स्वाध्याय और सत्संग

मनुष्य पर परिस्थितियों का प्रभाव

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सत्संग का अर्थ केवल साधु-महात्माओं के पास जाकर उनके उपदेश सुनने से नहीं है । वास्तविक बात तो यह है कि हम जन्म के कुछ समय बाद से ही जो कुछ सीखते हैं । जैसा स्वभाव ग्रहण करते हैं वह सब संगति का ही परिणाम होता है । हम आरम्भ से जिस परिस्थिति में रहते हैं वह भी एक प्रकार की संगति है क्योंकि वह किसी न किसी व्यक्ति द्वारा ही उत्पन्न की जाती है । इन्हीं सब प्रभावो से मिल कर मानव जीवन का निर्माण होता है ।

विद्वान बेकन का कथन हैं कि 'मनुष्य कोरे कागज के समान है।' वह जिन परिस्थितियों में रहता है जिन विचारों से प्रभावित होता है उसी ढाँचे में ढ़ल जाता है । 'एक सच्चा जैनी अपने धार्मिक विश्वासों की प्रेरणा से जीव दया को अपना धर्म मानता है । किन्तु एक सच्चा मुसलमान अपने मजहब में अत्यन्त निष्ठा रखता हुआ ईश्वर के नाम पर कई पशुओं की कुर्बानी करता है । यदि दोनों के अन्तःकरणों को परीक्षा की जाय तो दोनों ही समान रुप से अपने को धर्मारुढ़ अनुभव करते पाये जायेगे । जैनी का दृढ़ विश्वास है कि जीव दया करके मैने उचित कर्तव्य किया । इसी प्रकार मुसलमान का भी निश्चित मत है कि उसने पशु बध करके ईश्वरीय आज्ञा का पालन किया ।

जीव दया और पशु बध यह दोनों कार्य आपस में एक दूसरे से बिलकुल विपरीत हैं फिर भी विचार भिन्नता के कारण सच्चे भाव से उन्हें अपनी दृष्टि से, ठीक मानते हैं । योरोपियन लोग मलत्याग के उपरान्त सत पोंछ कर शुद्धि कर लेते हैं उनकी इस प्रथा को हिन्दू लोग इरी दृष्टि से देखते हैं । एक योरोपियन महिला से इस विषय में हमारी एक बार बहुत बातचीत हुई । उन्होंने हिन्दुओं को एक लोटा जल से मल शुद्धि करने को बहुत बुरा बताया । उनका कहना था कि इस प्रकार विष्ठा का कुछ भाग पानी में मिल कर गुदा स्थान के चारों और फैल जाता है और इससे अशुद्धि और भी बढ़ जाती है । यदि जल से शुद्धि करनी हो तो नल के नीचे झुक कर बहुत देर तक शुद्धि करनी चाहिये अन्यथा एक लोटे जल से की हुई शुद्धि तो अशुद्धि को और अधिक बढा़ देने वाली है । उन महिला की दृष्टि से कागज की शुद्धि उचित थी और जल की शुद्धि घृणित । हिन्दु कागज की शुद्धि को घृणित मानते हैं और योरोपियन जल की शुद्धि को । हम लोग गोबर से घर लोप कर शुद्धि अनुभव करते हैं । किन्तु पाश्चात्य देशवासी मनुष्य की बिष्ठा की भांति पशु की विष्ठा को भी गंदी मानते हैं और गोबर से लीपे हुए स्थान को गंदा एवं घृणित समझते हैं । एक कार्य को एक व्यक्ति उचित समझता है दूसरा अनुचित ।

नंगे बदन रहना हमारे यहां त्याग का चिन्ह है किन्तु दूसरे देशवासीयों की दृष्टि में वह असभ्यता का चिन्ह है । हिन्दू की दृष्टि में वेद ईश्वरीय संदेश है किन्तु दूसरी जाति के लोग उन्हें एक भजन पूजा की बेढंगी किताब से अधिक कुछ नहीं मानते । बिधवा का विवाह हमारे समाज में एक भयंकर बात है पर अन्य जातियों में वह एक बिलकुल साधारण और स्वाभाविक प्रथा है । एक दो नहीं असंख्यों उदाहरण ऐसे मिल सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि परस्पर विरोधी दो बातों को लोग अपने अपने दूष्टिकोण से बिलकुल सत्य समझते हैं और निष्कपट मन से अपने विश्वासों को ठीक अनुभव करते हैं ।

विचारणीय बात यह है कि परस्पर विरोधी दो बातों में से, एक सत्य होनी चाहिये दूसरी असत्य । परन्तु फिर देखा जाता है कि वे दोनों ही बातें अपने अपने क्षेत्र में सत्य समझी जाती हैं । हमारे लिए वेद ईश्वरीय पुस्तक हैं पर मुसलमान के लिए कुरान के अतिरिक्त अल्लाह का कलाम दूसरा नहीं है । वेद और कुरान में काफी मत भेद हैं यदि दोनों ईश्वर के कलाम हैं तो परस्पर विरोधी बातें क्यों ? यदि इन में से एक ईश्वर की वाणी है तो दूसरे को असत्य मार्ग पर मानना पड़ेगा । इस गड़बड़ी का उचित समाधान कुछ नहीं । सत्य क्या है ? यह गुत्थी अभी तक उलझी हुई ही पड़ी है । मनुष्य जिन विचारों और कार्यों को सत्य माने बैठा है उनमें कितना अंश सत्य का है कितना असत्य का, यह अभी निर्णय होना बाकी है । मानव बुद्धि धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही है, एक दिन वह तत्व को खोज ही निकालेगी, ऐसी आशा करनी चाहिए । परन्तु आज यह कहना कठिन है कि जिन बातों को लोग उचित सत्य धर्म माने बैठे हैं वह वास्तव में वैसी हैं या नहीं ।

इस गुत्थी की मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार जो विवेचना होती है उससे विद्वान बेकन के मत की पुष्टि होती है मनुष्य कोरे कागज के समान है । वह जिन परिस्थितियों के बीच रहता है, वैसा ही बन जाता है । एक ही माता पिता से उत्पन्न दो बालकों में से एक हिन्दू को पालन पोषण के लिए दिया जाय और दूसरा अग्रेज को । तो वे बालक अपने अपने संरक्षको की भाषा ही बोलेंगे, वैसे ही आचार-विचारों को अपनायेंगे । अफ्रीका के जंगल में एक भेड़िया मनुष्य के दो बालक पकड़ ले गया कुछ ऐसा आश्चर्य हुआ कि उन बच्चों को उसने खाया नहीं वरन् पाल लिया । बड़े होने पर यह बच्चे भेड़ियों की तरह गुर्राते थे, चार पावों से चलते थे और शिकार मार कर कच्चा मांस खाते थे, इन बालकों को शिकारियों ने पकड़ कर मनोवैज्ञानिकों के सामने परीक्षार्थ पेश किया था । इन बातों से जाना जाता है कि मनुष्य सचमुच कोरा कागज है । जिन लोगों के बीच वह रहेगा उसी प्रकार का स्वभाव ग्रहण करेगा और बहुत अंशो में वैसा ही बन जायेगा । उसके विचार और विश्वास भी उसी ढ़ाँचे में ढल जावेंगे ।

संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि संगति के असर से मनुष्य की जीवन यात्रा आरंभ होती है और इसी के प्रभाव से उस में हेरफेर होता है । विचार बदलते हैं विश्वास बदलते हैं कार्य बदलते हैं स्वभाव बदलते हैं । वायु के थपेडों में उड़ता हुआ सूखा पत्ता इधर-उधर उड़ता फिरता है । उसी प्रकार संगति और परिस्थितियों के प्रभाव से मनृष्य की शारीरिक और मानसिक क्रिया पद्धति बनती हैं और फिर उसी के प्रभाव से कुछ से कुछ बन जाते है । आचार्य फ्रायड का मत है कि मनुष्य गीली मिट्टी के समान है जो प्रभाव के ढाँचे में ढ़लता और ताला जाता है । हम देखते हैं कि असंख्य प्रतिभाशाली, सुतीक्ष्ण मनोभूमि वाले लोग अपनी शक्ति का उपयोग तुच्छ कायों में कर रहे हैं । यदि वे शक्तियाँ किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यो में लगतीं तो अपना और दूसरों का बहुत कुछ भला कर सकती थीं । प्रभाव और परिस्थितियों ने संगति और शिक्षा ने उन्हें जिधर लगा दिया वे लग गई और लगी रहेंगी । चाहे वह मार्ग उचित हो या अनुचित ।

भारतीय धर्माचायों ने मानव प्राणी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बड़ी गंभीरता एवं तत्परता से किया था । वे इस सत्य को समझते थे कि मनुष्य सिद्धांत की दृष्टि से कुछ भी क्यों न हो परन्तु व्यवहारत: वह 'परिस्थितियों का गुलाम है ।' संगति के प्रभाव से बने कुछ बनता है और बन सकता है । इसलिये हर व्यक्ति को समय-समय पर ऐसी परिस्थितियों और प्रभावों के सम्पर्क में आते रहना चाहिए जो ऊँचा उठाने वाली हो उत्तम प्रभाव डा़लने वाली हो । हिन्दू धर्म में तीर्थ यात्रा का महत्व इसी दृष्टि से स्थापित किया गया है । साधारण कामकाजी लोगों की योग्यता विद्या साधना सच्चरित्रता ओर तपस्या ऊँचे दर्जे की नहीं होती । यह तो उन्हीं में पाई जाती है जो ब्राह्मण वृत्ति को अपनाकर लोक सेवा ईश्वर आराधना स्वाध्याय और साधना में प्रवृत्त रहे हैं । जहाँ ऐसे ब्रह्मर्षि जल वायु की उत्तमता के कारण एवं ऐतिहासिक महत्व के कारण अर्थिक संख्या में रहते हैं वह स्थान तीर्थ कहे जाते है । तीर्थयात्रा में वायु परिवर्तन होता है ऐतिहासिक स्मृतियों का अनुभव होता है और उन ब्रह्मर्षियों से सत्संग करने का सौभाग्य प्राप्त होता है जिनमें दूसरों पर अच्छा असर डालने की योग्यता का बाहुल्य होता है । तीर्थ यात्रा में पुण्य फल प्राप्त होता है इसका तात्पर्य यही है कि श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति का उत्तम प्रभाव पड़ता है और उस प्रभाव के कारण अपने अन्दर जो सद्गुण उत्पन्न होते हैं उनके फल स्वरुप सुख दायक आनन्दमयी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं ।

आज तीर्थ स्थानों का वातावरण वैसा नहीं रहा है तो भी वह प्राचीन सिद्धान्त आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है । स्थूल शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार को आवश्यकता होती है इसी प्रकार मूल शरीर मनोभूमि को स्वस्थ रखने के लिए सत्संग की आवश्यकता होती है । स्मरण रखिये मनुष्य कोरे कागज के समान है गीली मिट्टी के समान है उस पर संगति का प्रभाव पड़ता है । इसलिए उन्नतिशील आनन्दमय सतोगुणी प्रभाव अपने ऊपर ग्रहण करने के लिए सत्संग का अवसर तलाश करते रहना चाहिए और जब भी मौका प्राप्त हो उससे लाभ उठाना चाहिए ।

कथा प्रसिद्ध है कि एक बार विश्वामित्र ने वशिष्ठ को अपनी हजार वर्षों की तपस्या दान कर दी, बदले में वशिष्ठ ने एक क्षण के सत्संग का फल विश्वामित्र को दिया । विश्वामित्र ने अपना अपमान समझा । उन्होंने पूछा कि मेरे इतने बड़े दान का बदला आपने इतना कम क्यों दिया ? वशिष्ठ जो विश्वामित्र को शेषजी के पास फैसला कराने ले गये । शेषजी ने कहा मैं पृथ्वी का बोझ धारण किये हूँ । तुम दोनों अपनी वस्तु के बल से मेरे इस बोझ को अपने ऊपर ले लो । हजार वर्ष के तपोबल की शक्ति से वशिष्ठ पृथ्वी का बोझ न उठा सके किन्तु क्षण भर के सत्संग के बल से विश्वामित्र ने पृथ्वी को उठा लिया । तब शेषजी ने फैसला किया कि हजार वर्ष की तपस्या से क्षण भर के सत्संग का फल अधिक है ।

अच्छे व्यक्तियों की संगति के लिए कुछ अन्य कार्य हर्ज करने पड़े पैसा खर्च करना पडे़ तो करना चाहिए क्योंकि यह हानि बीज रूप है जो अन्त में हजार गुनी होकर लौटती है । जो अपने जीवन को उच्च बनाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि स्वाध्याय के लिए कुछ समय नित्य निकाले श्रेष्ठ पुरुषों को उत्तम रचनायें जो ऊँचा उठाने वाली हों, नित्य पढ़ें । स्वाध्याय करना घर बैठे सत्संग करना है । इसके अतिरिक्त उत्तम विचारबान श्रेष्ठ पुरुषों के पास-बैठने उनसे प्रश्न पूछने उनके आदर्शो और स्वभावों का अनुकरण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । लोहे को सोना बना देने को शक्ति पारस पत्थर में होती है और पशु को मनुष्य बना देने की क्षमता सत्संग में पाई जाती है । पारस पत्थर अप्राप्य है पर सत्संग की इच्छा करें तो उसे अपने समीप ही प्राप्त कर सकते हैं ।

ध्यान रखना चाहिए कि हमारे आस पास बुरा प्रभाब डालनेवाला वातावरण तो नहीं है, यदि हो तो उससे सावधान रहने और बचते रहना चाहिए । स्मरण रखना चाहिए कि जीवन को ऊँचा उठाने की शक्ति सत्संग में हैं अतएव इसके लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए । विद्वान बेकन का कथन है कि मनुष्य कोरे कागज के समान है । पतन और उन्नति बहुत कर निकटस्थ प्रभाव के ऊपर निर्भर हैं इसलिए अपने को इरे भावों से बचाने और अच्छे प्रभावों की छाया में लाने का प्रयत्न करते रहिये ।

भौतिक जगत में हम देखते हैं कि जब एक वस्तु दूसरे के साथ रहती है तब उन वस्तुओं में उनके गुणों का परस्पर आदान प्रदान होता है । अग्नि जल को गर्म करती और जल अग्नि को ठंडा करता है । उसी प्रकार सत्संग द्वारा भी परस्पर गुणों का आदान प्रदान होता है ।

एक साधारण पुरुष जब महात्माओं के बीच में पहुँच जाता है तब वह क्रमश: शुद्ध होने लगता है । उसका वातावरण बदल जाता है । मनुष्य अपनी परिस्थितियों से प्रभावित रहता है । यदि बह छली, कपटी और धूर्त लोगों के बीच में पड़ गया है तो वह प्रत्येक व्यक्ति को सन्देह भरी दृष्टि से देखने बाला बन जायेगा । उसे सब लोग कपटी और स्वार्थी प्रतीत होंगे और वह किसी के साथ स्वतन्त्रता पूर्वक व्यवहार न कर सकेगा । किंतु यदि वही व्यक्ति महात्मा पुरुषों के बीच में रहने लगे तो उनके त्याग-पूर्ण व्यवहारों से उसे यह अनुभव होगा कि मनुष्य का स्वभाव दिव्य है । उसे उनके साथ किसी तरह का संदेह न होगा एवं वह सबके साथ खुलकर व्यवहार करेगा । इस तरह का वातावरण जीवन के लिए एक विड़म्बना है और हम देखते हैं कि मनुष्य जिस तरह के लोगों के बीच में रहता है उसकी धारणाऐं तद्नुकूल हो जाती हैं और उसके व्यवहार से हम पता लगा सकते हैं कि वह किस प्रकार के वातावरण में पला है ।

यदि कोई व्यक्ति ऐसे वातावरण में पहुँच जावे जहाँ लोग उसे मूर्ख, अस्पृश्य और घृणास्पद समझने लगें तो उसके चित्त में आत्महीनता की ग्रंथि का निर्माण होने लगेगा और उसकी शक्तियाँ कुंठित होने लगेंगी । वह अपना आत्म-विश्वास आत्म-गौरव और निर्भीकता खो बैठेगा और दुःखी बन जावेगा भारतवर्ष के अछूतों का यही हाल हुआ है । उन्हें जन्म जन्मांतर से बुरे संकेत दिए गए हैं । जिन्हें हम पुनर्जन्म के सिद्धांत की आड़ में उचित और पाप-परिक्षालक कहते रहे । इन संकेतों ने ही उन्हें दास स्वभाव वाला बनाया है । ऐसा वातावरण सचमुच जीवन के लिए एक अभिशाप है ।

जिन्हें अपनी श्रेष्ठता का अभिमान होता है उनके बीच में रहना मानो अपने जीवन को दुःखी बना लेना है । किंतु यदि हम महात्माओं के बीच में रहें तो निश्चय ही हमारे अन्तराल में उनके सद्व्यबहारों के कारण आत्महीनता की ग्रंथि का निर्माण नहीं हो सकता । इनके साथ रहने से तो उल्टे ही ये ग्रन्थियाँ मिट जाती हैं । जिस तरह कोई मनःशास्त्र विशेषज्ञ अपनी सहानुभूति के द्वारा चिकित्सा करते समय रोगी के गुप्त मनोभावों और रहस्यों को उससे कहलवा लेता है और ग्रन्थि पड़ने के कारण को जानकर उसका निराकरण कर देता है उसी तरह सन्त-समाज में हमारे स्वयं की गुत्थियाँ उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण खुल पड़ती हैं और हम अनुभव करते हैं कि हमारा स्वयं हल्का हो गया और हमारे दीर्घ रोग की चिकित्सा हो गई ।

संतों के समागम में रहकर हमें जीवन के प्रति स्वास्थ्य दृष्टिकोण प्राप्त होता है । उद्देश्यहीन जीवन के स्थान में हमारा जीवन उद्देश्य मुक्त हो जाता है और हम दूसरी का अंन्धानुकरण नहीं करते ।

मनुष्य के आचार विचार के लिए उसको वातावरण बहुत अंशों में उत्तरदायी हैं । अतएव यदि मनुष्य अपने वातावरण को बदल डाले तो उसके आचार विचार और स्वभाव में परिवर्तन सहज ही हो जायेगा । किन्तु वातावरण को बदलना कहने में जितना सरल है वास्तव में वह उतना सरल नहीं । सच तो यह है कि वातावरण को बदलना ही परोक्ष रुप से अपने आचार विचार को बदलना है, अतएव उसका बदलना उतना ही कठिन है जितना कि आचार विचारों का । उदार हृदय सहृदय व्यक्तियों का संग सबके लिए सुलभ है । गीता आदि धर्म पुस्तकों का संग सबको सुलभ है । प्रत्येक व्यक्ति वे रोकटोक उनका सत्संग कर सकता है, किन्तु फिर भी उनके सत्संग से अनेकों प्राणी वंचित रहते हैं । उनका चित्त ही उन्हें उस सत्संग से वंचित रखता है । उनके हृदय में जो पूर्व संस्कार हैं वे ही बाधा डालते हैं और उन्हें सत्संग रुचता नहीं । बिना आचार-विचार बदले न तो हम सत्संग के योग्य बनते हैं और न बिना संगी साथियों को बदले हमारे आचार-विचार ही बदल सकते हैं । हमारे आचार-विचार और परिस्थितियाँ परस्पर एक दूसरे के परिणाम अथवा प्रतिबिम्ब हैं । अतएव अच्छे आचार-विचार वाला व्यक्ति ही सत्संग कर सकता है और हम कह सकते हैं कि जो महात्माओं का संग करता है उसका मानसिक धरातल निश्चय ही उच्च होना चाहिए ।

सत्संग द्वारा आचार-विचार बदलने से मनुष्य के जीवन का दृष्टिकोण भी बदलना अनिवार्य है । जो व्यक्ति आज प्रत्येक कार्य करते समय व्यक्तिगत लाभ का लेखा-जोखा करता है वहीं व्यक्ति सत्संग के प्रभाव से उन्हीं कार्यों को, सामाजिक लाभ अथवा लोक-संग्रह की दृष्टि से करने लगे, यह भी सम्भव है । गाँधी जी के प्रभाव में आकर अनेकों धनिकों ने अपने दृष्टिकोण को बदला यह तो सभी जानते हैं ।

सत्संग से हमें अपने ध्येय की ओर तीब्र गति से बढ़ने के लिए प्रेरणा मिलती है । अपने आध्यात्मिक विकास के लिए साधन करना जिनका साहज स्वभाव हो गया है उनके लिए सत्संग की आवश्यकता भले न हो किंतु इतर जनों के लिए यह उत्साह वर्द्धक हैं । जिस विद्यार्थी ने व्यायाम करना अभी-अभी शुरु किया है वह घर पर नित्य नियमित रुप से अकेले ही कितने दिनों तक व्यायाम करेगा । किंतु यदि वही विद्यार्थी अन्य व्यायाम प्रिय विद्यार्थियों का संग पा जाबे तो उसके उत्साह में शिथिलता न आने पायेगी और, धीरे धीरे व्यायाम करना उसका सहज स्वभाव हो जाबेगा और फिर वह अकेले रहने पर भी उसी उत्साह से- व्यायाम करता जावेगा । अतएव यदि आरम्भिक अभ्यासी को तीव्र गति से उन्नति करना है तो उसके लिए सत्संग अनिवार्य है ।

जिस तरह कीड़े पर भृंगी का प्रभाव पड़ता है उसी तरह सत्संग के द्वारा भी साधको पर श्रेष्ठजनों का प्रभाव पड़ता है । यदि आप एक साधारण लौकिक प्राणी हैं और आपको किसी महात्मा-पुरुष की कृपा प्राप्त है तो उससे पत्र-व्यवहार करने में और उसके दर्शन करने में आपको जो समय बिताना पडे़गा उसके कारण आपके विचार बहुत कुछ उसकी और खिंचे रहेगें और आपके जीवन का एक पर्याप्त हिस्सा उनके सत्संग सम्बन्धी बिषयों के विचार में ही व्यतीत होगा और आप भृंगी कीट-न्याय की नाई धीरे-धीरे उनके ढांचे में ही ढलते चले जावेगे । इसलिए कहा है-'महत्संगो दुर्लभंश्चामोधश्च'

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