स्वाध्याय और सत्संग

स्वाध्याय भी सत्संग का ही एक रूप है

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जीवन में सुख प्राप्त के लिए सत्संग का बड़ा महत्व है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज में रहना चाहता है । जीवन यात्रा के लिए वह कुछ साथी चुन लेता है जिनके साथ रहकर अपने दिन काटता है । अगर उसने गलती से बुरे साथी चुन लिये तो उसका जीवन दुःखी हो जायेगा । यदि भाग्श्वश श्रेष्ठ संगी मिल गये तो उसका जीवन सरस और सुखी हो जायेगा । उनसे उसे सदा सहायता मिलेंगी और वे उसे सदा हितकारी सम्मति देंगे ।

स्वाध्याय और सत्संग में बड़ा घनिष्ठ संबन्ध है। एक दृष्टि से देखा जाय तो स्वाध्याय सत्संग का ही एक रुप है । सत्संग में हम एक उपदेश को किसी सन्त पुरुष के मुख से सुनते हैं और स्वाध्याय में उसी उपदेश को पुस्तक के द्वारा प्राप्त करते है । यह सत्य है कि अनेक उच्च कोटि के सन्तों के व्यक्तित्व का प्रभाव चमत्कारी होता है और उनके पास बैठने से जो असर पड़ता है वह पुस्तक के द्वारा नहीं पड़ सकता । पर साथ ही सह भी सत्य है कि सच्चे साधु पुरुषों की संगति सहज में प्राप्त नहीं हो सकती और यदि प्राप्त भी हो जाय तो हम जब चाहे तब उनके पास नहीं पहुँच तकते । पुस्तकों में यह विशेषता है कि हमको जिस समय सुविधा या आकांक्षा हो उसी समय उनसे उपदेश ग्रहण किया जा सकता है और एक बार में वह हृदय में न बैठे तो बार-बार । उसको दुहरा कर मनन करके लाभ उठाया जा सकता है ।

जितने सन्त तथा महापुरुष हुए हैं उन्होंने स्वाध्याय की महिमा का गान किया है । हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए ।

स्वाध्याय के अर्थ के सम्बन्ध में लोगों में अनेक मत भेद हैं । कुछ लोग पुस्तके पढ़ने को स्वाध्याय कहते हैं कुछ खास प्रकार की पुस्तकें पढ़ने को स्वाध्याय कहते हैं । कुछ का कहना है कि आत्म निरीक्षण करते हुए अपनी डायरी भरने का नाम स्वाध्याय है । वेद के अध्ययन का नाम भी कुछ लोगों ने स्वाध्याय रख छोड़ा है । लेकिन इतने अर्थों का विवाद उस समय अपने आप ही समाप्त हो जाता है जब मनुष्य के ज्ञान में उसका लक्ष्य समा जाता है ।

स्वाध्याय का विश्लेषण करनेवलों ने इनके दो प्रकार से समास किये हैं

स्वस्यात्मनो Sध्ययनम्- अपना, अपनी आत्मा का अध्ययन, आत्मनिरीक्षण । स्वयमध्यनम्- अपने आप अध्ययन अर्थात् मनन ।

दोनों प्रकार के विश्लेषणों में स्व का ही महत्व है । इसीलिए शास्त्रकारों का कथन है कि-

प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत जनश्चरितमात्मन । किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषौरिव ।।

प्रति धड़ी प्रत्येक मनुष्य को अपने स्वयं के चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशुओं जैसा है अथवा सत्पुरुष जैसा । आत्म निरीक्षण की इस प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है । जितने महापुरुष हुए हैं वे सब इसी मार्ग का अनुसरण करते रहे । उन्होंने स्वाध्याय के इस मार्ग में कहीं भी अपने अन्दर कमी नहीं आने दी बल्कि समस्त कमियों को निकालने और पूर्णमानव बनने के उद्देश्य से इस मार्ग को ग्रहण किया ।

'शतपथ' ब्राह्मण में लिखा है कि पानी बहता है क्योंकि बहना ही उसका धर्म है । सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र चलते है क्योंकि गति करना, चलना यह उनका स्वभाव है । यदि ये अपने स्वभाव को छोड़ दें गति हीन हो जावें तो सृष्टि का काम ही रुक जावे । ऐसे ही ब्राह्मण का स्वाभाविक काम स्वाध्याय है, जिस दिन वह स्वाध्याय नहीं करता उसी दिन वह ब्राह्यणत्व से पतित हो जाता है-

तद्हरब्राह्मणो भवति यदह: स्वाध्यायंनाधयत्ते ।

वेद शास्त्रों में श्रम का सबसे बड़ा महत्व है । हर एक को कुछ न कुछ श्रम नित्य प्रति करना ही चाहिए । श्रम इसी त्रिलोकी में होता है । भू, भुवः और स्वर्ग लोक ही श्रम का क्षेत्र है । इस श्रम के क्षेत्र में स्वाध्याय ही सबसे बड़ा श्रम हैं । योग भाष्यकार व्यास का कहना है कि

स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनत् । स्वाध्याय योगसंपत्या परमात्मा प्रकाशते ।१ ।२८

अर्थात स्वाध्याय द्वारा परमात्मा से योग करना सीखा जाता है और समस्वरुप योग से स्वाधाय किया जाता है योग पूर्वक स्वाध्याय से ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है । अपने आपको जानने के लिये स्वाध्याय से बढ़ कर अन्य कोई उपाय नहीं हैं । यहाँ तक कि इससे बढ़ कर कोई पुण्य भी नहीं है । शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि-

भावन्तंह बा इमां पृथिवी वित्तेन पूर्णा ददल्लोकं जयति त्रिस्तावन्तं जयति भूयांसं बाक्षम्य य एवं विद्वान् अहरह: स्वाध्यायमधीते ।

जितना पुण्य धन धान्य से पूर्ण इस समस्त पृथ्वी को दान देने से मिलता है उसका तीन गुना पुण्य तथा उससे भी अधिक पुण्य स्वाध्याय करने वाले को प्राप्त होता है ।

मानव जीवन का धर्म ही एक मात्र आश्रय है इस धर्म के यज्ञ अध्ययन एवं दान ये ही तीन आधार हैं ।

त्रयोधर्मस्कन्धा यज्ञोSध्ययनं दानामिति ।
छान्दोO२।३२।१

अपने स्वत्व को छोड़ना दान कहलाता है और अपना कर्त्तव्य करना यज्ञ । लेकिन स्वत्व छोड़ने तथा कर्त्तव्य करने का ज्ञान देने वाला तथा उसकी तैयारी करा कर उस पथ पर अग्रसर कराने वाला स्वाध्याय या अध्ययन है ।

किन्हीं किन्हीं महापुरुषों का कहना है, कि स्वाध्याय तो तप है । तप के द्वारा शक्ति का संचय होता है शक्ति के संचय से मनुष्य शक्तिवान बनता है । चमत्कार को नमस्कार करने वाले बहुत हैं जिसके पास शक्ति नहीं है उसे कोई भी नहीं पूछता । इसलिए जो तपस्वी हैं उनसे सभी भयभीत रहते हैं और उनके भय से समाज अपने अपने कर्त्तव्य का सांगोपांग पालन करता रहता है ।

तप का प्रधान अंग है एकाग्रता । निरन्तर, उत्कण्ठा पूर्वक एकाग्रता के साथ निश्चित समय पर जिस कार्य को किया जाता है उसमें अवश्य सफलता मिलती है । उत्कण्ठा से प्रेरणा मिलती है और मन के विश्वास में दृढ़ता आती है । बिना दृढ़ता के दुनिया का कोई कार्य कभी भी सफल नहीं हुआ है । अनेकों में ढृढ़ता की व्यक्ति की एकाग्रता के लिए अपेक्षा रहती है और जब नियमितता आ जाती है तो ये सब मिल कर तप का रूप धारण कर लेती है । यह तप आत्मा पर पडे़ हुए मल को दूर करेगा और उसे चमका देगा ।

तप का एक मात्र कार्य आत्मा पर पड़े हुए मल को-या आवरण को दूर करने मात्र का ही है । व्यास ने स्वाध्याय को परमात्मा का साक्षात्कार करने वाला इसीलिए बतलाया है क्योंकि जो आवरण के अन्धकार में चला गया है उसे प्रकट करने के लिए अन्धकार को दूर करने की आवश्यक्ता है ।

जीवन का उद्देश्य कुछ भी हो, उस उद्देश्य तक जाने के लिए भी स्वाध्याय की आवश्यकता होती है । स्वाध्याय जीवन के उद्देश्य तक पहुँचने की खामियों को भी दूर कर सकता है । जो स्वाध्याय नहीं करते, वे खामियों को दूर नहीं कर सकते इसलिए चाहे ब्राह्मण हो-चाहे शूद्र प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य से गिर सकता है ।

स्वाध्याय को श्रम की सीमा कहा गया है । श्रम में ही पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग तक के समस्त कर्म प्रतिष्ठित हैं । बिना स्वाध्याय के सांगोपांग रूप से कर्म नहीं हो सकते और सांगोपांग कर्म हुए बिना सिद्धि नहीं मिल सकती । इसलिए सम्पूर्ण सिद्धियों का एक मात्र मूलमंत्र है स्वाध्याय, आत्मनिरीक्षण ।

आत्म निरीक्षण में अपनी शक्ति का निरीक्षण और अपने कर्म का निरीक्षण किया जाता है । शक्ति के अनुसार कर्म करने में ही सफलता मिलती है । कौन सी शक्ति किस कर्म की सफलता में सहायक हो सकती है । यह ज्ञान हुए बिना भी सफलता नहीं मिलती । ज्ञान का साधन भी स्वाध्याय ही है । इसी कारण जो ज्ञान और प्रमाद से विस्मृत हो गया हो तब उसको प्राप्त करने के लिए भी स्वाध्याय की आवश्यकता है । अप्रमत्त हो कर जिस कार्य को किया जाता है सम्पूर्ण शक्ति जिस कार्य में लगी रहती है उसकी सिद्धि में किंचित भी सन्देह नहीं करना चाहिए इसीलिए एहिलौकिक और पारलौकिक दोनों स्थानों की सिद्धि के लिए आत्म कल्पाण के लिए निरंतर स्वाध्याय की आवश्यकता है । निरन्तर स्वाध्याय न करने से मन तथा बुद्धि में एवं प्राणों में जड़ता स्थान बना लेती है मनुष्य प्रमादी हो जाता है । प्रमाद मानव का सबसे बड़ा शत्रु है यह उसे बीच में ही रोक लेता है । सिद्धि तक पहुँचने हीं नहीं देता । इसलिए आर्य ऋषियों ने कहा है-

स्वाध्यायान्माप्रमद: -स्वाध्याय में प्रमाद न करो और अहरहः स्वाध्यामध्येतव्यः-रात दिन स्वाध्याय में लगे रहो ।

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