स्वाध्याय और सत्संग

सत्संग की महिमा अपार है

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सभी देशों और कालों के महापुरुषों ने आत्म-कत्याण के लिये सत्संग को सर्वोत्तम सामन बतलाया हैं । वैसे तो प्रत्येक सज्जन की संगति लाभदायक होती है, पर जिन सद्पुरुषों ने अपने जीवन को परोपकार और ईश्वर-चिन्तन में ही लगा रखा है और सांसारिक प्रपन्चों को त्याग दिया है, उनके उपदेश सुनने तथा उनके समीप बैठने से मनुष्य के विचारों और आचार में निर्मलता को वृद्धि विशेष रुप से हो सकती है । सत्संग के प्रभाव से ही मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होकर कल्याण मार्ग का दर्शन हो सकता है ।

आज का सामाजिक जीवन इतना बिषम बन गया हैं जिसमें दरिद्रता, अभाव, उत्पीड़न और करुणा का तांडव हो रहा है । मनुष्य की अवांछनीय असीमित इच्छाएँ तद्नुकूल वटवृक्ष की सुगुम्फित जटाओं की भाँति इतनी जटिल हो गई हैं, जिनका निराकरण, मानव शक्ति से परे है । आज के सामाजिक कल्याणकारी कहलाने वाले मनुष्य कुसंगति में पड़कर कर्तव्य पथ सें भ्रष्ट हो रहे हैं । सत्पुरुषों का साथ उन्हें भाता नहीं साधु संतो के प्रवचन उन्हें कड़बी औषधि की भाँति लगते हैं फलस्वरुप चारों ओर संतों का साथ तो 'सर्वभूत हिते रत' वाली भावना उत्पन्न कराता है तथा दूसरों के कष्टों के निवारणार्थ आत्मबल प्रदान करता है । जैसा कि कबीरदास जी ने भी कहा है ।

कबिरा संगति साधु की हरै और की व्याधि । ओछी संगति क्रुर की आठों पहर उपाधि ।।

आत्म सुख और परम शान्ति के लिये साधु महात्माओं संतों का सत्संग परमावश्यक है । इसके बिना जीवन का कोई आस्वादन नहीं । इस सत्संग के पुण्य लाभ के निमित्त ही नर देह धारण करने के लिये देवगण भी लालायित रहते हैं ।

वेदशास्त्रों में ईश्वरीय साक्षात्कार के निमित्त तीन प्रकार के मार्ग बतलाए गऐ हैं । ज्ञान, कर्म और भक्ति । इनमें ज्ञान का पथ तलवार की धार की भाँति प्रखर और सर्व साधारण की बुद्धि से परे की बात है। कर्म करने वाला पुरुष जब पाप-पुण्य उचित-अनुचित के संगम पर पहुँचता है तो कदाचित किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो जाता है । अतएव स्वभक्ति ही एक मात्र साधारणजनों का अटूट सहारा रह जाता है परन्तु इस आनन्द और सुख के उपभोग के लिये प्रथम सत्संगति आवश्यक है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भक्ति सरोबर में स्नान करने के इच्छुक जनों से स्पष्ट शब्दों में कहा-

जो नहाइ चह यह सर भाई । तौ सत्संग करै मन लाई ।।

वस्तुत ज्ञान और कर्म, सर्वप्रथम सत्संग से ही अनुप्रेरित होते हैं जिसके लिए प्रभु की अनुकम्पा अपेक्षित है जैसा कहा गया है कि- बिनु सत्संग विवेक न होई । रामकृपा बिनु सुलभ न सोई ।। सत्पुरुषों के साहचर्य से केवल भगवत् भक्ति ही प्राप्त नहीं होती आपितु पुरुष की अमानुषिक प्रवृत्तियों का भी इससे परिष्कार होता है । सत्संगति तो पारस, मणि के तुल्य है । इसके बिना भगवद् भजन, संकीर्तन यजन, ध्यान, पूजन, अर्चन, वन्दन असंभव नहीं तो दुस्तर अवस्थ है!

गुसाई जी के शब्दों में-

बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु भी है न भाग । मोह गए बिनु राम पद होई न दृढ़ अनुराग । ।

प्रभु के चरणाम्बुजों में प्रेम की दृढ़ता के लिए सत्संग अपेक्षित है । विद्वानों ने संत समागम के क्षणमात्र से ही अनेक पापों को मिटाना

बतलाया है । केवल एक घड़ी में ही- एक घड़ी आधी घडी़ और आध को आध । तुलसी संगति साधु की कोटिन हरे व्याधि । ।

सत्संग की महिमा का उल्लेख करते हुए श्री भतृहरि जी ने अपने नीतिशतक में लिखा है ।

जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वचि सत्यं मानोन्नति दिशति पाप मया करोति चेता प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति सत्संगति कथम किम न करोति पुंसाम ।

अर्थात बुद्धि से मूर्खता को हरती वचनों से सत्यता को सींचती, प्रतिष्ठा को बढ़ाती, और दशों दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है । बताओ तो भला यह सत्संगति मनुष्य को क्या क्या उपलब्ध नहीं करा देती ?

तुलसीदास जी ने सत्संगति को सब मंगलों का मूल कहा है । सत्संगति मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला ।।

यज्ञ तप दान जप और पंचाग्नि तपस्या से जो भक्ति कठिनाई से प्राप्त होती है वह साधुजनों के सत्संग से सरलता पूर्बक और थोड़े समय में ही प्राप्त की जा सकती है । जिस प्रकार गूँगे को मधुर फल का रसास्वादन अन्दर ही अन्दर मिलता हैं, ठीक उसी प्रकार भक्तजनों को सत्संग से आनन्द प्राप्त होता है । वह आनन्दानुभूति वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं की जा सकती ।

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