शरीर के द्वारा जो निरन्तर शारीरिक और मानसिक श्रम होता रहता है, उसमें शक्ति भी खर्च होती है। इस खर्च होने वाली शक्ति के स्थान पर नयी शक्ति चाहिए और वह नयी शक्ति हमें आहार के माध्यम से मिलती है। आहार ही पच कर रस, रक्त, मांस मज्जा, अस्थि, मेद, वीर्य बनता हुआ शक्ति के रूप में परिणित होता है। यों भी कहा जा सकता है कि यह पाचन प्रणाली ही हमारे जीवन की आधारशिला है। जिस शरीर में यह प्रक्रिया ठीक प्रकार चलती रही है वह आरोग्य के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत जिनका पाचन संस्थान बिगड़ गया उनके लिए अन्य सब सुविधायें रहते हुए भी उन्हें रोग बीमारियों का पहाड़ सामने खड़ा दिखाई देता है।
दुर्बल स्वास्थ्य और रुग्ण जीवन के लिए आहार सम्बन्धी, अनियमितता और ‘‘असंयम एक महत्वपूर्ण कारण है। इस सम्बन्ध में अमेरिका के एक प्रख्यात चिकित्सा शास्त्री डा. केनेथवांकर ने कहा है कि—
भोजन के सम्बन्ध में एक और आश्चर्यजनक बात एक प्रख्यात डॉक्टर केनेथवांकर ने कही है—‘‘लोग जो भोजन करते हैं उसमें से आधे भोजन से उनका पेट भरता है और आधे भोजन से डाक्टरों की जेबें भरती हैं अगर वे आधा भोजन ही करें तो वे बीमार ही नहीं पड़ेंगे और न ही कभी डाक्टरों के पास जाने की जरूरत पड़ेगी।’’ पढ़ने, सुनने में यह बात आश्चर्य भरी है परन्तु हैं बिल्कुल सच। निरीक्षणात्मक दृष्टिकोण से यदि हम अपने द्वारा ग्रहण किये जाने वाले आहार के सम्बन्ध में सोचें तो आसानी से यह पता चल जायेगा कि जो भोजन हम कर रहे हैं और जितनी मात्रा में कर रहे हैं तथा जिस प्रकार का कर रहे हैं—वह हमारे स्वास्थ्य के लिए हितकारी कम और हानिकारक ही ज्यादा सिद्ध होगा।
यद्यपि कुछ लोग भोजन न मिलने से मरते हैं तो उनसे अधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो अतिभोजन के कारण मरते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति बिना भोजन किये तीन माह तक आसानी से जीवन चला सकता है। भारतीय तपस्वियों और योगियों ने तो आत्म-प्रयोगों द्वारा इस क्षेत्र में मनुष्य शरीर की सामर्थ्य और क्षमता को और भी अधिक उच्च सिद्ध किया है, परन्तु एक साधारण व्यक्ति विज्ञान की दृष्टि से तीन माह तक बिना किसी बाधा के बिना भोजन किये स्वस्थ और नीरोग रह सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति तीन माह तक नियमित रूप से अति भोजन करे तो किसी भी स्थिति में जीवित न बचेगा। सौभाग्य से यदि जिन्दा रह भी जाय तो मृत व्यक्ति की तरह।
अति भोजन के साथ-साथ एक और दोष है हमारी आहार पद्धति में। हम जो भोजन करते हैं शरीर की आवश्यकता को दृष्टिगत रख कर नहीं करते। थाली में सजे विभिन्न पकवान, तीखे, चरपरे, खट्टे, मीठे, तेज जले-भुने खाद्य पदार्थ शरीर को स्वस्थ रखने की अपेक्षा हमें रुग्ण और बीमार ही बनाते हैं। हमारी भोजन की थाली में आधे से अधिक पदार्थ जहरीले होते हैं। हम जानते भी हैं कि इन पदार्थों का उपयोग शरीर व्यवस्था में किसी भी प्रकार सहायक नहीं है फिर भी उनका प्रयोग करते चलते हैं—महज स्वाद के कारण। महज स्वाद के कारण किया गया भोजन, उसके गुण-दोष को बिना ध्यान में रख कर किया गया भोजन मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए किसी भी प्रकार हितकारक नहीं हो सकता, वह जहर का ही काम करेगा और जहर भी ऐसा जो व्यक्ति के शरीर में धीरे-धीरे रमता है और बहुत दिनों बाद अपना घातक कुप्रभाव बनाता है। बन्दूक की गोली या जहर की शीशी कुछ क्षणों में थोड़े से समय में ही जीवन का अन्त कर देती है। परन्तु स्वेच्छा से ग्रहण किया गया इस प्रकार का विष व्यक्ति की घुट-घुट कर हत्या करता है। उसे तड़पा-तड़पा कर मारता है। भोजन की यह दूषित प्रक्रिया मनुष्य शरीर को खोखला और कमजोर ही बनाती है। इस प्रक्रिया का एकदम विपरीत परिणाम होता है। भोजन जब कि स्वास्थ्य और शक्ति के लिए ही किया जाता है, रोग और बीमारी लाने लगे तो जीवन कैसे बच सकेगा, इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है।
कैसे खायें और क्या खायें यह जानने के लिए कोई बहुत ज्यादा पढ़ने या अपने आपको अत्यंतिक नियमोपनियमों से बांधने की आवश्यकता नहीं है। इस तरह का जीवनोपयोगी ज्ञान प्रकृति ने सभी के लिए सुरक्षित रखा है। आरोग्यविद्या का जानना सभी के लिए नितांत आवश्यक समझकर ही प्रकृति ने यह कृपा की है कि कम पढ़े लिखे व्यक्तियों को तो क्या साधारण जीव जन्तुओं को भी उससे वंचित नहीं रखा। यदि हम अपनी प्रकृति का—किये जाने वाले आहार का शरीर पर क्या प्रभाव होता है इसका और शरीर का आहार प्रक्रिया का अध्ययन करें तो भली भांति समझा जा सकता है कि क्या कब और कैसे खाया जाना चाहिए?
पेट में कोई वस्तु मुख से होकर ही जाती है, मुख के दरवाजे पर दांत जीभ और कण्ठ यह तीन डॉक्टर इस योग्यता से सम्पन्न नियुक्त किये गये हैं कि कोई अनुपयुक्त ऐसी वस्तु भीतर न जाने दें जो हानिकर अहितकर हो। वे हर चीज को इतना पीसे कि कण्ठ के बहुत छोटे से छेद में बारीक पिसा हुआ एवं तरल बना हुआ आहार आसानी से नीचे उतर जाय। गले में बहुत छोटा छेद इसीलिए रखा गया है कि वह कई कम पिसी मोटी सूखी चीज भीतर न जाने दें। जीभ इसलिए है कि कौन आहार अपने उपयुक्त है कौन अनुपयुक्त इसकी परीक्षा बारीकी से किया करे और जो वस्तुएं अपनी शरीर के लिए हितकर हों उन्हीं को ग्रहण करने की स्वीकृति दें। कण्ठ दांत और जीभ इन तीनों की ही चाबी आमाशय के पास है। पहले खाया हुआ भोजन जब तक भली प्रकार हजम न हो जाय और नये भोजन की जब तक आवश्यकता न पड़े तब तक वह खाने की रुचि और चेतना ही उत्पन्न नहीं करता। उस स्थिति में खाई हुई कोई चीज स्वास्थ्यकर होते हुए भी केवल हानि ही कर सकती है।
पाचन क्रिया की खराबी को रोगों की जड़ बताया जाता है। यह खराबी तभी उत्पन्न होती है जब मुख में नियुक्त तीन डाक्टरों की और पेट में नियुक्त व्यवस्थापक की आज्ञाओं का उल्लंघन करके हम हर प्रकार धींगा-धींगी करने को उतारू हो जाते हैं। वे बेचारे पाचन-यन्त्र बहुत दुर्बल हैं। घड़ी के पुर्जे जितने नाजुक होते हैं उससे भी अधिक संवेदनशील हैं। घड़ी के साथ कोई धींगामस्ती करे तो उसे खराब रहना ही पड़ेगा। पाचन यन्त्र की दुर्गति भी इसी कारण होती है।
सृष्टि का कोई भी प्राणी खाने की प्रक्रिया तभी आरम्भ करता है जब पेट में क्षुधा जागृत होती है। बिना भूख के खाना बुझी हुई अग्नि के ऊपर कढ़ाई पकाने के प्रयत्न के समान है। सिंह तभी शिकार पर आक्रमण करता है जब उसे भूख लगी हो। पेट भरा होने पर वह भोजन की चिन्ता छोड़कर आनन्द मनाता रहता है। कदाचित कोई शिकार पकड़ में भी आ जाय तो उसे मार कर कहीं छिपा देता है और खाता तभी है जब कड़ाके की भूख लगती है। कुत्ते का पेट भरा हो और कहीं से रोटी मिले तो मुंह में दबा कर ले जाता है और जरूरत के वक्त खाने के लिए पंजों से जमीन खोदकर गाड़ आता है। अन्य सभी जीव जन्तु भूख न होने पर आहर के लिए मुंह नहीं खोलते। प्रकृति ने उन्हें जो सामान्य ज्ञान दें रखा है उसके आधार पर वे जानते हैं कि बिना भूख खाना अपने लिए एक घातक विपत्ति को आमन्त्रण देना है। केवल बुद्धिमान कहलाने वाला एक मनुष्य ही ऐसा है जो अपने बौद्धिक अहंकार के कारण स्वादिष्ट भोजनों के लोभ में अथवा बुरी आदतों का आदी होकर बिना भूख खाता रहता है और बेचारे पेट की शक्तियों को निरन्तर कुचल-कुचल कर नष्ट करता रहता है।
रेलगाड़ी किसी स्टेशन से दूसरे स्टेशन को तब छूटती है जब आगे वाला स्टेशन यह स्वीकृति देदे कि लाइन साफ है और गाड़ी छोड़ी जा सकती है। इसके लिए सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया हुआ है कि लोहे का गोला प्रमाणपत्र के रूप में इंजन ड्राइवर को मिलता है, तब उस ‘टोकन’ या टेबिलेट कहे जाने वाले गोले को लेकर गाड़ी अगले स्टेशन के लिए रवाना होती है। यह गोला एक सुरक्षित ऐसी अलमारी में रखा रहता है जिसे खोलना अगले स्टेशन मास्टर के हाथ में होती है। यदि टोकन लिए बिना गाड़ी चल दें तो दुर्घटना होकर रहेगी। मनमानी करने वाला ड्राइवर चाहे जब ट्रेन दौड़ा दें, टोकन आदि की परवा न करे तो वह विपत्ति ही उत्पन्न करेगा ऐसी उद्दंडता करने वाले ड्राइवरों को कड़ी सजा भुगतनी पड़ सकती है। हमारे शरीर में आहार की रेल को चलाने का भी यही कायदा है। आहार एक रेल है। उसे मुख के स्टेशन से पेट के लिए तभी छूटना चाहिए जब पेट का स्टेशन मास्टर लाइन क्लीयर होने का आदेश दे दें। पिछला अन्न ठीक तरह पचे नहीं ऐसी दशा में नया बोझा आमाशय पर लाद देना उसके साथ सरासर अन्याय है। स्टेशन की लाइनें गाड़ियों से भरी हैं, वे गाड़ी हटें तभी तो नई गाड़ी वहां बुलाई जा सकती है। पहली खड़ी गाड़ियां पटरी से हटाये बिना उसी पर और गाड़ी बुलाली जाय तो गाड़ियां आपस में टकरा जावेंगी और भयंकर हानि होगी। बिना भूख खाना बिलकुल इसी तरह का है जैसे लाइन साफ हुए बिना एक रेल पर दूसरी रेल चढ़ा देना। पेट से तीव्र भूख रूपी टोकन पाये बिना यदि मुंह के स्टेशन में अन्धाधुंध आहार की गाड़ी छोड़ी जायगी तो दुर्घटना के अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती है?
पेट की रचना ऐसी है कि उसे ठीक तरह काम करने देने के लिए हलका-फुलका रखा जाय। इतना वजन डाला जाय जिसे वह आसानी से सहन कर सके। पशु-पक्षी पचता-पचता खाते चलते हैं। पेट पर एक दम अनावश्यक भार वे नहीं डालते। यही आदत सृष्टि के अन्य प्राणियों की है। केवल कुछ ही भोंड़े-जन्तु इसके अपवाद हैं—शेर, सुअर, मगर आदि एक दम बहुत-सा भोजन पेट में भरते हैं इसका फल यह होता है कि वे स्फूर्ति गंवा कर बहुत समय तक निःचेष्ट, आलस्यग्रस्त, उनीदे पड़े रहते हैं। अन्य सभी प्राणी पेट को हलका रखते हैं और अपनी स्फूर्ति बनाये रखते हैं। पेट को भी पाचन में सुविधा इसी क्रम से रह सकती है।
थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पचता भोजन करने का अभ्यास डाला जाय तो वह अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और अधिक आसानी से पच जायगा। यदि उसमें असुविधा रहती हो तो वर्तमान स्थिति में दो बार भोजन करने से काम चल सकता है, पर उसकी मात्रा पेट की क्षमता के अनुरूप ही होनी चाहिए आजकल शत-प्रतिशत मनुष्य पाचन क्षमता से कहीं अधिक खाते हैं और उससे स्वास्थ्य एवं पैसे की दुहरी हानि उठाते हैं। यह भ्रम नितान्त असत्य है कि जितना अधिक खाया जायगा, उतना बल बढ़ेगा। सच यह है कि जो पचेगा वही हितकर सिद्ध होगा।
ईरान के बादशाह बहमन ने एक राज्य चिकित्सक लेत्सुम से पूछा—स्वस्थ मनुष्य को दिन-रात में कितना खाना चाहिए। लेत्सुम ने उत्तर दिया 39 तोला। इस पर बादशाह ने पूछा—भला इतने कम भोजन से क्या काम चलेगा? चिकित्सक ने उत्तर दिया। स्वस्थ रहने के लिए तो इतना ही पर्याप्त है। वजन ढोने के लिए कितना ही खाया जा सकता है।
स्वास्थ्य विज्ञान का निष्कर्ष
आहार पर संयम करने वाले अपने दीर्घायुष्य के बारे में निश्चिन्त हो सकते हैं। थाम्स एडीसन शर्त लगाकर कहते थे कि मैं सौ वर्ष अवश्य जीऊंगा। गांधी जी गोली से न मारे गये होते तो सम्भवतः उतनी लम्बी आयु वे भी अपने आहार संयम के बल पर पा भी सकते थे।
विश्व विख्यात डॉक्टर मैक्फेडन ने कहा है—भोजन के अभाव से संसार में जितने लोग अकाल पीड़ित होकर मरते हैं उससे कहीं अधिक अनावश्यक भोजन करने के कारण रोगग्रस्त होकर मरते हैं।
यूनान की एक कहावत है—तलवार उतने लोगों को नहीं मारती जितने अधिक खाकर मरते हैं। सुलेमान कहते हैं—जो अधिक खायेगा वह अपना दाना-पानी जल्द खतम करके मौत के मुंह में समय से पहले ही चला जायगा।
आस्ट्रेलिया के ख्यातिनामा डॉक्टर हर्न कहते थे लोग जितना खाते हैं उसका एक तिहाई भी पचा नहीं पाते। स्वास्थ्य विज्ञानी हेरी बेंजामिन ने लिखा है—बेवकूफियों में परले सिरे की बेवकूफी है—अधिक भोजन करना। डॉक्टर लोएन्ड ने आयु को घटाने वाले जो दस कारण बताये हैं उनमें प्रथम भोजन करने की बुरी आदत को गिना है।
संसार के महापुरुषों में से प्रायः प्रत्येक की यह विशेषता रही है कि उन्होंने पेट की मांग से कम मात्रा में भोजन लेने का नियम रखा और अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रह सके।
संसार के दीर्घजीवियों में सात को अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जाता है। (1) अमेरिका के मेलेटोजा 187 वर्ष के होकर मरे (2) हंगरी के पीटर्स झोर्टन जो 185 वर्ष जिये (3) यार्क शायर के हेनरी जेनकिस जिन्होंने 161 वर्ष की आयु पाई (4) इटली के जोसेफ रीगटन जिन्होंने 160 वर्ष की आयु पाई, जब वे मरे तब उनका बड़ा लड़का 108 वर्ष का और छोटा 89 वर्ष का था। (5) इंग्लैंड के थामस पार जिनकी मृत्यु 152 वर्ष की आयु में हुई (6) लेडी कैथराइन काउण्टेस डेसमांड जो 146 वर्ष तक जीवित रहे और जिनके मुंह में तीन बार दांत निकले (7) जोनाथन हारपोट जो 139 वर्ष के होकर मरे। उनके 7 पुत्र 26 पौत्र और 140 प्रपौत्र उनके सामने ही पैदा हुए थे।
इन सबने अपने दीर्घजीवन के अन्यान्य कारणों के अतिरिक्त एक कारण एक स्वर से बताया कि उन्होंने सदा भूख से कम भोजन किया और पेट को खाली रखने का स्वभाव बनाया।
बंगाल के प्रख्यात डॉक्टर और सर्व विदित नेता डा. विधानचन्द्र राय कहते थे कि 80 प्रतिशत मनुष्य आवश्यकता से अधिक मात्रा में भोजन करने के कारण बीमार पड़ते हैं।
सर विलियम टेम्पिल ने अपने ‘लोंग लाइफ’ ग्रन्थ में मिताहार पर बहुत जोर दिया है और कहा है यदि अधिक दिन जीना हो तो अपनी खुराक को घटाकर उतनी रखें। जितने से पेट को बराबर हलकापन अनुभव होता रहे।
मनुष्य ने अनेक प्रकार की भली बुरी उन्नतियां की हैं उनमें से एक बहुत बुरी उन्नति अपने आहार सम्बन्धी बुरी आदत के बारे में है। भूख न लगने पर भी खाना, एक ऐसी गलती है जिसका दण्ड मिलने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। इस गलती का कारण यह मालूम होता है कि जिह्वा इन्द्रिय को नकली जायकों में बहका-बहकाकर उसे एक रिश्वतखोर राज कर्मचारी अथवा अभ्यस्त नशेबाज की स्थिति में पहुंचा दिया गया है। किसी भी प्राणी का स्वाभाविक आहार उसके मूल रूप में उपलब्ध स्थिति में ही हो सकता है। चिड़िया दाने चुगती है, पशु घास खाते हैं, हिंसक जीव, मांस और कीड़े मकोड़े अपनी-अपनी उपयोगी चीजें खाते हैं, पर वे खाते उसी रूप में हैं जिसमें कि प्राकृतिक रूप से वह आहार उपलब्ध होता है। कोई भी उसे न पकाता, न पीसता है और न स्वाद के लिए कोई अतिरिक्त मिर्च-मसाला उसमें मिलाता है। इस मर्यादा का पालन करने पर ही भूख के अनुसार आहार का नियम वे ठीक प्रकार चला पाते हैं। मनुष्य ने अपने आहार में पोषण की उपयोगिता की उपेक्षा करके स्वाद को प्रधानता दी है। वह चाहता तो शाक, फल, दूध, पर अपना गुजारा कर सकता था। अन्न के बिना काम नहीं चलता था तो उसे हरे रूप में अथवा सूखे अन्न को भिगोकर पुनः अंकुरित करके सजीव रूप में ले सकता था। पाचन क्रिया को बहुत दुर्बल बना लिया तो उबालने की क्रिया भी अपना सकता था, पर हर पदार्थ को जला डालने, भून डालने से उसके पोषक तत्व नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाने से तो उसमें बचता ही क्या है? पोषण की दृष्टि से हमारे स्वादिष्ट कहलाने वाले पदार्थ केवल कोयला या छूंछ की श्रेणी में गिने जा सकते हैं।
इस स्वत्व-विहीन, निर्जीव आहार को भी यदि मनुष्य भूख की मर्यादा का ध्यान रखते हुए खाता तो भी गनीमत थी, पर मिर्च-मसालों के आधार पर उन्हें भी अधिक मात्रा में और बिना आवश्यकता के समय-कुसमय खाने की ठान ली। ऐसी दशा में पाचन यन्त्र कब तक अपना सही काम कर सकता था, बिगड़ना ही था, बिगड़ा भी हुआ है। मिर्च मसाले जो आज हमारे भोजन के प्रधान अंग बने हुए हैं न केवल व्यर्थ हैं वरन् हानिकारक भी हैं। छोटे बच्चे को लाल मिर्च खिलाई जाय तो वह उसकी जलन से बेचैन हो जायगा और बुरी तरह तड़प-तड़प कर रोने लगेगा। जिसने अपनी जीभ की आदत नहीं बिगाड़ी है उस प्रत्येक व्यक्ति का यही हाल होगा, चाहे छोटी आयु का हो, चाहे बड़ी आयु का डॉक्टर न मिर्च को शरीर के लिए उपयोगी स्वीकार करता है न मसाले को, पर हमारी बुद्धि ही है जो हर किसी की आदत बिगाड़ देती है। रिश्वत खोरी का चस्का, सिनेमा का चस्का, व्यभिचार का चस्का, नशेबाजी का चस्का जैसी आदत में शामिल होने पर मुश्किल से छूटता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष हानिकर दीखते हुए भी मिर्च-मसाले और खटाई मिठाई के सम्मिश्रण से बनी हुई जायकेदार कहलाने वाली चीजें भी हमें प्रिय लगने लगती हैं और उन्हीं के स्वाद के लालच में मनुष्य समय, कुसमय आवश्यक, अनावश्यक भोजन करता रहता है। भूख न लगने पर भी जब थाली सामने आती है या जायके की हुड़क लगती है तो लोग कुछ न कुछ मुंह में ठूंसना आरम्भ कर देते हैं ऐसे लोग कितने हैं जो भूख की तृप्ति के लिए उपयोगी आहार को औषधि रूप में ग्रहण करते हैं? कितने लोग हैं जो आहार का चुनाव करते समय उसकी पोषण शक्ति का ध्यान रखते हैं? आमतौर से एक आनन्द, स्वाद, विनोद, फैशन के रूप में ही तरह-तरह के चित्र-विचित्र भोज किये जाते हैं। इसी बुरी आदत ने हमारे जीवन वृक्ष की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाया है, जब तक यह बनी रहेगी तब तक पेट को सुधारने और शरीर के निरोग रहने की आशा दुराशा मात्र ही मानी जानी चाहिए।
सृष्टि के सभी प्राणी अपना आहार उनके प्राकृतिक स्वरूप में ही गृहण करते हैं। पशुओं को घास, वृक्षा-चारियों को फल, मांसाहारियों को मांस, सड़न भोजियों को सड़न अपने प्राकृतिक रूप में ही ग्राह्य होती है। उन्हें उसी में स्वाद आता है और उनका पेट उसी रूप में उसे पचा लेता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। मनुष्य अपने खाद्य को उसके स्वाभाविक रूप में गृहण करने की अपेक्षा उसे अनेकानेक अग्नि संस्कारों से विकृत बनाता है जिन वस्तुओं का प्राकृतिक स्वाद उसके अनुकूल नहीं पड़ता वे स्पष्टतः उसके लिए चाहिए। कच्चे मांस का न तो स्वाद उनके अनुकूल पड़ता है और न गन्ध न स्वरूप। इससे जाहिर है कि वह उसके लिए किसी भी प्रकार करने योग्य नहीं, फिर भी प्रकृति के विपरीत जिह्वा की अस्वीकृति को झुठलाने के लिए उसे तरह-तरह से पकाने भूनने का क्रियाएं करके चिकनाई तथा मसालों की भरमार करके इस योग्य बनाया जाता है कि चटोरी बनाई गई जीभ उसे पेट में घुसने की इजाजत देदे। मनुष्य बन्दर जाति का फलाहारी प्राणी है। उसके लिए उसी स्तर के पदार्थ उपयोगी हो सकते हैं जो कच्चे खाये जा सकें। कच्चे अन्न, स्वादिष्ट शाक तथा उपयोगी फल उसके लिए स्वाभाविक भोजन हैं। यदि यही आहार अपनाया जाय तो निस्संदेह नीरोग और दीर्घजीवी रहने में कोई कठिनाई उत्पन्न न होगी।
आहार को विकृत न करें
जीभ की आदत बिगाड़ने के लिए उसे नशीली, जहरीली चीजें खिला-खिला कर विकृत स्वभाव का बनाया जाता है। इन नशों में नमक, मसाले और शकर, चिकनाई प्रधान हैं। इनमें से एक भी वस्तु हमारे लिए आवश्यक नहीं और न इनका स्वाद ही प्राकृतिक रूप से ग्राह्य है। नमक या मसाले यदि एक दो तोले भी हम खाना चाहें तो न खा सकेंगे। नमक जरा सा खाने पर उलटी होने लगेगी। मिर्च प्राकृतिक रूप से खाई जाय तो जीभ जलने लगेगी और नाक, आंख आदि से पानी टपकने लगेगा। हींग, लौंग थोड़ी-सी भी खाकर देखा जा सकता है कि उनकी कितनी भयंकर विकृति होती है। बालक की जीभ जब तक विकृत नहीं हो जाती तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। घर में खाये जाने वाले मसाले युक्त आहार का तो वह धीरे-धीरे बहुत समय में अभ्यस्त होता है तब कहीं उसकी जीभ नशेबाज बनती है। अफीम और शराब जैसी कड़ुई वस्तुओं को भी आदी लोग मजे-मजे में पीते हैं, पीते ही नहीं उनके न मिलने पर बेचैन भी होते हैं। ठीक वही हाल विकृत बनाई गई स्वादेन्द्रियों का भी होता है। वह नमक मसाले बिना भोजन को स्वादिष्ट ही नहीं मानतीं और उसके न मिलने पर दुःख अनुभव करती हैं।
वस्तुतः शरीर को जितना और जिस स्तर का नमक चाहिए वह प्रत्येक खाद्य पदार्थ में समुचित मात्रा में मौजूद है। अनाज, फल, शाक, मेवा आदि में बहुत ही बढ़िया स्तर का नमक मौजूद है और वह आसानी से शरीर में घुल जाता है। जो खनिज नमक खाते हैं वह अनावश्यक ही नहीं वरन् हानिकारक भी है। वह खनिज लवण है जिसे हमारा शरीर स्वीकार नहीं करता। पसीना, पेशाब, कफ आदि में जो अनावश्यक खारीपन पाया जाता है वह वस्तुतः प्रकृति द्वारा उस नमक को बाहर धकेले जाने का ही प्रमाण है जिसे हमने विकृत स्वादवश शरीर में ठूंसा था।
हम यदि अपने भोजन में से नमक निकाल दें तो इसमें रत्ती भर भी हानि नहीं होने वाली है। वरन् एक विजातीय द्रव्य को जबरदस्ती पेट पर लादने के दुष्परिणाम से बचत ही हो जायगी। इतना ही नहीं उपयोगी पदार्थों की उनके प्राकृतिक रूप में जानने ग्रहण करने की उपयोगी आदत का विकास भी हो जायगा। स्वाद वश जो पेट की आवश्यकता से कहीं अधिक भोजन खा जाते हैं उसका परिणाम पाचन यन्त्र के रुग्ण एवं नष्ट होने के रूप में सामने आता है। पाचन यन्त्र बिगड़ जाने से खाद्य वस्तुएं ठीक तरह पच कर पोषण प्रदान करने की अपेक्षा, पेट में सड़न पैदा करेंगी और बीमारियां सामने आयेंगी। इस प्रकार जिन नमक मसालों को हम सुखद मानते हैं पसन्द करते हैं, वे ही हमारे लिए भयंकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करने वाले होते हैं। मिर्चें प्रत्यक्ष अखाद्य हैं। उन्हें शरीर में प्रवेश कराते समय जीभ से लेकर नाक आंख तक विद्रोह खड़ा करती हैं और जल स्राव करके उन्हें बहा देने का प्रयत्न करती हैं।
‘आर्कटिक की खोज में’ पुस्तक के लेखक जार्ज स्टीफेन्शन ने उत्तरी ध्रुव प्रदेश के निवासी एक्सिमो लोगों में नमक के प्रति घृणा करने की बात लिखी है। विद्वान वाथौलाम्ये ने चीन के देहाती प्रदेशों के विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि वहां पिछले दिनों तक बिना नमक का ही भोजन करने का प्रचलन था।
जिन क्षेत्रों अथवा वर्गों में नमक नहीं खाया जाता वहां के निवासी उन लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं जो नमक मिला भोजन करने के आदी हैं। मनुष्य शरीर के लिए जिन प्राकृतिक लवणों की आवश्यकता है वे उसे सामान्य खाद्य पदार्थों से ही सरलतापूर्वक एवं समुचित मात्रा में मिल जाते हैं। सोडियम, मैग्नीशियम, फ्लोरियम कॉपर, कैल्शियम आदि लवण साग भाजियों में, फलों में एवं अन्न दूध में मौजूद हैं। फिर अलग से नमक खाने की आवश्यकता स्वाद के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नहीं रह जाती। यह स्वाद अन्ततः हमें बहुत महंगा पड़ता है। उनके कारण गुर्दे, हृदय, जिगर, आमाशय आदि यन्त्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और चर्म रोग, रक्त विकार, मस्तिष्कीय विकृतियां, स्नायविक तनाव आदि ऐसे कितने ही रोग उत्पन्न होते हैं जिनसे नमकीन स्वाद पर नियन्त्रण करके सहज ही बचा जा सकता था।
योग तत्व उपनिषद् में शाण्डिल्य ऋषि ने योग साधकों को नमक न खाने का उपदेश दिया है।
अमेरिका में नमक का प्रचलन घट रहा है। डॉक्टर ग्राहम सरीखे मनीषी, लोगों को बिना नमक का अथवा न्यूनतम नमक का आहार लेने की सलाह देते हैं। उस देश के आदिवासी, रैड इंडियन तो औषधि रूप में ही यदा कदा नमक का सेवन करते हैं।
अब तक यह मान्यता चली आती थी कि गर्मी के दिनों में मांस तथा पसीने के मार्ग से शरीर का नमक अधिक मात्रा में बाहर निकल जाता है, उस कमी के कारण लू मारने का डर रहता है इसलिए गर्मी के दिनों में अधिक नमक खाना चाहिए। इस किम्वदन्ती को ठीक मानकर भारत की सेनाओं के भोजन में अपेक्षाकृत अधिक नमक प्रयोग कराया जाता था।
प्रति रक्षा अनुसंधान संस्था ने इस संबंध में गम्भीर अध्ययन करके यह पाया कि वह किम्वदन्ती सर्वथा भ्रमपूर्ण थी। गर्मी के दिनों में भी मनुष्य को नमक की मात्रा बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, संस्था के प्रधान अधिकारी डा. कोठारी के अनुसार अधिक नमक खाने से हाई ब्लड प्रेशर उत्पन्न होने का खतरा बढ़ता है।
फ्रांस के डाक्टर क्वाइरोल्ड ने अनिद्रा ग्रसित रोगियों को नमक छोड़ने की सलाह देकर इस कष्टकारक व्यथा से छुटकारा दिलाया। उसका प्रतिपादन है कि खनिज लवण जिसे आमतौर से लोग स्वाद के लिए खाते हैं अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी है। शरीर में उसकी बढ़ी हुई मात्रा मस्तिष्कीय तन्तुओं को उत्तेजित करती है और उससे निद्रा में रुकावट उत्पन्न होती है। यदि नमक कम खाया जाय अथवा न खाया जाय तो उससे नींद न आने के कष्ट से बहुत कुछ बचा जा सकता है।
कितने ही पशु पक्षियों को नमक का सेवन बहुत हानिकारक सिद्ध होता है। मैना पक्षी को नमक युक्त भोजन दिया जाय तो वह बीमार पड़ जायगी। यही बात अनेक अन्य पशुओं तथा पक्षियों और चूहों पर लागू होती है।
कोलम्बिया नदी के किनारे पर बसे हुए रैड इण्डियन आदिवासी नमक बिलकुल नहीं खाते। ऐसा ही नमक न छूने का प्रचलन अलजीरिया के आदिवासियों में है। सहारा रेगिस्तान में रहने वाले बद्दू कबीले के लोग भी नमक नहीं खाते। अफ्रीका प्रशान्त सागर के मध्यद्वीप, साइबेरिया आदि के आदिवासी भी नमक के स्वाद से अपरिचित हैं। और तो और अपने पड़ौसी नेपाल का भी एक ऐसा वन्य प्रदेश है जहां के लोग नमक नहीं खाते।
सभी जानते हैं कि रक्तचाप के मरीज को यदि नमक का सेवन बन्द करा दिया जाय अथवा घटा दिया जाय तो उसे बहुत राहत मिलती है।
जोन्स होपकिन्स विश्व विद्यालय के तीन वैज्ञानिकों ने नमक पर संयुक्त शोध करके यह निष्कर्ष निकाला है कि नमक सचमुच ही उग्र रक्तचाप का एक बहुत बड़ा कारण है। इन अनुसंधान कर्त्ताओं के नाम हैं—डा. लुई.सी. लेसाग्ना नार्मा फालिस और लिवो ट्रेटियाल्ट। इस मण्डली का यह भी कहना है कि नमक के चटोरों की स्वाद अनुभव करने की शक्ति घटती चली जाती है फलतः अधिक मात्रा में नमक खाने पर ही उन्हें कुछ स्वाद आता है। यह मात्रा वृद्धि उनके रोग को बढ़ाने में और भी अधिक सहायक बनती है। मण्डली का एक निष्कर्ष यह भी है कि महिलायें, पुरुषों की तुलना में अधिक निठल्ली रहती हैं और अधिक चटोरी होती हैं। इसलिए रक्तचाप की शिकायत भी पुरुषों की तुलना में उन्हें ही अधिक होती है।
रक्तचाप जैसी बीमारियों में तो आधुनिक चिकित्सक भी नमक त्याग की सलाह देते हैं। हृदय रोगियों को भी उसे कम मात्रा में लेने को कहा जाता है।सूजन बढ़ाने वाली बीमारियों में भी नमक छोड़ने में जल्दी लाभ होता देखा गया है।
अस्वाद व्रत अध्यात्म साधनाओं का प्रथम सोपान माना गया है। व्रत उपवासों में, तप अनुष्ठानों में नमक त्याग एक आवश्यक नियम माना जाता है। योगी तपस्वी स्वाद रहित भोजन करने की दृष्टि से नमक छोड़ देते हैं। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए उपयोगी कदम है। जीभ को चटोरी बनाने से कामेन्द्रिय तथा अन्य इन्द्रियां उत्तेजित होती हैं और अनेकों शारीरिक मानसिक विकार उत्पन्न करती हैं।
आहार, मात्र पेट भरने के लिए नहीं है और न जिह्वा का स्वाद तृप्त करने के लिए। उसे शरीर को उचित पोषण प्रदान करने की दृष्टि से ग्रहण किया जाना चाहिए। गन्ध, स्वरूप और स्वाद की दृष्टि से नहीं वरन् उसे इस दृष्टि से परखा जाना चाहिए कि उपयुक्त पोषण प्रदान कर सकने के तत्व उसमें हैं या नहीं। उपयुक्त भोजन के सम्बन्ध में सतर्कता बरतने पर ही हम नीरोग और दीर्घजीवी बन सकते हैं। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा एवं भूल का दुष्परिणाम हर किसी के लिए बहुत महंगा पड़ता है।
संयम साधें दीर्घायु पावें
‘‘जीवो जीवस्य भोजनम्’’ इस उक्ति का अर्थ यह है कि जीव का जीवन सजीव आहार पर ही टिका रह सकता है। जीवन-तत्व से भरपूर भोजन ही हमें जीवनी-शक्ति देता है। जिस आहार का जीवन-तत्व नष्ट हो गया हो, वह कितना भी महंगा क्यों न हो, जीवनी-शक्ति की वृद्धि नहीं कर सकता।
मनुष्य के शारीरिक और मानसिक कष्टों में से आधे का कारण भोजन सम्बन्धी अज्ञान और असंयम है। अधिकांश लोगों ने भोजन का मुख्य सम्बन्ध स्वाद से जोड़ रखा है। फिर यह स्वाद-प्रियता भी स्वाभाविक नहीं रहने दी जाती। बाल्यावस्था से ही जीभ की सहज सामर्थ्य को निरन्तर विकृत किया जाता है। छोटा बच्चा तनिक-सी मिर्च का जिह्वा से स्पर्श होते ही तिलमिला उठता है, चीखने चिल्लाने लगता है, परन्तु धीरे-धीरे बड़ों के अनुकरण में वह भी इस पीड़ा को अपनी आवश्यकता बना बैठता है। यदि जीभ की प्रकृत शक्ति को विकृत न किया जाये, तो वह अपने उपयुक्त भोजन को पहचानने में समर्थ हो सकता है। पशुओं में यह शक्ति सुरक्षित रहती है और वे अखाद्य नहीं खाते। पालतू-पशुओं को तो मनुष्य ने अपनी ही तरह कृत्रिम बनाने की हर प्रकार की कोशिशें की हैं। किन्तु प्रकृति के अंचल में स्वतन्त्र विचरण करने वाले जीव बाहरी आघातों से ही आहत-पीड़ित होते हैं, खान-पान की किसी गड़बड़ी से वे कभी अस्वस्थ नहीं देखे जाते। इनका कारण उनकी स्वादेन्द्रिय की सहज शक्ति बनी रहना ही है।
एक बार जीभ स्वाद की गुलाम हो गई, तो उसकी शक्ति में ह्रास ही होता जाता है। तब लोग उसी स्वाद की आकांक्षा को तृप्त करने के लिए खाते हैं। जो पदार्थ घी, तेल, मिर्च, मसाले से भरपूर हों, जिनको देखते ही मुंह में लार भर-भर आयें, वही भोजन उत्तम मान लिया जाता है। इसके दूसरे सिरे पर ऐसे लोग होते हैं, जो मानते हैं कि भोजन का अर्थ पेट के खालीपन को भरना ही तो है। जब जो कुछ जैसा भी मिल जाये, पेट में डाल लो ताकि उसकी आग शान्त हो जाये।
दोनों ही दृष्टिकोण भ्रान्त एवं हानिकारक हैं। चटोरे लोग मिर्च-मसाले, शक्कर-गुड़, घी-तेल की भरमार से भोजन को भारी, दुष्पाच्य बना डालते और अपच की शिकायत करते घूमते हैं तो भोजन के प्रति उपेक्षा-भाव रखने वाले अपौष्टिक पदार्थों के प्रयोग से शक्ति व स्फूर्ति गंवाते जाते हैं।
मनुष्य को कोई भी क्रिया बिना समझे-बूझे नहीं करनी चाहिए। फिर भोजन तो एक महत्वपूर्ण क्रिया है। शरीर संचालन का वह आधार बनती है। वह अन्न-यज्ञ ही है। यज्ञाग्नि में अशुद्ध, अनुपयुक्त, निषिद्ध आहुति देने से हानि की ही सम्भावना रहती है। उसी प्रकार जठराग्नि में अखाद्य, अयुक्त आहार का हवि देने पर स्वास्थ्य और शक्ति को क्षति पहुंचेगी। अतः भोजन की क्रिया का महत्व समझकर भोज्य पदार्थों का चयन सतर्कता-पूर्वक करना चाहिए।
वर्तमान युग में कब्ज एक सार्वजनिक रोग हो गया है। अनुमान है कि अन्य सभी रोगों की जितनी दवाइयां बिकती हैं, उससे आठ गुनी केवल कब्ज रोग की औषधियां बेची जाती हैं। इसका कारण यही है कि आंतों के स्नायु और उनसे लगी रक्तवाहनियां गरिष्ठ तथा भारी भोजन बार-बार किये जाने पर उस बोझ को नहीं सम्भाल पातीं और उनकी कार्य-शक्ति शिथिल होने लगती हैं। वे पाचन-क्रिया ठीक से नहीं सम्पन्न कर पातीं और कब्ज रहने लगता है। इसीलिए आवश्यकता अधिक और महंगा खाने, घी-तेल से भरपूर भोजन की नहीं अपितु ऐसा भोजन करने की है, जिसमें जीवन-तत्व विद्यमान हों। महंगा और भारी खाना जीवन-तत्व से वंचित भी हो सकता है। यदि सफाई के प्रदर्शन के फेर में अन्नों के अधिकांश जीवन-तत्व नष्ट किये जा चुके हों, शाक-भाजी को डटकर खौलाया-पकाया गया हो और मिर्च-मसालों की जोरदार छौक मारी गई हो, तो उस भोजन में समय, श्रम और पैसा लगाने के बावजूद जीवन-तत्व बहुत कम ही रह गये होंगे तथा उससे लाभ होने वाला नहीं उल्टे हानि ही होगी। अतः आवश्यक यह है कि भोजन को जीवित रखा जाय, उसे अर्द्धमृत, विकारग्रस्त, निष्क्रिय न बना डाला जाये।
जीवन-तत्व प्रकृति के सान्निध्य में, सूर्य की किरणों के सम्पर्क में पनपते-फैलते हैं। इसलिए आहार के प्राकृतिक स्वरूप को जितना सुरक्षित रखा जायगा, उसमें जीवन तत्व उतने ही सुरक्षित रहे आयेंगे। यह सही है कि पाक-क्रिया भी मानवीय भोजन का एक अनिवार्य अंग बन चुकी है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि पकाते समय भी इस तथ्य को ध्यान में रखा जाय कि आहार के प्राकृतिक स्वरूप को पूरी तरह नष्ट नहीं कर डालना है। साथ ही भोजन का एक अच्छा अंश कच्चे रूप में ही लेने की आदत डालनी चाहिए।
अन्न पाक-क्रिया के उपरान्त ही ग्रहण किया जाता है। किन्तु थोड़ा अन्न नियमित रूप से कच्चे रूप में लेना चाहिए। इसके दो उपाय हैं—पहला जो अन्न दूधिया, हरे, कच्चे रूप में भी लिये जा सकते हैं, उन्हें उस रूप में भी अवश्य लिया जाय। दूसरा, सूखे अन्न को भी हरा, जीवन्त बना डाला जाये।
हरे, कच्चे अन्न में जीवन-तत्त्व प्रचुरता से होता है। गांवों में लोग सदा गेहूं, जौ की बालें, मक्के-ज्वार के भुट्टे चने आदि हरे रहने पर ही कच्चे या भूनकर खाते हैं। उनका स्वाद भी इस रूप में अलग ही होता है। ग्रामीण लोगों का स्वास्थ्य शहर की तुलना में अच्छा होता है। जिन्हें अतिशय गरीबी में जीना पड़ रहा है तथा बेकारी के कारण मजदूरी भी नहीं मिलती, वे ग्रामीण दलित जन तो अपोषण और भुखमरी की स्थिति में जीने को विवश हैं। उनकी बात भिन्न है। किन्तु शहरी मध्यवर्ग के लोगों से ग्रामीण मध्यवर्गीय लोगों का स्वास्थ्य बहुत अच्छा होने का कारण आहार को प्राकृतिक रूप में ग्रहण करने का उनका यह अभ्यास ही है। इस हरे अन्न के साथ ही वे लोग भिगोया अन्न भी कच्चे रूप में नित्य ग्रहण करते हैं।
शहरों में भी फसल के समय गेहूं की बालें, मक्का-ज्वार के भुट्टे, हरे चने आदि बाजार में बिकने आते रहते हैं। उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। सूखे अन्न को यदि एक-एक भिगोकर रख दिया जाय और दूसरे दिन एक पोटली में गीले कपड़े से बांधकर उस पर पानी के छींटे मारते रहा जाय ताकि वह सूखे नहीं, तो तीसरे या चौथे दिन वह अंकुरित हो जाता है। तब उसमें भी हरे अन्न का ही गुण आ जाता है। उबालकर खाये गये अन्न भी रोटी या अन्य व्यंजन रूप में खाये जाने की तुलना में अधिक लाभकारी होते हैं। चावल को धान की भूसी या खोल से अलग करने पर वह जिस रूप में उपलब्ध होता है, उसमें एक लाल परत रहती है। उस लाल परत समेत ही चावल खाना चाहिए उस परत को हटाकर फिर पालिश कर जो चमचमाता चावल बाजार में बिकता है, उसके अनेक पोषक-तत्व नष्ट हो चुके होते हैं।
क्या खायें—कैसे खायें
अन्न के दो वर्ग किये जा सकते हैं—एक पौष्टिक वर्ग के अन्न, दूसरे अल्प पौष्टिक तत्व वाले अन्न। गेहूं, चावल, चना, जौ, बाजरा पौष्टिक अन्न हैं। ज्वार, मक्का आदि में पौष्टिकता अपेक्षाकृत कम होती है।
दालों, अनाजों, फलों और सागों के बारे में एक तथ्य सदा ध्यान में रखना चाहिए। जहां तक सम्भव हो, इन्हें छिलके समेत खाएं। कोदों या धान जैसे अन्न के बाहरी छिलके तो खाये नहीं जा सकते, इनमें भूसी हटाने के बाद जो अन्न निकलता है, उसका छिलका नहीं हटाना चाहिए। छिलके समेत खाने का कारण यह है कि छिलके सूर्य-किरणों के अधिक स्पर्श में रहते हैं, अतः उनमें जीवन-शक्ति अधिक होती है। दालें सदैव छिलकों समेत खानी चाहिए। अभी सफाई के नाम पर अरहर, चना, मूंग, उड़द आदि की दालों के छिलके अलग कर उन्हें साफ रूप में खाया जाता है। इस प्रक्रिया में छिलके के साथ ही बहुमूल्य पोषक तत्व भी साफ हो चुका होता है। दालें साबुत खाने की आदत डाल ली जाये, उन्हें दलकर दो दलों में विभक्त न किया जाये, तो यह अधिक उपयोगी होता है। जहां दालों के दोनों दल हैं, जिसे बीज की नाक भी कहते हैं। यह छोटा-सा अंश यद्यपि कसैला होता है, पर उसमें अत्यधिक उपयोगी तत्व होते हैं यदि घुन पूरे दाने को भी खा लें किन्तु इस नाक को न खाये, तो खेत में वह बीज बोये जाने पर अंकुरित होकर फूलता-फलता है। किन्तु यदि पूरा दाना साबुत रहा आये और यह नाक, घुन खा जाये, तो फिर वह अंकुरित नहीं हो सकता। इसी से स्पष्ट है कि उसमें ही जीवन्त-शक्ति होती है। दूसरे अन्नों की भी यही स्थिति है। पर गेहूं आदि की रोटी बनानी होती है और दाल चावल व रोटी दोनों के साथ खाई जाती है, अतः दाल को यदि साबुत खाने का अभ्यास हो जाये तो पके भोजन के रूप में भी वह उतनी ही उपयोगी बनी रहती है।
हरी शाक-सब्जी भी अपने प्राकृतिक रूप में खाने पर ही लाभकारी होती है। कच्ची न खायी जा सके, या कच्ची खाने का अभ्यास नहीं हो तो भी धीमी आंच में पकाकर खाई जायं। तेल, घी मिर्च मसाले की अधिकता से उनके गुण नष्ट हो जाते हैं। शाकों में जमीकन्द या सूरन, रतालू और कटहल जैसे दो-चार ही ऐसे वर्ग में आते हैं, जिन्हें अधिक पकाना आवश्यक होता है और जिनमें जीवन-तत्व भी कम होते हैं। शेष को सदा कम पकाना चाहिए। हरा साग जहां जो जब उपलब्ध हो उनका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। लौकी, बन्द गोभी, फूलगोभी, भिंडी, बैंगन आदि सबको कम उबालना चाहिए। कई शाक तो कच्चे ही खाये जा सकते हैं और उनमें पोषक तत्व प्रचुरता से पाये जाते हैं।
टमाटर, गाजर, मूली, चुकन्दर खीरा, ककड़ी आदि को कच्चा ही खाया जा सकता है। स्वाद के लिए साथ में नमक, जीरा, काली मिर्च का पुट दे सकते हैं। जिन्हें प्याज खाने में आपत्ति न हो, वे प्याज को शाक रूप में नहीं, कच्चे रूप में ही खायें, तो अधिक लाभ होगा। प्याज, टमाटर, गाजर, लौकी, मूली, ककड़ी, आदि के छोटे-छोटे टुकड़े कर सलाद बना ली जाती है, उसमें धनिया, नमक, नीबू, अदरक सबको मिला देने से यह स्वादिष्ट भी हो जाती है और भरपूर होती है।
प्राकृतिक आहार की दृष्टि से फलों का अपना विशेष स्थान है। केला, आम, पपीता, नीबू, अमरूद, बेल आदि ऋतु फलों को मौसम में अवश्य खाना चाहिए, क्योंकि इनमें जीवन-तत्व होते हैं।
भाजी कोमल होती है। इन्हें अधिक पकाने से इनका कचूमर ही निकल जाता है। अतः धीमी आंच में थोड़ी देर ही पकाये। छौक-बघार की अधिकता न की जाये। भाजी को तेजी से रगड़कर धोना भी नहीं चाहिए। अपितु पानी में हलके हाथ से धोकर साफ कर लेना चाहिए। भाजी और तरकारी को सदा काटने से पहले धो लिया जाय। काटकर फिर धोने पर जीवन-तत्व क्षरित हो जाते हैं। हां यह सदा देख लिया जाये कि उनमें कहीं कोई कीड़े आदि तो नहीं हैं। शाक-सब्जी तथा फलों के साथ भी यह सतर्कता बरतनी चाहिए।
दूध को बहुत अधिक उबालने से उसके भी जीवन-तत्व नष्ट हो जाते हैं। अतः उसे भी एक या दो उफान तक ही उबालना चाहिए। धारोष्ण दूध में जीवन-तत्व अधिक रहते हैं।
इस प्रकार यह सदा ध्यान में रखा जाना चाहिए कि हमारा भोजन जीवन्त हो, मृत और व्यर्थ न हो। मैदा, सूजी आदि अन्न का कचूमर निकाल डालने की ही स्थितियां हैं।फिर उनकी डबल रोटी, पूरी, पकवान बनाना तो उन्हें और कमजोर व हानिकर बना डालता है। यही बात मशीन से पिसे गेहूं के आटे का चोकर छान डालने और चावल की लाल परत हटाकर पालिश कर देने के बारे में है। चावल को रगड़-रगड़कर धोना और फिर माड़ भी निकाल देना, दालों को मसालों और बघार से भून-तलकर गरिष्ठ बना देना ये सभी जीवन-तत्व को नष्ट कर डालने के उपक्रम हैं।
खाद्य-पदार्थों में शक्ति, लावण्य, स्निग्धता और प्राण उनमें निहित जल-तत्व होता है। यह जल, पेड़ अपनी जड़ों के द्वारा धरती के गर्भ से चूसते हैं और फिर फल की कोशिकाओं तक पहुंचते हैं। अतः इस जल-तत्व को जितना सुरक्षित रखा जा सके, खाद्य-पदार्थ उतने ही प्राणवान रहते हैं। जिस पदार्थ के जलतत्व को पका सुखा कर जितना कम कर दिया जायेगा, उसका जीवन-तत्व उसी अनुपात में कम हो जायेगा। तलने से या चिकनाई से भर देने से तो पदार्थों की कोशिकाओं का जल तत्व से सम्बन्ध ही विच्छिन्न हो जाता है और वे निष्प्राण से हो जाते हैं। इन्हें खाने पर पेट में विष-विकार ही तो बढ़ेगा।
खाद्य-पदार्थों को इस तरह जलाने भूनने, रूपांतरित कर डालने के सारे प्रयास मात्र इसलिए ही तो होते हैं कि वे स्वादिष्ट हो जायें और सरलता से खाये जा सकें। किन्तु यदि भोजन इस तरह खाया गया कि दांत और दाढ़ों को पर्याप्त परिश्रम न करना पड़े तो उसमें पर्याप्त लार भी मिल न पायेगी और तब वह दुष्पाच्य हो जायेगा। आखिर भोजन का ठीक से पचना तो आवश्यक ही है, तभी वह रस व शक्ति दे सकेगा, अन्यथा भोजन के ये चार उद्देश्य पूरे न हो सकेंगे—(1) शरीर के टूटे ऊतकों की मरम्मत करना और उन्हें पोषण देना। (2) शरीर की ऊष्मा बनाये रखना तथा जीवनीशक्ति व रोग-प्रतिरोधक-शक्ति को बनाये रखना। (3) शरीर को विकसित करना, और (4) कार्य की शक्ति देना।
भोजन के पदार्थों का चुनाव करते समय भोजन के इन कार्यों को ध्यान में रखा जाये, तो फिर स्पष्ट हो जायेगा कि इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए उसमें जीवन-तत्व का बने रहना आवश्यक है उन्हें सदा सुरक्षित रखना चाहिए।
पेट को हल्का ही रखें
भोजन करने की आदतों में से एक बुरी आदत यह भी है कि हम आवश्यकता से अधिक खाते चले जाते हैं। शरीर उस अतिरिक्त आहार को पचा नहीं पाता इस असंयम और उदरशुद्धि के अभाव में आंतों में काफी बड़ी मात्रा में संचित मल एकत्रित हो जाता है। इससे पाचन क्रिया शिथिल पड़ जाती है। दूसरे यही मल-विकार शरीर के दूसरे अंगों में चला जाता है तो किसी न किसी रोग के रूप में फूट निकलता है। चाहे पाचन प्रणाली कमजोर हो अथवा दूसरा रोग, स्वास्थ्य की खराबी का पहला कारण पेट की खराबी या पेट में दूषित मल का इकट्ठा हो जाना ही है।
‘‘दि न्यू हाइजिन’’ में विद्वान् लेखक जे. डब्ल्यू. विल्सन ने अपनी पुस्तक में एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है, इससे कोष्ठबद्धता या आंतों में मल जमा हो जाने का सही अनुमान हो जाता है।
पुस्तक में लिखा है ‘‘एक बार अमेरिका के डाक्टरों ने मलाधार में संचित मल की अवस्था की पूर्ण तत्परता के साथ खोज की इसके लिए उन्होंने पर्याप्त समय लगाकर 184 शवों की परीक्षा की। यह शव विभिन्न रोग के रोगियों के थे। डाक्टरों ने देखा कि इनमें से 256 शवों की बड़ी आंतें सड़े हुए मल से भरी हुई थीं। उनमें से किसी का मलाधार मल से भरकर फूल जाने के कारण दुगुना तक हो गया था। कई शवों में यह मल इतना सूख गया था कि मलाधार के साथ चिपटकर स्लेट के समान कठोर हो गया था। इससे किसी भी रोगी का मलत्याग स्थगित नहीं हुआ था यह बड़े आश्चर्य की बात है। इस सूखे हुए मल को तराशा गया तो उसके अन्दर छोटे बड़े कई प्रकार के रोगों के कीड़े पाये गये। कहीं-कहीं कीटाणुओं के अंडे भी मिले। कई जगह ऐसा हुआ था कि इन कीटाणुओं ने मल की दीवार पार कर ली थी और मांस में प्रवेश कर गये थे जिससे वहां घाव पड़ गये थे।’’
यही कीटाणु जब उन घावों से होकर मांस या रुधिर-संचार के मार्ग में पहुंच जाते हैं तो वह सारे शरीर का दौरा करते हुए जहां अनुकूल स्थिति देखते हैं वहीं अपना अड्डा जमा लेते हैं। यह स्थल प्रायः शरीर के मर्म स्थल होते हैं जहां खून के कीटाणु बड़े हल्के होते हैं। इन जीवाणुओं को परास्त कर रोग के कीटाणु जहां अपना अड्डा जमा लेते हैं वहीं किसी बीमारी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
इससे स्नायविक दुर्बलता, तथा पेडू के विभिन्न रोग उठ खड़े होते हैं। मूत्राशय की सूजन तथा मधुमेह आदि का कारण यह कोष्ठबद्धता ही है। विषैले रक्त प्रवाह के कारण त्वचा और शरीर के दूसरे रोग भी इसी कारण होते हैं। सर्दी, सन्धिवात, अकाल-वार्धक्य, मधुमेह, गठिया, दृष्टिहीनता, बहरापन, अन्त्रपुच्छ, बवासीर, प्रदाह अन्तड़ी का घाव, आंत के आंव की संयुक्त अवस्था, स्त्रियों में शीघ्र वृद्धापन-मासिक धर्म की गड़बड़ी, रजकष्ट और श्वेत प्रदर आदि की बीमारियां भी इसी कारण से होती हैं। वास्तव में रोग का कारण अनेक नहीं एक ही है। और वह यह संचित मल की सड़ांद से उत्पन्न विजातीय पदार्थ हैं। स्थान अवस्था और शारीरिक स्थिति के अनुसार ही वह अनेकों रूपों में परिलक्षित होता है। जैसे आटे से रोटी, पूड़ी, हलुवा, आदि कई प्रकार के व्यंजन बना लेते हैं उसी प्रकार प्रत्येक अवस्था रोग और स्वास्थ्य की खराबी का कारण भी कोष्ठबद्धता है।
पाचन संस्थान की तरह की विकृतियों से बचाने के लिए भूख से कम भोजन करना नितांत आवश्यक है। इससे जहां पाचन−तंत्र पर अनावश्यक अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ता वहीं शरीर में स्फूर्ति और चेतनता भी बनी रहती है। अब तो वैज्ञानिक शोधों से भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा जाने लगा है कि मिताहार दीर्घ जीवन के लिए आवश्यक है।
कार्नल विश्व विद्यालय में सन् 1930 में एक प्रयोग किया गया था। कुछ चूहों को खाने की मनमौजी छूट दी गई। कुछ को इतना खिलाया गया कि वे जीवित रह सकें प्रयोग कर्त्ता सी.एम. मैक ने घोषित किया कि अधिक खाने वालों की तुलना में कम खाने वाले चूहे दूने दिन जिये।
शिकागो में भी आहार की कमी और वेशी के सम्बन्ध में भी चूहों पर प्रयोग चले। पो.ए.जे. कालेमन और फैडरिक होलजेल ने अपने प्रयोग के आधे चूहों को हर दिन बिना नागा भोजन दिया और आधे चूहों को एक दिन भोजन एक दिन उपवास के क्रम से खाना दिया। निष्कर्ष यह निकला कि उपवास करने वाले चूहे 20 प्रतिशत अधिक समय तक जिये। इस परिणाम से उपरोक्त दोनों प्रयोगकर्त्ता इतने अधिक प्रभावित और उत्साहित हुए कि उन्होंने स्वयं भी एक दिन उपवास एक दिन भोजन का क्रम अपना लिया।
आहार में सात्विकता का यदि समुचित ध्यान रखा जाय, उसमें तामसिकता की मात्रा न बढ़ने दी जाय तो उन रोगों से सहज ही बचाव हो सकता है जिनकी चिकित्सा में बहुत धन खर्च करना पड़ता है और बहुत कष्ट सहन करना पड़ता है। वनवासी अनेक असुविधाओं के रहते हुए भी केवल इसी एक आधार पर स्वस्थ और सबल बने रहते हैं कि उन्हें चटोरेपन की बुरी आदत नहीं होती और कुपथ्य नहीं करते। जीभ पर काबू रखना, रोगों के आक्रमण से सुरक्षित रहने का सबसे अच्छा और सबसे सस्ता तरीका है।
अमेरिका स्वास्थ्य विभाग ने उस देश की जनता में बढ़ते हुये हृदय रोगों का प्रधान कारण कुपथ्य घोषित किया है। शराब, सिगरेट, चाय, काफी की भरमार से रक्त में जो अतिरिक्त उत्तेजना उत्पन्न होती है उससे मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है और अनिद्रा का रोग लग जाता है। चिन्ता और उद्वेग की परिस्थितियां वहां के विलासी और स्वार्थरत जीवन-क्रम ने पैदा की हैं। उससे रक्त-चाप बढ़ा है। एक दूसरे के प्रति मैत्री और वफादारी शिथिल पड़ गई है इससे जीवन में आई नीरसता ने व्यक्ति को मानसिक रूप से शून्यताग्रस्त कर दिया है यह मनोदशा क्रमशः सनक, शक्कीपन और अर्धविक्षिप्त स्थिति तक ले पहुंचती है। इस तरह के मानसिक रोगों की बढ़ोतरी वहां तेजी से होती चली जा रही है। इस पर कुपथ्य का प्रचलन तो और भी दुहरी विपत्ति उत्पन्न कर रहा है।
हृदय रोगियों के आहार का निष्कर्ष यह निकला कि 40 से 50 वर्ष की आयु वाले लोगों में जो चिकनाई और चीनी कम सेवन करते थे उनमें से एक लाख लोगों में से 196 को हलके दौरे पड़े जबकि उसी आयु के अधिक चीनी और अधिक चिकनाई खाने वालों में से एक लाख लोगों में 642 को हृदय के दौरे पड़ते थे और वह भी तेज कष्टसाध्य।
50 से ऊपर की आयु में वहां हृदय रोग अधिक होता है, पर उसमें भी उपरोक्त दो वस्तुएं कम खाने वालों में से लाख पीछे 379 को तथा अधिक खाने वालों में से 1331 को इस प्रकार के दौरे पड़ते हैं।
उपवास भी आवश्यक—
उपवास भी पाचन तन्त्र को सुव्यवस्थित और सुचारु बनाये रखने में बड़ा सहयोगी होता है। जिस तरह कल-कारखाने में कार्य वाली मशीन को कुछ घण्टे आराम की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार भोजन के अत्याचार से दुःखी हुए पेट को भी आराम की आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में जानवर अधिक समझदार दिखलाई देता है क्योंकि देखा जाता है कि जब जानवर अपना उपवास करता है तो कितना ही प्रयत्न किया जावे वह भोजन नहीं करता।
उपवास से आन्तरिक शुद्धि एवं आंतों की सफाई होती है यही कारण है कि महात्मा गांधी कई बार अपनी आन्तरिक सफाई के लिए उपवास किया करते थे। मनुष्य को भी बीमारी एवं आन्तरिक सफाई के लिए उपवास रामबाण औषधि है। हर धार्मिक ग्रन्थ में उपवास के लिए लिखा गया है। जैन सम्प्रदाय में उपवास के लिए परयूशण, हिन्दुओं में अमावस्या, एकादशी, पूर्णिमा व्रत आदि और मुसलमानों में रोजा इसके उदाहरण हैं। साधारणतया यह देखने में आता है कि उपवास के दिन अच्छी-अच्छी मिठाइयां एवं गरिष्ठ भोजन ठूंस-ठूंसकर खाया जाता है इस प्रकार के उपवास से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होने की सम्भावना है। अतः ऐसा उपवास ही न किया जाये तो अच्छा है। उपवास को विधिपूर्वक करने से ही स्वास्थ्य लाभ मिलता है। अधिक और न पचने वाले पदार्थ खाकर किया जाने वाला उपवास हमेशा हानिकारक होता है। पेट से अनावश्यक काम न लेने से मानव की बहुत-सी शक्ति व्यर्थ नष्ट होने से बच जाती है। मस्तिष्क एवं पेट एक दूसरे के विरोधी लगते हैं, यदि पेट भरा रहे तो मस्तिष्क से कार्य नहीं लिया जा सकता और मस्तिष्क से कार्य लिया जाये तो पाचन क्रिया में बड़ी बाधा पड़ती है दोनों एक दूसरे के बाधक हैं। मस्तिष्क से काम उसी समय लिया जा सकता है जब पेट को अपना कार्य करने में आराम मिले।
उपवास की आवश्यकता—आज के जीवन में बढ़ते हुए वैद्य, डॉक्टर, हकीमों की संख्या इस बात का प्रमाण देते हैं कि हमारी जीवन प्रणाली में कोई भयंकर भूल है। बहुत-सी बीमारियां आवश्यकता से अधिक भोजन का ही परिणाम हैं कुछ बीमारियां इसके विपरीत कुपोषण व कम भोजन मिलने से भी हो सकती हैं लेकिन वे कम व गरीब वर्ग में मिलेंगी। लोगों ने पेट को तो अच्छा खासा स्टोर रूम समझ रखा है जिसमें चाहे जितना ही भरते जाओ उसका रखने का कार्य है। भोजन करने का भी समय होता है लेकिन आजकल का मानव सुबह से शाम तक खाता ही रहता है। सुबह उठते ही चाय, फिर सुबह का नाश्ता, दिन में चाय, दोपहर को लंच, शाम को चाय, रात्रि का भोजन, इसके बाद सोते समय दूध। अब आप ही सोचिये कि इतना सारा भोजन पेट कैसे पचा सकेगा? लोग यह भी नहीं सोचते कि आंतों पर इतना अधिक कार्य पड़ने पर उन पर तनाव आ जाता है और उनकी कार्य शक्ति क्षीण होती चली जाती है। अतः पूर्ण रीति से पाचन कार्य नहीं होने पाता और अपचा भोजन आंतों के किसी कोने में जमा हो जाता है। आंतें इस मल का रस चूसती रहती हैं अतः धीरे-धीरे उपेक्षित मल कड़ा पड़ता जाता है और जब अधिक कड़ा पड़ जाता है तो उसकी रगड़ से कमजोर आंतों में घाव पड़ जाते हैं। इसके कारण आंव आदि शरीर के द्वारा बाहर निकालने का कार्य आंतें करती हैं। पेट में दर्द होता है और पेट में दर्द से भयंकर बीमारियां होने लगती हैं।
इन सब बीमारियों से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है वह है ‘उपवास’। सप्ताह में एक बात तो निश्चित रूप से उपवास करना ही चाहिए। लम्बी बीमारियों में लम्बा उपवास करने की आवश्यकता है। इससे पेट का उपेक्षित मल धीरे-धीरे निकल जाता है। अधिक भोजन का भार न पड़ने के कारण आंतें अपना कार्य पूरी सजगता से करती हैं। हमारे देश में अन्न की भी कमी है जो विदेशों से निर्यात किया जाता है। अतः सप्ताह में एक बार उपवास करने से अन्न के खर्चे में भी बचत हो सकेगी, यही कारण था कि भूतपूर्व प्रधान मन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने सोमवार का व्रत रखने पर जोर दिया था।
उपवास करने की विधि—उपवास का अर्थ है पेट को आराम दिया जाय और भोजन का पूर्णतः त्याग किया जाय। उपवास करते समय ध्यान रखना चाहिए कि बदपरहेजी न हो और उपवास करने के पहले दिन संध्या समय भोजन न करके केवल फलों को लेना चाहिए, उबली हुई तरकारियां व हरी सब्जी जैसे गाजर, मूली, टमाटर आदि भी ली जा सकती हैं। उपवास के दिन प्रातः काफी मात्रा में जल पीकर टहलना चाहिए। अगर आवश्यकता हो तो एनीमा भी लिया जा सकता है। दिन भर पानी पीना चाहिए, यदि कमजोरी मालूम पड़े तो नीबू और शहद का पानी लिया जा सकता है। उपवास के दिन कठिन परिश्रम नहीं करना चाहिए, जहां तक सम्भव हो आराम करना चाहिए। उपवास के दूसरे दिन हल्का एवं सुपाच्य भोजन करना चाहिए, जैसे फल, सादा भोजन, दूध, दलिया, खिचड़ी इत्यादि ली जा सकती है।
बीमारी में उपवास का अधिक महत्व बढ़ जाता है। क्योंकि सब रोगों की जड़ पेट ही है और जब तक उसे साफ न रखा जाय तब तक शरीर की किसी भी बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता। अतः पेट की सफाई व मन की शान्ति के लिए लम्बा उपवास आवश्यक है। जैसे शरीर को नई स्फूर्ति सोने व विश्राम से मिलती है, उसी प्रकार आंतों को स्फूर्ति उपवास से मिलती है।
उपवास से लाभ—हमारा शरीर दो कार्य करता है—(1) पाचन (2) निष्कासन। इसी तरह भोजन भी हमारे पेट में तीन कार्य करता है—(1) शारीरिक मेहनत के समय जो कोष (सैल) टूट जाते हैं उनकी मरम्मत करना (2) जीवन सत्ता बनाये रखने के लिए आवश्यक जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करना (3) खाद्य-पदार्थों के जलने से शरीर को गर्मी प्रदान करना, भोजन से रस बनते हैं और रसों से रक्त बनता है। रक्त से हमें शक्ति और पुष्टि मिलती है। सभी भोजन रस और रक्त के रूप में परिवर्तित नहीं होता, उसमें से बहुत-सा निष्क्रिय अंश बच जाता है और वही अंश मल के रूप में हमारे शरीर से निकलता है। साधारण अवस्था में दोनों क्रियाएं पाचन व निष्कासन नियमित रूप से बिना बाधा के होती रहती हैं, किन्तु उपवास के समय में भोजन न करने के कारण शरीर के पाचन का कार्य बन्द हो जाता है केवल निष्कासन का कार्य करता है। अतः शरीर अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उस कार्य में जुट जाता है और जब पेट का विकार निष्कासन की क्रिया से निकल जाता है तो शीघ्र ही शरीर निरोग हो जाता है।
किसी भी रोग अथवा व्याधि के समय हमारी सारी शक्ति रोग से जूझने में लगी रहती है। ऐसे समय हमें स्वभावतः भोजन से अरुचि हो जाती है मानो हमारी जठराग्नि यह सूचना दे रही है कि रसोई घर की मरम्मत की आवश्यकता है, मैं अपना कार्य भण्डार में रखी हुई चीजों से चलाकर वह मरम्मत कर डालूंगी। दूसरे शब्दों में हमारी शारीरिक क्रिया में जहां किसी प्रकार का व्यति-क्रम होता है हमारी भूख बन्द हो जाती है और इस प्रकार वह उपवास के महत्व की घोषणा करती है। अस्तु कड़ी भूख लगने की प्रतीक्षा में तो नित्य ही उपवास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सप्ताह में एक दिन या आधे दिन उपवास करने की भी आदत डालनी चाहिए इससे स्वास्थ्य सुधार में निश्चित रूप से सहायता मिलेगी।
प्राकृतिक तौर पर कोष्ठबद्धता निवारण और पेट की सफाई के लिये उपवास भी एक बड़ा ही महत्वपूर्ण साधन है। एक या दो दिन उपवास रहने से यह देखा जाता है कि मुख में थूक आना, जी मिचलाना, चक्कर, अनिद्रा, मुंह से बाहर निकलने वाली सांस में बदबू आदि तीव्रता से उठने लगती हैं। इससे यह पता चलता है कि पेट की सारी पाचन प्रणाली उपवास के समय अपनी सफाई की क्रिया प्रारम्भ कर देती है। इससे जमी हुई गन्दगी उखड़ती है। यही दुर्गन्ध और सड़न ही मुंह, नाक थूक आदि के द्वारा बाहर निकलती है।
शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का महत्व इसलिए अधिक है कि इससे मल स्वाभाविक तौर पर बाहर निकल जाता है और कुछ दिन के विश्राम से पाचन प्रणाली फिर से प्रचण्ड हो जाती है। इस शक्ति में इतनी नवीनता आ जाती है कि उपवास के बाद स्वास्थ्य का बड़ी शीघ्रता से सुधार होता है। किन्तु यह उपवास सदैव ही विवेकपूर्ण होने चाहिए।
अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार ही लम्बे या आंशिक उपवास लाभदायक होते हैं। उपवास-भंग के समय भी पर्याप्त सावधानी की आवश्यकता करनी पड़ती है। उतावली और जल्दबाजी से इसका अहितकर प्रभाव पड़ सकता है इसलिए उपवास के लिए सबसे पहले किसी जानकार व्यक्ति से पूरी सलाह लेकर ही इसका उपयोग करना अच्छा होता है। पर एक-दो दिन के सरल उपवास एक पहर के आंशिक उपवासों का लाभ सभी लोग आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
भारतीय धार्मिक प्रथाओं में व्रत-उपवास को बहुत महत्व दिया गया है और जातियों के लोग तो अपने विशेष पर्वों पर ही कभी-कभी उपवास कर लेते हैं, पर हमारे यहां तो प्रत्येक तिथि और दिन का ऐसा माहात्म्य बतलाया है कि उस दिन पूरा या आधा उपवास कर लिया जाय तो बड़ा पुण्य प्राप्त हो सकता है। एकादशी तथा प्रदोष के व्रत तो सर्वत्र प्रसिद्ध ही हैं। रविवार और मंगल को उपास करने या एक समय आहार करने वालों की संख्या भी लाखों है। फिर जन्माष्टमी, शिव चतुर्दशी, गणेश चौथ, हरितालिका तीज, अनन्त चौदस आदि बीसियों तिथियां ऐसी हैं जिनका उपवास करना अनिवार्य माना जाता है। अगर पुराणों को उठाकर देखा जाय तो उसमें पांच-सात सौ तरह के उपवासों का माहात्म्य विस्तार पूर्वक मिल सकता है, जिनमें से कितने ही का तो नाम भी अब लोग भूल चुके हैं।
हमारे पूर्वजों द्वारा व्रत-उपवासों को इतना महत्व देने का कारण केवल उनका धर्म या पुण्य का दृष्टिकोण ही न था, वरन् वे जानते थे कि शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भी व्रत-उपवास एक अत्यन्त प्रभावशाली उपाय है। एकादशी व्रत का विधान बतलाते हुए उसके लाभों का वर्णन इस प्रकार किया गया है—
मातेव सर्वबालानाऔशधं रोगिणामिव ।
रक्षार्थ सर्व लोकानां निर्मितैकादशी तिथिः ।।
अर्थात्—‘‘एकादशी का निर्माण बालकों के लिये माता समान, रोगियों के लिये औषधि की तरह हितकारी है और यह सब लोगों की रक्षा करने वाली है।’’
इससे स्पष्ट है कि प्राचीन लोगों में भी उपवास द्वारा रोगों का शमन और स्वास्थ्य—लाभ के तथ्य की जानकारी है। पर उन लोगों ने यह देखकर कि सामान्य जनता बुद्धि संगत और उपयोगिता मूलक शिक्षाओं पर अधिक ध्यान देती है, धर्म और परलोक के नाम पर ही यह कठिनाइयों को सहन करने तथा स्वार्थ-त्याग के लिए उद्यत होती है? व्रतों का धार्मिक महत्व खूब बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया है। वे जानते थे कि यदि लोग धर्म की भावना से व्रत, उपवास करेंगे तो भी उनको शारीरिक लाभ मिलेंगे ही।
पर अब जमाना बदल चुका है। अधिक समय बीत जाने से लोग व्रतों का मूल उद्देश्य और उनका वास्तविक स्वरूप तो भूल गये और केवल लकीर पीटना आरम्भ कर दिया। आवश्यकता तो यह थी कि व्रत के दिन वे अपने पाचन-यन्त्रों को पूरी छुट्टी देकर सुस्ताने और नई शक्ति संग्रहीत कर लेने का मौका देते, इसके विपरीत वे उस दिन साधारण रोटी, दाल, भात के बजाय फलाहार के नाम पर मिठाई हलुआ, पकवान आदि और भी गरिष्ठ पदार्थ खाने लगे जिससे पेट में खराबी पैदा हो जाती है।
इधर योरोप, अमरीका के निवासी जो इन दिनों मुख्यतया यान्त्रिक-विकास की तरफ दत्त-चित्त हो रहे थे और शरीर को भी एक यन्त्र ही समझने लगे थे, धीरे-धीरे अन्य मशीनों की तरह उसकी भी सफाई और सुस्ताने का अवसर देना आवश्यक मानने लगे। उन्होंने देखा कि यद्यपि शरीर में रोग पैदा हो जाने पर दवा से उनका निराकरण हो जाता है, पर उससे उसका मूलकारण दूर नहीं हो पाता। साल, दो साल बाद फिर यही रोग पहले से भी अधिक जोर से आक्रमण करता है जिसके लिये पहले की अपेक्षा अधिक तीव्र दवा सेवन करने की आवश्यकता पड़ती है। यही क्रम कुछ समय तक चलते रहने से रोग लाइलाज हो जाता है।
यह दशा देखकर उन्होंने विचार किया कि दवाओं द्वारा रोग को मिटाने की विधि स्वाभाविक नहीं है। एक तरफ वे कष्ट को मिटाकर रोगी को यह अनुभव कराती हैं कि वह चंगा होता जाता है। पर दूसरी तरफ उन्हीं दवाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप देह के भीतर विजातीय द्रव्य (विषैला माद्दा) का परिणाम बढ़ता जाता है। यही दूषित पदार्थ कुछ समय पश्चात् पुनः भयंकर रोग के रूप में प्रकट होता है और तब दवा भी बहुत कम असर करती है। इस प्रकार रोग जीर्ण होकर जीवन को सदा के लिए कष्टप्रद बना देता है।
तब कुछ विचारकों का ध्यान प्राकृतिक नियमों की ओर गया। उन्होंने समझा कि रोग का वास्तविक कारण आजकल के अधिकांश मनुष्यों का प्रकृति विरुद्ध खान-पान और रहन-सहन है। मनुष्य प्रायः अपनी शारीरिक स्थिति और पाचन शक्ति का ख्याल न रखकर स्वादवश अथवा लालच से अधिक आहार ग्रहण करते हैं। कितने ही तम्बाकू, भांग, गांजा, शराब आदि ऐसी वस्तुएं व्यवहार में लाते हैं जो प्रत्यक्षतः विषाक्त होती हैं और अपना कोई हानिकार तत्व शरीर में छोड़ जाती हैं। इस प्रकार मनुष्य के शरीर में हानिकारक विजातीय द्रव्य (कूड़ा-गन्दगी) का परिमाण बढ़ता रहता है। शरीर की प्रकृतिदत्त रोग निवारक शक्ति जब बलपूर्वक उसको बाहर निकालना चाहती है तो मनुष्य को कष्ट प्रतीत होता है और इसी कारण वह बीमार समझ लिया जाता है। अगर उस अवसर पर भी मनुष्य क्षण-स्थायी दवाओं का भरोसा त्याग कर प्रकृतिदत्त शक्ति को अपना काम करने दे और स्वयं भी उसको यथाशक्ति सहायता दे तो वह शीघ्र फिर वास्तविक अर्थों में निरोग हो सकता है। इस प्रकार की ‘सहायता’ का सबसे सरल और स्वाभाविक उपाय है उपवास। एक नैचरोपैथ डाक्टर ने इसको उदाहरण देकर इस प्रकार समझाया है—
जिस प्रकार कुंए या तालाब का पानी बराबर भरा रहने से गन्दा और दूषित हो जाता है, उसी प्रकार शरीर में जमा होने वाले शक्ति उत्पन्न करने वाले पदार्थ भी, यदि शरीर में निष्क्रिय (बेकार) पड़े रहें तो वे पुराने और दूषित हो जाते हैं। इसलिये इनको भी कभी-कभी पूरी तरह खर्च कर डालना चाहिए, जिससे उनके स्थान पर नये शक्ति उत्पादक पदार्थों का निर्माण हो सके। इस प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति उपवास द्वारा ही सम्भव है—क्योंकि उपवास की अवस्था में ही, शरीर में जमा हुए पदार्थों को खर्च हो जाने का अवसर मिलता है और जब शरीर में पुनः शक्तिदायक पदार्थों की भूख पैदा हो जाती है, तब उपवास तोड़कर उपर्युक्त आहार होने से, शरीर में फिर से ताजे पदार्थ तेजी से जमा हो जाते हैं। इस प्रकार शरीर की भीतरी सफाई और फिर से उसके नवीनीकरण के लिए ‘उपवास’ एक स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया है।
पिछले दिनों में अमरीका में डा. बरनर मैकफैडन ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ अध्ययन, लेखन और प्रचार कार्य किया है। उन्होंने ‘उपवास चिकित्सा’ को एक स्वतन्त्र पद्धति का रूप दे दिया है और हजारों व्यक्तियों पर उसका प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है स्वास्थ्य, युवावस्था और शक्ति को बढ़ाने के लिये उपवास से बढ़ कर और कोई विधि नहीं है। उन्होंने उपवास-चिकित्सा की उपयोगिता और प्राचीनता का वर्णन करते हुए लिखा है—
‘‘मानव-सभ्यता की गति समुद्र के ज्वार-भाटा की तरह यद्यपि पूर्ण सन्तुलित तो नहीं है तब भी उसी की तरह कभी ऊंची और कभी नीची हुआ करती है। जो वैज्ञानिक सिद्धान्त प्राचीन काल में लोगों को मालूम थे, वे बीच के समय (मध्ययुग) में लुप्त प्रायः हो गये। वे ही सिद्धान्त अर्वाचीन युग में कुछ हेर-फेर से संचालित हो रहे हैं। जिस समय भूमध्य सागर के क्षेत्र में पनपने वाली दो महान सभ्यताएं—रोमन और ग्रीक—अपने उच्च शिखर पर पहुंची थी, उस समय यह नियम सा हो गया था कि तन्दुरुस्ती और मानसिक शान्ति चाहने वाले मनुष्य को दिन में एक बार ही भोजन करके सन्तुष्ट हो जाना चाहिये, अर्थात् जब तक दिन भर का कार्य पूरा न होकर खूब भूख न लगे और पचाने का अवकाश न मिले तब तक कुछ न खाया जाय।’’
इन देशों में दिन भर काम करने के पश्चात् पुरुष लगभग चार-पांच बजे घर लौटते थे। नारियां उसी समय ताजा भोजन तैयार रखती थीं। घर में सब व्यक्ति एक स्थान पर मिल-जुलकर प्रसन्नतापूर्वक भोजन करते थे। सब लोग दिन भर के परिश्रम से इतने थके और भूखे होते थे कि सूखी रोटी अमृत की तरह जान पड़ती थी। भोजन समस्त परिवार का एक उत्सव बन जाता था। अमीर गरीब दोनों ही समय से पूर्व बार-बार थोड़ा-थोड़ा कर भूख को नष्ट नहीं करना चाहते थे। दोपहर का भोजन तो वे लोग जानते ही न थे। सुबह काम पर जाते समय रोटी का एकाध टुकड़ा या दो-चार बिस्कुट काफी समझे जाते थे।
सिकन्दर के साथ भारत वर्ष को आने वाले सेना के सिपाहियों का भी यही भोजन क्रम लिखा है कि वे केवल शाम के पांच बजे एक बार सादा भोजन करते थे। पर इसी से वे काफी लम्बे-चौड़े और बड़े-बड़े धनुषों को चलाने में समर्थ होते थे। भारत के सप्तसिन्धु प्रदेश में निवास करने वाले आदिम आर्यगणों की भी ऐसी ही दिनचर्या थी। इसके फलस्वरूप वे सौ वर्ष तक स्वस्थ और सशक्त बने रहते थे और रोगों का नाम कदाचित् ही कभी सुनने में आता था।
पर जब से आधुनिक सभ्यता की वृद्धि हुई और ज्ञान-विज्ञान द्वारा मनुष्य अपनी शारीरिक शक्ति के बजाय यन्त्रों द्वारा काम करके अधिकाधिक उत्पादन करने लगा, तब से स्थिति बदल गई। बहुसंख्यक मनुष्य परिश्रम कम और भोजन अधिक करने लगे और तभी से रोगों का शरीर में प्रवेश करने का दरवाजा खुल गया। इस समय अमीर और सम्पन्न वे ही समझे जाते हैं जो काम कम से कम करें और उपभोग्य सामग्री को ज्यादा से ज्यादा खर्च करें। परिणाम यह होता है कि परिश्रम के अभाव में पेट में भरे गये पदार्थ जीवनी शक्ति की वृद्धि करने के बजाय उल्टा उसका शोषण करते हैं। इससे रोगों की उत्पत्ति और वृद्धि होती है तथा ऐसे लोग सदैव दवाओं और चिकित्सकों के दास बने रहते हैं।
यह सोचना बिल्कुल भ्रमपूर्ण है कि हम जितना बढ़िया और अधिक भोजन करेंगे वह हमें उतना ही ताकतवर और तन्दुरुस्त बनायेगा। इसके विपरीत सोवियत रूस की जीव-विज्ञानवेत्ता ब्लादिमिर निकितन के नवीनीत प्रयोगों से यह सिद्ध होता है कि उपवास द्वारा ही फिर से जवान होना और यौवन की बहुत समय तक रक्षा सम्भव हो सकती है। अनेक व्यक्तियों के मरने का कारण जरूरत से ज्यादा भोजन करना और इस प्रकार अपनी पाचन शक्ति को बिगाड़ लेना होता है। पहले अधिक भोजन किया जाय और फिर पचाने के लिए अनेक प्रकार के चूरन-चटनी आदि का प्रयोग किया जाय तो एक मूर्खता है, जो वर्तमान ‘सभ्यता’ की देन है। अब चिकित्सा विज्ञान का मंथन करने वाले डॉक्टर भी इस सचाई को समझ गये हैं और अन्त में वे उसी नतीजे पर पहुंचे हैं जिसे आज से 3 हजार वर्ष पहले का यूनानी चिकित्सक ‘हिप्पोक्रेट्स’ पहुंचा था। वर्तमान डाक्टरों के ‘आदि पुरुष’ माने जाने वाले इस डॉक्टर ने अपने ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि ‘‘यदि हम शरीर की भीतरी सफाई न करके उसमें भोजन ठूंसते चले जायें तो उससे हानि ही होगी और हम बीमार हो जायेंगे।’