शिष्ट बनें सज्जन कहलायें

रोगों को हम ही निमंत्रित करते हैं

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हमारा शरीर जब स्वाभाविक विकृतियों और अनपेक्षित प्रतिकूलताओं को सहकर भी सशक्त और प्राणवान् बना रहता है, तो प्रश्न उठता है कि फिर लोग असमय क्यों मरते हैं? क्यों रोग बीमारियों का संत्रास झेलते रहते हैं। इस प्रश्न का उत्तर शास्त्रकारों ने इस प्रकार दिया है कि लोग अपने आप रोग और मृत्यु को आमन्त्रित करते हैं।

योग वशिष्ठ में मृत्यु को सम्बोधित करते हुए कहा गया है—

मृत्यो न किंन्विच्छक्य स्त्वमेको मारयितुं वालात् मारणीयस्य कर्माणि तत्कर्तृणीति नेतरम् ।

हे मृत्यु, आप अकेले—अपने ही बल से किसी को नहीं मार सकतीं। जो मरता है अपने ही कर्मों से मरता है—आप तो निमित्त मात्र हैं।

वस्तुतः हम दीर्घजीवन के सर्वथा उपयुक्त अच्छा-खासा शरीर यन्त्र लेकर चले हैं उसे संभाल कर रखें तो लम्बी आयु तक सहज ही जिया जा सकता है। उसके लिए कुछ विशेष उपाय करने या रहस्य खोजने की आवश्यकता नहीं, केवल इतना ही पर्याप्त है कि इस सुन्दर यन्त्र की नटखट बच्चों की तरह तोड़-फोड़ करना बन्द कर दें और प्रकृति प्रेरणा के अनुसार सादा, सरल और शान्त जीवन जियें।

शरीर की संरचना अद्भुत है। लगता है उसके निर्माता ने अपनी सारी कला इस छोटे से यन्त्र में समेट कर रख दी है। इसके सदुपयोग के साथ सम्भावना जुड़ी हुई है कि उसे धारण करने वाला आत्मा इस उपकरण की सहायता से अनेकानेक प्रकार के भौतिक तथा आत्मिक लाभ उठाये और अपूर्णता को पीछे छोड़ते हुये पूर्णता के लक्ष तक सरलता पूर्वक पहुंच सके।

दुरुपयोग तो अमृत का भी बुरा होता है। आत्म-रक्षा के काम आने वाले अस्त्र-शस्त्रों को भी यदि गलत ढंग से प्रयुक्त किया जायगा तो वे अपनी ही हाथ-पैर काट देंगे। धन और बुद्धि का अवांछनीय उपयोग करके लोग किस प्रकार पतन के गर्त में गिरते और कष्ट भुगतते हैं यह कहीं भी—कभी भी—प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

हमें आये दिन शारीरिक रोग सताते हैं और कराहते हुए विभिन्न स्तर के कष्ट सहने के लिए विवश करते हैं। यह रोग आखिर हैं क्या? ईश्वर ने जब इतना सुसम्पन्न शरीर दिया तो उसके साथ यह बीमारियों की व्यथा क्यों लगा दी? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि रोग केवल हमारी प्रतिकूल चलने की उद्दण्ड नीति का दुष्परिणाम है। उन्हें कुपथ गामिता का दण्ड भी कह सकते हैं। प्रकृति की अवज्ञा करते हुए हम चैन से नहीं बैठ सकते। नैतिक और सामाजिक अपराध करने वाले राज दण्ड पाते हैं प्रकृति की आचार, संहिता का उल्लंघन करते हुए स्वेच्छाचार बरतने का दुष्परिणाम हमें विविध विधि रोगों के रूप में भुगतना पड़ता है।

इसी तथ्य की ओर इंगित करते हुए मनीषी मैक्स वार्म वैण्ड कहते थे—यह ठीक है कि हम मृत्यु को टाल नहीं सकते, पर यह भी गलत नहीं कि बुद्धिमानी के साथ जीवन जिया जाय तो मौत को वर्षों पीछे धकेला जा सकता है।

भूतकाल में लोग सैकड़ों वर्ष लम्बी जिन्दगी जीते थे। आज भी डेढ़ सौ से ऊपर आयु के मनुष्य जीवित हैं। सौ वर्ष तो न्यूनतम आयु मानी गई है यदि इस दीपक को जान-बूझकर बुझाने की हरकतें न की जायं तो वह सौ या उससे भी अधिक समय तक आसानी से जीवित रह सकता है।

यह मात्र कल्पना अथवा थोथा आदर्श ही नहीं है, वरन् एक जीता जागता सत्य है कि मनुष्य की स्वाभाविक आयु सौ वर्ष है। यदि दीर्घजीवन को लक्ष्य बनाकर शरीर यन्त्र की अच्छी तरह देख-रेख की जाय तो इससे अधिक वर्ष तक भी जीवित रह सकता है और लम्बे समय तक जवान, स्वस्थ और शक्तिशाली बना रह सकता है।

जब से इस आयु अनुपात की ओर खोज करने वालों की रुचि जगी है शतायु और सौ से भी अधिक वर्ष तक की आयु वाले व्यक्तियों के विवरण आये दिन जानने सुनने को मिलने लगे हैं। कुछ व्यक्तियों के लिए भले ही यह तथ्य कोरा शब्दाडम्बर और अतिरंजित चित्रण हो, परन्तु जो व्यक्ति शरीर की विलक्षण रचना प्रक्रिया और उसे लम्बे समय तक सुरक्षित व सामर्थ्यवान बनाये रहने के सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता से परिचित है उनके लिए यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि शरीर की शक्ति, सामर्थ्य और उसकी सुव्यवस्थित कार्यपद्धति में विश्वास करने वाले व्यक्ति इस सत्य के दर्शन कर रहे हैं और करते रहेंगे।

भगवान ने मनुष्य को यह शरीर इस सूझबूझ और विलक्षण क्षमताओं से भरकर बनाया है कि यदि इसे ठीक प्रकार रखा जाय तो यह लम्बे समय तक भली-भांति चलता रह सकता है। यही नहीं परिस्थितियों, ऋतु प्रभावों की प्रतिकूलताओं और दुर्घटनाओं के कारण होने वाली क्षतियों को भी अपने आप पूरा करता रह सकता है—यदि अनुचित रूप से उस व्यवस्था को अस्त-व्यस्त न किया जाय तो मनुष्य शरीर की इन विलक्षण विशेषताओं को दृष्टिगत रखते हुए और अपने अनुभव के आधार पर भारतीय ऋषि-मुनियों ने मनुष्य की सामान्य आयु एक सौ पच्चीस वर्ष घोषित की है। यदि उन तपः पूत ऋषि-मुनियों के विशिष्ट जीवन से तुलना न भी की जाय तो भी संसार में सामान्य मनुष्यों के लिए एक सौ वर्ष की आयु सर्वमान्य है। संसार के सभी प्राणी, अनुभवी, तत्ववेत्ता चिकित्साविद् और स्वास्थ्य विज्ञान के पण्डित इस बात को एक मत से स्वीकार करते हैं कि मनुष्य की औसत आयु एक सौ वर्ष होनी चाहिए।

प्रकृति का यह सामान्य नियम है कि जो प्राणी जितने समय में प्रौढ़ होता है उससे पांच गुना जीवन जीता है। नियमानुसार घोड़ा पांच वर्ष में युवा होता है तो घोड़े की उम्र 25 वर्ष से 30 वर्ष तक मानी गई है। ऊंट 8 वर्ष में प्रौढ़ होकर 40 वर्ष तक कुत्ता 2 वर्ष में विकसित होकर 20 वर्ष तक और हाथी 50 वर्ष में युवा होकर 200 वर्ष तक जीवित रहता है। मनुष्य भी साधारणतया 25 की उम्र में युवा होता है। अतः 100 से 150 वर्ष तक की उम्र मानी गई है उसकी।

शरीर और आयु विज्ञान के अमेरिकी विद्वान् डॉक्टर कार्लसन ने कहा है कि यद्यपि प्रकृति के नियम और गणित के हिसाब से मनुष्य की आयु 150 वर्ष होती है फिर भी मोटे रूप में उसको 100 वर्ष तो मान ही लेना चाहिए। यह आयु-सीमा केवल अनुमान मात्र ही नहीं है अपितु सही है। गोस्वामी तुलसी दास जी 100 वर्ष से अधिक जीवित रहे। इससे पूर्व महाभारत काल में श्रीकृष्ण की आयु 127 वर्ष और पितामह भीष्म की दो सौ वर्षों से भी अधिक मानी गई है। आधुनिक युग में भी अनेक शतजीवी हुए हैं। भारत के महर्षि कर्वे, महान् इंजीनियर विश्वैश्वरैया शतायु हुए हैं। भारत में तो दो सौ वर्ष जीवन की स्वाभाविक आयु मर्यादा मानी गई है।

विदेशों में नारवे का क्रिश्चियन डैकनवर्ग 146 वर्ष तक जीवित रहा। उसने 130 वर्ष की उम्र में अपना अन्तिम विवाह किया। इससे पूर्व 111 वर्ष की उम्र में एक 60 वर्षीय विधवा से विवाह किया था। सौ वर्ष की उम्र तक वह सिपाही के रूप में शत्रु देश से लड़ता रहा। प्रसिद्ध प्रकृतिवादी डेमोक्रेटिस जीवन भर स्वस्थ, नीरोग रहकर 109 वर्ष तक जीवित रहे। जोसफ सूरिंगटन 169 वर्ष तक जीवित रहा। उसके सबसे बड़े पुत्र की आयु 108 वर्ष की थी तो छोटे की नौ वर्ष। हंगरी का बोविन 162 वर्ष तक जीवित रहा उसकी पत्नी 160 वर्ष की थी।

इस तरह के असंख्यों उदाहरण भरे पड़े हैं जो मनुष्य के शतजीवी अथवा सौ वर्ष से अधिक होने के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इतना ही नहीं प्राणियों के जीवनकोषों का स्वभाव सदा जीवित रहने का प्रयत्न करना है। वैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि—‘‘प्राकृतिक रूप में भी मृत्यु निश्चित ही है।’’ प्रसिद्ध जीवन शास्त्री डा. अलेक्सिस कैरेल ने एक मुर्गी के भ्रूण को 36 वर्षों तक पोषक पदार्थ में सुरक्षित रखा। 36 वर्ष के पश्चात् उन्होंने अपना प्रयोग इस निष्कर्ष पर बन्द कर दिया कि वह भ्रूण इसी तरह सदा-सदा जीवित रखा जा सकता है।

पूर्व मनीषियों के अनुभवपूर्ण-निष्कर्षों, वैज्ञानिकों के प्रयोग, प्रकृति की स्वाभाविक नियम मर्यादाओं के अनुसार मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मान लेने में शंका की कोई गुंजाइश नहीं।

आज के तथाकथित वैज्ञानिक और विकसित युग में स्थिति कुछ इससे भिन्न है। अधिकांश लोग सौ वर्ष से पूर्व ही जीवन समाप्त कर देते हैं और वह भी जीवन भर स्वास्थ्य की खराबी की चिन्ता नहीं करते हुए अनेक रोग, बीमारियों के शिकार बनकर। सुखपूर्ण, स्वाभाविक और प्राकृतिक मृत्यु तो शायद ही किसी को प्राप्त होती हो। 50-60 वर्ष की उम्र में काफी समझ ली जाती है।

कुछ समय पूर्व पश्चिमी जर्मनी में 30 देशों के लगभग 2000 वैज्ञानिक जीवन शास्त्री मानस-रोग विशेषज्ञों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ था, जिसमें आधुनिक युग में गिरते जा रहे स्वास्थ्य असामयिक बुढ़ापे और अकाल मृत्यु पर विचार विमर्श किया गया था इन सभी विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि ‘‘शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की गड़बड़ी और अल्पजीवन की जड़ है आज का अप्राकृतिक, स्वाभाविक, असन्तुलित जीवन।’’

दीर्घ-जीवन के लिए मुख्यतया शारीरिक, मानसिक और व्यावहारिक जीवन-क्रम में सन्तुलन व्यवस्था बनाये रखना आवश्यक है। इसके साथ विजातीय तत्त्वों के प्रवेश से अपनी रक्षा करना भी अपेक्षित है।

इंग्लैंड के थामस पार 152 वर्ष तक स्वस्थ हालत में जीवित रहे। वे साधारण भोजन करते थे। बादशाह चार्ल्स ने एक बाद इन्हें मुलाकात के लिए बुलाया और बढ़िया भोजन की दावत भी दी किन्तु इससे वे मर गये। इस प्रकार का भोजन उन्होंने कभी नहीं किया था इसलिए वह विषैला सिद्ध हुआ और इसी कारण उनके प्राण चले गये।

रूस के एक 159 साल के व्यक्ति ने अभी हाल ही में भारत की यात्रा की थी। उसका नाम शिराली फरजाली मुस्लिमोर था और वह सोवियत संघ के अजर बेजार गणराज्य का निवासी था।

बलिया के मझौला ग्राम के कन्हगिरि टोला में एक ऐसा व्यक्ति रहता है जिसकी आयु इस समय एक सौ अठारह या उन्नीस साल की है। बताते हैं कि पिछले साल उसने साइकिल पर सवारी करना सीखा है।

काकेशिया के एक पहाड़ी गांव में एक चरवाहे की आयु इस समय 142 वर्ष की है और उसका नाम नासर है। वह गांव उसके बेटे, पोतों और परपोतों से आबाद है।

बिहार में अभी हाल की जनगणना से पता चला है कि वहां लगभग साढ़े पांच सौ ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी आयु 100 साल से अधिक है, कुछ 150 साल की आयु पार कर चुके हैं।

उत्तर प्रदेश की जनगणना के अनुसार 24 हजार व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी आयु सौ साल से अधिक है।

जर्मनी के ऐल्फस्टेडी नामक नगर में जोहान वोस्ट नाम का एक ऐसा लकड़हारा रहता है जिसकी आयु 136 वर्ष से ज्यादा है और जो चार जर्मन युद्ध और दो विश्व युद्ध अपनी आंख से देख चुका है।

उत्तर काकेशस में 132 वर्ष की महिला अपने 130 वर्ष के पति के साथ अभी जीवित हैं। जिन्होंने 106 वर्ष पूर्व अपना विवाह किया था।

चिलियात नामक गांव में गोसा माकर्नवा में बहुत सी महिलाएं ऐसी हैं जिनकी आयु 147-48 वर्ष की है? जिनमें से अधिकांश अपने हाथ से खेती का काम करती हैं।

उत्तर काकेशस के औस्तिया नामक ग्राम में एक श्रमिक श्री तेब्ज अर्ब्जया की अभी हाल में मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वे 180 वर्ष के थे और अपना सारा काम करते थे।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर डा. हैरिस सोबले ने यह दावा किया है कि यदि मनुष्य अपने ‘‘बिगड़े हुए वातावरण अर्थात् रहन-सहन और आचरण पर नियन्त्रण कर ले तो आयु दुगुनी-तिगुनी हो सकती है। उन्होंने कहा—‘शल्य और चिकित्सा के द्वारा थोड़ी आयु बढ़ सकती है। स्थिर शतायुष्य के लिए आस्तिकता, नियम-संयम और स्वच्छ आचरण का आश्रय लेना आवश्यक है।’’

डा. सोबले ने आगे बताया—‘मनुष्य को अपने शरीर का ज्ञान होना चाहिए। खाने-पीने पर ध्यान देना चाहिए। शारीरिक और मानसिक चुनौतियों का सामना करना चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि बूढ़ा भी हो जाय तो वह बेकार नहीं हो जाता। उसे भी व्यस्त रखा जाय। काम न करने से शरीर को जंग लग जाती है और लोग शीघ्र ही संसार से चल देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को सदैव सीखने के भाव से कुछ न कुछ काम करते रहना चाहिए।’’ अन्त में उन्होंने शुद्ध, पौष्टिक खाद्य पदार्थ और जलवायु की बात कही।

डा. सोबले की बात को इस यान्त्रिक युग में झुठलाया जा सकता है, पर अब तक शतायु पुरुषों के जो आंकड़े मिले हैं, उन्हें तक-विसम्मत नहीं कहा जा सकता है। उन व्यक्तियों की जीवन पद्धति और अनुभवों के निष्कर्ष भी डा. सोबले के कथन की ही पुष्टि करते हैं।

हाइफा से प्राप्त एक रिपोर्ट में बताया गया है कि श्रीमती जोहरा अल्वो नामक संसार की सबसे बूढ़ी स्त्री का गत सप्ताह इजराइल के नगर टाइदेरियाज में स्वर्गवास हो गया। मरने के दिन उनकी आयु 140 वर्ष की थी, उनकी सबसे बड़ी पुत्री 90 वर्ष की है और सबसे छोटा पुत्र 65 वर्ष का। श्रीमती जोहरा बड़ी धर्म-परायणा महिला थीं, उन्होंने मरने के दिन तक भगवान् की पूजा-वन्दना की। उनका कहना है—‘अपने को भगवान् के सहारे छोड़ दें तो भगवान् की शक्ति का प्राणों से मेल होता है, उससे रोग-शोक दूर रहते हैं।’’

नवाशहर सब डिवीजन (जालन्धर) के गांव पंडराल की रामो गुज्जर नामक महिला का 126 वर्ष की आयु में देहावसान हुआ। उनके कान अन्त तक पूरी तरह सुनते थे। आंखों की रोशनी भली-चंगी थी। मुख में काफी दांत भी थे। वह चाय, काफी तथा बिजली की चक्की का आटा उपयोग नहीं करती थी। हानिकारक भक्ष्य कभी नहीं लेती थीं और अधिक से अधिक प्राकृतिक जीवन बिताती थीं।

मोंत (सांतोजेलो) इटली 194 वर्षीय वृद्धा मारिया बास्ता अभी भी काफी स्वस्थ हैं। उनके अनुसार दीर्घायुष्य का कारण यह है कि उसने कभी भी दवा नहीं खाई और भारी आहार भी कभी नहीं किया। हल्के और सुपाच्य भोजन के कारण उनका पेट कभी खराब नहीं हुआ।

रियार (सऊदी अरब) के एक 150 वर्षीय सऊदी शेख ने एक 50 वर्षीय महिला से विवाह किया है। शेख का कहना है कि पर्याप्त परिश्रम करते रहने से स्नायु जाल सशक्त बना रहता है। शरीर की नस-नाड़ियों के अच्छी तरह काम करते रहने से दीर्घ-जीवन मिलता है।

जतोई (सोनीपत) के रहने वाले हमीम सोनूराम का निधन हाल ही में 115 वर्ष की अवस्था में हुआ। उसके 82 वर्षीय पुत्र का स्वास्थ्य युवकों जैसा है। भोजन में गाय के दूध और मक्खन को अधिक स्थान दिया है।

पीपरा कछार आजमगढ़ के 135 वर्षीय सिंहासनसिंह मरते क्षण तक अपना सारा काम अपने हाथों से करते रहे। श्रम ही उनकी दीर्घायुष्य का कारण था। रूस के किसान श्री गसानोव 150 वर्ष की आयु में भी अपने फार्म में व्यस्तता से काम कर रहे हैं। वे जीवन में कुल दो बार बीमार पड़े। इन सब उदाहरणों से डा. सोबले के कथन की पुष्टि हो जाती है। मनुष्य यदि नियम-संयम व श्रम का जीवन बिताये तो सौ वर्ष की आयु कोई आश्चर्य नहीं है।

न केवल दीर्घायुष्य वरन् लम्बे समय तक यौन और बल, वीर्य ओज भी जीवन के अन्त तक स्थिर रखा जा सकता है। अब तो विज्ञान भी यह जानने लगता है। वृद्धावस्था कोई सनातन नियम नहीं वह तो एक रोग है और मनुष्य किसी भी रोग से बच सकता है। तात्पर्य यह कि वह वृद्धावस्था को निरन्तर दूर रखकर अमरत्व का सुखोपभोग कर सकता है। कुछ दिन पूर्व स्तालित की जन्मभूमि जार्जिया के दीर्घजीवियों का वर्णन छपा था। इस छोटे से क्षेत्र में सौ और सौ से अधिक आयु के 2100 व्यक्ति थे। मखमूद बागीर ओगली इवाजोव उत्तरपूर्वी काकेशस के एक किसान की मृत्यु 11 अगस्त 1959 को हुई तब उनकी आयु 150 वर्ष थी। उनके सब मिलाकर 23 पुत्र-पुत्रियां और 150 नाती-नातिनें थीं। सबसे बड़ी लड़की की उम्र 120 वर्ष थी।

उसी प्रकार दक्षिण पश्चिमी काकेशस में अवरवजिया प्रदेश में माक्सीर नूर नाम का पर्वतारोही 158 का होकर मरा उसका मित्र खापर नूर 155 वर्ष की आयु में उसकी शव-यात्रा में सम्मिलित हुआ। जार्जिया के समीप आसेटिया शहर की टेल्से एबजिये नामक महिला 180 वर्ष की होकर मरी, एडली बा मझाक्वा 150 वर्ष और दाघेस्तान पहाड़ियों का लिउबोव पुझाक की आयु 1959 में 156 वर्ष थी, यूक्रेन और लूका दोनों भाइयों की आयु क्रमशः 123 और 120 वर्ष थी, उनकी बहन जीनिया की आयु तब 114 वर्ष थी।

वैज्ञानिकों ने मनुष्य शरीर की संरचना का विश्लेषण और अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष निकाले वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि वृद्धावस्था मात्र एक रोग है और मृत्यु शरीर की एक अवस्था जिन सूक्ष्म परमाणुओं से शरीर की रचना हुई है उन्हें ‘जीव कोश’ कहते हैं। जीव कोशों से भरा हुआ कलल जीवन रस (प्रोटोप्लाज्म) कहलाता है। यह रस तेईस मौलिक तत्वों से बना है। इसी को जीवन का मूल आधार समझना चाहिए। मोटे तौर पर यह तत्व आहार से मिलते हैं, पर यह प्रतिपादन भी अपूर्ण है क्योंकि जो तत्व आहार में होते ही नहीं वे फिर जीवन रस को कैसे प्राप्त होंगे? आश्चर्य यह है कि वे सभी तत्व जीवन रस को उपलब्ध होते रहते हैं, भले ही आहार में उनका अभाव रहता हो।

जीव कोश बढ़ते हैं और फिर एक से दो होते रहते हैं। जब तक यह वृद्धि और उत्पत्ति का क्रम चलता रहेगा तब तक शरीर भी बढ़ता रहेगा। यह वृद्धि, उत्पत्ति रुकते ही शरीर की अभिवृद्धि रुक जाती है। इस प्रक्रिया में जब निर्बलता या गड़बड़ी उत्पन्न होती है तो उसी क्रम से शरीर भी कमजोर या बीमार पड़ता है। इस अन्तरंग कोशीय जीवन पर ही हमारा बाह्य जीवन मरण निर्भर है। जैसे-जैसे हमारी आयु बढ़ती है, अवयवों की थकान, घिसट या विकृति भी बढ़ती है, इसका प्रभाव कोशों पर पड़ता है उनकी बाहरी शकल तो यथावत बनी रहती है, पर भीतर का जीवन रस घटता और सूखता जाता है उसकी ताजगी और सशक्तता भी घट जाती है यहां बुढ़ापे का कारण है। जब जीवन रस अधिक घट जाता है या निकम्मा हो जाता है तो जीव कोश मरने लगते हैं यही मृत्यु का कारण है। देर में या जल्दी जब भी मौत होगी—किसी भी कारण से होगी शरीर के भीतर यही स्थिति पाई जायगी।

कई बार मृत्यु घोषित कर देने पर भी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। जीव कोषों में जब तक जीवन रस मौजूद है—भले ही वह न्यून मात्रा में हो—जीवन वापिस लौट आने की सम्भावना बनी रहेगी। कई बार तो वे मौत के 120 घण्टे बाद तक जीवित पाये गये हैं। मरे हुए मनुष्यों के कुछ घण्टे बाद जीवित हो उठने के समाचार यदाकदा मिलते हैं, इनमें यही कारण होता है कि जीवन रस की मात्रा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई होती और उसके सजग हो उठने पर कोश भी काम करने लगते हैं और मृत्यु का स्थान जीवन ले लेता है। यह पुनर्जीवन क्षणिक हो या स्थायी यह भी कोशों की स्थिति और उसमें भरे जीवन की स्थिति पर ही निर्भर करता है।

यदि जीव कोषों की—उनमें भरे जीवन रस की विकृति रोकी जा सके, उन्हें पुनः पोषण दिया जा सके तो मनुष्य अति दीर्घजीवी हो सकता है। यह कार्य सिद्धांततः न तो कठिन है न असम्भव। क्योंकि जीव कोश और जीवन रस को तत्वतः अमर माना गया है। वे अमुक शरीर में ही मरते हैं—उस ढांचे के ही अनुपयुक्त होते हैं। वस्तुतः उनका विनाश नहीं होता। शरीर के मर जाने पर भी वे अपना मूल अस्तित्व बनाये रहते हैं और किसी अन्य रूप में परिवर्तित होकर अपनी नवीन कार्य पद्धति का पुनः आरम्भ करते हैं। आत्मा की तरह यह जीव कोश भी अमर ही कहे जा सकते हैं।

इन्हें जीर्ण या विकृत होने से जितनी अधिक देर रोका जा सकेगा उतनी ही लम्बी जिन्दगी सम्भव हो जायगी। मृत्यु के बाद जिस तरह वे नया जन्म धारण करके नई जिन्दगी आरम्भ करते हैं उसी तरह की प्रक्रिया यदि पुराने शरीर में आरम्भ कराई जा सके तो उसी काया के रहते पुनर्जीवन आरम्भ हो सकता है। इसे अध्यात्म की भाषा में कायाकल्प कहते हैं। योग और आयुर्वेद की सम्मिलित प्रक्रिया इस प्रयोजन को पूरा करने में कभी सफल भी रही है। च्यवन ऋषि का वृद्ध शरीर अश्विनी कुमार की चिकित्सा से नव यौवन सम्पन्न हुआ था। राजा ययाति ने भी वृद्धावस्था से लौटकर पुनः यौवन प्राप्त किया था।

बुढ़ापा रोकने की इच्छा—चिरकालीन यौवन उपभोग की आकांक्षा अनुचित नहीं है। भूतकाल में भी इसके लिए प्रयोग और प्रयत्न होते रहे हैं और वे अभी भी चल रहे हैं।

कीव के इन्स्टीट्यूट आफ जिरेंटोलाजी में पिछले दिनों वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी सम्पन्न हुई थी और उन कारणों के जानने पर विचार विमर्श हुआ था जिनके कारण बुढ़ापा आ धमकता है। कारणों का निश्चय हो जाने पर ही उनका निराकरण ढूंढ़ा जा सकता है।

तीस वर्ष तक हमारा शरीर निरन्तर बढ़ता है। इसके बाद वह क्रमशः घटता चला जाता है। यह घटोत्तरी ही अन्ततः हमारी मृत्यु का कारण बनती है। संचित कोश जब खत्म हो जाये तो दिवालिया बनने के अतिरिक्त और क्या मार्ग रह जाता है। 30 से लेकर 90 वर्ष की आयु की अवधि में हमारी मांस पेशियों का भार लगभग एक तिहाई कम हो जाता है। उसी के अनुपात से शक्ति घटती चलती है। तन्त्रिका तन्तु इस बीच तीन चौथाई समाप्त होकर एक चौथाई ही बचते हैं। इसलिए मस्तिष्क का शरीर पर उतना नियन्त्रण नहीं रह जाता जितना कि आवश्यक है। दिमाग स्वयं एक तिहाई खराब हो जाता है। उसका वजन 3.03 पौण्ड से घटकर 2.22 पौण्ड रह जाता है। गुर्दों में मूत्र साफ करने वाले ‘नेफ्रोन’ घटकर आधे रह जाते हैं जिससे वह पूरी तरह साफ नहीं हो पाता और रक्त में उस अशुद्धता की मात्रा बढ़ती जाती है। काम करते थक और घिस जाने के कारण ज्ञानेन्द्रियां अपना आवश्यक उत्तरदायित्व वहन नहीं कर पातीं, उन्हें पोषक तत्व भी शुद्ध तथा उपयुक्त मात्रा में मिल नहीं पाते इसलिए उनकी घिसट की क्षति पूर्ति भी नहीं हो पाती।

25 साल के युवक की तुलना में 80 साल के बूढ़े का दिल प्रायः आधी मात्रा में खून पम्प कर पाता है। यही हालत फेफड़ों की होती है, सांस की सफाई करने में वे अपनी ड्यूटी आधी ही दें पाते हैं। तन्त्रिका तन्तुओं में विद्युत आवेग की दौड़ 20 प्रतिशत शिथिल हो जाती है इसलिए शरीर द्वारा मस्तिष्क को सूचना पहुंचाने में और वहां का सन्देश अंगों के लिए लाने में देर लग जाती है। स्थिति के अनुरूप तुरन्त निर्णय लेने या कदम उठाने में बुढ़ापा धीरे-धीरे शिथिलता ही उत्पन्न करता चला जाता है। यही सब कारण हैं जिनसे हम ढलती आयु में क्रमशः मृत्यु के निकट घिसटते चले जाते हैं। शक्ति की कमी, कल पुर्जों का घिस जाना, संचित पूंजी का खर्च, नये उत्पादन में शिथिलता एवं मलों का बढ़ते जाना स्वभावतः शरीर के लिए मरण ही प्रस्तुत करेगा। बुढ़ापा जीवन को मृत्यु के पथ पर धकेलते ले चलने वाली एक ऐसी निर्मम प्रक्रिया है जिससे बच सकना कठिन दीखता है। बुढ़ापा न टला तो मृत्यु कैसे टलेगी। दोनों एक दूसरे के सगे सहोदर जो हैं।

कोशिकाओं में चलती रहने वाली रासायनिक क्रिया में विषाक्त पदार्थों का अनुपात बढ़ते जाने और प्रोटीन का चालीस प्रतिशत भाग कोलाजेन में बदल जाने से जीवन संकट बढ़ता ही जाता है। त्वचा के नीचे का कोलाजन कठोर होता जाता है। फलस्वरूप चमड़ी पर झुर्रियां पड़ने लगती हैं। दांतों का गिरना, बालों का झड़ना यह प्रकट करता है कि भीतर की पकड़ ढीली होती जा रही है।

शरीर रचना में इस प्रकार की विशेष क्षमता भी है कि वह जीर्ण होने वाली सूक्ष्म इकाइयों के स्थान पर नई इकाइयां खड़ी करती रहती है। परन्तु जब हम शरीर के साथ अति करते हैं तो वह निर्माणकारी क्षमता चुकने लगती है और मनुष्य दुर्बल, क्षीण तथा रुग्ण होने लगता है।

जीव विज्ञानियों के अनुसार मृत्यु एक प्रकार की अत्यधिक गहरी थकान अथवा इतनी प्रगाढ़ निद्रा है जिसमें गिरने के बाद फिर जागृत हो सकना सम्भव नहीं हो पाता। यदि इस थकान को दूर करने जितने समय तक सुरक्षित विश्राम की व्यवस्था बन जाय और जागने की अवधि तक शरीर के जीवाणुओं को मरने, सड़ने या सूखने से बचाया जा सके तो मृत्यु के बाद फिर कुछ समय बाद जी उठना सम्भव हो सकता है।

चेतना मरती नहीं थक जाती है। बुढ़ापे के कारण नाड़ी संस्थान की लचक घट जाती है। कोशिकाओं का नवीनीकरण क्रम शिथिल हो जाता है। शरीर यन्त्र उन्हीं कारणों से कठोर एवं शिथिल होता चला जाता है। जीवनी शक्ति का इसी क्रम से ह्रास होता है और धीरे-धीरे बढ़ती हुई जराजीर्ण अवस्था मृत्यु के समीप तक जा पहुंचती है। इस कठोरता एवं शिथिलता की गति जितनी मन्द होगी उतने ही अधिक समय तक जीवित एवं सक्रिय रहा जा सकेगा। थकान धीरे-धीरे पैदा हो दीर्घजीवन का प्रधान सूत्र यही है। प्रगाढ़ विश्राम की सुविधा बीच-बीच में इस प्रकार मिलती रहे कि पिछले दिनों की क्षति को पूरा किया जा सके तो फिर यह सम्भव हो जायगा कि बहुत लम्बे समय तक जीवन बना रहे। हर रात को सोने और हर सवेरे उठने का क्रम एक मध्यावधि मरण एवं पुनर्जीवन ही तो है, उसी सामान्य क्रम को विशेष उपचार से दीर्घकालीन बनाया जा सके तो कोशिकाओं पर छाई हुई थकान से उत्पन्न जरठता का निवारण हो सकता है और बूढ़े का फिर से जवान बन सकना शक्य बन सकता है।

जीन फिनोल ने अपनी पुस्तक ‘दि फिलोसोफी आफ लोंग लाइफ’ में लिखा है—‘मृत्यु की दिशा में आधी यात्रा हम स्वाभाविक रीति से करते हैं और आधी अस्वाभाविक रीति से। स्वाभाविक वह है जिसमें एक नियत क्रम से वृद्धावस्था आती है और परिपक्व आयु भोगकर शरीर मृत्यु की गोद में चला जाता है, अस्वाभाविक वह जिसमें मनुष्य छोटी-मोटी बीमारियों के समय—बढ़ती आयु का लेखा-जोखा रखते हुए—अपनी आयु के मरने वालों की लिस्ट बनाकर यह सोचता रहता है कि अब मृत्यु का समय नजदीक आ गया। यह मान्यता यों महत्व हीन मालूम पड़ती है, पर सचाई यह है कि वह अन्तः मन में एक सुनिश्चित संकल्प बनकर बैठ जाती है और मृत्यु को जल्दी ही कहीं से पकड़ कर ले आती है। संकल्पों से परिस्थितियों का उत्पादन एक सुनिश्चित सत्य है अतएव समय से पूर्व अस्वाभाविक मृत्यु के मुख में चला जाना भी एक यथार्थता ही है।

वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार मनुष्य एक अग्नि पिण्ड की तरह—जलते हुए दीपक की तरह है। आग ऑक्सीजन खाती है और कार्बन डायऑक्साइड गैस उगलती है। बिलकुल यही क्रम मनुष्य का भी है। उसकी श्वांस प्रश्वांस क्रिया इसी क्रिया को सम्पन्न करती है। हमारा शरीर—जीवन की एक दिव्य अग्नि की तरह ही ज्वलन्त है। इस भट्टी में यदि उपयुक्त ईंधन पड़ता रहे और उन कारणों से बचा जा सके जो उसे ठण्डी कर देते हैं तो फिर मरने में आमतौर से जो उतावली हो जाती है वह न हो और देर तक जीवित रह सकना सम्भव हो जाय।

शरीर से अमर होने की आकांक्षा भले ही पूरी न हो सके पर, निस्संदेह मानवी प्रयास निकट भविष्य में लम्बा दीर्घ जीवन प्राप्त करने की समस्या हल कर लेंगे।

मनुष्य क्यों बूढ़ा होता है और क्यों मरता है इस प्रश्न के उत्तर में पिछले दिनों यह कहा जाता रहा है कि इसका कारण नाड़ियों का कड़ा हो जाना है, कोशिकाओं की कोमलता घट जाना और विभिन्न अंगों में कई तरह के अवांछनीय पदार्थों का जम जाना ही बुढ़ापे का कारण है। थके और घिसे पिटे कल पुर्जे जब अपना काम करने से इनकार कर देते हैं तो प्रकृति उस मशीन को तोड़ फोड़कर गला देने के लिए भट्टी में भेज देती है और नया खिलौना ढालती है, यही है जीवन और मृत्यु का अनवरत चक्र।

शोध प्रयासों ने इस दिशा में नये कदम बढ़ाये हैं और यह पाया है कि स्नायु समूह, कोशिका-संस्थान, रक्ताभिषरण आदि की दुर्बलताएं वस्तुतः मानसिक थकान के कारण उत्पन्न होती हैं। मस्तिष्क को श्रम तो बहुत करना पड़ता है, पर उसे आवश्यक मात्रा में विश्राम नहीं मिलता। आमदनी से अधिक खर्च करने वाला जिस तरह दिवालिया हो जाता है; उसी प्रकार मनःसंस्थान का बजट असन्तुलित रहने से समस्त शरीर प्रभावित होता है और बुढ़ापा तथा बीमारी का सहारा लेकर मौत आधमकती है। यदि मस्तिष्क का जमा खर्च सन्तुलित रहे—आवेश जन्य तनाव उत्पन्न न हो तो दीर्घ जीवन बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सरल हो सकता है। रहन-सहन की मामूली सावधानी रखने से भी अनुद्विग्न व्यक्ति लम्बे समय तक जी सकते हैं।

सोवियत रूस के सर्वाधिक आयु वाले व्यक्ति का नाम है—शेराली। उसकी उम्र 162 वर्ष है। सीधी कमर, आंख कानों की सक्रियता यथावत्, चलने-फिरने में उत्साह और कभी-कभी घुड़सवारी का प्रयोग देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि उनकी इतनी अधिक आयु हो सकती है उनकी पत्नी इस समय 94 वर्ष की है और वह भी बिना किसी शारीरिक असमर्थता अथवा व्याधि व्यथा का अनुभव किये अपने बेटे पोतों, परपोतों से भरे पूरे कुटुम्ब में कुछ न कुछ करती ही रहती है।

दीर्घ जीवन का रहस्य पूछने पर वे यही कहते हैं, इसमें कुछ अचम्भे की बात नहीं है। यदि मनुष्य सादा रहन-सहन अपनाये और सरलता निश्चिन्तता की मनःस्थिति रखे तो कोई भी पूरी आयु पा सकता है। असमय में मरने का कारण तो चटोरी, ढोंगी और उद्विग्नता से भरी जीवन चर्या ही होती है।

अमेरिकन मेडिकल ऐसोशियेशन तथा जेरियाट्रिक्स सोसाइटी के भूतपूर्व अध्यक्ष डा. एडवर्ड बोर्ड का कथन है कि—मनुष्य सौ वर्ष तक विश्वास पूर्वक जी सकता है। इसके लिए उसे किसी विशेष आहार या उपचार की जरूरत नहीं है। यदि रहन-सहन और खान-पान सम्बन्धी आदतों में थोड़ा सा सुधार कर लिया जाय तो अकाल मृत्यु के ग्रास होकर लोग इन दिनों जिस प्रकार मरते हैं उसे दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति से सहज ही बचा जा सकेगा।

बोर्ज महोदय ने अल्पायु में मरने वालों की सात भूलें गिनाई हैं—आहार सम्बन्धी मर्यादाओं का उल्लंघन, अधिक या कम परिश्रम, अस्तव्यस्त दिनचर्या, नशेबाजी, काम वासना सम्बन्धी असंयम, मानसिक तनाव, स्वच्छता की उपेक्षा। वे कहते हैं इन सात तथ्यों पर समुचित ध्यान दिया जाय तो दीर्घ जीवन का आनन्द भोग सकना हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है।

रूस के शरीर विज्ञानी इवान मेवनिकोप एवं ए. बौगोपीलेत्स ने जो खोजें की हैं उसके अनुसार उनने कहा है मानव शरीर की स्वाभाविक संरचना में वे तत्व मौजूद हैं जिनके आधार पर 125-150 वर्षों तक सरलता पूर्वक जिया जा सकता है।

केवल दीर्घ जीवन ही सम्भव नहीं वरन् यह भी सम्भव है कि ढलती आयु में भी सशक्त यौवन को स्थिर रखा जा सके। शरीर में आयु की वृद्धि के साथ कुछ तो परिवर्तन होते हैं, पर यह मानवी प्रयत्नों पर निर्भर है कि वह शिथिलता से अपने को बचाये रहे और वृद्ध होते हुए भी अशक्त न बने।

वारजन विवारेस निवासी पियर डिफोरवेल 129 वर्ष का होकर सन् 1809 तक जीवित रहा। मरते समय उसका स्वास्थ्य ठीक था और उनकी सभी इन्द्रियां अपना काम ठीक तरह करती थीं। उसने तीन विवाह किये और कितने ही बच्चे पैदा हुए उनमें से तीन बच्चे ऐसे भी थे जिन्हें तीन प्रथक शताब्दियों में पैदा हुआ कहा जाता है। एक बच्चा 1699 में दूसरा 1738 में तीसरा 1801 में जन्मा। यों यह अन्तर लगभग सौ वर्ष ही होता है, पर शताब्दियों के हिसाब से इसे तीन शताब्दियों में भी गिना जा सकता है और साहित्यिक शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि उसका एक बच्चा 17 वीं शताब्दी में, दूसरा 18 वीं में और तीसरा उन्नीसवीं में जन्मा। उसकी तीसरी पत्नी 19 वर्ष की थी जबकि डिफोरवेल 120 वर्ष का। यह तीसरा दाम्पत्य जीवन भी उसने प्रसन्नता पूर्वक बिताया। पत्नी को इसमें कोई कमी दिखाई न दी। यह विवाह नौ वर्ष तक सुख पूर्वक चला और उसमें कई बच्चे हुए।

उपरोक्त तीन शताब्दियों में जन्मे तीन बच्चों की जन्म तिथियां उनके प्रमाण पत्रों समेत सन् 1877 के ‘मेगासिन पिटारेस्क’ में छपी हैं। जो घटना क्रम की यथार्थता प्रकट करते हुए यह भी सिद्ध करती हैं कि दीर्घ जीवन ही नहीं यौवन को भी अक्षुण्ण बनाये रहना सम्भव है—असम्भव नहीं। यह भी कहा जा सकता है कि वही स्वाभाविक भी है। लेकिन देखा जा सकता है कि अस्वस्थता का दावानल द्रुतगति से फैलता जा रहा है। उसका एकमात्र कारण प्रकृति के साथ—शरीर के साथ किया गया असंयम अनाचार ही है।

इन दिनों द्रुतगति से बढ़ रहे रोगों में से दो-चार पर भी दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि यह अभिवृद्धि अकारण नहीं है बल्कि शरीर के साथ बरती गयी उपेक्षा एवं उद्दण्डता का ही प्रतिफल है और उसी का परिणाम बढ़ती हुई बीमारी के रूप में सामने आ रहा है।

आमाशय और छोटी आंत के अग्रभाग—ग्रहणी के खोखले अवयवों में एक प्रकार का मखमली अस्तर है। इसमें अपच से उत्पन्न विषाक्तता के कारण छोटे-छोटे व्रण हो जाते हैं। इन्हें ‘गैस्ट्रिक अल्सर’ कहते हैं। गैस्टर का अर्थ है पेट। गैस्टर में होने वाले व्रण गैस्ट्रिक अल्सर कहलाते हैं। छोटी आंतों के अग्रभाग ग्रहणी के व्रणों को ड्यूडोनल अल्सर कहते हैं। यदि दोनों जगह व्रण हों तो उसे पेप्टिक अल्सर कहा जायगा।

आमाशय में दो महत्वपूर्ण पाचक रस स्रवित होते रहते हैं—हाइड्रोक्लोरिक एसिड और पेप्सिन। यह रस काफी तेज हैं और भोजन को ही पचाते हैं, पर यह आश्चर्य ही समझना चाहिए कि वे आमाशय को नहीं पचा डालते। कारण यह है कि आमाशय और गृहणी की दीवारों पर मखमली अस्तर चढ़ा रहता है, जो पाचक रसों और आमाशय की दीवारों को आपस में घुलने मिलने नहीं देता। यदि किसी कारण यह अस्तर झीना पड़ जाय तो वे एसिड आमाशय की दीवारों को खरोचेंगे और उसमें जख्म पैदा कर देंगे।

आमाशय के मखमली अस्तर में प्रायः 10 अरब अम्ल स्रावी कोशिकाएं होती हैं। वे एक दिन रात में 2000 घन सेन्टीमीटर पाचक रसों का स्राव करती हैं। कुछ व्यक्तियों की यह कोशिकाएं बढ़कर दूनी तक हो जाती हैं और अधिक रस स्रवित करती हैं ऐसे लोगों को पेप्टिक अल्सर हो जाता है। उसका कारण प्रकृति नहीं व्यक्ति का असंयम ही होता है।

पेट का बहुत सा काम मुंह को करना पड़ता है। सह्य तापमान—भोजन को छोटे टुकड़ों में तोड़कर पेट में पच सकने योग्य बनाना—मिर्च, मसाले आदि की अनुपयुक्तता दूर करना—मुंह द्वारा ठीक तरह चबाये जाने पर भी सम्भव होता है, पर कई लोग जल्दबाजी में बिना पूरा चबाये ही भोजन उदरस्थ करते रहते हैं। इससे आमाशय को दूना काम करना पड़ता है, ऐसी दशा में कठोर भोजन उस मखमली अस्तर को छील देता है और अल्सर की शिकायत उठ खड़ी होती है।

धूम्रपान, बहुत गर्म चाय, कॉफी पीना, मदिरा पान, मानसिक उत्तेजना की स्थिति में भोजन करना, एस्पिरीन और कोर्टिकोस्टेराइड वर्ग की दवाओं का अधिक सेवन भी अल्सर का कारण बन जाता है।

पेट के ऊपरी भाग में दर्द, जलन, ऐंठन, कचोट, खट्टी डकारें, पेट खाली होते ही पेट में ऐंठन जैसी शिकायतें हों तो अल्सर की सम्भावना समझी जा सकती है। यह जख्म गृहणी का मार्ग छोटा कर सकते हैं ऐसी दशा में भोजन नीचे आंतों में नहीं खिसकता और उल्टियां होने लगती हैं। जख्म बड़े हो जायं और उनका प्रभाव रक्त वाहिनियों तक जा पहुंचे तो खून की उल्टियां भी होने लगती हैं।

कैंसर का प्रकोप द्रुतगति से बढ़ रहा है। वह गरीबी की अपेक्षा अमीरी में अधिक पनपता है, जहां सफाई, विश्राम तथा सुख सुविधा के अनेकों साधन मौजूद हैं। इन दिनों संसार भर में प्रायः तीन करोड़ व्यक्ति इस रुला-रुला कर मारने वाले दुष्ट रोग का त्रास सह रहे हैं। डा. एलिस वारकर के अनुसार उनमें से आधे अर्थात् डेढ़ करोड़ केवल अमेरिका और इंग्लैण्ड में है।

कैंसर लेटिन भाषा का शब्द है। उसका अर्थ होता है—केकड़ा। यह जल जन्तु अपनी घिनौनी आकृति एवं प्रकृति के कारण सहज ही डरावना लगता है। अपने पैने पंजे जहां भी गढ़ा लेता है वहां मजबूती से जमा रहता है। जिन कोशिकाओं पर कैंसर के विषाणु छा जाते हैं, उन्हें इस प्रकार जकड़ते हैं कि हटने का नाम नहीं लेते। आरम्भ में थोड़ी सी सूजन, कसक और गांठ से उसकी जड़ जमती है और फिर वह दिन-दिन अधिक कड़ी बड़ी और विकृत होती चली जाती है। दाह शोथ, दर्द, उभार जैसी अनेक विकृतियां उठती बढ़ती दिखाई देती हैं और न केवल पीड़ित अंग पर वरन् समस्त शरीर पर उसकी प्रतिक्रिया परिलक्षित होती है।

औषधियां, आपरेशन, रेडियम किरणें आदि विविध उपचार करने पर भी इस रोग से पिण्ड नहीं छूटता और अधिकांश पीड़ित मृत्यु के मुख में ही चले जाते हैं। भारत में इस रोग का आक्रमण 70 प्रतिशत मुख के क्षेत्र में होता है। मुख, गला, जीभ आदि इसके शिकार में अधिक आते हैं, इसके बाद 22 प्रतिशत को छाती, फेफड़ा और पेट में होता है। कुल मिलाकर 8 प्रतिशत शरीर के अन्य अंगों में पाया जाता है। यह अनुपात प्रकट करता है कि किन अवयवों के साथ कितना अत्याचार हुआ है और किस प्रकार उनका सर्वनाश प्रस्तुत हुआ है। पीड़ितों में प्रायः दो तिहाई पुरुष और एक तिहाई स्त्रियां होती हैं, कारण कि पुरुष अपेक्षाकृत हर क्षेत्र में अधिक उद्दंडता का परिचय देते हैं। नशेबाजी का शौक भी उन्हीं को होता है। बढ़ता हुआ धूम्रपान इस दुष्ट रोग का प्रधान कारण है। 40 प्रतिशत रोगी अति धूम्रपान के फलस्वरूप ही कैंसर के शिकार बनते हैं। कैंसर सर्वेक्षण से उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि सिगरेट न पीने वालों की तुलना में पीने वाले कैंसर के दस गुने शिकार होते हैं। भारत में 150 करोड़ रुपया वार्षिक की तमाखू पाई जाती है। कैंसर रोगियों पर आने वाले चिकित्सा, परिचर्या खर्च तथा काम हर्ज होने की हानि इससे कम नहीं अधिक ही होनी चाहिए। चोरी की राशि से यदि जुर्माना अधिक होता हो तो उसे अनुचित नहीं कह सकते।

मधुमेह कितना घातक है यह हर कोई जानता है, पर इस जानकारी में इतनी और वृद्धि करने के लिए कोई तैयार नहीं कि ये जिह्वा के असंयम का ही परिणाम है। गरिष्ठ अधिक तले हुए—चट-पटे पदार्थ अत्यधिक मात्रा में खाते रहने से आमाशय की कुछ रस ग्रन्थियां एक प्रकार से सूख ही जाती हैं और उनमें इन्सुलिन जैसे उपयोगी रसायन बनना बन्द हो जाता है, यही है मधुमेह का मूल कारण।

बिना खाये खाली पेट की अवस्था में यदि रक्त में 100 मिली मीटर में 120 मिली ग्राम से ज्यादा शकर हो और पूरे भोजन के पश्चात शकर का अनुपात 100 मिली मीटर में 170 से अधिक हो तो उसे मधुमेह का रोगी माना जा सकता है।

जो कुछ हम खाते हैं, उससे ग्लूकोज बनता है। इस शकर को पकाकर उष्णता एवं शक्ति में परिणत करना इन्सुलिन एन्जाइम का काम है। भोजन का एक अंश ग्लायकोजेन बन जाता है जो पुट्ठों और जिगर में रहता है। उपवास के समय या शक्ति की आवश्यकता के समय शक्ति इसी भण्डार से खर्च होती है, लेकिन यदि श्रम से जी चुराकर आलसी स्वभाव बना लिया गया है और अतिरिक्त शकर बच गई है तो वह चर्बी के रूप में शरीर में अपनी परतें जमा करती चली जाती है।

शरीर में शकर की मात्रा बढ़ने लगे तो रोगी को हमेशा भूख जैसी पेट की जलन महसूस होगी। प्यास अधिक लगेगी। बार-बार और जल्दी-जल्दी पेशाब जाना पड़ेगा। स्नायुओं और संधियों में दर्द, कमजोरी, वजन में कमी, जहां तहां—फोड़े या सूजन की शिकायत दिखाई पड़ेगी।

भोजन में रहने वाली शर्करा तथा स्टार्च दोनों ही पेट में पहुंच कर ग्लूकोज शर्करा के रूप में बदल जाते हैं। उससे शरीर को गर्मी, शक्ति और पोषण प्राप्त होता है। शर्करा रक्त में सम्मिश्रित होकर यह कार्य करती है और उसका कुछ भाग ‘ग्लाइकोजन’ नामक स्टार्च के रूप में जमा हो जाता है। किसी विशेष उछल-कूद या आकस्मिक विपत्ति का सामना करने के लिए जब अतिरिक्त खर्च करनी पड़ती है तो उसकी आवश्यकता इसी भण्डार से पूरी होती है। जिगर की कोशिकायें संग्रहीत ग्लाइकोजन को ग्लूकोज शर्करा में बदलकर रक्त में सम्मिलित होने के लिए भेज देती हैं और उससे अतिरिक्त शक्ति खर्च की व्यवस्था बन जाती है।

मधुमेह के मरीजों के रक्त तथा मूत्र में शर्करा अनावश्यक मात्रा में भरी रहती है, पर शरीर को पोषण के लिए आवश्यक शर्करा नहीं मिलती और वह दिन-दिन दुबला होता जाता है। इसका कारण पेट की एक छोटी-सी ग्रन्थि अग्नाशय में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाना है। आमाशय के पीछे दांई ओर यह एक गुलाबी ग्रन्थि है। इसमें भोजन पचाने के लिए काम आने वाले ‘एन्जाइम’ नामक रासायनिक पदार्थ बनते हैं। इनमें से लाइपेज एन्जाइम चर्बी को, एमाइलोप्सन स्टार्च को और ट्रिप्सिन प्रोटीन को पचाता है। यह ऐन्जाइम जब समुचित मात्रा में नहीं बनते तो पाचन तन्त्र द्वारा वह काम नहीं होता जिसके आधार पर शर्करा को शरीर पोषण के उपयुक्त बनने को अवसर मिल जाता है। बिना पची शर्करा को गुर्दे यथावत छान नहीं पाते और वह रक्त तथा पेशाब में अनावश्यक रूप से मिल जाती है।

जननेन्द्रिय के ऊपर पड़ने वाला अवांछनीय दबाव अनेक रोगों को जन्म देता है। स्त्रियों के कोमल अंग पुरुषों के अनाचार से अधिक उत्पीड़ित किये जाते हैं और वे अबलाएं अनेकों यौन रोगों, मूत्र रोगों तथा पेड़ू कमर की व्यथाओं से कराहती रहती हैं। इस अनाचार का प्रभाव गुर्दे पर पड़ता है और वे पथरी सरीखी कई बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं। भोजन की गरिष्ठता, उत्तेजकता और पानी पीने में कंजूसी भी गुर्दों की सामान्य स्थिति को लड़खड़ा देती है।

पथरी, मूत्राशय, गुर्दे, जिगर, पित्ताशय तथा यूरेटर मूत्र वाहिनी नलियों में पाई जाती हैं। पथरियां अक्सर गोल, अण्डाकार या लम्बाकार पाई जाती हैं। दो-तीन पथरी पास-पास हों तो उनके तल चपटे हो जाते हैं। मूत्रवाहक नली में बनने वाली पथरी लम्बी होती है, वे जिस अवयव में ढलती हैं उसके सांचे के अनुरूप अपनी शकल बना लेती हैं। मूत्राशय या पित्ताशय के पत्थर गोल होते हैं। गुर्दे के अन्दर बनने वाले चपटे होते हैं, पर पीछे उन्हें जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, उसी की आकृति के ढल जाते हैं। कुछ तो बारहसिंगों के सींगों के आकार तक के देखे गये हैं, जिनका बिना आपरेशन के बाहर निकाला जाना किसी प्रकार सम्भव ही नहीं हो सकता। यह पत्थर सर्वदा चिकने ही नहीं होते वरन् खुरदरे, दानेदार और कांटेदार भी पाये जाते हैं, उनकी चुभन से दर्द होता है और खून निकलने लगता है।

मूत्र नलियों में वे कम संख्या में होते हैं अक्सर दो तीन। पित्ताशय में उनकी संख्या दर्जनों और कभी-कभी तो सैकड़ों तक देखी गई है। उनके आकार और कड़ेपन को देखने से प्रतीत होता है कि वे भिन्न-भिन्न समयों पर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में और भिन्न-भिन्न कारणों से बने हैं।

पथरी आखिर है क्या? और किस चीज से बनती है। इसका विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि यह शरीर के ही ऐसे मृत खण्ड हैं जो मल प्रवाह प्रक्रिया के साथ बाहर निकलने की अपेक्षा किसी कारणवश भीतर ही रुक कर रह गये। यह मृत जीवाणुओं का केन्द्र आरम्भ में छोटा-सा होता है, पर पीछे उसके इर्द-गिर्द कैल्शियम—फास्फेट आदि जमा होने लगते हैं और उनका आकार बढ़ता चला जाता है। पता तब चलता है जब वे दर्द करने लगते हैं। गुर्दे की पथरी में मूत्र प्रक्रिया के गड़बड़ा जाने के अतिरिक्त एक कारण पैराथाइराइड ग्रन्थि का विकारग्रस्त होना भी है। उसके कारण जब पेशाब बनने, छनने या निकलने में रुकावट होती है तो तेज दर्द अनुभव होता है। गुर्दे की पथरी का कण असह्य दर्द उत्पन्न करता है। कमर, पेट का आगे का भाग तथा मूत्र नली में विकट वेदना होती है। जी मिचलाता है और उल्टी आती हैं। प्रकृति पेशाब को बाहर निकालना चाहती है और पथरी उसमें रुकावट डालती है इस खींच-घसीट में अक्सर रक्त नलिकाएं फट जाती हैं और पेशाब के साथ खून आने लगता है। बूंद-बूंद पेशाब आता है—जलन होती है और बार-बार पेशाब जाने की इच्छा बनी रहती है। यदि पथरी के कारण भीतर जख्म बन जाय और सूजन रहने लगे तो बुखार भी आने लग सकता है और उसका टेम्प्रेचर 103 से 104 तक हो सकता है। यदि यह क्रम बहुत दिन चलता रहे तो गुर्दे गलने लगेंगे और शरीर पर सूजन चढ़ आवेगी।

प्रकृति इन पत्थरों को स्वयं बाहर निकालती रहती है। यदि पानी पीने में कंजूसी नहीं की जाती तो वे छोटे होने की स्थिति में सहज ही बहकर निकल जाते हैं। जब दर्द होता है तब तो प्रकृति उन्हें बलपूर्वक पकड़ कर बाहर धकेलने का विशेष प्रयत्न कर रही होती है यदि बहुत बड़े पत्थर नहीं है और शरीर की जीवनी शक्ति बहुत निर्बल नहीं हो गई है, तो बहुत बार वे इस दर्द के दौरान ही निकल जाते हैं। यह मान बैठना ठीक नहीं कि पथरी बिना आपरेशन के अच्छी हो ही नहीं सकती, अक्सर प्रत्येक बड़े दौरे के बाद बहुत से पत्थर खुद ही निकल जाते हैं। दर्द बन्द होने का मतलब ही यह है कि उस बड़ी अड़चन को या तो बाहर निकाल दिया गया या धकेल कर रास्ते से इधर-उधर खिसका दिया गया है।

तथ्य बताते हैं कि बीमारियां अकारण और अपने आप ही नहीं आतीं। अस्त-व्यस्तता, असंयम और अनुचित रहन-सहन बनाकर हम स्वयं ही उन्हें आमन्त्रित करते हैं। उन्हें दूर करना हो तो औषधोपचार एक सीमा तक ही काम देता है। निर्दोष और शुद्ध स्वास्थ्य तो अपने रहन-सहन, आहार-विहार में आवश्यक परिवर्तन करके ही प्राप्त किया जा सकता है। यदि शरीर को सही ढंग से रखा जाय, असंयम और अस्त-व्यस्त जीवन क्रम के द्वारा उस पर अत्याचार न किया जाय तो लम्बे समय तक स्वस्थ, जवान और शक्तिशाली रहा जा सकता है।

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