स्वाध्याय और सत्संग

सत्संग का मार्ग, और उसके लाभ

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सांसारिक मनुष्यों के लिये आत्मोद्धार के अनेक मार्ग बतलाये गये हैं, जैसे जप, तप, योग, तीर्थ, दान, परोपकार, यज्ञ आदि । यें सभी कार्य यदि उचित रीति से किये जायें तो मनुष्य को आत्मोन्नति को सीढ़ियों पर चढ़ाने वाले और परमात्मा के निकट पहुँचाने वाले हैं । पर इन सब धर्म कार्यों के लिये सत्संग का होना आवश्यक है । बिना सत्संग के मनुष्य की रुचि इन कार्यों की तरफ चली जाय ऐसा बहुत ही कम देखने में आता है । अधिकांश मनुष्य किसी न किसी निकटबर्ती या दूरदर्शी सन्त पुरुष के उपदेश अथवा प्रेरणा से ही आत्मोन्नति के मार्ग की तरफ आकर्षित होते है इसलिए 'योगवाशिष्ठ में कहा गया है-

यः स्नात: शीत शितिया साधु संगति गंगया । किं तस्य दानै: कि तपोभिः किमध्वरैः योगवा ।।

अर्थात-जो व्यक्ति साधु संगति रुपी शीतल निर्मल गंगा में करता है उसे फिर किसी तीर्थ, तप, दान और यज्ञ योग आदि की क्या आवश्यकता है ।

मनुष्य का सर्व प्रथम: कर्त्तव्य संसार में यही है कि स्वयं को और अपने प्रिय जनों को सत्संगति को तरफ प्रेरित करे । आप अपनी संतान को सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए विद्या, बुद्धि, बल आदि प्राप्त करने का उपदेश देते हो उसके लिए हर तरह के साधन जुटाते हो जो कुछ सम्भव होता है प्रत्येक प्रयत्न करते हो । पर इन बातों के साथ तुमने उनको सत्संग की प्रेरणा नहीं दी उनको नीच वृत्ति वाले लोगों का संग करने दिया तो अन्य समस्त सफलताऐं व्यर्थ हो जायेंगी । सत्संग ही वह प्रेरक शक्ति है जो अन्य प्रकार की शक्तियों को उपयोगी और हितकारी मार्ग पर चलाती है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आजकल सर्वत्र दिखलाई पड़ रहा है । सब तरह से समझदार चतुर और विद्या सम्पन्न व्यक्ति खोटे कामों में संलग्न है । चोर और डाकुओं में कालेज के उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी सम्मिलित पाये जाते हैं । अनेक सच पदवी प्राप्त और सार्वजनिक जीवन में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति डकैती लूट और अपहरण जैसे महाजघन्य कार्यों में भाग लेने वाले सिद्ध हो चुके हैं । विद्या और बुद्धि का ऐसा दुरुपयोग सत्संग के अभाव का ही परिणाम है । यदि ऐसे व्यक्तियों को आरम्भ से ही यह उपदेश मिलता कि सांसारिक मन वैभव और सफलता तभी तक कल्पाणकारी हैं जब तक वे सुमार्ग पर अग्रसर हो उनका सदुपयोग किया जाय तो वे ऐसे मार्ग को अंगीकार न करते । अगर इन शक्तियों का दुरुपयोग किया जायेगा तो निस्सन्देह वे हानिकारक और पतनकारी सिद्ध होंगी, इसलिये माता पिता और संरक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे आरम्भ से ही बालकों की शिक्षा में पढ़ना-लिखना सीखने के साथ-साथ सद्गुणों की वृद्धि पर भी अवश्य ध्यान दे । वर्तमान समय में स्कूलों और कालेजों के लड़कों में उच्छृंखलता और नैतिक पतन के लक्षण दिखलाई पड़ते हैं उसका मुख्य कारण यही है कि आजकल लड़कों के केवल किताबी शिक्षा दिला देना ही माता-पिता ने अपना कर्त्तव्य समझ लिया है । वे इस बात का ध्यान नहीं करते कि अधुनिक शिक्षा-संस्थाओं का वातावरण कैसा है तथा वहाँ के अनेक विद्यार्थियों और मास्टरों तक में चरित्र हीनता का दोष किस दर्जे तक बढ़ा हुआ है । हमारा तो यह असंदिग्ध मत है कि बच्चों को कम से कम आरम्भिक वर्षो में तो ऐसी ही शिक्षा संस्थाओं में भेजा जाय जिनमें उनको सत्संगति प्राप्त हो सके और मानव जीवन के सद्गुणों की प्रेरणा मिल सके । ऐसा करने से अगर किताबी पढा़ई-लिखाई और परीक्षाओं में कुछ विलम्ब भी हो जाय तो हर्ज की बात नहीं ।

इसी प्रकार नव-युवकों और वयस्कों का भी कर्तव्य है कि वे स्वयं अपने इर्दगिर्द के वातावरण पर दृष्टि रखें और इस बिषय में सदैव सतर्क रहे कि उनकी संगति हीन-चरित्र के व्यक्तियों से न हो । अगर वे इस विषय में सावधानी से काम लेगे और श्रेष्ठ चरित्र के व्यक्तियों में से अपने साथी चुनेगें तो वे तब प्रकार से उन्नति की और अग्रसर हो सकेगे । नियमित इष्ट-मित्रों के अतिरिक्त उनको कभी कभी किसी उच्च कोटि के ज्ञानी और महात्मा पुरुष के संसर्ग में आना भी आवश्यक है । हमारे कहने का यह आशय नहीं कि वे जंगलों और पहाड़ी में ही साधु-महात्माओं या सिद्ध पुरुषों को ढूंढते फिरें । वरन् वे अपने नगर के ही किसी सच्चरित्र विद्वान उपदेशक या संस्था से संपर्क रखें और समय समय पर उनके द्वारा सद्विचार ग्रहण करते रहे तो उनका मानसिक उत्थान होता रहेगा और वे दुर्गुणों से बचते रहेगे । जहाँ इनमें से कोई भी सामन नहीं वहाँ नियमित रूप से सद् ग्रन्थों आत्म-निर्माण करने वाली पुस्तकों का स्वाध्याय करना चाहिए । इससे भी मन बुरे विचारों से बचता है और सद्भावनाऐं उत्पन्न होती रहती हैं ।

सत्संग से विवेक जागृत होता है और मनुष्य भले-बुरे का निर्णय कर सकने में समर्थ होता है । संसार में नित्य अनेक घटनाऐं होती रहती हैं जिनमें से किसी का भला और बुरा प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है । यदि इन घटनाओं की वास्तविकता को नहीं समझ सकते, उनके भले और बुरे प्रभावों से अन्तर्मन को पृथक रखने की सामर्थ्य नहीं रखते तो अवश्य ही हमको क्षणस्थायी सुख और दुःख की तरंगों में बहना पड़ता है । इस प्रकार सामयिक परिस्थितियों के हाथों का खिलौना बनना मनुष्य के लिये न तो शोभा देता है और न हितकर सिद्ध हो सकता है । हमारा मनुष्यत्व इसी में है कि हम सुख-दुःख दोनों में अपना मानसिक संतुलन स्थिर रखें और आसक्ति के भाव को जहाँ तक सम्भव हो कम कर दें । इस प्रकार की मनोवृत्ति सत्संग और स्वाध्याय द्वारा ही प्राप्त हो सकती है । गोसाई जी ने सत्य ही कहा है-

मति कीरति गति भूत भलाई, जब जेहि जतन जसँ जो पाई । सो जानव सतसंग प्रभाऊ, लोकहु वेद न आन उपाऊ । ।

भारत की प्राचीन कथाओं से भी विदित होता है कि यहाँ के बड़े बडे़ ऋषि महर्षि जन्म से बहुत ही छोटे कुलों के थे पर सत्संगति के प्रभाव से वे जगत पूज्य बन गये और अभी तक उनका नाम बडी़ श्रद्धा भक्ति से लिया जाता है । वाल्मिकी जी बहेलिया, नारद जी दासी पुत्र अगस्त जी घड़े से उत्पन्न, वशिष्ठ जी बेश्या पुत्र माने गये हैं पर आत्म-परायण संत पुरुषों की संगीत से उन्होंने अकथनीय उन्नति की और बहुत ऊँची पदवी पर जा पहुँचे । इन उदाहरणों से स्पष्ट जान पड़ता है कि जो कोई अपना जीवन सार्थक करना चाहता है इस नर जन्म का सदुपयोग करने की कामना रखता है उसे त्यागी विरक्त गुरुओं की संगति अवश्य करनी चाहिए ।

सत्संग और स्वाध्याय इस कंटकाकीर्ण संसार को पार करने के लिए परम उपयोगी साधन हैं । वर्तमान समय में संसार में स्वार्थ और अपहरण की जो भयंकर आँधी उठी हुई है उसमें वही व्यक्ति निश्चल रह सकता है जो स्वार्थी और धूर्त्त प्रकृति के लोगों से दूर रह कर सज्जन और सत्य-प्रिय व्यक्तियों से सम्बन्ध रखता है । ऐसे श्रेष्ठ प्रकृति के व्यक्ति जहाँ तक संभव होगा आपको हित की सम्मति ही देगे और बुरे मार्ग पर चलता देखेगे तो पहले से सावधान कर देंगे । स्वार्थी व्यक्ति तो ऐसे अवसर पर ऊपर से दो धक्के और देते हैं जिससे उनका कुछ लाभ हो सके । इसलिए आत्म-कल्पाण के अभिलाषी मनुष्यों को इस सम्बन्ध में सदैव सावधान रहकर श्रेष्ठ जनों की संगति को ही ग्रहण करना चाहिए ।
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