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स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन कैसे पायें?

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लम्बे समय तक एक ही अभ्यास को दोहराते रहने से वह आदत बन जाती है और फिर वही स्वाभाविक भी लगने लगता है। कोई आदत जब स्वाभाविक लगने लगती है तो यह निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है कि उससे क्या हानियां हैं और उन हानियों से किस प्रकार बचा जा सकता है। शरीर की विलक्षणताओं, अद्भुत शक्ति और विशेषताओं को हम अपनी अस्वाभाविक आदतों के द्वारा ही नुकसान पहुंचाते हैं तथा बीमार होते रहते हैं। कुल मिलाकर हमारा रहन-सहन आहार-विहार ही कुछ इस प्रकार का हो गया है कि उसमें से अस्सी प्रतिशत को यदि कृत्रिम और बनावटी कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।

रहन-सहन और आहार विहार में यह कृत्रिमता बहुत समय से चली आ रही है तथा नयी पीढ़ा को पुरानी पीढ़ी से विरासत में मिलती जाती है। इसलिए उस सम्बन्ध में कोई विचार करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती। लेकिन वह कृत्रिम तो है ही। इसीलिए शरीर की प्रकृति दत्त विशेषताओं और शक्तियों में व्यवधान खड़ा हो जाता है तथा लोग आये दिन बीमार पड़ते तथा असमय मृत्यु का ग्रास बनते रहते हैं।

यदि इन कृत्रिमताओं, रहन-सहन और स्वभाव की विसंगतियों को सुधारा जा सके तो स्वस्थ और दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकता है। संसार के दीर्घ जीवियों से सम्पर्क साथ कर शोधकर्त्ताओं ने यह पता लगाने का प्रयत्न किया है कि वे क्यों कर इतने अधिक समय तक जीवित रह सके जितने तक कि आमतौर से जीवित नहीं रहा जाता। रहस्यों की खोज करने वालों के हाथ सादगी, सरलता, नियमितता और सन्तुष्ट प्रसन्न चित्त रहने जैसी वे सामान्य बातें ही हाथ लगी हैं जिन्हें जानते तो हम सभी हैं पर मानने से पग-पग पर इनकार करते रहते हैं।

रूस के शरीर विज्ञानी इवान पन्नोविच पावलोव लम्बे और स्वस्थ जीवन की सम्भावनाओं पर तीस वर्षों तक शोध प्रयास में निरत रहे और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कार्यव्यस्त दिनचर्या और प्राकृतिक जीवन आदमी को सक्रिय और निरोग बनाये रहता है। उद्योगी मनुष्य सत्तर वर्ष की आयु तक भली प्रकार कार्य क्षम रह सकता है किन्तु यदि उसे पचपन वर्ष की आयु में निवृत्त होकर ऐसे ही बैठे ठाले दिन बिताने पड़ें तो उसका स्वास्थ्य तेजी से गिरना शुरू हो जायगा। कई तरह की बीमारियां उपजेंगी और मस्तिष्क में बेसिर पैर की सनकें उठने लगेंगी। बुढ़ापा जरा-जीर्ण अवस्था का नाम नहीं वरन् उस मनःस्थिति का नाम है जिसमें भविष्य के सम्बन्ध में उत्साह वर्धक सपने देखना बन्द हो जाता है और निराशा आकर घेरने लगती है। बुढ़ापे के सम्बन्ध में अक्सर हम यह सोचते हैं कि बुढ़ापा जीवन का एक ऐसा समय है जब कि मनुष्य आलसी, निष्क्रिय तथा अनुत्पादक हो जाता है। पर सत्य तो यह है कि संसार के कुछ सर्वोत्तम काम मनुष्य ने बुढ़ापे के उपद्रवों के बावजूद अपनी ढलती उम्र में ही सफलता के साथ किये हैं। इतिहास से उन सब बड़ी उपलब्धियों को यदि निकाल दिया जाय जो कि, मनुष्य ने साठ, सत्तर या अस्सी वर्ष की अवस्था में प्राप्त कीं, तो दुनिया की इतनी बड़ी क्षति होगी, जिसकी पूर्ति नहीं हो सकेगी।

महापुरुषों की स्वास्थ्य साधना

इस सन्दर्भ में पश्चिम एवं भारत के वे कुछ महान पुरुष उल्लेखनीय हैं, जिनकी रचनात्मक शक्ति का ह्रास उनकी ढलती उम्र के कारण कतई नहीं हुआ था और जिन्होंने अपने बुढ़ापे में बड़े महत्वपूर्ण एवं उपयोगी काम करके मानवता की अपूर्व सेवा की।

ऐसे महान पुरुषों में कुछ ये हैं—महान दर्शनिक सन्त सुकरात, प्लेटो, पाइथेगोरेस, होमर आगसृस, खगोल शास्त्री गेलीलियो, प्रसिद्ध कवि हेनरी वर्ड्सवर्थ, वैज्ञानिक थामस अलमा एडीशन, लेखक निकोलस कोपरनिकस विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, सिसरो, अलबर्ट आइनस्टीन, टेनसिन, बेंजामिन फ्रेंकविन महात्मा टालस्टाय, महात्मा गांधी तथा जवाहर लाल नेहरू।

महात्मा सुकरात सत्तर वर्ष की उम्र में अपने अत्यन्त महत्व पूर्ण तत्वदर्शन की विशद व्याख्या करने में जुटे हुए थे। वे अपनी अस्सी वर्ष की आयु तक बराबर कठोर परिश्रम करते रहे। इक्यासी वर्ष की अवस्था में हाथ में कलम पकड़े हुए उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया।

सिसरो ने अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व तिरेसठ वर्ष की आयु में अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘‘ट्रीटजि आन ओल्ड एज’’ की रचना की। केरो ने अस्सी साल की उम्र में ग्रीक भाषा सीखी। कवि गोथे ने अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि के रूप में अपनी महान रचना फास्ट के लिखने का कार्य तिरासी वर्ष की उम्र में मृत्यु के कुछ समय पहले ही पूरा किया था।

अलबर्ट आइलस्टीन की तरह ही जो कि अन्तिम दिन तक बराबर काम करते रहे, सेमुयल मोर्स ने टेलीग्राफ आविष्कार की अपनी प्रसिद्धि के बाद अपने को व्यस्त रखने के लिए अनेक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान—कार्यों में लगाये रखा। बर्नार्डशा अपनी अन्तिम बीमारी तक लेखक के रूप में बहुत सक्रिय बने रहे। महात्मा टालस्टाय अस्सी वर्ष की अवस्था के बाद भी इतनी चुस्ती, गहराई, और प्रभावशाली ढंग से लिखते रहे कि उसकी बराबरी आधुनिक यूरोप के किसी लेखक द्वारा नहीं हो सकती। जेम्स माररिनिमू नब्बे वर्ष की आयु के बाद भी साहित्य रचना का कार्य करते हुए अपनी बड़ी पुस्तकों की भेंट दुनिया को दें गये।

व्हिटर ह्यूगो तिरासी वर्ष की अवस्था में अपनी मृत्यु तक बराबर लिखते रहे। वृद्धावस्था उनकी अद्भुत शक्ति तथा ताजगी में कोई फर्क नहीं कर सकी।

टेनासिन ने अस्सी वर्ष की परिपक्व अवस्था में अपनी सुन्दर रचना ‘‘क्रासिंग दी वार’’ दुनिया को प्रदान की। राबर्ट ब्राउनिंक अपने जीवन के संध्याकाल में बहुत सक्रिय बने रहे। उन्होंने सतहत्तर साल की उम्र में मृत्यु के कुछ पहले ही दो सर्वसुन्दर कविताएं ‘रेभरी’ और ‘‘एपीलाग टु आसलेन्डो’’ लिखी।

एज.जी. वेल्स ने सत्तर वर्ष की अपनी वर्षगांठ के उपरान्त भी पूरे चुस्त और कर्मठ रहते हुए एक दर्जन से ऊपर पुस्तकों की रचना की।

राजनीति के क्षेत्र में बिन्सटन चर्चिल, बेंजामिन फ्रेंकलिन, डिजरैली, ग्लेडस्टोन, आदि ऐतिहासिक पुरुष अपनी वृद्धावस्था की चुनौतियों के बावजूद बहुत सक्रिय बने हुए अपने देश की अमूल्य सेवा में अनवरत रूप से लगे रहे।

अभी हाल के इतिहास में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ऐसे महान पुरुष भारतवर्ष में हो गये हैं, जो अपनी वृद्धावस्था में अन्तिम समय तक देश और पीड़ित मानवता की अटूट सेवा पूरी चुस्ती एवं शक्ति के साथ बराबर करते रहे।

ढलती उम्र की विशिष्ट उपलब्धियों एवं रचनात्मक कार्यों का श्रेय केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं है। महिलाओं का भी इसमें अपना पूरा हक है।

महारानी विक्टोरिया ने अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारियों को व्यासी वर्ष की अवस्था तक कुशलता के साथ निभाया। मेरीसमरभिले ने ब्यासी साल की आयु में परमाणु (मालेक्यूलर) तथा अणुवीक्षण यन्त्र सम्बन्धी (माइक्रासकोपिकल) विज्ञान पर अपनी उपयोगी एवं बहुमूल्य रचना प्रकाशित की। मिसेज लूक्रेरिया मार सत्तासी वर्ष की उम्र तक महिलाओं को ऊपर उठाने तथा विश्वशान्ति के लिये अथक रूप में निस्वार्थ सेवा कार्यों में जुटी रहीं।

भारतवर्ष में श्रीमती सरोजिनी नायडू एवं मिसेज एनीबिसेन्ट ने अपनी वृद्धावस्था तक देश तथा मानवता की अमूल्य सेवायें कीं, जो कि चिरस्मरणी रहेंगी।

इस तरह के सैकड़ों अन्य उदाहरण दुनिया के इतिहास से दिये जा सकते हैं, जिनसे यह विचार बिलकुल ही खोखला एवं तथ्य हीन साबित होता है कि उनसठ-साठ वर्ष की आयु तक में जीवन के काम समाप्त हो जाते हैं और उसके बाद का समय अपने तथा समाज के हित में कोई उपयोगी, एवं महत्वपूर्ण काम करने के लिये सक्षम नहीं होता है।

पैरिस की 80 वर्षीय महिला सान्द्रेवच्की पिछले दिनों सारवोन विश्वविद्यालय की विशिष्ठ छात्रा थीं। उन्होंने 60 वर्ष पूर्व छोड़ी हुई अपनी कक्षा की पढ़ाई फिर आरम्भ की। इस महिला के तीन पुत्र और सात नाती, नातिन और एक परनाती था। इस प्रकार वह परदादी बन गई थी तो भी उसने जर्मन और अंग्रेजी भाषा पढ़ने के लिये उत्साह प्रदर्शित किया और विश्वविद्यालय में भर्ती हो गईं। प्राचार्य को उसने भर्ती का कारण बताते हुए कहा—लम्बे जीवन के अनुभवों के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि आदमी की मशीन लगातार चलते रहने पर ही वह काम करने लायक रह सकती है। उपयोगी काम में लगे रहने पर ही सामान्य स्वास्थ्य को स्थिर रखा जा सकता है। अध्ययन से मेरा मस्तिष्क और शरीर दोनों ही निरोग एवं उत्साह की स्थिति में रह सकेंगे।

बड़ी उम्र हो जाने पर भी मनुष्य के अरमान यदि मरे न हों तो वह बहुत कुछ कर गुजर सकता है। डारलिंगटन आइजक ब्रुक 74 साल की उम्र में फौज में भर्ती हुआ और कई लड़ाइयां लड़ने पर भी सकुशल बचा रहा। अन्ततः वह 112 वर्ष की उम्र में मरा।

अमेरिकन मेडीकल ऐसोसिएशन के अध्यक्ष डा. फ्रेडरिक श्वार्टश ने एक शोध प्रबन्ध प्रकाशित करते हुए कहा है—मनुष्य आयु या परिश्रम के कारण बूढ़े नहीं होते वरन् अपनी अन्यमनस्क, असामाजिक एवं एकाकी मनोवृत्ति के कारण टूटते और मरते हैं। आमतौर से लोग जब तक काम धन्धे से लगे रहते हैं तब तक स्वस्थ रहते हैं किन्तु जैसे ही वे ठाली हो जाते हैं और निष्प्रयोजन दिन काटना आरम्भ करते हैं वैसे ही उन्हें सौ बीमारियां धर दबोचती हैं।

डा. फेडरिक ने एक 84 वर्ष के व्यापारी का विवरण लिखा है कि वह अपने कारोबार में सदा व्यस्त रहा और यह पता भी न चला कि उसे कोई बीमारी है पर जब वह रिटायर हुआ तो डाक्टरों ने बताया कि उसके शरीर में मुद्दतों पुरानी दसियों बीमारियां घुसी पड़ी हैं। जिनकी तरफ कभी उनका ध्यान तक नहीं गया था।

संसार के सबसे अधिक दीर्घजीवी मनुष्यों के सम्बन्ध में अनुसंधान करने वाले इतालवी विशेषज्ञ कार्लोंसरतोरी का कथन है कि इस समय संसार में सबसे अधिक आयु वाली बोलोविया निवासी एक महिला है जिसकी उम्र 203 वर्ष है। इसके बाद एक सोवियत नागरिक का दूसरा नम्बर है वह 195 वर्ष का है। तीसरे नम्बर पर ईरान का एक बूढ़ा है जिसने 190 वर्ष पार कर लिये।

उपरोक्त विशेषज्ञ ने दीर्घ जीवन के अनेक कारणों में सबसे प्रमुख सन्तुलित और निरन्तर श्रम को बताया है। उसका कहना है कि लोग अधिक मेहनत के कारण उत्पन्न थकान से उतने नहीं मरते जितने की हराम खोरी और काम चोरी के कारण अल्प आयु में ही मौत के शिकार होते हैं।

कारनेल विश्वविद्यालय के प्राणि शात्री डा. एम मैकके ने कुछ चूहों को भर पेट भोजन दिया और निश्चिंत रहने की सुविधा दी। वे तीव्र गति से वयस्क और मोटे तगड़े तो हुए पर 730 दिन से अधिक न जी सके। इसके विपरीत उन्होंने कुछ चूहे ऐसे भी पाले जिन्हें मात्रा कम किन्तु पौष्टिक तत्वों की दृष्टि से उपयुक्त भोजन दिया जाता था। वे उतने तगड़े तो नहीं हुए पर फुर्तीले भी अधिक थे, और जीवित भी प्रायः ड्यौढ़े समय तक रहे। अपने प्रयोगों के आधार पर उनका निष्कर्ष मनुष्यों के सम्बंध में यह है कि कम कैलोरी का सादा और कम भोजन किया जाय तो मनुष्य आसानी से 250 वर्ष जीवित रह सकता है। इसी प्रकार विज्ञानी जार्ज टायसन का कथन है आहार-विहार सम्बन्धी आदतों को सुधार लिया जाय तो सहज ही चिरस्थाई यौवन का आनन्द लिया जा सकता है।

न शरीर थकता है न मस्तिष्क

सन् 1967 में चिकित्सा शास्त्र का नोबुल पुरस्कार दो ब्रिटिश वैज्ञानिकों श्री डा. हाजकिन और डा. हक्सले को दिया गया था। तीसरे वैज्ञानिक आस्ट्रेलिया के डा. एक्सल्स थे जिन्होंने शरीर में विचार प्रक्रिया की महत्वपूर्ण जानकारी दी है।

अमरीकी वैज्ञानिकों ने 50 वर्ष की आयु से अधिक कई व्यक्तियों पर परीक्षण किये और यह पाया कि जब मनुष्य का सारा शरीर थक जाता है तब भी मस्तिष्क नहीं थकता। दूषित जीवन पद्धति के कारण किसी की ज्ञान शक्ति विक्षिप्त हो गई हो, वैसे थोड़े ही लोग पाये गये। अधिकांश परीक्षणों से मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आयु बढ़ने के साथ मानसिक शक्ति में किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता, यदि होता है तो वह कम मानसिक कार्य करने से ही होता है। मस्तिष्क को अधिक क्रियाशील रखने वालों की बौद्धिक शक्ति में अन्तर नहीं आता शरीर भले ही थक जाता हो।

भारतीय धर्म-ग्रन्थों में ‘जीवेम् शरदः शतम्’ ‘हम सौ वर्ष के आयुष्य का उपभोग करें’ की कामना की गई है, वह उस समय की संयमित और प्राकृतिक दिनचर्या को देखते हुए अत्युक्ति नहीं थी। न आज ही वह अस्वाभाविक है। सूत्रस्थान अध्याय 27 में आचार्य चरक ने मनुष्य की आयु में 36000 रात्रियां होने का उल्लेख किया है, यदि मनुष्य हंसी-खुशी, परिश्रम और सादगी का आचरण करे तो इतनी आयु का होना कोई कठिन बात नहीं है।

ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। 1750 में हंगरी का बोविन 172 वर्ष की आयु में मरा तब उसकी विधवा पत्नी 164 वर्ष की थी और सबसे बड़े बेटे की उम्र 115 वर्ष थी। वियेना के सोलियन साबा 132 वर्ष की आयु के होकर मरे थे, उन्होंने 98 वर्ष की आयु में 7 वहीं शादी की। विवाह समारोह के बीच किसी ने चुटकी लेते हुए कहा—‘‘आप अपनी नव-विवाहिता को कब निराश्रित कर देंगे’’ तो उन्होंने अपनी मांसल भुजाओं की ओर देखकर कहा 40 साल से पहले नहीं। अपने शरीर और स्वास्थ्य पर इतना गहन नियन्त्रण रखने वाले साबा की मृत्यु 40 तो नहीं इस विवाह से 34 वर्ष बाद हुई इस पत्नी से भी तीन पुत्र हुए, जबकि इससे पूर्व वह 69 पुत्र-पुत्रियों के पिता होकर ‘बहु पुत्र लाभम्’ का आशीर्वाद सार्थक कर चुके थे।

रोम की दो नर्तकियों की आयु 104 और 112 वर्ष का उल्लेख करते हुए वहां के एक पत्र ने लिखा था कि नृत्य उनके लिए व्यवसाय नहीं, साधना थी। उन्होंने नृत्य को परमात्मा का वरदान मानकर शिरोधार्य किया था, सदैव हंसती-खेलती रहने के कारण उनके स्वास्थ्य में कभी कोई गड़बड़ी नहीं आई। 1867 में फ्रांस में एक ऐसी अभिनेत्री का निधन हुआ, जिसने 111 वर्ष की आयु पार कर ली थी। इस अभिनेत्री का जीवन सामान्य अभिनेत्रियों से भिन्न था, साधन और सम्पत्ति की प्रचुरता होने पर भी उसने प्राकृतिक जीवन के आनन्द को नहीं छोड़ा, वह अधिकांश नदियों या झरनों में स्नान करती, जंगलों में घूमने जाती, बाहर के कार्यक्रम न रहने पर भी घर में नृत्य का इतना अभ्यास करती, जिससे शरीर का सारा मैल, पसीने के रूप में निकल जाता। डेमोक्रिट्स 109 वर्ष का नीरोग जीवन जीकर मरे, उन्होंने अपने जीवन में शराब, मिर्च-मसाले और मांस का कभी उपयोग नहीं किया। वे अधिकांश उबली हुई सब्जियां, नीबू, शहद और ककड़ी आदि हरे शाक और फल खाते थे। डबल रोटी एक बार न भी ली हो पर शाकाहार उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।

वेलोर-मकरेन आयु 190 वर्ष जोसेफ रूरिकटन 160 वर्ष और नार्वे के ड्रेमन वर्ग ने 146 वर्ष की आयु का आनन्द लिया। रूस के ईवान कुस्मन नामक किसान ने 130 वर्ष की आयु तक आनन्द का जीवन बिताकर यह सिद्ध कर दिया कि जीवन को बढ़ाना मनुष्य के वश की बात है। (1) सादा और शाकाहारी भोजन, (2) भरपूर परिश्रम, (3) प्रकृति की घनिष्ठता, इन तीन छोटी-छोटी बातों में ही दीर्घजीवन का रहस्य छुपा हुआ है। इन नियमों का उल्लंघन करने वाला चाहे कोई साधारण व्यक्ति हो, चाहे सम्राट अपनी मृत्यु शीघ्र ही बुलायेगा।

व्यायाम का थोड़ा-सा भी नियम रखकर हम अपने आयुष्य को बढ़ा सकते हैं, यह स्वीडन के मिलिटरी ऑफिसर रेवरेंड का कथन है, जिसने 70 वर्ष तक फौजी सेवा की। 17 युद्धों में भाग लेने वाले इस ऑफिसर का नियम था प्रतिदिन कम से कम 5 मील चलना। जिस दिन मृत्यु हुई, उस दिन भी वह दो मील चलकर आया था। ब्रिटेन के ईफिगम से पूछा गया, आपकी महत्त्वाकांक्षा क्या दैत्या आप बड़े आदमी नहीं बनना चाहते? तो उसने हंसकर कहा—‘‘परिश्रम के जीवन से मुझे इतना मोह हो गया है कि अब कोई महत्त्वाकांक्षा रही ही नहीं। आप देखते नहीं मैं कितना स्वस्थ हूं, कितना प्रसन्न हूं, मेरे भीतर से हर घड़ी आनन्द का फौवारा छूटता रहता है।’’

सचमुच इस तरह परिश्रम में आनन्द विभोर जीवन जीने वाले ईफिगम 144 वर्ष तक जिये इस बीच वह एक दिन भी बीमार नहीं पड़े। जब कभी बरसात होती थी वे बच्चों की तरह किलकारी मरते हुए जांघिया पहन कर निकल आया करते थे और घण्टों वर्षा की फुहार का आनन्द लिया करते थे।

प्रकृति माता है उसकी गोद में रहकर मनुष्य को रुपया पैसा भले ही न मिले, पर जीवन के लिए अभीष्ट प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आनन्द, सुख और सन्तोष का अभाव नहीं होने पाता रोग, शोक और बीमारियां तो तब होती हैं, जब हम अपने जीवन की गतिविधियों—आहार-विहार से लेकर काम करने तक—को अस्वाभाविक, आलस्य और चिन्तापूर्ण बना लेते हैं। 8000 फुट की ऊंचाई पर रहने वाली हिमालय की हुंजा जाति के लोग अभी भी अपना जीवन निर्वाह अधिकांश शाक और जंगली फल-फूलों पर करते हैं, वस्त्र उन्हें साधारण ही मिल पाते हैं, आमोद-प्रमोद के लिए उनके पास यदि कुछ है तो यही पहाड़ों पर चढ़ना, झरनों में स्नान करना आदि इस पर भी वे संसार के सर्वाधिक दीर्घजीवी माने जाते हैं।

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के चिकित्सा विभाग के अध्यक्ष श्री मेजर जनरल राबर्ट मैक्कैरिसन दस हजार हुंजाओं के बीच अकेले डॉक्टर रहे, जबकि शेष भारतवर्ष में प्रति 800 व्यक्ति, एक डॉक्टर नियुक्त है। इस पर भी उन्हें दिन भर कोई काम न रहता इससे ऊबकर उन्होंने अपना समय इस जाति के दीर्घ जीवन के रहस्यों का पता लगाने में उपयोग किया उन्होंने सैकड़ों चूहों को पकड़कर उन्हें अंग्रेज चूहे—हुंजा चूहे दो दलों में बांटकर एक दल को हुंजाओं द्वारा लिए जाने वाला साधारण भोजन कराया दूसरों को अंग्रेजों द्वारा लिया जाने वाला गरिष्ठ मांसाहार। उन्होंने पाया कि हुंजा दल हमेशा स्वस्थ और तन्दुरुस्त रहा, पर अंग्रेज चूहों का दल हमेशा बीमारियों में ग्रस्त रहा। उनमें अधिकांश को गर्भपात हुआ। चूहा मातायें अपने बच्चों को पर्याप्त पोषण भी नहीं दें पाईं। उन्हें ऐसी-ऐसी बीमारियां हुईं, जिनका चिकित्सा शास्त्र में कोई उल्लेख तक नहीं।

दीर्घ जीवन प्रकृति की आकांक्षा—

ओटेगी विश्वविद्यालय के सरचार्ल्स हरकस ने यौन में वृद्धावस्था और बुढ़ापे में यौवन का विश्लेषण करते हुए बताया है कि जो लोग बदलती हुई परिस्थितियों के साथ अपना ताल-मेल नहीं बिठा पाते वे जवानी में ही बूढ़े हो जाते हैं और जो परिस्थिति के साथ अनुकूलता उत्पन्न कर लेते हैं वे बुढ़ापे में भी जवान बने रहते हैं।

प्रकृति मनुष्य को जल्दी मरने नहीं देना चाहती। एक बार वृद्धावस्था तक पहुंचने के बाद वह उसे पुनः नवयौवन में वापिस लौटने का अवसर भी देती है। सोवियत रूस के जार्जिया प्रान्त में दस हजार शतायु मनुष्य हैं। इन्हीं में से एक हैं—124 वर्षीय एस. आशा। देखा गया है कि सौ के करीब आयु पहुंचने पर जो थकान आती है वह उस आयु को पार करने पर दूर हो जाती है और तरुणाई के नये चिह्न प्रकट होने लगते हैं। जैसे नये दांत उगना—आंखों की ज्योति में फिर से तेजी आना—कानों की श्रवण शक्ति फिर रही हो जाना आदि।

‘नार्थ चाइन हैरल्ड’ में उत्तर चीन के शांगचुआन ग्राम के निवासी वानशियन—जिच नामक वृद्ध की आयु के सम्बन्ध में अनेकों विश्वस्त प्रमाणों का संग्रह  प्रकाशित करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि वह 255 वर्ष तक जिया। उसका भोजन पूर्ण शाकाहारी था और दिन में दो बार ही जो कुछ खाना होता खाता था। लन्दन के थार्म्स कार्न के बारे में भी ऐसा ही दावा किया जाता है कि वे 207 वर्ष की आयु भोग कर मरे थे।

फ्रांस की कोन्टेस डैस्मण्ड कैथराइन, अमेरिका से लुई ट्रस्को लैसोस का सवीना, टेवस बार की चार लैट डैसीन के बारे में भी यही कहा जाता है कि उनने डेढ़ सौ वर्ष के लगभग का दीर्घायुष्य प्राप्त किया है। वे सभी मिताहारी थे। संसार में सबसे अधिक दीर्घजीवी बलगेरिया में पाये जाते हैं और वे लोग प्रायः मांसाहार से दूर रहते हैं।

सोवियत रूस का 160 वर्षीय दीर्घजीवी दार जावू नामक एक छोटे गांव में शिराली मुस्लिमोव रहता था। उसके जनम दिन पर उसके वंशजों को इकट्ठा करके चित्र खींचा गया तो उस फोटोग्राफ में 200 सदस्य उपस्थित थे। उनके वंशजों में से जो मर चुके थे वे 43 थे।

पत्रकारों द्वारा दीर्घजीवन के कुछ जादुई रहस्य जानने के लिए बहुत पूछताछ की, पर उनके हाथों विचित्र जैसा कुछ नहीं लगा। जो उत्तर मिले वे सहज स्वाभाविक एवं साधारण जीवनक्रम अपनाये जाने की ही झांकी कराते थे।

शिराली ने अपनी जीवनचर्या पर प्रकाश डालते हुए नपी-तुली बातें बताईं। ‘मैंने जीवन भर अथक परिश्रम किया—जानवर चराने का छोटा समझा जाने वाला पर-उपयोगी सिद्ध होने वाला काम अपनाया। दीर्घजीवन की सरकारी पेन्शन मिलती है तो भी इस वृद्धावस्था में भी बेकार नहीं बैठता, जितना सम्भव है काम करता ही रहता हूं। मैं तो क्या मेरे पूरे परिवार में कोई शराब, सिगरेट नहीं पीता। मुझे लम्बी पैदल यात्राएं करने का सदा शौक रहा है और जब भी अवसर मिला है उसके लिए कोई न कोई कारण ढूंढ़ लिया है। इस वृद्धावस्था में उन्हें वाकूनगर देखने की इच्छा हुई तो निकटतम रेलवे स्टेशन तक 60 मील की यात्रा पैदल तथा घोड़े पर चढ़कर पूरी की। यात्रा में उनका परपोता उनके साथ था।

उनकी नाड़ी गति प्रति मिनट 60 से 72 तक—रक्तचाप 120—75 तक रहता है जो नैजवानों की तरह सामान्य है। डॉक्टर जब उनके स्वास्थ्य की परीक्षा करने के लिए तरह-तरह के उपकरणों का प्रयोग कर रहे थे तो उनने हंसते हुए कहा—पूरी तरह ठोक-बजा लीजिए, कोई कल-पुर्जा सड़ा-गला नहीं मिलेगा।

वाकू शहर उन्होंने देखा और बड़े आनन्दित हुए साथ ही उनने यह भी कहा—मैं पहाड़ी पर रहने के बदले शहर में रहना कभी पसन्द नहीं करूंगा भले ही शहर कितने ही सुन्दर और सम्पन्न क्यों न हों।

ईरान का सबसे वृद्ध व्यक्ति 195 वर्ष की आयु तक जिया। उसका नाम सैयद अली सलेही है। जन्म इस्फहान में फेरियूदान के समीप कोलोऊ गांव में हुआ। यह एक बहुत छोटी देहात है और जंगली पहाड़ियों से घिरी हुई हैं। पत्रकार उससे भेंट करने ऊंटों पर चढ़कर गये थे और उन्हें इसके लिए लगातार तीन दिन तक यात्रा करनी पड़ी थी। इस व्यक्ति ने कभी जूते नहीं पहने और न तरह-तरह की जीवनचर्याएं बदलीं, एक ही ढर्रे का—एक ही जगह—शान्त और सन्तोषी जीवन जीता रहा। उसने कोई नशा कभी नहीं पिया। वह मरने के दिनों तक 12 मील पैदल चल लेता था। आंखें बिलकुल ठीक काम करती थीं। कानों से कम सुनाई पड़ने लगा था।

दीर्घजीवी सर जेम्स सेयर जो जिन्दगी भर में बहुत ही कम बीमार पड़े थे अपने आरोग्य का सम्बन्ध कुछ अच्छी आदतों के साथ जोड़ते थे। वे कहते थे मैंने छह बातों का सदैव पूरा-पूरा ध्यान रखा। आठ घण्टे पूरी नींद सोना, खुली हवा में सोना, चारपाई को दीवारों से दूर रखना, सामान्य ताप के जल में नित्य प्रातः स्नान, स्वल्प मात्रा में शाकाहार प्रधान भोजन, नित्य टहलना।

ईरान के 191 वर्षीय सैयद अबू तलिव मीसावी ने बताया उसने हंसने खेलने की आदत को आरम्भ से ही अपनाया और उसे सदा मजबूती से पकड़ कर रखा। न कभी वे चिन्ता ग्रसित हुए और न किसी से द्वेष निभाया।

जापान में 118 वर्ष का दीर्घजीवन प्राप्त करने वाली श्रीमती कोवायासी यास्ट का कथन है कि वह आजीवन शाकाहारी रही। चिन्ताओं से मुक्त रहकर सदा गहरी नींद सोई। न कभी नशा पिया और न कभी दवा खाई।

अमेरिका में सबसे अधिक आयु की नीग्रो महिला श्रीमती चार्ली स्मिथ थी जो 121 वर्ष की आयु में भी अपनी दुकान चला लेती थी। फ्रांस में श्रीमती फैलिसी 109 वर्ष की आयु पार कर गई थी। भारत इस सम्बन्ध में अभी भी सौभाग्यवान है सरकारी आंकड़ों के अनुसार अपने देश में अभी भी 60 हजार व्यक्ति सौ वर्ष की आयु को पार कर चुके।

लम्बे समय तक जीवित रहने के कारण तलाश करने में विभिन्न शोध संस्थानों ने बहुत समय और श्रम लगाया है। उन सबके निष्कर्ष किसी जादुई कारण की खोज न कर सके। सभी को इसी नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि स्वास्थ्य के सामान्य नियमों का कड़ाई एवं प्रसन्नतापूर्वक पालन करना ही दीर्घजीवन का रहस्य है।

लन्दन युनिवर्सिटी का एक वृद्धावस्था शोध विभाग है उसने जल्दी बुढ़ापा लाने वाले कारणों में मात्रा से अधिक और स्तर में गरिष्ठ भोजन को जल्दी बुढ़ापा लाने वाला कहा है। सर हरमान वेवर ने सौ वर्ष से अधिक जीने वाले 150 व्यक्तियों से भेंट करके उनके दीर्घजीवन का रहस्य पूछा तो उनमें से कुछ उत्तर ऐसे थे जो लगभग सभी ने समान रूप से दिये जैसे भूख से काफी कम खाना, खुली वायु में जीवनयापन करना, सदा कार्यरत रहना, चिन्ता मुक्त हंसी-खुशी की जिन्दगी जीना, जल्दी सोना, जल्दी उठना और निर्द्वन्द्व होकर गहरी नींद सोना, नियमित दिनचर्या अपनाना और नशेबाजी से दूर रहना।

ऐसा ही एक अध्ययन प्रो. नेलसन ने 87 दीर्घजीवियों का किया। वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि इनकी शारीरिक बनावट में कोई विशेषता नहीं थी और न उनने कोई विशेष उपचार किये। इन सभी ने हंसी-खुशी का नियमित और व्यवस्थित जीवन जिया। फलस्वरूप वे देर तक जीवित रह सकने योग्य बने रहे।

कैलीफोर्निया के स्वास्थ्य विशेषज्ञ जान वाटस ने कहा—रजा वका का स्वास्थ्य हमें उन खोजों और जानकारियों से पीछे लौटने के लिए कहता है जो हमने बहुत श्रम, धन और प्रयत्नों के साथ संग्रह, धन और प्रयत्नों के साथ संग्रह की हैं। लगता है दीर्घजीवन की कुंजी सादगी और शान्ति के अतिरिक्त और कहीं नहीं है।

सहज सरल प्राकृतिक जीवन

डा. जार्ज गैलुष और डा. एविनहिल ने इस खोज में विशेष दिलचस्पी ली और उपरोक्त 29 हजार में से 95 वर्ष से अधिक आयु के 402 के साथ विशेष भेंट का प्रबन्ध किया और दीर्घ जीवन सम्बन्धी जानकारी के लिए कितने ही प्रश्न पूछे। उन 402 में 152 पुरुष और 250 महिलायें थीं। संख्या अनुपात के हिसाब से रखी गई, क्योंकि दीर्घ-जीवियों में पुरुषों की अपेक्षा महिलायें ही अधिक थीं।

आशा यह की गई थी कि ऐसे उत्तर प्राप्त होंगे जिनसे दीर्घ-जीवन सम्बन्ध किन्हीं अविज्ञात रहस्यों पर से पर्दा उठेगा और कुछ ऐसे नये गुरु प्राप्त होंगे जिन्हें अपनाकर दीर्घ-जीवन के इच्छुक लोग लम्बी आयुष्य भोगने का मनोरथ पूरा कर सकें। तैयारी यह भी की गई थी कि जो उत्तर प्राप्त होंगे उन्हें अनुसन्धान का विषय बनाया जायगा और देखा जायगा कि उपलब्ध सिद्धान्तों को किस स्थिति में—किस व्यक्ति के लिए किस प्रकार प्रयोग कर सकना सम्भव है। किन्तु जब उत्तरों का संकलन—पूरा हो गया तो सभी पूर्व कल्पनायें और योजनायें निरस्त करनी पड़ीं। जैसी कि आशा थी—कोई अद्भुत रहस्य मिल नहीं सके। वरन् उलटे यह प्रतीत हुआ है—जो इस विषय में अधिक लापरवाह रहे हैं वही अधिक जिये हैं। हां इतना जरूर रहा है कि उनने सीधा और सरल जीवन क्रम अपनाया था। इन वृद्ध व्यक्तियों के आहार-विहार का अन्वेषण किया गया तो इतना पता जरूर लगा कि उनमें से तीन चौथाई सादा-जीवन जीते रहे हैं। उनका आहार-विहार सरल रहा है। और मानसिक दृष्टि से उन पर कोई अतिरिक्त तनाव या दबाव नहीं रहा। उनने निश्चिन्त और निर्द्वन्द मनःस्थिति में जिन्दगी के दिन बिताये हैं।

दीर्घ-जीवन के रहस्यों का पता लगाने के लिए शरीर शास्त्री विभिन्न प्रकार की खोजें करते रहे हैं और विभिन्न निष्कर्ष निकालते रहे हैं, पर यह निष्कर्ष सबसे अद्भुत है कि हलका-फुलका और सीधा सरल जीवनक्रम अपनाकर भी लम्बी आयुष्य प्राप्त की जा सकती है।

पूछताछ में दीर्घायुष्य प्राप्त नर-नारियों द्वारा जो उत्तर डा. गैलुप और डा. हिल को मिले वे आश्चर्यजनक भले ही न हों, पर कौतूहल वर्धक अवश्य हैं। वे ऐसे नये तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं जिन पर इन नवीन आविष्कारों की खोज में आकुल-व्याकुल लोगों को सन्तोष हो सकना कठिन है। फिर उनसे मनोरंजन हर किसी का हो सकता है और सोचने के लिए एक नया आधार मिल सकता है कि क्या सभ्यता के इस युग में ‘दकियानूसी’ पन भी दीर्घ-जीवन का एक आधार हो सकता है?

115 वर्षीय सिनेसिनोंटी ने नशेबाजी से परहेज रखा। 95 वर्षीय जान रावर्टस ने कहा उन्हें पकवान कभी नहीं रुचे। 99 वर्षीय दन्त चिकित्सक रहैटस् को सदा से मस्ती सूझती रही है वह गवैयों की पंक्ति का अभी भी जावेंवला है और अपने पुराने गीतों तथा भर्राये स्वर से लोगों का मनोरंजन नहीं कौतूहल अवश्य बढ़ाता है।

लुलु विलयमस ने बताया उनने सदा पेट की मांग से कम भोजन किया है और पेट में कभी कब्ज नहीं होने दिया। श्रीमती मौंगर 103 वर्ष की हैं वे कहती हैं आलू और रोटी ही उनका प्रिय आहार रहा है तरह-तरह के व्यंजन न तो उन्हें रुचे न पचे।

स्त्रियों में अधिकांश ने कहा अपनी घर गृहस्थी में वे इतनी गहराई से रमी रहीं कि उन्हें यह आभास तक नहीं हुआ कि इतनी लम्बी जिन्दगी ऐसे ही हंसते खेलते कट गई। उन्हें तो अपना बचपन कल परसों जैसी घटना लगता है।

106 वर्षीय हैफगुच नामक गड़रिये ने कहा उसने अपने को भेड़ों में से ही एक माना है और ढर्रे के जीवनक्रम पर सन्तोष किया है न बेकार की महत्वाकांक्षायें सिर पर ओढ़ी और न सिर खपाने वाले झंझट मोल लिये। केलोरडे का कथन है—एक दिन जवानी में उसने ज्यादा पीली और बीमार पड़ गया। तब से उसने निश्चय किया कि ऐसी चीजें न खाया पिया करेगा जो लाभ के स्थान पर उलटे हानि पहुंचाती हैं। मेर्नवोके ने जोर देकर कहा उसे भलीभांति मालूम है कि जो ज्यादा सोचते और ज्यादा खीजते हैं वे ही जल्दी मरते हैं। इसलिए उसने मस्तक को चिन्ता और बेचैनी से सदा बचाये रखा है, लड़कपन को उसने मजबूती से पकड़ा है और इस डूबती उम्र तक उसे हाथ से जाने नहीं दिया।

यह एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि दीर्घ जीवी परिवार की सन्तानें भी दीर्घजीवी होती हैं। जिनके बाप दादा कम उम्र में चल बसते रहे हैं उनकी सन्तानें भी बहुत करके बिना किसी बड़े कारण के अल्पायु ही भोग सकी हैं। ऐसा क्यों होता है? इसके पीछे क्या रहस्य है यह निश्चित रूप से तो नहीं मालूम पर इतना कहा जा सकता है कि इस प्रकार के वातावरण में यह निश्चिन्तता रहती होगी कि पूर्वजों की तरह हम भी अधिक दिन जियेंगे। विश्वास भी तो जीवन का एक बहुत बड़ा आधार है।

नियमित व्यायाम करने वाले तो इन वृद्धों में से 10 प्रतिशत भी नहीं थे। शेष ने यही कहा हमारा दिन भर का काम ही ऐसा था जिसमें शरीर को थक कर चूर-चूर हो जाना पड़ता था, फिर हम क्यों बेकार व्यायाम के झंझट में पड़ते? वर्ग विभाजन के अनुसार आधे से अधिक लोग ऐसे निकले जो श्रम-जीवी थे। स्त्रियां मजदूर श्रमिक थीं। दिमागी काम करने पर भी दीर्घ-जीवन का आनन्द ले सकने वाले केवल 8 प्रतिशत ही निकले।

सैन फ्रांसिसको के 103 वर्षीय विलियम मेरी ने कहा युद्धों में उसे कई बार गोलियां लगीं और हर बार गहरे आपरेशनों के सिलसिले में अस्पतालों में रहना पड़ा, पर मरने की आशंका कभी उसे छू तक नहीं पाई। उन कष्ट कर दिनों में भी कभी आंसू नहीं बहाये वरन् यही सोचा इस स्कूल से जल्दी ही छुट्टी लेकर वह और भी शानदार दिन गुजारेगा। आशा की चमक उसकी आंखों में से एक दिन के लिए भी बुझी नहीं है।

सुगृहिणी मेरुचीर्ने का कथन है उसने परिवार—पड़ौस के बच्चों से अपना विशेष लगाव रखा है उन्हीं के साथ हिल-मिल कर रहने में खुद को इतना तन्मय रखा है कि अपना आपा भी, बचपन जैसी हर्षोल्लास भरी सरलता का आनन्द लेता रहे। शरीर से वृद्धा होते हुए भी मन से मैं अभी भी एक छोटी, लड़की ही हूं।

दीर्घजीवियों में व्यवसाय के हिसाब से वर्गीकरण करने पर जाना गया कि नौकरी पेशा लोगों की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यवसायी अधिक जीते हैं। उन्हें मालिकों की खुशामद नहीं करनी पड़ती है और न डांट-डपट सहनी पड़ती है। उससे शारीरिक काम भले ही अधिक करना पड़े, हीनता और खिन्नता का दबाव उन पर नहीं पड़ता। कई व्यक्ति नौकरी की अवधि तक अस्वस्थ रहते थे पर रिटायर होने के बाद नीरोग रहने लगे इसका कारण था, उनने निश्चित दिनचर्या और भावी योजना अपने ढंग से बनाई थी उस पर किसी दूसरे का दबाव नहीं था।

बहुत जीने के लिए अलमस्त प्रकृति का होना जरूरी है। इसके बिना गहरी नींद नहीं आ सकती और जो शान्ति पूर्ण निद्रा नहीं ले सकता उसे लम्बी जिन्दगी कैसे मिलेगी? इसी प्रकार खाने और पचाने की संगति जिन्होंने मिला ली उन्हीं को निरोग रहने का अवसर मिला है और वे ही अधिक दिन जीवित रहे हैं। एक बूढ़े ने हंसते हुए पेट के सही रहने की बात पर अधिक प्रकाश डाला और कहा—कब्ज से बचना नितान्त सरल है। भूख से कम खाया जाय तो न किसी को कब्ज रह सकता है और न इसके लिए चिकित्सक की शरण में जाना पड़ सकता है।

हेफकुक ने कहा—मैंने ईश्वर पर सच्चे मन से विश्वास किया है और माना है कि वह आड़े वक्त में जरूर सहायता करेगा। भावी जीवन के लिए निश्चिन्तता की स्थिति मुझे इसी आधार पर मिली है और शान्ति सन्तोष के दिन काटता हुआ लम्बी जिन्दगी की सड़क पर लुढ़कता पाया हूं। जेम्स हेनरी व्रेट का कथन है—वह एक धार्मिक व्यक्ति है। विश्वासों की दृष्टि से ही नहीं आचरण की दृष्टि से भी। धार्मिक मान्यताओं ने मुझे पाप पंक में गिरने का अवसर ही नहीं आने दिया। शायद सदुद्देश्य भरा क्रिया-कलाप ही दीर्घ जीवन का कारण हो।

पेट्रिस अपने भूतकाल की सुखद स्मृतियों को बड़े रस पूर्वक सुनाता था। साथ ही उस बात की उसे तनिक भी शिकायत नहीं थी कि अब वृद्धावस्था में वह सब क्यों तिरोहित हो गया। उसे इस बात का गर्व था कि उसका अतीत बहुत शानदार था वह कहता था—भला यह भी क्या कोई कम गर्व और कम सन्तोष की बात है? आज के अवसान की तुलना करके अतीत की सुखद कल्पनाओं को क्यों धूमिल किया जाय? हेन्स बेर्डे का कथन था उसने जिन्दगी भर आनन्द भोगा है। हर खटमिट्टी घटना से कुछ पाने और सीखने का प्रयत्न किया है। अनुकूलता का अपना आनन्द और प्रतिकूलता का दूसरा। मैंने दोनों प्रकार की स्थितियों का रस लेने को उत्साह रखा और आजीवन आनन्दी बन कर रहा।

दीर्घ-जीवियों में से अधिकांश वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट थे। वे मानते थे बुढ़ापा अनिवार्य है और मौत भी एक सुनिश्चित सचाई। फिर उनसे डरने का क्या प्रयोजन? जब समर्थता की स्थिति थी अब तो मन को स्थिति के अनुरूप ढाल कर संतोष के दिन क्यों न काटें।

इन में से सब लोग सदा निरोग रहे हों ऐसी बात नहीं, बीच-बीच में बीमारियां भी सताती रही हैं और दवादारू भी करनी पड़ी है, पर मानसिक बीमारियों ने उन्हें कभी त्रास नहीं दिया। लम्बी अवधि में उन्हें अपने स्त्री-बच्चों तक को दफनाना पड़ा, कितनों से तलाक ली और कितनों के बच्चे कृतघ्न थे, पर इन सब बातों का उन्होंने मन पर कोई गहरा प्रभाव पड़ने नहीं दिया और सोचते रहे जिंदगी में मिठास की तरह ही कडुआपन भी चलता है।

इन निष्कर्षों के आधार पर यही सिद्ध होता है कि हल्का-फुल्का—सीधा-सरल जीवनक्रम अपनाया जाय तो लम्बी आयुष्य सहज ही प्राप्त हो सकती है। प्रकृति नहीं चाहती कि मनुष्य बार-बार बीमार हो और जल्दी मर जाय। इसीलिए उसने मनुष्य शरीर को इतनी कुशलता से तैयार किया है कि वह छोटी-मोटी समस्याओं का स्वतः ही निराकरण कर ले। समस्या जटिल तब बनती है जबकि हम शरीर की उन स्वाभाविक विशेषताओं को नष्ट करने के लिए तुल जाते हैं।

वैसे यह कोई नहीं चाहता कि हम बार-बार बीमार पड़ते रहें और आधी अधूरी उम्र में ही चल बसें। परन्तु रहन सहन और आहार-विहार में बरती जाने वाली अनियमितता—किया जाने वाला असंयम इस अनपेक्षित स्थिति में ला पटकता है। अपनी असावधानी और लापरवाही ही रोज दुर्बलता को निमन्त्रित करती है। भले ही उनका स्वरूप सामान्य-सा दिखाई पड़े पर ‘नाविक के तीर’ की तरह गम्भीर और गहरे घाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी बड़े कारखाने को—जिसे तैयार करने में काफी समय और काफी श्रम लगा हो—नष्ट करना हो तो थोड़ी-सी लापरवाही में ही नष्ट किया जा सकता है। थोड़ी सी आग लगा कर उसे आसानी से नष्ट किया जा सकता है अथवा लापरवाही के कारण अपने आप उनका विनाश हो सकता है।

उपेक्षा और लापरवाही स्वास्थ्य की बर्बादी का प्रधान कारण है। इस कारण को ठीक किये बिना कोई व्यक्ति न तो अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सुधार सकता है और न स्वस्थ शरीर को देर तक सुरक्षित रख सकता है। उपेक्षा के गर्त में पड़ी हुई हर वस्तु नष्ट होती है, जिस चीज की भी साज संभाल न की जायगी वही कुछ दिन में बिगड़ने लगेगी और संभाल कर रखने पर वह जितने दिन जीवित रहती उसकी अपेक्षा लापरवाही का तिरस्कार सहकर कहीं जल्दी टूट-फूट जायगी। लोग अपने धन दौलत की चौकसी रखते हैं, खेती बाड़ी की, कोठी गोदाम की रखवाली का समुचित ध्यान रखते हैं, पर आरोग्य जैसी अमूल्य सम्पत्ति की ओर सर्वथा उपेक्षा धारण किये रहते हैं। ऐसी दशा में शरीर यदि दिन-दिन क्षीण होता चले तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

शरीर एक मोटर के समान है। जिसमें अनेकों सूक्ष्म यन्त्र लगे हुए हैं। ड्राइवर यदि उन यन्त्रों के सम्बन्ध में सावधानी बरते और उन्हें ठीक तरह काम में ले तो वही मोटर देर तक चलती है। अनाड़ी ड्राइवर, जिसे तेज दौड़ाने का शौक हो पर इस बात का ध्यान नहीं हो कि क्या-क्या सावधानी बरतना आवश्यक है, वह मोटर को थोड़े ही दिनों में बर्बाद कर देगा। इंजन के कीमती पुर्जे अपने चलाने वाले से इस बात की अपेक्षा करते हैं कि उनकी क्षमता से अधिक भार न पड़ने दिया जाय। अत्याचार से हर चीज नष्ट होती है फिर वे बेचारे पुर्जे भी अपवाद क्यों हों? अनाड़ी ड्राइवर जिस प्रकार असावधानी के कारण कीमती मोटर को भी कुछ दिन में कूड़ा बना देता है ‘उसी प्रकार शरीर के साथ लापरवाही बरतने वाले, अत्याचार करने वाले लोग भी कमजोरी और बीमारी के शिकार होकर अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। चतुर लोग जिस प्रकार पुरानी मोटर से भी बहुत दिन काम ले लेते हैं उसकी प्रकार शरीर के प्रति सावधानी बरतने वाले दुर्बल मनुष्य भी अपनी सामान्य शारीरिक स्थिति से भी बहुत दिन तक काम चलाते रहते हैं।

यह भी एक आश्चर्य की बात है कि इतना सक्षम, इतनी विशेषताओं से सम्पन्न शरीर मिलने पर भी मनुष्य ही बीमार पड़ते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त कोई और प्राणी न बीमार पड़ता है और न ही रोग बीमारी से कराहता है। बुढ़ापे से संत्रस्त दुर्बलता से ग्रसित और बीमारी के पाश में जकड़ा हुआ कभी कोई जीव-जन्तु नहीं देखा जाता। समय आने पर मरते तो सभी हैं, पर मनुष्य की तरह सड़ते और कराहते रहने का कष्ट किसी को नहीं भुगतना पड़ता। मनुष्य ने प्राकृतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहने की जो ठानी है उसी के फलस्वरूप उसे नाना प्रकार के रोगों में ग्रसित होना पड़ता है। अपनी बुरी आदतें उसने अपने बन्धन में बंधे हुए जिन पशु पक्षियों को भी सिखा दी हैं, जिनको प्रकृति के विपरीत अनुपयुक्त आहार-विहार करने को विवश किया है, वे भी बीमार पड़ने लगे। सभ्यताभिमानी मनुष्य ने अपना ही स्वास्थ्य नहीं गंवाया है वरन् अपने आश्रय में आये हुए अन्य जीवों को भी ऐसी ही दुर्दशा की है।

प्रकृति के अनुकूल जब तक मनुष्य चलता रहा तब तक वह स्वस्थ और निरोग जीवन व्यतीत करता रहा। हमारे पूर्वज कई-कई सौ वर्षों तक जीवित रहते और इतने बलवान होते थे कि उनके शारीरिक पराक्रमों की गाथाएं सुनकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। यह स्थिति दिन-दिन दुर्बल होती चली गई। इसका एक मात्र कारण यही रहा है कि सभ्यता की घुड़दौड़ में पड़कर कृत्रिमता को अपनाया गया और वह कृत्रिमता आहार-विहार में भी गहराई तक प्रवेश करती गई। शरीर के यन्त्र इसी ढंग से बने हुए हैं कि वे प्राकृतिक आहार-विहार के आधार पर ही ठीक प्रकार काम करते रह सकते हैं। उन पर बलात्कार किया जायगा तो फिर उन अंगों का असमर्थ और रुग्ण हो जाना स्वाभाविक है।
यह स्थिति प्रायः अनियमित और असंयत आहार-विहार, अव्यवस्थित दिन चर्या और विकृति मनःस्थिति के कारण ही उत्पन्न होती है। इन्हीं कारणों से स्वास्थ्य नष्ट होता है। स्वस्थ और सबल जीवन के लिए व्यक्ति को अपना आहार-विहार संयमित, सुव्यवस्थित तथा मनःस्थिति सुसंचालित रखना चाहिए।
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