधि और सम्वेदना व्यापक हो जाती है। मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा । अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।। —शिव गीता 13।32

अर्थात्—मोक्ष किसी स्थान विशेष में निवास करने की स्थिति नहीं है। न उसके लिये किसी अन्य नगर या लोक में जाना पड़ता है। हृदय के अज्ञानांधकार का समाप्त हो जाना ही मोक्ष है।

मोक्ष में परमात्मा की प्राप्ति होती है। अथवा परमात्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। यह मोक्ष क्या है? भव बन्धनों से मुक्ति। भव-बन्धन क्या हैं? वासना, तृष्णा और अहंता के—काम, लोभ और क्रोध के नागपाश। इनसे बंध हुआ प्राणी ही माया ग्रसित कहलाता है। यही नारकीय दुर्दशा का दल-दल है। इससे उबरते ही आत्मज्ञान का आलोक और आत्म-दर्शन का आनन्द मिलता है। इस स्थिति में पहुंचा हुआ व्यक्ति परमात्मा का सच्चा सान्निध्य प्राप्त करता है और ज्ञान तथा सामर्थ्य में उसी के समतुल्य बन जाता है।

अथर्ववेद में कहा गया है—

ये पुरुषे ब्रह्मविदुः तेविदुः परमेष्ठितम् ।

अर्थात्—जो आत्मा को जान लेता है, उसी के लिये परमात्मा का जान लेना भी सम्भव है। ऋग्वेद में आत्मज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान कहा गया है। ग्रन्थों के पढ़ने से जानकारियां बढ़ती हैं, आत्मानुभूति से अपने आपे को और परमतत्व को जाना जाता है। श्रद्धा-विहीन शब्दचर्चा का ऊहापोह करते रहने से तो आत्मा की उपलब्धि नहीं होती। एक ऋचा है—यः तद् न वेदकिम् ऋचा करिष्यति।’’

जो उस आत्मा तत्व को नहीं जान पाया वह मन्त्र, बात या विवेचन करते रहने भर से क्या पा सकेगा? उपनिषद् का कथन है—‘‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही बन जाता है।

यह स्थिति जीवन और जगत के पीछे छिपी हुई कारण सत्ता को देखने तथा उसे समझने, बोध प्राप्त करने के लिये साधना स्तर के प्रयासों से ही सम्भव है। भारतीय मनीषियों ने इसीलिये तत्व दर्शन को ही बन्धन मुक्ति का उपाय बताया है यह दृष्टि अपने मन, बुद्धि चित्त और अहंकार के परिष्कार पूर्वक ही विकसित की जा सकती है। योग तप, ब्रह्मविद्या, साधना, उपासना, अभ्यास, मनन, चिन्तन और ध्यान निदिध्यासन द्वारा चित्त वृत्ति को इतना निर्मल परिष्कृत बनाया जाता है कि यह तत्व दृष्टि विकसित की जा सके।
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