तत्वदृष्टि से बंधन मुक्ति

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

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ईश्वर वह चेतना शक्ति है जो ब्रह्माण्डों के भीतर और बाहर जो कुछ है उस सब में संव्याप्त है। उसके अगणित क्रिया-कलापों में एक कार्य इस प्रकृति का संचालन भी है। प्रकृति के अन्तर्गत जड़-पदार्थ और चेतना के कलेवर शरीर इन दोनों को सम्मिलित कर सकते हैं। प्रकृति और पुरुष का युग्म इसी दृष्टि से निरूपित हुआ है। जड़ और चेतन का सम्मिश्रण ही अपना यह विश्व है। इस विश्व की परिधि में ही हमारी इच्छाएं, भाव-सम्वेदनाएं, विचारणाएं एवं गति-विधियां सीमित हैं। मस्तिष्क का निर्माण जिन तत्वों से हुआ है उसके लिए इतना ही सम्भव है कि इस ज्ञात एवं अविज्ञात विश्व-ब्रह्माण्ड की परिधि में ही सोचे, निष्कर्ष निकाले और जो कुछ सम्भव हो वह उसी परिधि में रहकर करे।

विज्ञान अनुसंधान के आधार पर प्रकृति के थोड़े से रहस्यों का उद्घाटन अभी सम्भव हो सकता है। जो जानना शेष है उसकी तुलना में उपलब्ध जानकारियां नगण्य हैं। अणु ऊर्जा अपने समय की बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, पर मूर्धन्य विज्ञानवेत्ताओं का कथन है कि सूक्ष्मता की जितनी गहरी परतों में प्रवेश किया जायेगा उतनी ही अधिक प्रखरता का रहस्य विदित होता जायेगा। ढेले की तुलना में अणु शक्ति का चमत्कार अत्यधिक है। ठीक इसी प्रकार समूचे अणु-पिण्ड की तुलना में उसका मध्यवर्ती नाभिक, न्यूक्लियस असंख्य गुनी शक्ति छिपाये बैठा है। अणु को सौर-मण्डल कहा जाय तो उसका मध्यवर्ती नाभिक सूर्य कहा जायेगा। सौर-मण्डल के सभी ग्रह-उपग्रहों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सूर्य से ही अनुदान मिलते हैं और उसी आधार पर सौर-मण्डल का वर्तमान ढांचा इस रूप में चल रहा है। यदि सूर्य नष्ट हो जायेगा तो फिर सौर-मण्डल का सीराजा ही बिखर जायेगा। तब यह पता भी न चलेगा कि प्रस्तुत ग्रह-उपग्रह अन्तरिक्ष में न जाने कहां विलीन हो जायेंगे और उनका न जाने क्या अन्त होगा? अणु का मध्यवर्ती नाभिक कितना शक्तिशाली है और उसकी क्षमता जैसे अणु परिवार का संचालन कर रही है, इस बारीकी पर विचार करने मात्र से विज्ञानी मस्तिष्क चकित रह जाता है। कौन कहे—न्यूक्लियस के भीतर भी और कोई शक्ति परिवार काम कर रहा हो और फिर उसके भीतर भी कोई और जादूगरी बसी हुई हो। प्रतिविश्व—ऐन्टीयुनिवर्स—प्रतिकण एन्टीएटम—की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। कहा जाता है कि अपनी दुनिया के ठीक पिछवाड़ —बिलकुल उससे सटी हुई एक और जादुई दुनिया है। उस अविज्ञात की सामर्थ्य इतनी अधिक कूती जाती है जितनी कि शरीर की तुलना में आत्मा की। प्रतिकण और प्रतिविश्व के रहस्यों का पता चल जाय और उस पर किसी प्रकार अधिकार हो जाय तो फिर समझना चाहिए कि अभी प्राणि जगत का अधिपति कहलाने वाला मनुष्य तभी सच्चे अर्थों में सृष्टि का अधिपति कहलाने का दावा कर सकेगा।

यह तो सूक्ष्मता की चर्चा हुई। स्थूलता की—विस्तार की बात तो सोचते भी नहीं बनती। आंखों से दीखने वाले तारे अपनी पृथ्वी से करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर हैं। प्रकाश एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलता है। इस हिसाब से एक वर्ष में जितनी दूरी पार करली जाय वह एक प्रकाश वर्ष हुआ। कल्पना की जाय कि करोड़ों प्रकाश वर्ष में कितने मीलों की दूरी बनेगी। फिर यह तो दृश्य मात्र तारकों की बात है। अत्यधिक दूरी के कारण जो तारे आंखों से नहीं दीख पड़ते उनकी दूरी की बात सोच सकना कल्पना शक्ति से बाहर की बात हो जाती है। अपनी निहारिका में ही एक अरब सूर्य आंके गये हैं। उनमें से कितने ही सूर्य से हजारों गुने बड़े हैं। अपनी निहारिका जैसी अरबों, खरबों निहारिकाएं इस निखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। इस समस्त विस्तार की बात सोच सकना अपने लिए कितना कठिन पड़ेगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।

अणु की सूक्ष्मता और ब्रह्माण्ड की स्थूलता की गइराई, ऊंचाई का अनुमान करके हम चकित रह जाते हैं। अपनी पृथ्वी के प्रकृति रहस्यों का भी अभी नगण्य-सा विवरण हमें ज्ञात हो सका है, फिर अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की आणविक एवं रासायनिक संरचना से लेकर वहां की ऋतुओं, परिस्थितियों तक से हम कैसे जानकार हो सकते हैं। इस ग्रहों की संरचना एवं परिस्थितियां एक दूसरे से इतनी अधिक भिन्न हैं कि प्रत्येक ग्रह की एक स्वतन्त्र भौतिकी तैयार करनी होगी। हमें थोड़े से वैज्ञानिक रहस्य ढूंढ़ने और उपयोग में लाने के लिए लाखों वर्ष लगाने पड़े हैं फिर अगणित ग्रह-नक्षत्रों की—उनके मध्यवर्ती आकाश की स्थिति जानने के लिए जितना समय, श्रम एवं साधन चाहिए उन्हें जुटाया जा सकना अपने लिए कैसे सम्भव हो सकता है?

वह सृष्टि की सूक्ष्मता और स्थूलता की चर्चा हुई। इसके भीतर जो चेतना काम कर रही है उसकी दिशा धारायें तो और भी विचित्र हैं। प्राणियों की आकृति-प्रकृति की विचित्रता देखते ही बनती है। प्रत्येक की अभिरुचि एवं जीवनयापन पद्धति ऐसी है जिसका एक दूसरे के साथ कोई तालमेल नहीं बैठता। मछली का चिन्तन, रुझान, आहार, निर्वाह, प्रजनन, पुरुषार्थ, समाज आदि का लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो वह नृतत्व विज्ञान से किसी भी प्रकार कम न बैठेगा। फिर संसार भर में मछलियों की भी करोड़ों जातियां—उपजातियां हैं और उनमें परस्पर भारी मित्रता पाई जाती है। इन सबका भी पृथक-पृथक शरीर शास्त्र, मनोविज्ञान, निर्वाह विधान एवं उत्कर्ष-अपकर्ष का अपने-अपने ढंग का विधि-विधान है। यदि मछलियों को मनुष्यों की तरह ज्ञान और साधन मिले होते तो उनने अपनी जातियों-उपजातियों का उतना बड़ा ज्ञान भण्डार विनिर्मित किया होता जिसे मानव विज्ञान से आगे न सही पीछे तो किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता था। बात अकेली मछली की नहीं है। करोड़ों प्रकार के जल-जन्तु हैं उनकी जीवनयापन प्रक्रिया एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न है। जलचरों से आगे बढ़ा जाय तो थलचरों और नभचरों की दुनिया सामने आती है। कृमि-कीटकों से लेकर हाथी तक के थलचर—मच्छर से लेकर गरुड़ तक के नभचरों की आकृति-प्रकृति भिन्नता भी देखते ही बनती है। उनके आचार-विचार, व्यवहार, स्वभाव एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं। व्याघ्र और शशक की प्रकृति की तुलना की जाय तो उनके बीच बहुत थोड़ा सामंजस्य बैठेगा। अन्यथा उनकी निर्वाह पद्धति में लगभग प्रतिकूलता ही दृष्टिगोचर होगी। इन असंख्य प्राणियों की जीवन-पद्धति के पीछे जो चेतना तत्व काम करता है उसकी रीति-नीति कितनी भिन्नता अपने में संजोये हुए है यह देखकर जड़ प्रकृति की विचित्रता पर जितना आश्चर्य होता था। चैतन्य में भी कहीं अधिक हैरानी होती है। कहना न होगा कि सर्वव्यापी ईश्वरीयसत्ता के ही यह क्रिया कौतुक हैं।

सूक्ष्म जीवों की दुनिया और भी विचित्र है। आंखें से न दीख पड़ने वाले प्राणी हवा में—पानी में तैरते हैं। मिट्टी में बिखरे पड़े हैं और शरीर के भीतर जीवाणुओं के रूप में विद्यमान हैं। जीवाणु एवं विषाणु विज्ञान क्षेत्र की खोज को कहीं से कहीं घसीटे लिये जा रहे हैं। शरीर-शास्त्री, चिकित्सा-शास्त्री हैरान हैं कि इन शूरवीरों की अजेय सेना को वशवर्ती करने के लिए क्या उपाय किया जाय? मलेरिया का मच्छर अरबों, खरबों की डी.डी.टी खाकर भी अजर-अमर सिद्ध हो रहा है तो रोगाणुओं, विषाणुओं जैसे सूक्ष्म सत्ताधारी सूक्ष्म जीवों का सामना क्यों कर हो सकेगा? सशस्त्र सेनाओं को परास्त करने के उपाय सोचे और साधन जुटाये जा सकते हैं, पर इन जीवाणुओं से निपटने का रास्ता ढूंढ़ने में बुद्धि हतप्रभ होकर बैठ जाती है। इन सूक्ष्म जीवों की अपनी दुनिया है। यदि उनमें से भी कोई अपनी जाति का इतिहास एवं क्रिया-कलाप प्रस्तुत कर सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्यों की दुनिया उनकी तुलना में कितनी छोटी और कितनी पिछड़ी हुई है।

अभी रासायनिक पदार्थों का, यौगिकों का, अणुओं का, तत्वों का विज्ञान अपनी जगह पर अलग ही समस्याओं और विवेचनाओं का ताना-बाना लिये खड़ा है। सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाई जाय, उधर ही शोध के लिए सुविस्तृत क्षेत्र खड़ा हुआ मिलेगा। मनुष्य को प्रस्तुत जानकारियों पर गर्व हो सकता है, पर जो जानने को शेष पड़ा है वह उतना बड़ा है कि समग्र जानकारी मिल सकने की बात असम्भव ही लगती है। मनुष्य की तुच्छता का—उसकी उपलब्धियों की नगण्यता का तब बोध होता है जब थोड़े से मोटे-मोटे आधारों से आगे बढ़कर गहराई में उतरा जाता है या ऊंचाई पर चढ़ा जाती है।

ऊपर की पंक्तियां प्रकृति के जड़ पदार्थों और जीव कलेवरों के सम्बन्ध में थोड़ी-सी झांकी कराती हैं और बताती हैं कि यह प्रसार विस्तार कितना अधिक है और उसे समझ सकने में मानवी बुद्धि कितनी स्वल्प है। सृष्टि वैभव को भी अकल्पनीय, अनिर्वचनीय एवं अगम्य ही कहा जा सकता है। फिर उस परमेश्वर के स्वरूप, उद्देश्य एवं क्रिया-कलाप को समझ सकने की बात कैसे बने, जो इस सूक्ष्म, स्थूल, चल, स्थिर प्रकृति से भीतर ही नहीं बाहर भी हैं और यह सारा बालू का महल उसने क्रीड़ा विनोद के लिए रच कर खड़ा कर लिया है।

परमसत्ता का क्रीड़ा विनोद

कान्ट, हेगल, प्लेटो एरिस्टाटल आदि प्रकृति विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि एक ऐसी सत्ता है, जो ब्रह्माण्ड की रचयिता है या स्वयं ब्रह्माण्ड है किन्तु इनमें से किसी ने भी पूर्ण विचार देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। संसार में जितने भी धर्म है, वह सब ईश्वरीय अस्तित्व को मानते हैं। प्रत्येक धर्म अपने ब्रह्म के प्रतिपादन में अनेक प्रकार के सिद्धान्त और कथायें प्रस्तुत करते हैं, किन्तु उस सत्ता का सविवेक प्रदर्शन इनमें से कोई नहीं कर सकता, तथापि वे उच्च सत्ता की सर्वशक्तिमत्ता पर अविश्वास नहीं करते।

ईश्वर सम्बन्धी अनुसन्धान की वैज्ञानिक प्रक्रिया डार्विन से प्रारम्भ होती है। डार्विन एक महान् जीव-शास्त्री थे, उन्होंने देश-विदेश के प्राणियों, पशुओं और वनस्पतियों का गहन अध्ययन किया और 1859 एवं 1871 में प्रकाशित अपने दो ग्रन्थों में यह सिद्धान्त स्थापित किया कि संसार के सभी जीव एक ही आदि जीव के विकसित और परिवर्तित रूप हैं। उन्होंने बताया—संसार में जीवों की जितनी भी जातियां और उपजातियां हैं, उनमें बड़ी विलक्षण समानतायें और असमानतायें हैं। समानता यह कि उन सभी की रचना एक ही प्रकार के तत्व से हुई है और असमानता यह है, उनकी रासायनिक बनावट सबसे अलग-अलग है। अनुवांशिकता का आधार रासायनिक स्थिति है, उसकी प्रतिक्रिया में भाग लेने वाली क्षमता चाहे कितनी सूक्ष्म क्यों न हो।

इसके बाद मेंडल, हालैण्ड के ह्यूगो दव्री ने भी अनेक प्रकार के प्रयोग किये और यह पाया कि जीव में अनुवांशिक-विकास माता-पिता के सूक्ष्म गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) पर आधारित है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (अमेरिका) के डा. जेम्स वाट्सन और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (इंग्लैण्ड) के डा. फ्रांसिस क्रिक ने भी अनेक प्रयोगों द्वारा शरीर के कोशों (सेल्स) की भीतरी बनावट का विस्तृत अध्ययन किया और गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) की खोज की। जीन्स (गुण सूत्रों में एक प्रकार की गांठें) उसी की विस्तृत खोज का परिणाम थीं। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य शरीर में डोरे की शक्ल में पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को यदि खींचकर बढ़ा दिया जाये तो उससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नापा जा सकता है। बस इससे अधिक और मूलस्रोत की जानकारी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये तब से उनकी खोजों की दिशा और ही है। उस एक अक्षर, अविनाशी और सर्वव्यापी तत्व के गुणों का पता लगाना उनके लिये सम्भव न हुआ, जो प्रत्येक अणु में सृजन या विनाश की क्रिया में भाग लेता है। हां इतना अवश्य हुआ कि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि—(1) सारा जीव जगत् एक ही तत्व से विकसित हुआ है, (2) गुणों के आधार पर जीवित शरीरों का विकास होता है।

यद्यपि यह जानकारियां अभी नितान्त अपूर्ण हैं तो भी उनसे मनुष्य को सत्य की यथार्थ जानकारी के लिए प्रेरणा अवश्य मिलती है। ‘कटेम्प्रेरी थाट आफ ग्रेट ब्रिटेन’ के विद्वान् लेखक ए.एन. विडगरी लिखते हैं—‘‘वे तत्व जो जीवन का निर्माण करते हैं और जिनकी वैज्ञानिकों ने जानकारी की है, उनमें यथार्थ मूल्यांकन के अनुपात में बहुत कमी है, आज आवश्यकता इस बात की है कि सांसारिक अस्तित्व से भी अधिक विशाल मानवीय अस्तित्व क्या हैं, इसका पता लगाया जाये। विज्ञान से ही नहीं, बौद्धिक दृष्टि से भी उसकी खोज की जानी चाहिए। हमारा भौतिक अस्तित्व अर्थात् हमारे शरीर की रचना और इससे सम्बन्धित संस्कृति का मानव के पूर्ण अस्तित्व से कोई तालमेल नहीं है। इससे हमारी भावनात्मक सन्तुष्टि नहीं हो सकती, इसलिये हमें जीवन के मूलस्रोत की खोज करनी पड़ेगी। अपने अतीत और भविष्य के बीच थोड़ा-सा वर्तमान है, क्या हमें उतने से ही सन्तोष मिल सकता है, हमें अपने अतीत की स्थिति और भविष्य में हमारी चेतना का क्या होगा, हम संसार में क्यों हैं और क्या कुछ ऐसे आधार हैं जिनसे बंधे होने के कारण हम संसार में हैं, इनकी खोज होनी चाहिये।’’ इन पंक्तियों में वही बात प्रतिध्वनित होती है, जो ऊपर कही गई है। विज्ञान ने निष्कर्ष भले ही न दिया हो पर उसने जिज्ञासा देकर मनुष्य का कल्याण ही किया है। ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ ब्रह्म की पहचान के लिये हम तभी तत्पर होते हैं, जब उस मूलस्रोत के प्रति हमारी जिज्ञासा जाग पड़ती है।

इस बिन्दु पर पहुंचकर हम कह सकते हैं कि ब्रह्मविद्या का अर्थ और इति दोनों ही वेदान्त धर्म में बहुत पहले से हैं। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ ‘एक नूर से सब जग उपजिया’ ‘संकल्पयति यन्नाम प्रथमोऽसौ प्रजापतिः, तत्तदेवाशु भवति तस्येदं कल्पनं जगत् । (योगवशिष्ठ 5।2।186।6), सृष्टि के आदि में एक ब्रह्मा ही था, उसने जैसे-जैसे संकल्प किया, वैसे-वैसे यह कल्पना जगत् बनता गया। ‘एक मेवाद्वयं ब्रह्म’ (छान्दोग्य 6।2।1) वही एक अद्वितीय और ब्रह्म होकर विराजता है। ‘ईकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलोनिर्गुणश्च ।

श्वेताश्व—6।11,

वही एक देव सब भूतों में ओत-प्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वत्र व्याप्त है, वह इस कर्मरूप शरीर का अध्यक्ष है। निर्गुण होते हुये भी चेतना-शक्तियुत है। पूर्व में क्या किया है, अब क्या कर रहा है, जीव की इस सम्पूर्ण क्रिया का साक्षी वही है, वही सब भूतों में प्राण धारण करके जीव रूप से वास करता है।

उपरोक्त आख्यानों और पाश्चात्य वैज्ञानिकों की इस खोज में कि—‘‘संसार के समस्त पदार्थ एक ही तत्व से बने हुये हैं’’ जबर्दस्त साम्य है। वेदान्त के यह प्रतिपादन आज से लाखों वर्ष पूर्व लिखे गये हैं, इसलिये जब हम अकेले वेदान्त को कसौटी पर लाते हैं तो उसकी परिपूर्णता और वैज्ञानिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। जब तक वह एक था, तब तक ‘पूर्ण पर ब्रह्म’ था, जब वही अपनी वासनाओं के कारण जीव रूप में आया तो अद्वैत से द्वैत बना, जीव जब अपने सांसारिक भाव से अपने शाश्वत अंश और मूल ब्रह्म पर विचार करता है तो वही स्थिति ‘चैत’ कहलाती है। इसी का विकास और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने पर शरीरधारी की जो स्थिति होती है, वही विशिष्टाद्वैत के नाम से कहा गया है, इसमें न कहीं कोई भ्रांति है, न मत अनैक्य। वेदान्त ने यह प्रतिपादन प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति की समझ के लिये किये हैं, वैसे सिद्धान्त में वह वैज्ञानिक मान्यताओं पर ही टिका हुआ है। कैवल्योपनिषद में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है—

यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् । सूक्ष्मात सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।

अणोरणीयानहमेव तद्वन्महान विश्मिदं विचित्रम् । पुरातनोऽह पुरुषोऽहमीशा हिरण्यमोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।

अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोष से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना लेने की क्षमता से परिपूर्ण हैं। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान होते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर में 6 खरब कोशिकायें हैं, इन सबकी सूक्ष्म चेतना की पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं मिली पर हमारा वेदान्त उसे अहंभाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि चेतना की अहंभाव की जिस प्रकार की वस्तु में रुचि या वासना बनी रहती है, वह वैसे ही पदार्थों द्वारा शरीर का निर्माण किया करता है, नष्ट नहीं होता वही इच्छायें, अनुभूति, संवेग, संकल्प और जो भी सचेतन क्रियायें हैं करता या कराता है, पदार्थ में यह शक्ति नहीं है। क्योंकि ब्रह्म दृश्य नहीं विचार है उसे ‘प्रज्ञान’ भी कहते हैं।

विचार से भी परे

पर ब्रह्म को विचार इसलिये कहा गया कि वह सूक्ष्म है अन्यथा शास्त्रकारों ने उसे अचिंत्य, अगोचर और अगम्य कहा गया है। उसकी व्याख्या विवेचना में तत्व वेत्ताओं ने कुछ चर्चा की है पर साथ ही नेति नेति कह कर अपने ज्ञान परिधि की स्वल्पता स्वीकार कर ली है। वस्तुतः समग्र ब्रह्म का विवेचन बुद्धि विज्ञान एवं साधनों के माध्यम से सम्भव हो ही नहीं सकता। तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर प्राप्ति की—ईश्वर दर्शन की—जो चर्चाएं होती रहती हैं, वे क्या हैं? यहां इतना ही कहा जा सकता है कि जीव और ब्रह्म की मिलन पृष्ठ भूमि के रूप में जिस ईश्वर की विवेचना होती है उसी का साक्षात्कार एवं अनुभव सम्भव है।

आकाश और धरती जहां मिलते हैं उसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष का सुहावना दृश्य सूर्योदय और सूर्यास्त के समय प्रातः सायं देखा जा सकता है। दो रंगों के मिलने से एक तीसरा रंग बनता है। भूमि और बीज के समन्वय की प्रतिक्रिया अंकुर के रूप में फूटती है। पति-पत्नी का मिलन अभिनव उल्लास के रूप में प्रकट होता है और प्रतिफल सन्तान के रूप में सामने आता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की प्रतिक्रिया को ईश्वर कह सकते हैं। गैस और गैस मिल कर पानी के रूप में परिणत हो जाती है। शरीर और प्राण का मिलन जीवन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। आग और जल के मिलने से भाप बनती है नैगेटिव और पौजिटिव धाराएं मिलने पर शक्तिशाली विद्युत प्रवाह गतिशील होता है। हम उसी ईश्वर से परिचित होते हैं जो आत्मा से परमात्मा के मिलन की प्रतिक्रिया के रूप में अनुभव की जाती है।

वेदान्त दर्शन में ईश्वर के रूप-स्वरूप की जितने तात्विक स्वरूप की विवेचना की गई है उतनी अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। ‘तत्वमसि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘शिवोहम्’ सच्चिदानन्दोहम् सोहम्, आदि सूत्रों में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। यहां आत्मा से तात्पर्य पवित्र और परिष्कृत चेतना से है। अति मानस-सुपर ईगो—पूर्ण पुरुष—भगवान परमहंस—स्थिति प्रज्ञ-आदि शब्दों में व्यक्तित्व के उस उच्चस्तर का संकेत हैं जिसे देवात्मा एवं परमात्मा भी कहा जाता है। इसी स्थिति को उपलब्ध कर लेना आत्म-साक्षात्कार—ईश्वर प्राप्ति आदि के नाम से निरूपित किया गया है। बन्धन, मुक्ति या जीवन-मुक्ति इसी स्थिति को कहते हैं। आत्मा चिंगारी है और परमात्मा ज्वाला। ज्वाला की समस्त सम्भावनाएं चिनगारी में विद्यमान हैं। अवसर मिले तो वह सहज ही अपना प्रचण्ड रूप धारण करके लघु से महान् बन सकता है। बीज में वृक्ष की समस्त सम्भावनाएं विद्यमान हैं। अवसर न मिले तो बीज चिरकाल तक उसी क्षुद्र स्थिति में पड़ा रह सकता है, किन्तु यदि परिस्थिति बन जाय तो वही बीज विशाल वृक्ष के रूप में विकसित हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। छोटे से शुक्राणु में एक पूर्ण मनुष्य अपने साथ अगणित वंश परम्पराएं और विशेषताएं छिपाये रहता है। अवसर न मिले तो वह उसी स्थिति में बना रह सकता है किन्तु यदि उसे गर्भ के रूप में विकसित होने की परिस्थिति मिल जाय तो एक समर्थ मनुष्य का रूप धारण करने में उसे कोई कठिनाई न होगी। अणु की संरचना सौर-मण्डल के समतुल्य है। अन्तर मात्र आकार विस्तार का है। जीव ईश्वर का अंश है। अंश में अंशी के समस्त गुण पाये जाते हैं। सोने के बड़े और छोटे कण में विस्तार भर का अन्तर है तात्विक विश्लेषण में उनके बीच कोई भेद नहीं किया जा सकता।

उपासना और साधना के छैनी हथौड़े से जीव के अनगढ़ रूप को कलात्मक देव प्रतिमा के रूप में परिणत किया जाता है। अध्यात्म शब्द का तात्पर्य ही आत्मा का दर्शन एवं विज्ञान है। इस सन्दर्भ के सारे क्रिया-कलापों का निर्माण निर्धारण मात्र एक ही प्रयोजन के लिये किया गया है कि व्यक्तित्व को—चेतना की उच्चतम—परिष्कृत—सुविकसित, सुसंस्कृत स्थिति में पहुंचा दिया जाय। इस लक्ष्य की उपलब्धि का नाम ही ईश्वर प्राप्ति है। आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन इन दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा में परमात्मा की झांकी अथवा परमात्मा में आत्मा की सत्ता का विस्तार। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसकी पूर्ति के लिए या तो ईश्वर को मनुष्य स्तर का बनना पड़ेगा या मनुष्य को ईश्वर तुल्य बनने का प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ेगा।

अध्यात्म क्षेत्र की भ्रान्तियां भी कम नहीं है। बाल-बुद्धि के लोग आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मषों को काटने के लिये जो संघर्ष करना पड़ता है उस झंझट से कतराते हैं और सस्ती पगडण्डी ढूंढ़ते हैं। वे सोचते हैं पूजा-पत्री के सस्ते क्रिया-कृत्यों से ईश्वर को लुभाया, फुसलाया जा सकता है और उसे मनुष्य स्तर का बनने के लिये सहमत किया जा सकता है वे सोचते हैं हम जिस घटिया स्तर पर है उसी पर बने रहेंगे। प्रस्तुत दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में कोई हेर-फेर न करना पड़ेगा। ‘ईश्वर को अनुकूल बनाने के लिए इतना ही काफी है कि पण्डितों की बताई पूजा-पत्री का उपचार पूरा कर दिया जाय। इसके बाद ईश्वर मनुष्य का आज्ञानुवर्ती बन जाता है और उचित अनुचित जो भी मनोकामनाएं की जायं उन्हें पूरी करने के लिए तत्पर खड़ा रहता है। आमतौर से उपासना क्षेत्र में यही भ्रान्ति सिर से पैर तक छाई हुई है।’’ मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-पत्री का सिद्धान्त तथाकथित भक्तजनों के मन में गहराई तक घुसा बैठा है। वे उपासना की सार्थकता तभी मानते हैं जब उनके मनोरथ पूरे होते चलें। इसमें कमी पड़े तो वे देवता मन्त्र, पूजा, सभी को भरपेट गालियां देते देखे जाते हैं। कैसी विचित्र विडम्बना है कि छोटा सा गन्दा नाला गंगा को अपने चंगुल में जकड़े और यह हिम्मत न जुटाये कि अपने को समर्पित करके गंगाजल कहलाये।

परब्रह्म एक ऐसी चेतना है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर एक नियम व्यवस्था के रूप में ओत-प्रोत हो रही है। उसके सारे क्रिया-कलाप एक सुनियोजित विधि-विधान के अनुसार गतिशील हो रहे हैं। उन नियमों का पालन करने वाले अपनी बुद्धिमत्ता अथवा ईश्वर की अनुकम्पा का लाभ उठाते हैं। भगवान की बिजली से उपमा दी जा सकती है। बिजली का ठीक उपयोग करने पर उससे अनेक प्रकार के यन्त्र चलाये और लाभ उठाये जा सकते हैं। पर निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया जाय तो बिजली उन्हीं भक्त सेवकों की जान ले लेती है, जिनने उसे घर बुलाने में ढेरों पैसा, मनोयोग एवं समय लगाया था। उपासना ईश्वर को रिझाने के लिए नहीं, आत्मपरिष्कार के लिए की जाती है। छोटी मोटर में कम पावर रहती है और थोड़ा काम होता है। बड़ी मोटर लगा देने से अधिक पावर मिलने लगती है और ज्यादा लाभ मिलता है। बिजली घर में तो प्रचण्ड विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। उससे गिड़गिड़ा कर अधिक शक्ति देने की प्रार्थना तब तक निरर्थक ही जाती रहेगी जब तक घर का फिटिंग मीटर, मोटर आदि का स्तर ऊंचा न उठाया जाय। प्रार्थना के सत्परिणामों की बहुत चर्चा होती रहती है। भगवत् कृपा के अनेक चमत्कारों का वर्णन सुनने को मिलता रहता है। उस सत्य के पीछे यह तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा कि भक्त ने पूजा उपासना के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न की और उस श्रद्धा ने उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व को देवोपम बना दिया। जहां यह शर्त पूरी की गई हैं वहीं निश्चित रूप से ईश्वरीय अनुकम्पा की वर्षा भी हुई है, पर जहां फुसलाने की धूर्तता को भक्ति का नाम दिया गया है वहां निराशा ही हाथ लगी है।

ईश्वर का सृष्टि विस्तार अकल्पनीय है। उसमें निवास करने वाले प्राणियों की संख्या का निर्धारण भी असम्भव है। पृथ्वी पर रहने वाले जलचर, थलचर, नभचर, दृश्य, अदृश्य प्राणियों की संख्या कुल मिलाकर इतनी बड़ी है कि उनके अंक लिखते-लिखते इस धरती को कागज बना लेने से भी काम न चलेगा। इतने प्राणियों के जीवन-क्रम में व्यक्तिगत हस्तक्षेप करते रहना—अलग-अलग नीति निर्धारित करना और फिर उसे प्रार्थना उपेक्षा के कारण बदलते रहना ईश्वर के लिये भी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा करने से तो उस पर व्यक्तिवादी द्वेष का आक्षेप लगेगा और सृष्टि संतुलन का कोई आधार ही न रहेगा। ईश्वर ने नियम मर्यादा के बन्धनों में क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में अपनी सारी व्यवस्था बना दी है और उसी चक्र में भ्रमण करते हुये, जीवधारी अपने पुरुषार्थ प्रमाद का भरा बुरा परिणाम भुगतते रहते हैं। ईश्वर दृष्टा और साथी की तरह यह सब देखता रहता है। उसकी जैसी महान् सत्ता के लिये यही उचित है और यही शोभनीय। पूजा करने वालों के प्रति राग और न करने वालों के प्रति उपेक्षा अथवा द्वेष की नीति यदि उसने अपनाई होती तो निश्चय ही इस संसार में भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था का कोई अन्त ही न रहता। जो लोग इस दृष्टि से पूजा उपासना करते हैं कि उसके फलस्वरूप ईश्वर को फुसलाकर उससे मनोवांछाएं पूरी करालीं जायगी, वे भारी भूल करते हैं। पूजा को कर्म व्यवस्था का प्रतिद्वंदी नहीं बनाया जा सकता। भगवान् के अनुकूल हम बनें यह समझ में आने वाली बात है, पर उलटा उसी को कठपुतली बना कर मर्जी मुताबिक नचाने की बात सोचना बचकानी ढिठाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हमें ईश्वर से व्यक्तिगत रागद्वेष की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये वरन् उसकी विधि व्यवस्था के अनुरूप बनकर अधिकाधिक लाभान्वित होने के राजमार्ग पर चलना चाहिये। भगवान को इष्टदेव बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है लक्ष्य। हम भगवान के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता व्यापकता, व्यवस्था, उत्कृष्टता तत्परता अपनायें, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिये। इस दिशा में जितना मनोयोग पूर्वक आगे बढ़ा जायेगा उसी अनुपात से ईश्वरीय सम्पर्क का आनन्द और अनुग्रह का लाभ मिलेगा। वस्तुतः अध्यात्म साधना का एकमात्र उद्देश्य आत्मसत्ता को क्रमशः अधिकाधिक पवित्र और परिष्कृत बनाते जाना है। यही सुनिश्चित ईश्वर की प्राप्ति और साथ ही उस मार्ग पर चलने वालों को जो विभूतियां मिलती रही हैं, उन्हें उपलब्ध करने का राजमार्ग है।
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