तत्वदृष्टि से बंधन मुक्ति

ईश्वर की सच्चिदानन्दमय सत्ता

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विश्व अस्तित्व की इकाइयां मानी गई है, (1) ईश्वर, (2) जीव, (3) प्रकृति। ईश्वर तीन गुण वाला है। सत्, चित, आनन्द। यह तीन उसके गुण हैं। सत् अर्थात् अस्तित्व युक्त। जो है, था, जो रहेगा, उस अविनाशी तत्व को सत् कहते हैं। चित् अर्थात् चेतना। जिसमें सोचने, विचारने, निर्णय करने एवं भावाभिव्यक्ति युक्त होने की विशेषताएं हैं उसे चित् कहेंगे। आनन्द—अर्थात् सुख, सन्तोष और उल्लास का समन्वय। ईश्वर अस्तित्ववान है, चैतन्य है तथा आनन्दानुभूति में पूरा है। इसलिये उसे सच्चिदानन्द कहते हैं।

जीवन के दो गुण हैं—सत् और चित्। वह अस्तित्ववान है। ईश्वर से उत्पन्न अवश्य है पर लहरों की तरह उसकी स्वतन्त्र सत्ता भी है और वह ऐसी है कि सहज ही नष्ट नहीं होती। मुक्ति में भी उसका अस्तित्व बना रहता है और निर्विकल्प, सविकल्प स्थिति में सारूप्य, सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य का आनन्द अनुभव करता है। प्रलय में सब कुछ सिमट कर एक में अवश्य इकट्ठा हो जाता है फिर भी वह आटे की तरह एक दीखते हुये भी जीव कणों की स्वतन्त्र सत्ता बनी रहती है। मूर्छा, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्या एवं समाधि अवस्था में भी मूलसत्ता यथावत् रहती है। मरणोत्तर जीवन तो रहता ही है। इस प्रकार जीव की सत्—अस्तित्ववान स्थिति अविच्छिन्न रूप से बनी रहती है। जीव का दूसरा गुण है—चित्। चेतना उसमें रहती ही है। यह चेतना ही उसका ‘स्व’ है। अहंता—ईगो—सैल्फ—आत्मानुभूति इसी को कहते हैं। तत्वज्ञानियों से लेकर अज्ञानियों तक में यह स्थिति सदैव पाई जायगी। ईश्वर में आनन्द परिपूर्ण है। जीव उसकी खोज में रहता है, उसे प्राप्त करने के लिये विविध प्रयास करता है। और न्यूनाधिक मात्रा में, भले बुरे रूप में उसी की प्राप्ति के लिये लालायित और यत्नशील रहता है।

प्रकृति में एक ही गुण है, सत्। उसका अस्तित्व है। अणु परमाणुओं के रूप में—दृश्य और अदृश्य प्रक्रिया के साथ जगत की सत्ता के रूप में प्रकृति को देखा जा सकता है। ईश्वर और जीव दोनों का क्रिया-कलाप इस प्रकृति प्रक्रिया के साथ ही गतिशील रहता है। महाप्रलय में प्रकृति सघन होकर—पंच तत्वों की अपेक्षा एक महातत्व में विलीन हो जाती है। इस प्रकार जब कभी इस विश्व ब्रह्माण्ड की लय प्रलय होगी तब ईश्वर के सत् तत्व में प्रकृति लीन हो जायगी जीवन चित् में घुल जायेगा और उसका अपना अतिरिक्त गुण आनन्द, यथावत्—बना रहेगा।

महासृष्टि के आरम्भ का क्रम भी यही है। तत्वदर्शियों के अनुसार ब्रह्म में स्फुरणा होती है एक से बहुत होने की। वह अपने को अंश रूप में विभक्त करके एक से अनेक बनता है और जीव सत्ता का अस्तित्व विनिर्मित होता है। स्फुरणा द्वारा जीवन की उत्पत्ति के बाद उसकी दूसरी उमंग आगे आती है। वह है—इच्छा। आनन्द को निराकारिता को साकारिता में परिणत करने के लिये पदार्थ की आवश्यकता होती है। इच्छा का प्रतिफल ही आवश्यकता, आविष्कार और आविर्भाव के रूप में सामने आता है। यह प्रकृति है। स्फुरणा से जीव और इच्छा से प्रकृति का निर्माण करके ब्रह्म साक्षी और दृष्टा के रूप में सर्वत्र विद्यमान रहता है और इस जगत की सारी प्रक्रिया की स्वसंचालित पद्धति को बनाकर अपने क्रिया कर्तृत्व का आनन्द लेता है।

सृष्टि जगत का अधिष्ठाता

इस सम्बन्ध में कई लोगों को संदेह होता है कि ईश्वर है भी अथवा नहीं, सामान्य दृष्टि से विचार करने पर भी ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अनेकों प्रमाण मिल जाते हैं। कोई यह सिद्ध करने के लिये पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर ही चले कि ईश्वर नहीं है तो बात अलग है। अन्यथा ईश्वर का अस्तित्व उदित और चमकते सूरज से भी अधिक प्रत्यक्ष है। उदाहरण के लिये प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता, प्रत्येक रचना का कोई कलाकार अवश्य होता है। आगरे का ताजमहल संसार के सर्व प्रसिद्ध सात आश्चर्यों में से एक है। उसके निर्माण में प्रतिदिन 20 हजार मजदूर काम करते थे, इतिहासकारों के अनुमान के अनुसार उसका निर्माण 6 करो रुपये में हुआ। उसके निर्माण में साढ़े अट्ठारह वर्ष लगे। उसमें राजस्थान से आया संगमरमर, तिब्बत की नीलम मणि, सिंहल की सिपास्लाजुली मणि, पंजाब के हीरे, बगदाद के पुखराज रत्न लगे हैं। इतनी सारी व्यवस्था और साधन सामग्री जुटाने में एक व्यक्ति की बुद्धि काम कर रही थी वह था शाहजहां। ताजमहल की रचना के साथ शाहजहां चिरकाल अमर है।

कोरिया का मेलोलियम संसार का दूसरा आश्चर्य। 62 हाथ लम्बी उतनी ही चौड़ी चहारदीवारी के मध्य 40-40 हाथ ऊंचे 36 स्तम्भ जो नीचे मोटे पर ऊपर क्रमशः पतले होते गये हैं। सीढ़ियों पर नीचे से ऊपर तक संगमरमर की बहुमूल्य मूर्तियों की सजावट। प्रसिद्ध कलाकार पाइथिस और माटीराम द्वारा विनिर्मित इस समाधि मन्दिर का निर्माण केवल एक व्यक्ति की इच्छित रचना है वह थीं वहां की महारानी ‘आर्टीमिसिया’।

20 लाख रुपये की लागत से बनी 25 फुट ऊंची ओलम्पिया की जुपिटर प्रतिमा एथेन के सम्राट पैराक्लीज की हार्दिक इच्छा का अभिव्यक्त रूप है। इफिसास का डायना मन्दिर चांदफिन की कल्पना का साकार है तो अजन्ता की 29 गुफाओं में 5 मन्दिरों और 24 बौद्ध बिहारों में प्रवर सेन युग के आचार्य सुनन्द का नाम अंकित है। सिकन्दरिया का प्रकाश स्तम्भ सिकन्दर के संकल्प का मूर्तिमान है। 263 हाथ के घेरे में 22 फुट ऊंचे ठोस घेरे में खड़ा किया गया बैबिलोन का लटकता हुआ बाग (हैंगिंग गार्डन) बैबिलोन साम्राज्ञी ने बनवाया रोग का कोलोसियस, पीसा की मीनार, रोडस की पीतल की मूर्ति, मिस्र के पिरामिड चार्टेज गिरजाघर डेविड, मोजेट, सिस्टाइन चैपिल पियेंटा की प्रतिमाएं, एफिल टावर (पेरिस) ह्वाइट हाउस अमेरिका, लाल किला दिल्ली आदि जितनी भी सर्वश्रेष्ठ रचनाएं हैं, उनके रचनाकार आला मस्तिष्क और भाव सम्पन्न आत्माएं रही हैं किसी भी सांसारिक निर्माण को स्वनिर्मित नहीं कहा जा सकता इसी से रचना के साथ रचनाकार का नाम अविच्छिन्न रूप से चलता है।

यह छोटे-छोटे उपादान बिना कर्त्ता के अभिव्यक्ति नहीं पा सके होते तो इतना सुन्दर संसार जिसमें प्रातःकाल सूरज उगता और प्रकाश व गर्मी देता है। रात थकों को अपना अंचल में विश्राम देती, तारे पथ-प्रदर्शन करते, ऋतुएं समय पर आतीं और चली जाती है। हर प्राणी के लिए अनुकूल आहार, जल-वायु की व्यवस्था, प्रकृति का सुव्यवस्थित स्वच्छता अभियान सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। करोड़ों की संख्या में तारागण किसी व्यवस्था के अभाव में अब तक न जाने कब के लड़ मरे होते। यदि इन सब में गणित कार्य न कर रहा होता तो अमुक दिन, अमुक समय सूर्य-ग्रहण-चन्द्र ग्रहण, मकर संक्रान्ति आदि का ज्ञान किस तरह हो पाता। यह प्राप्तोद्देश्य कर्म और सुन्दरतम रचना बिना किसी ऐसे कलाकार के सम्भव नहीं हो सकती थी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एकरस देखता हो, सुनता हो, साधन जुटाता हो, नियम व्यवस्थाएं बनाता हो, न्याय करता हो जीवन मात्र का पोषण संरक्षण करता हो।

नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन चल तो सकते हैं, पर कुछ समय से अधिक नहीं जब कि पृथ्वी को ही अस्तित्व में आये करोड़ों वर्ष बीत चुके। परिवार के वयोवृद्ध के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है। गांव का एक मुखिया होता है तो कई गांवों के समूह की बनी तहसील का स्वामी तहसीलदार, जिले का मालिक कलक्टर, राज्य का गवर्नर और राष्ट्र का राष्ट्रपति। मिलों तक के लिए मैनेजर कम्पनियों के डाइरेक्टर न हों तो उनकी ही व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है और उनका अस्तित्व डावांडोल हो जाता है फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, सो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा का विरद् चरितार्थ हुए बिना नहीं रहता।

नेशनल हेराल्ड में एक लेख छपा था—‘‘वैज्ञानिक भगवान में विश्वास क्यों करते हैं? इस लेख में विद्वान् लेखक ने बताया है कि संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है, यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासन हीनता आ जाये तो विराट ब्रह्माण्ड एक क्षण को भी नहीं टिक पाता। एक क्षण के विस्फोट से अनन्त प्रकृति में आग लग जाती और संसार अग्नि ज्वालाओं के अतिरिक्त कुछ न होता।

नियामक विधान किसी मस्तिष्कीय सत्ता का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है। हमारे जीवन का आधार सूर्य है। वह 10 करोड़ 30 लाख मील की दूरी से अपनी प्रकाश किरणें भेजता है जो 8 मिनट में पृथ्वी तक पहुंचती हैं। दिन भर में यहां के वातावरण में इतनी सुविधाएं एकत्र हो जाती हैं कि रात आसानी से कट जाती है। दिन रात के इस क्रम में एक दिन भी अन्तर पड़ जायें तो जीवन संकट में पड़ जायें। सूर्य के लिए पृथ्वी समुद्र में बूंद का-सा नगण्य अस्तित्व रखती है फिर, उसकी तुलना में रूप के साईबेरिया प्राप्त में एक गड़रिये के घर में जी रही एक चींटी का क्या अस्तित्व हो सकता है, पर वह भी मजे में अपने दिन काट लेती है।

सूर्य अनन्त अन्तरिक्ष का एक नन्हा तारा है ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने एक एटलस छापा है उसमें सौर-मण्डल के लिए एक बिन्दु मात्र रखा है और तीर का निशान लगा कर दूर जाकर लिखा है—‘‘हमारा सौर-मण्डल यहां नहीं है’’ यह ऐसा ही हुआ कि कोई मेरी आंख का आंसू समुद्र में गिर गया। सूर्य से तो बड़ा ‘‘रीजल’’ तारा ही है जो उससे 15 हजार गुना बड़ा है। ‘‘अन्टेयर्स’’ सूर्य जैसे 3 करोड़ 60 लाख गोलों को अपने भीतर आसानी से सुला सकता है। जून 1967 के ‘‘साइन्स टुडे’’ में ‘‘ग्राहम बेरी’’ ने लिखा है। पृथ्वी से छोटे ग्रह भी ब्रह्माण्ड में हैं और 5 खरब मील की परिधि वाले भीमकाय नक्षत्र भी। किन्तु यह सभी विराट् ब्रह्माण्ड में निर्द्वन्द विचरण कर रहे हैं यदि कहीं कोई व्यवस्था न होती तो यह तारे आपस में ही टकरा कर नष्ट-भ्रष्ट हो गये होते।

सूर्य अपने केन्द्र में 1 करोड़ साठ लाख डिग्री से.ग्रे. गर्म है, यदि पृथ्वी के ऊपर अयन मण्डल (आइनोस्फियर) की पट्टियां न चढ़ाई गई होती तो पृथ्वी न जाने कब जलकर राख हो गई होती। सूरज अपने स्थान से थोड़ा सा खिसक जाये तो ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघल कर सारी पृथ्वी को डुबो दे यही नहीं उस गर्मी से कड़ाह, में पकने वाली पूड़ियों की तरह सारा प्राणि जगत ही पक कर नष्ट हो जाये। थोड़ा ऊपर हट जाने पर समुद्र तो क्या धरती की मिट्टी तक बर्फ बनकर जम सकती है। यह तथ्य बताते हैं ग्रहों की स्थिति और व्यवस्था अत्यन्त बुद्धिमत्ता पूर्वक की गई है। यह परमात्मा के अतिरिक्त और कौन चित्रकार हो सकता है।

इतने पर भी कुछ लोग हैं जो यह कहते नहीं थकते कि ईश्वरीय सत्ता का कोई प्रमाण कोई अस्तित्व नहीं है। मार्क्स ने किसी पुस्तक में यह लिखा है कि—‘यदि तुम्हारा ईश्वर प्रयोगशाला की किसी परखनली में सिद्ध किया जा सके तो मैं मान लूंगा कि वस्तुतः ईश्वर का अस्तित्व है।

सिद्ध न होने पर भी

नास्तिक दर्शन की मूल मान्यता भी यही है कि ईश्वर सिद्ध नहीं किया जा सकता और जो सिद्ध नहीं होता उसका अस्तित्व कैसे हो सकता है यह मान्यता अपने आप में एकांगी और अधूरी है। मान्यता विज्ञान से सिद्ध नहीं होती उसका अस्तित्व ही नहीं है—यह अब से सौ वर्ष पूर्व तक तो अपने स्थान पर सही थी क्योंकि तब विज्ञान अपने शैशव में था। परन्तु जब विज्ञान ने अविज्ञात के क्षेत्र में प्रवेश किया और एक से एक रहस्य सामने आते गये तो यह माना जाने लगा कि ऐसी बहुत-सी वस्तुओं का, सत्ताओं का अस्तित्व है जो अभी विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं हो सका है अथवा जिन तक विज्ञान नहीं पहुंच सका है।

कुछ दशाब्दियों से पूर्व तक यह माना जाता था कि पदार्थ का सबसे सूक्ष्म कण अणु है और वह अविभाज्य है। पदार्थ के सूक्ष्मतम विभाजन के बाद अवशिष्ट स्वरूप को अणु कहा गया और माना जाने लगा कि यही अन्तिम है। परन्तु इसके कुछ वर्षों बाद ही वैज्ञानिकों को अणु से भी सूक्ष्म कण परमाणु का पता चला। परमाणु को अविभाज्य समझा जाने लगा। लेकिन परमाणु का विखण्डन भी सम्भव हो गया। पदार्थ के इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप के विखण्डन से बहुत बड़ी ऊर्जा का विस्फोट दिखाई दिया, जिसके ध्वंस या सृजन में चाहे जिस प्रयोजन के लिए उपयोग सम्भव दिखाई देने लगा।

परन्तु अब भी यह नहीं मान लिया गया है कि परमाणु ही अन्तिम सत्य है। यह समझा जा रहा है कि परमाणु से भी सूक्ष्म पदार्थ का कोई अस्तित्व हो सकता है। इसी आधार पर प्रो. रिचर्ड ने अपनी पुस्तक ‘‘थर्टीईयर आफ साइकिक रिसर्च’’ में लिखा है—पचास वर्ष पूर्व यह माना जाता था कि जो बात भौतिक विज्ञान से सिद्ध न हो उसका अस्तित्व ही नहीं है। किन्तु भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ही अब ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि वह अभी भौतिक वस्तुओं को ही ठीक से समझ नहीं पाया है। फिर उसे सत्ता के अस्तित्व को इस आधार पर कैसे चुनौती दी जा सकती है जिसे भौतिक विज्ञान की पहुंच के बाहर कहा जाता है।’’

सर ए.एस. एडिग्रन ने इसी तथ्य को यों प्रतिपादित किया है—‘‘भौतिक पदार्थों के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है जिसे अणु प्रक्रिया का प्राण कहा जा सकता है। हम उसका सही स्वरूप और क्रियाकलाप अभी नहीं जानते, पर यह अनुभव कर सकते हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है वह अनायास, आकस्मिक या अविचारपूर्ण नहीं है। आधुनिक विज्ञान पदार्थ का अन्तिम विश्लेषण करने में भी अभी समर्थ नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए परमाणु का विखण्डन हो जाने के बाद पदार्थ का एक ऐसा सूक्ष्मतम रूप अस्तित्व में आया है जिसे वैज्ञानिक अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाये हैं। जैसे प्रकाश कोई वस्तु नहीं है। वस्तु अर्थ है जो स्थान घेरे, जिसमें कुछ भार हो और जिसका विभाजन किया जा सके। प्रकाश का न तो कोई भाव होता है, न वह स्थान घेरता है और न ही उसका विभाजन किया जा सकता है। पदार्थ का अन्तिम कण जो परमाणु से भी सूक्ष्म है ठीक प्रकाश की तरह है, परन्तु उसमें एक वैचित्र्य भी है कि वह तरंग होने के साथ-साथ स्थान भी घेरता है। वैज्ञानिकों ने परमाणु से भी सूक्ष्म इस स्वरूप को नाम दिया है—‘‘क्वाण्टा’’।

कहने का अर्थ यह है कि भौतिक विज्ञान अभी पदार्थ का विश्लेषण करने में भली-भांति समर्थ नहीं हो सका है फिर चेतना का विश्लेषण और प्रमाणीकरण करना तो बहुत दूर की बात है। शरीर संस्थान में चेतना का प्रधान कार्यक्षेत्र मस्तिष्क कहा जाता है। वहीं विचार उठते हैं, चिन्तन चलता है, भाव-सम्वेदनाओं की अनुभूति होती है। शरीर विज्ञान की अद्यतन शोध प्रगति भी मस्तिष्कीय केन्द्र का रहस्य समझ पाने में असमर्थ रही है। डा. मैकडूगल ने अपनी पुस्तक ‘‘फिजियौलाजिकल साइकोलाजी’’ में लिखा है—‘‘मस्तिष्क की संरचना को कितनी ही बारीकी से देखा समझा जाय यह उत्तर नहीं मिलता कि मानव प्राणी पाशविक स्तर से ऊंचा उठकर किस प्रकार ज्ञान विज्ञान की धारा में बहता रहता है और कैसे भावनाओं सम्वेदनाओं से ओत-प्रोत रहता है। भाव सम्वेदनाओं की गरिमा को समझाते हुए हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य के भीतर कोई अमूर्त सत्ता भी विद्यमान है जिसे आत्मा अथवा भाव चेतना जैसा कोई नाम दिया जा सकता है।’’

जीवित और मृत्यु देह में मूलभूत रासायनिक तत्वों में कोई परिवर्तन होता है तो इतना भर कि उनकी गति, निरन्तर उनका होता रहने वाला रूपान्तरण विकास अवरुद्ध हो जाता है। इस अवरुद्ध क्रम को चालू करने के कितने ही प्रयास किये गये, परन्तु उनमें कोई सफलता नहीं मिल सकी। प्रयास अभी भी जारी हैं, परन्तु भिन्न ढंग के। अब यह सोचा जा रहा है कि मृत्यु के समय शरीर में विलुप्त हो जाने वाली चेतना को पुनः किसी प्रकार लौटाया जा सके तो पुनर्जीवन सम्भव है। इसी आधार पर ‘‘मिस्टिरियस यूनिवर्स’’ ग्रन्थ के रचयिता सरजेम्स जोन्स ने लिखा है विज्ञान जगत अब पदार्थ सत्ता का नियन्त्रण करने वाली चेतन सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा है तथा यह खोजने में लगा है कि हर पदार्थ को गुण धर्म की रीति-नीति से नियन्त्रित करने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है? पदार्थ को स्वसंचालिता इतनी अपूर्ण है कि उस आधार पर प्राणियों की चिन्तन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता।

सृष्टि क्रम की सुव्यवस्था, विकासक्रम और जीवन चेतना की विचित्र अद्भुत विविधता फिर भी उनमें सुनियोजित साम्य—ईश्वरीय अस्तित्व का प्रबल प्रमाण है। इसके विरुद्ध यह कहा जाता है कि सृष्टि का कोई भी घटक, जीव-प्राणी पदार्थ से भिन्न कुछ नहीं है। कहा जाता है कि समस्त विश्व कुछ घटनाओं के जोड़ के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

उसके उत्तर में ख्याति प्राप्त विज्ञान वेत्ता टेण्डल ने अपने ग्रन्थ ‘‘फ्रेगमेण्टस् ऑफ साइन्स’’ में लिखा है हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन और कुछ ऐसे ही जड़ ज्ञान शून्य पदार्थों के परमाणुओं से जीवन चेतना का उदय हुआ यह असंगत है। क्योंकि जीवन चेतना का स्पन्दन हर जगह इतना-सुव्यवस्थित और सुनियोजित है कि उसे संयोग मात्र नहीं कहा जा सकता। चौपड़ के पांसे खड़खड़ाने से होमर के काव्य की प्रतिभा एवं गेंद की फड़फड़ाहट से गणित के डिफरेंशियल सिद्धान्त का उद्भव कैसे हो सकता है? ‘‘पुगमेण्ट्स ऑफ साइन्स’’ के लेखक ने लिखा है कि यान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से देखना, सोचना, स्वप्न, सम्वेदना और आदर्शवादी भावनाओं के उभार की कोई तुक नहीं बैठती। शरीर यात्रा की आवश्यकता पूरी करने के अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ सोचता, चाहता और करता है तथा संसार में जो कुछ भी ज्ञात-विज्ञात है वह इतना अद्भुत है कि जड़ परमाणुओं के संयोग से उनके निर्माण की कोई संगति नहीं बिठाई जा सकती।

रहस्यमय यह संसार और इसके जड़ पदार्थों का विश्लेषण ही अभी प्रयोगशालाओं में सम्भव नहीं हुआ है तो चेतना, ईश्वरीय सत्ता का विश्लेषण प्रमाणीकरण लैबोरेटरी के यन्त्रों से किस प्रकार हो सकेगा? फिर भी यह कहने का अथवा इस आग्रह पर अड़े रहने का कोई कारण नहीं है कि विज्ञान से सिद्ध न होने के कारण ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। परमाणु का जब तक पता नहीं चला था, इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे पहले परमाणु था ही नहीं। परमाणु उससे पहले भी था और आज तर्कों द्वारा उसे असत्य सिद्ध कर दिया जाय तो भी उसका अस्तित्व मिट नहीं जाता। स्वीकार करने या न करने, ज्ञात होने अथवा अज्ञात रहने से किसी का होना न होना कोई मतलब नहीं रखता।

सत् तत्व का नियामक

सर्व नियामक सत्ता की प्रबन्ध व्यवस्था का पता जीवन के आविर्भाव से ही चल जाता है। जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सृष्टि में ऐसा प्रबन्ध है कि वे सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करे। सांस के बिना प्राणी एक क्षण को भी जीवित नहीं रह सकता, सो वह प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध है। उसके बाद जल की आवश्यकता है उसके लिए थोड़ा प्रयत्न करने से ही काम चल जाता है। तीसरी आवश्यकता अन्न की है सो उसके लिए साधन न जुटा सकने वाले प्राणियों के लिए फल-फूल की प्राकृतिक व्यवस्था है वहीं बुद्धिधारी जीव थोड़े प्रयत्न से अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं इसके बाद के समस्त उपादान आवश्यकता के अनुपात में प्रयत्न और परिश्रम से प्राप्ति होते रहते हैं। इस सार्वभौम आवश्यकताओं की पूर्ति बिना संचालक-व्यवस्थापक के कैसे सम्भव हो सकती थी।

नैतिकता के सर्वमान्य सिद्धान्तों से न केवल जीव समुदाय जुड़ा है अपितु कर्त्ता ने वह अनुशासन स्वयं पर भी पूरी तरह लागू किया है। भ्रूण जैसी अत्यधिक कोमल और सम्वेदनशील सत्ता को विकसित होने के लिए खुला छोड़ दिया जाता तो प्राण-धारी के लिए उपयोगी वायु, ताप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियां ही उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डालतीं सो उसके लिए अति वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास मां के गर्भाशय की व्यवस्था क्या किसी अत्यधिक प्रबुद्ध सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण नहीं। जहां चारों तरफ से बन्द कोठरी में ही उसे विकास की समस्त सुविधायें उचित मात्रा में मिलती रहती है, जन्म के पूर्व ही उसके लिए सन्तुलित आहार मां के दूध जैसा उपलब्ध कराकर उसे अत्यधिक करुणा दरसाई। असहाय, असमर्थ शिशु के लिये न केवल भौतिक सहायताएं अपितु उसके लिए जिन भावनात्मक सुविधाओं की आवश्यकता थी वह समस्त उसे कुटुम्ब में, समुदाय और समाज में मिल जाती हैं। इस तरह जीवनसत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है इतने पर भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा विकसित हुआ जीव न केवल सामाजिक कर्त्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है, अपितु अपने परमपिता, अपनी मूलसत्ता को ही भुला बैठता है।

इतने पर भी वह दयालु पिता उस शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी पितृत्व, कामेच्छा और भावनात्मक सहयोग की पूर्ति के लिए जोड़ी मिलाने, नर को नारी में नारी को नर में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा जुटाई, रोग निरोध की तथा सांसारिक प्रतिकूलताओं में अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्म-जात सुविधाएं भी प्रदान की हैं। रोगों से लड़ने की शक्ति रक्त कणों में शारीरिक अवयवों की सुरक्षा त्वचा के द्वारा देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए बढ़िया मस्तिष्क इतनी सुन्दर मशीन आज तक न कोई बना सका और न बना सकना सम्भव है जो इच्छानुसार हर परिस्थिति में मुड़ने, लचकने, संभालने में सक्षम है। आंख जैसी रेटिना, कान जैसा पर्दा गुर्दे जैसे सफाई अधिकारी, हृदय जैसे पोषण संस्थान और पांव जैसा सुन्दर आर्क बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान होती इसकी तुलना न किसी इंजीनियर से हो सकती है न डॉक्टर से। वह प्रत्येक कला-कौशल का ज्ञाता, सर्व निष्णात और सर्व प्रभुता सम्पन्न दानी केवल परमात्मा ही हो सकता है इससे कम मानना न केवल उस परमात्मा की अवमानना होगी अपितु यह एक प्रकार से स्वयं का ही आत्मघात होगा।

इतने पर ही उसके अनुदान समाप्त नहीं हो जाते अग्नि में चिंगारी, पदार्थ में—परमाणु सूर्य में किरणों की तरह वह स्वयं भी मनुष्य की हृदय गुहा में बैठकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देता रहता है। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही उसकी प्रेरणा रोकती है, पर मनुष्य अन्तःकरण की उस पुकार को अनसुनी कर स्वेच्छाचारिता बरतता और उस अपराध का दण्ड, रोग, शोक, क्लेश, कलह और मानसिक सन्ताप के रूप में भुगतता रहता है। फिर भी उसकी वासनाएं शान्त नहीं होतीं, वह अपनी वासनाओं की, तृष्णा की, अतृप्त कामनाओं की प्यास बुझाने के लिए मानवेत्तर योनियों में भटकता है, तो भी उसकी दया, करुणा, उदारता एक पल को भी साथ नहीं छोड़ती और उसे निरन्तर ऊपर उठने, कामनाओं से मुक्ति पाकर शाश्वत, सनातन और दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी इस सत्ता के अजस्र अनुदानों की ओर से आंख फेरकर मनुष्य प्यासा का प्यासा बना रहता है। माया के मूढ़ भ्रमजाल में पड़ा जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के सोल नष्ट करता रहता है।

वैज्ञानिक सृष्टि की नियामक विधि-व्यवस्था प्रत्येक अणु में विद्यमान दिव्य चेतना को नहीं झुठलाती। हर्वर्ट स्पेंसर की दृष्टि में भगवान् एक विराट् शक्ति है जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार घर का मुखिया, गांव का प्रधान, जिले का कलेक्टर और प्रान्त का गवर्नर। राज्य के नियमों का हम इसलिए पालन करते हैं क्योंकि हमें राजदण्ड का भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर हमें भय लगता है जब कि हम उसके लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है। निर्भीक व्यक्ति, नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है इस तथ्य से वह भी स्पष्ट है कि वह प्रजावत्सल और न्यायकारी भी है।

दार्शनिक कान्ट ने इन्पेंसर के कथन को और भी स्पष्ट करते हुये लिखा है—नैतिक नियमों की स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर, डकैत और कसाई तक अपने बच्चों के प्रति दयालु और कर्त्तव्य-परायण होते हैं, जब कि वे जीवन भर कुत्सित कर्म ही करते रहते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है। उसी से संसार का निर्माण पालन और पोषण हो रहा है। इसलिए परमात्मा नैतिक शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।

हैब्रू ग्रन्थों में ईश्वर को ‘‘जेनोवाह’’ कहा गया है जेनोवाह का शाब्दिक अर्थ है—वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। दार्शनिक प्लेटो ने उसे—‘‘अच्छाई का विचार’’ कहा है। संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि जीव-जन्तुओं में भी अच्छाई की चाह रहती है। अच्छाई में ही आनन्द और आत्म-तृप्ति मिलती है। अच्छाई शरीर और सौन्दर्य की जो संयम और सदाचार द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई समाज की जो ईमानदारी, नेकनीयती, विश्वास, सहयोग और परस्पर प्रेम व भाईचारे की भावना से सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की जो रंग-बिरंगे फूलों, भोले भाले पशु-पक्षियों के कलरव उनकी क्रीड़ा द्वारा सुरक्षित हैं। इस तरह संसार में सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। परमात्मा इस तरह अच्छाई का वह बीज है जो आंखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।
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