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अद्भुत और विलक्षण यह शरीर

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हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है उसके कलपुर्जे कितनी विशिष्टताएं अपने अन्दर धारण किये हुए हैं, हम कितने समर्थ और कितने सक्रिय हैं, इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। बाहर की छोटी-छोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्यांकन करते हैं, पर अपनी ओर—अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर—कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं। विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र काय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या—पिछड़े स्तर के प्राणि—शरीरों में भी विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंका है।

शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यह सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी? यह मात्र संयोग नहीं है और न इसे रचनाकार का कौतुक—कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य की विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस ‘विशेष’ को सम्पन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सके।

शरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले चमड़ी नजर आती है। मोटेतौर से वह ऐसी लगती है मानो शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका हो, बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उसमें भी पूरा कल कारखाना काम कर रहा है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट तन्त्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेंगी। यह रक्त वाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मी में फैलती रहती हैं ताकि तापमान का सन्तुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 2 लाख स्वेद ग्रन्थियां होती हैं जिनमें से पसीने के रूप में हानिकारक पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं। पसीना दीखता तो तब है जब वह बूंदों के रूप में बाहर आता है वैसे वह धीरे-धीरे रिसता सदा ही रहता है।

त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन विभाग किये जा सकते हैं—ऊपरी चमड़ी, भीतरी चमड़ी और हड्डी के ऊपर के ऊतक। नीचे वाली तीसरी परत में रक्त वाहनियां, तन्त्रिकाएं और वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियां लटकने लगती हैं। भीतरी चमड़ी में तन्त्रिकाएं, रक्त वाहनियां, रोम कूप, स्वेद ग्रन्थियां तथा तेल ग्रन्थियां होती हैं। इन तन्त्रिकाओं को एक प्रकार से सम्वेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं और वहां के निर्देश—सन्देशों को अवयवों तक पहुंचाते हैं।

पसीने के साथ जो गन्दगी बाहर निकलती है, वह चमड़ी पर परत की तरह जमने लगती है यदि स्नान द्वारा उसे साफ न किया जाय तो उस परत से पसीना निकालने वाले छेद बन्द हो जाते हैं और दाद, खाज, जुएं आदि कई तरह के विकार उठ खड़े होते हैं।

त्वचा के भीतर घुसे तो मांस पेशियों का ढांचा खड़ा है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना, जुलना, मुड़ना, चलना, फिरना सम्भव हो रहा है। शरीर की सुन्दरता और सुडौलता बहुत करके मांस-पेशियों की सन्तुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। फैली, पोली, बेडौल सूखी पेशियों के कारण ही अक्सर शरीर कुरूप लगता है। प्रत्येक अवयव को उचित श्रम मिलने से वे ठीक रहती हैं अन्यथा निठल्लापन एवं अत्यधिक श्रम साधन उन्हें भोंड़ा, निर्जीव और अशक्त बना देता है। श्रम सन्तुलन का ही दूसरा नाम व्यायाम है, प्रत्येक अंग को यदि उचित श्रम का अवसर मिलता रहे तो वहां की मांसपेशियां सुदृढ़, सशक्त रहकर स्वास्थ्य और सौन्दर्य के आदर्श बनाये रहेंगी।

शरीर का 50 प्रतिशत भाग मांसपेशियों के रूप में है। मोटे और पतले आदमी इन मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही वैसे मालूम पड़ते हैं। प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी है। वे बाल के समान पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख गुना वजन उठा सकें। इन पेशियों में एक चौथाई प्रोटीन और तीन चौथाई पानी होता है। इनमें जो बारीक रक्त नलिकाएं फैली हुई हैं वे ही रक्त तथा दूसरे आवश्यक आहार पहुंचाती हैं। मस्तिष्क का सीधा नियन्त्रण इन मांसपेशियों पर रहता है तभी हमारा शरीर मस्तिष्क की आज्ञानुसार विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलाप करने में सक्षम रहता है। कुछ मांसपेशियां ऐसी हैं जो अचेतन मन के आधीन हैं। पलक झपकना, हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, आहार का पचना, मल विसर्जन, रक्त-संचार आदि कि क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं और हमें पता भी नहीं चलता कि कौन उनका नियन्त्रण-संचालन कर रहा है। वस्तुतः यह हमारे अचेतन मन का खेल है और अंग-प्रत्यंगों को उनके नियत निर्धारित विषयों में संलग्न किये रहता है।

इन मांसपेशियों को विशेष प्रयोजनों के लिए सधाया, सिखाया जा सकता है। सर्कस में काम करने वाले नट, नर्तक अपने अंगों को इस प्रकार अभ्यस्त कर लेते हैं कि वे आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते हैं। चोट लगने पर हड्डियों को टूटने से बचाने का कार्य यह मांसपेशियां ही करती हैं। शरीर से मुड़ने-तुड़ने, उछलने-कूदने जैसे विविध-विधि काम करना हमारे लिए इन मांसपेशियों के कारण ही सम्भव होता है। मर्दों की पेशियां स्त्रियों की तुलना में अधिक कड़ी और मजबूत होती हैं, ताकि वे अधिक परिश्रम के काम कर सकें, अन्य अंगों की अपेक्षा हाथों की पेशियां अधिक शक्तिशाली होती हैं।

इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहां तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़ काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत है।

औसत मनुष्य के सिर में 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल एक नन्हे गड्ढे से निकलता है जिसे रोम कूप कहते हैं। यह चमड़ी के शिरोवल्क के भीतर प्रायः एक तिहाई इंच गहरा घुसा होता है। इसी गहराई में बालों की जड़ को रक्त का पोषण प्राप्त होता है।

बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है। इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। बालों की आयु डेढ़ वर्ष से लेकर छह वर्ष तक होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाता है और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।

यों बाल तिरछे निकलते हैं, पर उनके मूल में एक पेशी होती है जो कड़ाके के शीत या भय की अनुभूति में रोमांच में बाल खड़े कर देती है। बिल्ली कभी-कभी अपने बाल सीधे खड़े कर लेती है। बालों की जड़ों में पसीना निकालने वाले छिद्र भी होते हैं और उन्हें चिकनाई देने वाले छेद भी। बालों की कोमलता, चिकनाई और चमक रोम कूपों से निकलने वाली चिकनाई की मात्रा पर ही निर्भर है।

आन्तरिक अवयव और भी विलक्षण

शरीर के आन्तरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण है। उनकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात गतिशील क्रियाशील रहते हैं। उनकी क्रियाएं एक क्षण को भी रुक जायं तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए हृदय को ही लें। हृदय की धड़कन में सिकुड़ने की—सिस्टोल और फैलने की—डायेस्टोल क्रिया होती रहती है। इसी क्रिया के कारण रक्त-संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी नाले की तरह नहीं चलता, वरन् पम्पिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। पम्प में झटका मारने की क्रिया होती है। उससे गति मिलती है। नीचे की दिशा में तो प्रवाह अपने आप भी होता है, पर ऊपर की ओर ले जाना हो तो उसके पीछे शक्ति का दबाव होना आवश्यक है। आकुंचन-प्रकुंचन से झटका लगता है और उसके दबाव से रक्त-चक्र नीचे जाने और ऊपर आने की दोनों आवश्यकताएं पूरी कर लेता है। हृदय की धड़कन रक्त के परिभ्रमण में काम आने वाली गति की व्यवस्था करती है।

कोई यन्त्र लगातार काम करने से गरम हो जाता है। श्रम के साथ विश्राम भी आवश्यक है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है, विश्राम उसको फिर से जुटा देता है। हृदय के आकुंचन-प्रकुंचन से जहां झटके द्वारा शक्ति उत्पादन की आवश्यकता पूरी होती है वहां इन दोनों क्रियाओं के बीच मध्यान्तर की अवधि में विश्राम का लाभ भी उसे मिलता रहता है। एक धड़कन एक मिनट के 72 वें भाग में सैकिण्ड के पांच बंटे छह भाग में सम्पन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगें उस संस्थान से प्रवाहित होती हैं। इन तरंगों के विद्युत आवेशों को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। नवजात शिशु की प्रगति आवश्यकता के अनुरूप उन दिनों हृदय एक मिनट में 140 बार धड़कता है किन्तु वह जरूरत कम होते जाने से यह चाल भी घटती है। 3 वर्ष के बच्चे का एक मिनट में 100 बार और युवा मनुष्य का मात्र 72 बार धड़कता है। समर्थता की न्यूनाधिकता के अनुरूप धड़कन घटी-बढ़ी रहती है। चूहे का हृदय 500 बार, चिड़ियों का 250 बार, मुर्गी का 200 बार, खरगोश का 65 बार, घोड़े का 50 बार और हाथी का 40 बार एक मिनट में धड़कता है। मनुष्य के शिशु और प्रौढ़ के बीच समर्थता वृद्धि के अनुपात से हृदय की धड़कन भी घटती जाती है।

पुरुष के हृदय का औसत वजन 330 ग्राम और स्त्री का 260 ग्राम होता है। यह सम्पूर्ण अवयव ‘परिकार्डियम’ नामक झिल्ली की थैली में बन्द रहता है। हृदय एक होते हुए भी उसके मध्य भाग में खड़ी सेप्टम नामक मांस-पेशी उसे दो भागों में बांट देती है। यह दो भाग भी दो-दो हिस्सों में बंटकर चार हो जाते हैं। इनमें से ऊपरी भाग को आरिकिल और नीचे के भाग को वेंट्रिकिल कहते हैं। हृदय से फुफ्फुसीय धमनी में जाने की प्रक्रिया को मध्यवर्ती वाल्य नियन्त्रित करते हैं।

हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। 20 से 30 घन इंच हवा को वे बार-बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं।

शरीर में उत्पन्न दूषित वायु कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस को बाहर निकालना और शुद्ध वायु ऑक्सीजन को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराया यह दुहरा उत्तरदायित्व फेफड़ों को निवाहना पड़ता है। फेफड़ों में आंख से भी न दीख पड़ने वाली बहुत पतली वायु नलिकाएं बहती हैं। इन 40 नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ—एयरसैक बनता है। यही सघन होकर फेफड़े का रूप लेते हैं। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से 55 गुने विस्तार में फैल सकते हैं।

शुद्ध प्राणवायु के बिना शरीर का अधिक दिन तक टिके रहना सम्भव नहीं, पर यदि शरीर में शुद्ध हवा ही पहुंचती रहे रक्त आदि में उत्पन्न गन्दगी दूर न हो तो उस नई शक्ति का पाना भी निरर्थक होता है। अशुद्धि का निवारण न हो तो मनुष्य एक दिन भी स्वस्थ जीवन जी सकता।

शरीर की गन्दगी के अतिरिक्त हम जो सांस लेते हैं, उसमें भी गन्दगी रहती है। श्वांस के साथ ली गई वायु में 79 प्रतिशत तो नाइट्रोजन ही होता है, जिसका शरीर में कोई उपयोग नहीं। ऊतकों (टिसूज) के लिए जितना नाइट्रोजन चाहिए वह अलग से मिलता रहता है। ऑक्सीजन मुख्य तत्त्व है, प्राण है, जिसकी सर्वाधिक आवश्यकता होती है यह श्वांस में 20.96 प्रतिशत होता है। इसके अतिरिक्त कार्बन-डाई-ऑक्साइड नामक विषैली गैस भी 4 प्रतिशत श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करती है। अब यदि इस प्रविष्ट वायु का प्रत्येक अंश शरीर में चुस जाता तो जितनी गंदगी भीतर भरी थी, उतनी ही और इकट्ठी हो जाती और प्राणी का जीवित रहना कठिन हो जाता। उसकी सफाई के लिए फेफड़े ही उत्तरदायी हैं। श्वांस लेने के साथ फूलने वाले इनके वायुकोष देखने में छोटे होते हैं, पर इनकी महिमा विशाल है। यदि उन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर दिया जाय तो इनकी दूरी शरीर की बाहरी सतह से 55 गुनी अधिक हो जाती है। हम उनका उपयोग इसलिए नहीं कर पाते कि उनकी महत्ता को समझते नहीं।

हृदय और फेफड़े ही नहीं अन्य छोटे दीखने वाले अवयव भी अपना काम अद्भुत रीति से सम्पन्न करते हैं। गुर्दों की गांठें देखने में मुट्ठी भर आकार की—भूरे कत्थई रंग की—सेम के बीज जैसी आकृति की—लगभग 150 ग्राम भारी हैं। प्रत्येक गुर्दा प्रायः 4 इंच लम्बा, 2.5 इंच चौड़ा और 2 इंच मोटा होता है। जिस प्रकार फेफड़े सांस को साफ करते हैं, उसी प्रकार जल अंश की सफाई इन गुर्दों के जिम्मे है। गुर्दे रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाय तो शरीर पर घातक प्रभाव डालती है। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा होनी चाहिए। रक्त में क्षारीय एवं अम्लीय अंश न बढ़ने पायें इसका ध्यान भी गुर्दों को ही रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों की सावधानी वे पूरी तरह रखते हैं। गुर्दे एक प्रकार की छलनी हैं। उसमें 10 लाख से भी अधिक नलिकाएं होती हैं। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे 110 किलोमीटर लम्बी डोरी बन जायगी। एक घण्टे में गुर्दे इतना रक्त छानते हैं जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन अमीनो अम्ल, हारमोन, शकर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापिस कर दिये जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू कर दें तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही हैं जो इस अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।

दोनों गुर्दों में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है। गुर्दे प्रतिदिन प्रायः दो लीटर मूत्र निकालते हैं। मनुष्य अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ खाने से बाज नहीं आता। इसका प्रायश्चित गुर्दों को करना पड़ता है। नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्नोटिक ऐसिड, नाइट्रोजन आदि पदार्थों की प्रचलित आहार पद्धति में भरमार है। गुर्दे इस कचरे को मूत्र मार्ग से बाहर करने और स्वास्थ्य सन्तुलन बनाये रखने का उत्तरदायित्व निवाहते हैं। यदि वे अपने कार्य में तनिक भी ढील कर दें तो मनुष्य ढोल की तरह फूल जायगा और देखते-देखते प्राण गंवा देगा।

आमाशय का मोटा काम भोजन हजम करना माना जाता है, पर यह क्रिया कितनी जटिल और विलक्षण है, इस पर दृष्टिपात करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है, इसे छोटी थैली को एक अद्भुत रसायनशाला की संज्ञा दी जाती है, जिसमें सम्मिश्रणों के आधार पर कुछ से कुछ बना दिया जाता रहता है। कहां अन्न और कहा रक्त? एक स्थिति को दूसरी में बदलने के लिए उसके बीच इतने असाधारण परिवर्तन होते हैं—इतने अधिक रासायनिक सम्मिश्रण मिलते हैं कि इस स्तर के प्रयोगों की संसार भर में कहीं भी उपमा नहीं ढूंढ़ी जा सकती। आमाशय में पाये जाने वाले लवगाम्ल, पेप्सीन, रेन्नेट आदि भोजन को आटे की तरह गूंथते हैं। लवणाम्ल खाद्य-पदार्थों में रहने वाले रोग कीटाणुओं का नाश करते हैं। पेप्सीन के साथ मिलकर वे प्रोटीनों से पेप्टोन बनाते हैं। पेंक्रियाज में पाये जाने वाले इन्सुलिन आदि रसायन शकर को सन्तुलित करते हैं और आंतों के काम को सरल बनाते हैं। इतने अधिक प्रकार के—इतनी अद्भुत प्रकृति के—इती विलक्षण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करने वाले रासायनिक प्रयोग मनुष्यकृत प्रयोग प्रक्रिया द्वारा सम्भव हो सकते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आमाशय की रासायनिक प्रयोगशाला क्या-क्या कौतुक रचती है और क्या से क्या बना देती है? इसे किसी बाजीगर की विलक्षण जादूगरी से कम नहीं कहा जा सकता।

यों तो कर्त्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आंख कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि को चकित ही कर देती है। आंख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा क्या कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकतीं। कैमरों में नाभ्यान्तर—फोकल लेन्स—को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं नहीं बने। फोटो लेने के लिए अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाये बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी आंखों को बिना आगे-पीछे हटाये—मजे में देखते रह सकते हैं। प्रिज़्म या थ्रीडायमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं, पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आंखें करती हैं। सुरक्षा सफाई का प्रबन्ध जैसा आंखों में है वैसा किसी कैमरे में नहीं होता। कैमरे पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिंट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है किन्तु आंखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।

कान जैसा ‘साउण्ड फिल्टर’ यन्त्र कभी मनुष्य द्वारा बन सकेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। रेडियो और वायरलैस की आवाजें एक निश्चित ‘फ्रीक्वेन्सी’ पर ही सुनी जा सकती हैं। कानों के सामने इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। वे किसी भी तरफ की कोई भी ऊंची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता हमारे ही कानों में होती है। ध्वनि साफ करने के लिए ‘रेक्टीफायर’ का प्रयोग किया जाता है। कुछ यन्त्रों में ‘वैक्युम सिस्टम’ एवं ‘गस सिस्टम’ से ध्वनि साफ की जाती है। उनमें लगे धन प्लेट ‘एनोड’ और ऋण प्लेट ‘कैथोड’ के साथ ‘ग्रिड’ जोड़ना पड़ता है तब कहीं एक सीमा तक आवाज साफ होती है। किन्तु कान की तीन हड्डियां स्टेडियम, मेलियस और अंकस में इतनी स्वच्छ प्रणाली विद्यमान है कि वे आवाज को उसके असली रूप में बिना किसी कठिनाई के सुन सकें। न मात्र सुनने की है उस सन्देश के अनुरूप अपना चिन्तन और कर्म निर्धारित करने के लिए प्रेरणा देने वाली विद्युत प्रणाली कानों में विद्यमान है। सांप की फुसकार सुनते ही यह प्रणाली खतरे से सावधान करती है और भाग चलने की प्रेरणा देने के लिए रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बहुद्देशीय संरचना किन्हीं ध्वनि-ग्राहक यन्त्रों में सम्भव नहीं हो सकती।

शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल प्रायः 250 वर्ग फुट और वजन 6 पौण्ड होता है। एक वर्ग इंच त्वचा में 72 फुट लम्बाई वाला तन्त्रिका जाल और 12 फुट से अधिक लम्बाई वाली रक्त नलिकाएं बिछी बिखरी होती हैं। त्वचा के रोमकूपों से प्रायः एक पौंड पसीना बाहर निकलता है। शरीर को ‘एयरकन्डीशन’ बनाये रखने के लिए त्वचा फैलने और सिकुड़ने की क्रिया द्वारा कूलर और हीटर दोनों का प्रयोजन पूरा करती है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे। इन तन्तुओं द्वारा प्राप्त अनुभूतियां मस्तिष्क तक पहुंचती हैं और टेलीफोन तारों जैसा उद्देश्य पूरा होता है। त्वचा से ‘कोरियम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है यह सुरक्षा और सौन्दर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकाएं ‘नेलानिक’ रसायन उत्पन्न करती हैं। यही चमड़ी को गोरे, काले, पीले आदि रंगों से रंगता रहता है।

शरीर पूरा जादू घर है। उसकी कोशिकाएं, तन्तुजाल किस प्रकार जीवन-मरण की गुत्थियां स्वयं सुलझाते हैं और समूची काया को समर्थ बनाये रहने में योगदान करते हैं यह देखते ही बनता है। जीवन सामान्य है, पर उसे सुनियोजित एवं सुसंचालित रखने में एक छोटा ब्रह्माण्ड ही जुटा रहता है। पिण्ड मानवी काया का नाम है,पर उसके भीतर चल रही विधि-व्यवस्था को ब्रह्माण्डीय क्रिया-प्रक्रिया का छोटा रूप ही कहा जा सकता है।

अन्नमय कोश जिसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। परमेश्वर की विचित्र कारीगरी से भरा-पूरा है। उसके किसी भी अवयव पर दृष्टिपात किया जाय, उसमें एक से बढ़ी-चढ़ी अपने-अपने ढंग की विलक्षणताएं प्रतीत होंगी।

ऐसी विलक्षणता और कहीं नहीं

परमात्मा से इतनी विलक्षण विशेषतायें संसार के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिली हैं। जितना सर्वांगपूर्ण शरीर उसने मनुष्य को दिया है। मस्तिष्क से लेकर पैर तक और चर्म केश से लेकर अस्थि मज्जा तक मनुष्य शरीर में इतनी विशेषतायें भरी हैं। अन्य जीवों के शरीर में वे कहीं भी देखने को नहीं मिलतीं।

पानी में पाया जाने वाला एक कोशीय जीव अमीबा आकृति में जितना छोटा होता है, शारीरिक रचना में उतना ही सरल। सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखने में वह ‘‘संशय’’ के स में लगे बिन्दु (.) जितना लगता है, मनुष्य के शरीर की तरह न तो उसके हाथ-पांव होते हैं न फेफड़े, आंतें, आमाशय मुंह, दांत, नाक आंखें आदि। एक तो उसका नाभिक (न्यूक्लियस) शेष साइटोप्लाज्म (जीव द्रव्य अर्थात् वह प्राकृतिक तत्व जिनसे जीवित शरीर बनते हैं) दोनों को मिलाकर वही प्रोटोप्लाज्मा कहलाता है। चलना हो तो उसी में दो चिमटी निकाल कर चल लेगा, दो चिमटी बनाकर चल लेगा, प्रोटोप्लाज्मा आगे बढ़ाकर ही वह चल लेता है। यह तो मनुष्य शरीर ही है जिसे भगवान् ने इतना सुन्दर, सर्वांगपूर्ण और ऐसा बनाया है कि उससे संसार का कोई भी प्रयोजन पूरा किया जा सके हमें संसार के अन्य जीवों से अपनी तुलना करनी चाहिए और यह विचार करना चाहिए इतनी परिपूर्ण देन क्या अन्य जीवों की तरह ही व्यर्थ इन्द्रिय भोगों में गुजार देने के लिए है या उसका कोई और भी बड़ा उपयोग हो सकता है?

प्राणियों की दुनिया में जीव-जन्तुओं की कोई कमी नहीं है। गणना की जाये तो 84 लाख से एक भी कम न निकले। एक से एक विचित्र आकृति, एक से एक विचित्र प्रकृति। समुद्र में एक ऑक्टोपस जीव पाया जाता है, आकार में बहुत छोटा पर आठ भुजायें कभी-कभी अंगड़ाई लेता है तो इतना बढ़ जाता है कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक 20 फुट लम्बा हो जाता है। न्यूयार्क के ‘‘म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री’’ में ‘‘मोआ’’ नामक एक पक्षी के अस्थि-अवशेष (फासिल्स) सुरक्षित हैं अनुमान है कि यह 700 वर्ष पूर्व कभी न्यूजीलैण्ड में पाया जाता था। इसकी टांगें 6 फुट लम्बी और लगभग इतनी ही लम्बी गर्दन। दो सिरों वाली 12 फुट की लकड़ी जैसा यह पक्षी भी प्राणि-जगत का आश्चर्य रहा होगा कभी।

‘‘डायाट्राइमा’’ भी इसी तरह एक न उड़ने वाला पक्षी था। उसकी आकृति देखते ही हंसी आ जाती है। अफ्रीकन राइनो के थुथनों के ऊपर सींग और पीछे दो कान—चार स्थम्भों वाला सिर भी कुछ कम विचित्र नहीं। ओरंग उठान, गिब्बन और चिम्पैंजी—बन्दर, डकर्विल, डिप्लोडोकस (इस 6 करोड़ वर्ष पूर्व भयंकर छिपकली के नाम से जाने वाले जीव की लम्बाई आज तक पाये जाने वाले जीवों में सबसे अधिक लगभग 21 मीटर होती थी) और दरियाई घोड़े जैसे विलक्षण जीव, घोंघे, मछलियां, मेढ़क आदि के शरीर देखकर पता चलता है कि प्रकृति कितनी चतुर, कितनी विदूषक और कैसी कलाकार है, वह जो कुछ न गढ़ दें सो थोड़ा।

एक बड़े दृष्टिकोण से सोचें तो पता चलेगा कि सृष्टि के अन्य मानवेत्तर जीवों को प्रकृति ने विलक्षण अवश्य बनाया है पर उनको इतना अशक्त-इतना कमजोर बनाया है कि वे अपनी रक्षा एक सीमा तक कर सकने में समर्थ होते हैं। किसी तरह बेचारे अपनी तुच्छ सी इच्छायें पूर्ण करने के चक्कर में पड़े भारतीय तत्व दर्शन की यह मान्यता प्रमाणित करते रहते हैं। जिसके लिए योग वशिष्ठ में कहा गया है—जैसे जल के ऊपर बुलबुले उठा करते हैं और नष्ट होते रहते हैं। वैसे ही प्रत्येक देश और काल में अनन्त जीव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।’’

(4।43।4)

वैज्ञानिकों ने मनुष्य शरीर जैसी कोई भी मशीन बनाने में असमर्थता व्यक्त की है। एलिवेटर या लिफ्ट एक ऐसी मशीन बनाई गई है, जिस पर बैठकर कई मंजिल की ऊंची इमारतों में क्षण भर में चढ़ा जा सकता है और सीढ़ियां चढ़ने की थकान से बचा जा सकता है। तार से सन्देश भेजने और उन्हें लिखित रूप में प्राप्त करने के लिए ‘टेलीप्रिन्टर’ मशीनें बनाई गई हैं। फैक सिमली नामक मशीनों पर आज-कल तार से चित्र भेजना भी सम्भव हो गया है। अमेरिका में हो रहे अधिवेशन के चित्र दूसरे ही दिन भारतीय समाचार पत्रों में छप जाते हैं, यह सब इसी मशीन की कृपा का फल है।

इसी प्रकार कैमरे, घड़ी, प्रेस, जाइनोस्कोप, जनरेटर, कन्सर्टिना वेसिमर कन्वर्टर, बिलियर्ड, टैंक आदि सैकड़ों मशीनें और आयुध मनुष्य की बुद्धिमत्ता की दाद देते हैं। ‘टेलस्टार’ नामक रैकेट को तो संसार का महानतम आश्चर्य कहना चाहिए। सारी पृथ्वी को एक संचार सूत्र में बांधने वाले 170 पौण्ड भार और कुल 34 इंच व्यास के इस यन्त्र में 3600 सौर बैटरियां लगी हैं, इसी की सहायता से हम संसार के किसी भी कोने में बैठे हुए व्यक्ति से ऐसे बात-चीत कर सकते हैं, मानो वह अपने सामने या बगल में बैठा हुआ हो। इन सबके बनाने में मनुष्य की विलक्षण बौद्धिक क्षमता चमत्कार रूप में प्रकट हुई है, उस पर हम चाहें तो गर्व भी कर सकते हैं।

किन्तु मनुष्य शरीर जैसी मशीन बनाना मनुष्य के लिए भी सम्भव नहीं हुआ। ऐसी परिपूर्ण मशीन जो शरीर के रूप में परमात्मा ने बनाकर आत्मा को विश्व विहार के लिए दी है, आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना सका। भविष्य में बना सकने की भी कोई आशा मनुष्य से नहीं हैं। यह परमात्मा ही है, जो अपनी इच्छा से ऐसी प्राण युक्त मशीन का निर्माण कर सका। संसार की विलक्षण से विलक्षण मशीन भी उसकी तुलना नहीं कर सकती।

कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आंखें उघाड़कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य शरीर के निर्माण में प्रकृति ने जो बुद्धि कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया मनुष्य शरीर सृष्टि का सबसे विलक्षण उपादान है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह एक अभेद्य दुर्ग है, जिसमें रह रहे जीवात्मा को अन्य जीवों की तरह संसार की किसी भी परिस्थिति या संकट से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। जबकि अन्य जीव अपनी इन्द्रियों की तृप्ति और अपने शरीर की दुश्मनों से रक्षा इन दो कारणों को लेकर ही जीते रहते हैं, मनुष्य के लिए यह दोनों बातें बिलकुल गौण हैं वह अपने बुद्धि कौशल से धर्म, कला, संस्कृति का निर्माण करता है और इनके सहारे अपनी आत्मा को ऊपर उठाते हुए स्वर्ग और मुक्ति जैसे दिव्य लाभ प्राप्त करता है। आत्म-दर्शन और ईश्वर—साक्षात्कार जैसी विभूतियां प्राप्त करने की समस्त सुविधायें मनुष्य शरीर को ही प्राप्त हैं। यह सर्व क्षमता सम्पन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग यन्त्र और वाहन है, जिसका उपयोग करके मनुष्य सारे संसार में विचरण कर सकता है।

आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषतायें और सामर्थ्यं प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं वह सृष्टि के किसी भी प्राणि-शरीर को उपलब्ध नहीं। गर्भोपनिषद् के अनुसार शरीर की 180 सन्धियां, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, 700 शिरायें, और 500 मज्जायें 360 हड्डियां, 41।2 करोड़ रोम, हृदय के 8 और जिह्वा के 12 पल, 1 प्रस्थ पित्त, 1 कफ आढ़क, 1 शुक्र कुड़व भेद, 2 प्रस्थ और आहार ग्रहण करने व मल-मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यन्त्र इस शरीर में लगे हैं वह प्रकृति द्वारा निर्मित किसी भी शरीर में नहीं है।

जीव गर्भ में आता है प्रकृति तभी से उसकी सेवा सुरक्षा, प्यार-दुलार एक जीवित माता की तरह प्रारम्भ कर देती है। जीव उस समय तैत्तिरीय संहिता के अनुसार—सोने की तरह शुचि और पावक आपः अर्थात् अग्नि के विद्युत रूप में था। उसमें प्रकाश, जल और आकाश तत्व भी थे।’’ 5।6।1 अतएव उसकी सर्दी-गर्मी से रक्षा की नितान्त आवश्यकता थी। ऐसा न होता तो शीत या ग्रीष्म के कारण जल जाता और भ्रूण प्रारम्भ में ही नष्ट हो जाता उस समय मां के गर्भ जैसा रक्षा कवच और किसी प्राणी को नहीं मिलता। जिसमें मौसम से तो सुरक्षा होती ही है, शरीर के विकास के लिए मां के शरीर से ही हर आवश्यक तत्व पहुंचने लगते हैं। कई बार जो तत्व जीव शरीर के लिए आवश्यक होते हैं वह मां के शरीर में कम होते हैं। उस समय प्रकृति अपने आप मां को उस तरह के पदार्थ खाने की रुचि उत्पन्न करती है गर्भावस्था में दांतों का दुखना, हड्डियों और कमर में दर्द शरीर में कैल्शियम लोहा आदि की कमी के सूचक होते हैं। यह तत्व औषधि के रूप में तुरन्त मां को दिये जाते हैं और इस तरह गर्भावस्था में पड़े जीव की सारी आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती हैं।

बच्चे का गर्भ से बाहर आना और सैकड़ों करोड़ों दुश्मनों का तैयार मिलना एक साथ होता है। हवा, पानी, मिट्टी में न दिखाई देने वाले करोड़ों जीवाणु, (बैक्टीरिया) विषाणु (वायरस), मच्छर, मक्खी सब उस पर आक्रमण को तैयार मिलते हैं। सबसे बड़ी कठिनाई पल-पल बदलते मौसम की होती है पर धन्य री प्रकृति मनुष्य शरीर के प्रति उसके प्यार और सजगता को शब्दों में नहीं सराहा जा सकता। बाल्यावस्था में वह शरीर का तापमान सदैव 37 डिग्री से. स्थिर रखती है। कहते हैं बच्चों को जाड़ा नहीं लगता, दरअसल यह सच है और प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा कि बाहर का कितना ही मौसम बदले बच्चा जब तक स्वयं संवेदनशील नहीं हो जाता ऋतु-परिवर्तन का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

आंख में किरकिरी गई और आंसू निकले। आंसू निकलना दुःख का कारण माना जाता है, पर सच यह है कि आंसू के रूप में निकला हुआ द्रव कीटाणुनाशक औषधि होता है। वैज्ञानिकों ने आंसुओं का रासायनिक विश्लेषण करके पाया कि उसमें ‘‘लीसोजीम’’ नामक एक तत्व होता है, जो इतना प्रबल कीटाणु नाशक होता है कि उसकी एक बूंद दो लीटर पानी में डाल दी जाय तो पानी के सख्त से सख्त बैक्टीरिया भी मर जायेंगे। इसके अतिरिक्त ‘‘लाइसिंस ल्यूकिंस’’ प्लाकिंसनात्मक तत्व भी कीटाणु नाशक होते हैं, जो थूक और शरीर के अन्य तरल पदार्थों में भी पाये जाते हैं। प्रसिद्ध रसायन शास्त्री श्री रूथ और एडवर्ड ब्रेचर ने जांच करके लिखा है कि पेचिश का जीवाणु (बैक्टीरिया) कांच के स्लाइड पर 6-6 घण्टे तक जीवित बना रहता है, पर यदि उसे हथेली पर रखें तो वह त्वचा के रासायनिक पदार्थों के कारण 20 मिनट से अधिक समय तक जीवित न रह पायेगा।

कफ होते ही खांसी, नाक में कोई चीज फंसते ही छींक, नींद आते ही जम्हाई, हवा और बाहरी आकाश को छानते रहने की प्रतिक्षण आंख मिचकाने की क्रिया मनुष्य शरीर की विलक्षण विशेषताएं हैं। कोई कीटाणु नाक में घुसा कि बालों ने रोका, उनसे नहीं रुका, तो चिपचिपे पदार्थ में पहुंचते ही छींक आई, नाक निकली और कीटाणु बाहर। दुश्मन सख्त हुआ माना नहीं, गले में चला गया तो खांसी, पेट में पहुंच गया तो पाचक रस सुरक्षा का काम करने लगेंगे और उसे मार भगायेंगे। कहीं शत्रु फेफड़े में पहुंच गया तो श्लेष्मा उन्हें तुरन्त बाहर फेंकेगी।

शरीर में अमीबा की तरह का ‘‘लियोसोसाइटिस’’ जीवाणु होता है। वह शरीर की सुरक्षा का सबसे वफादार सिपाही माना जाता है। इसमें कैसे भी शत्रु जीवाणु को खजाने की क्षमता होती है, शरीर के किसी भी हिस्से में कोई विषाक्त जीवाणु पहुंच जाये यह ‘‘लियोसोसाइटिस’’ हजारों लाखों की संख्या में पहुंच कर उन्हें मार भगाते हैं।

कई बार ऐसा होता है कि शत्रु जीवाणु शक्तिशाली होता है, वह कर—छल-बल से ‘‘लियोसोसाइटिस’’ को भी अपने पक्ष में कर लेता है। प्रकृति ने ऐसे देश द्रोहियों से निबटने के लिए मनुष्य शरीर में ‘‘मैक्रोफैजेस’’ नामक कुछ सुरक्षित सैनिक (रिजर्व फोर्स) रखे हैं। ऐसे समय यह वफादार सैनिक आगे बढ़ते और शत्रु तथा देशद्रोहियों दोनों का सफाया कर देते हैं। ऐसी जरूरतों के लिए अलग साधन, पृथक संचार व्यवस्थाएं भी प्रकृति ने शरीर में तैयार की हैं, उन्हें ‘‘लिम्फैटिक सिस्टम’’ के नाम से जाना जाता है।

कई बार शरीर में चोट लग जाती है, शरीर में सूजन हो आती है। सूजन देखते ही घबराहट होती है, पर घबराने की आवश्यकता नहीं, सूजन इस बात का संकेत है कि रक्त के प्लाज्मा में स्थित रक्षक द्रव ‘‘फिब्रिनोजिन’’ आ पहुंचा है और उसने चोट लगे स्थान के शत्रु जीवाणुओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिए रक्त का थक्का बनाकर उन्हें उतने ही स्थान में घेर दिया है। यदि प्रकृति ने यह व्यवस्था न की होती तो यह जीवाणु हर 20 मिनट बाद दूनी संख्या में बढ़ते और शरीर को नष्ट कर डालते। धन्यवाद प्रकृति को, पिता परमेश्वर को जिसने जीवात्मा को एक ऐसे दुर्ग में रखा जहां का हर सैनिक उसकी रक्षा और विकास के लिए सोते, जागते हर घड़ी जागरूक रहता है।

भगवान ने मनुष्य शरीर को इस विशेषता के साथ बनाया है कि यदि परिस्थिति वश कहीं कोई दुर्घटना भी हो तो उसका प्रतिकार करने की व्यवस्था भी अपने आप ही काम करती रहती है। इस शरीर की आन्तरिक व्यवस्था, आन्तरिक संरचना इस प्रकार की है कि वह सामान्य रुकावटों को ही नहीं भीषण दुर्घटनाओं के कारण होने वाली क्षति को भी अपने आप ही पूरा कर लेती है। कहने का अर्थ यह कि परमात्मा ने मनुष्य की जीवनी शक्ति को इतना प्रबल बनाया है कि वह असमय में आने वाली मृत्यु को भी टाल सकता है।

इस प्रकार की कितनी ही घटनाएं आये दिनों देर-सवेर सुनने में आती रहती हैं जिनसे यह तथ्य सामने आते हैं कि मनुष्य की जीवनी शक्ति मृत्यु को अनेकों बार परास्त कर देती है और उसे सुरक्षित रखा जाय तो परास्त करती भी रहती है।

सन् 65 की घटना है। अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र पर ऊपर उड़ते हुए, आग लगने के कारण जल गया। पायलट समुद्र में कूद पड़ा। उसे बहुत चोट लगी। फिर भी वह तैरता रहा और लगातार 40 घण्टे से अधिक परिश्रम के बाद वह किनारे पर पहुंचा। बुखार, निमोनिया, भूख, थकान, दर्द, चोट से पीड़ित बदहवासी की स्थिति में उसे अस्पताल पहुंचाया गया। हालत इतनी गम्भीर थी कि डॉक्टर उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य करते रहे।

पायलट मरा नहीं, उसकी जीवनी शक्ति ने उसका साथ दिया और वह धीरे-धीरे अच्छा होता चला गया।

पोर्ट लैण्ड में एक आठ वर्षीय बालक सड़क कूटने वाले तीन टन भारी इंजन के नीचे आ गया। उसकी कमर से नीचे का भाग बुरी तरह पिस गया। किसी को उसके बचने की आशा न थी, पर जीवनी शक्ति ने काम किया और एक वर्ष अस्पताल में रहकर वह अच्छा हो गया। पैर चलने लायक तो न हो सके, पर जीवन रक्षा तो हो ही गई।

न्यूयार्क की पन्द्रह मंजिल ऊंची इमारत से एक वर्ष का नन्हा टामी पेइवा गिरा। उसकी हड्डियां टूट गईं फिर भी वह मरा नहीं।

कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के भौतिकी प्राध्यापक डॉक्टर क्रेग टेलर ने स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करके यह साबित किया कि संसार के सबसे गरम क्षेत्र में रहकर भी औसत स्वास्थ्य वाला आदमी 100 दिन तक जी सकता है। यदि स्नायु संस्थान अपेक्षा कृत अधिक समर्थ हों तो 200 दिन तक जिया जा सकता है। आमतौर से अत्यधिक गर्मी वाले स्थान के बारे में अब तक यह मान्यता प्रचलित है कि वहां कोई 24 घण्टे से अधिक नहीं जी सकता। डॉक्टर टेलर ने 220 डिग्री तक की गर्मी देर तक सहन करके दिखाई और वे 250 डिग्री तापमान में भी 14 मिनट तक सहन करने में सफल रहे।

कितना शीत मनुष्य शरीर सह सकता है इसका परीक्षण सर डोनमल्ड ने बर्फीले पानी की शीत एक घण्टे तक सह कर दिखाया। वे कहते हैं यदि शीत रक्षक सूट पहन रखा हो तो शीत से मृत्यु नहीं हो सकती।

इंग्लैंड का एक विमान चालक टेड ग्रीनवे को, द्वितीय महायुद्ध के दौरान विपत्ति में फंस गया। उसके दो और साथी भी थे। भयंकर शीत प्रदेश के बर्फीले प्रदेश में उसे भूखे-प्यासे वहां दिन गुजारने पड़े। कपड़े भी गरम न थे। इतनी विपत्ति का सामना करते हुए उस प्रदेश को पार करते हुए वे लोग बच सकने की स्थिति में पहुंचे।

अमेरिका के युद्ध रोमांच इतिहास में यह घटना जुड़ी हुई है कि उसकी एक सैनिक टुकड़ी ग्रीनलैण्ड के बर्फ से ढके यंत्र में फंस गई और नितान्त सादे कपड़े, 88 दिन बिता कर बाहर आ सकने में सफल हुई। 10 दिन तो उस टुकड़ी को बिना भोजन के रहना पड़ा।

मनुष्य के शरीर का तापमान 98.6 डिग्री होता है। यदि वह 19 डिग्री घट जाय अर्थात् 79 के करीब रह जाय तो जीवन संकट उत्पन्न हो जायगा। इसी तरह 9 डिग्री बढ़ जाय अर्थात् तापमान 107 पर जा पहुंचे तो भी मृत्यु हो जायगी। बुखार में तापमान अधिक न बढ़ने पाये इससे इसके लिए डॉक्टर सिर पर बर्फ रखते हैं। इस प्रतिपादन को झुठलाने वाली एक नर्स है जिसने 110 डिग्री बुखार से कई दिनों तक लड़ाई लड़ी और आखिर वह अच्छी हो गई। डॉक्टर कह चुके थे कि इसका बचना सम्भव नहीं। यदि बच भी गई तो इतनी गर्मी उसके दिमाग को विक्षिप्त अवश्य कर देगी, पर नर्स ने न तो मौत को अपने पास फटकने दिया न पागल मन को। अमेरिका के ब्रुकलिंस पुशावक नामक अस्पताल की इस नर्स ने मानवी जीवनी शक्ति को मृत्युंजयी सिद्ध करते हुए नया प्रतिपादन प्रस्तुत किया कि मृत्यु से जीवन अधिक सामर्थ्यवान है।

आयरिश स्वाधीनता यज्ञ के उद्गाता टेरेन्स मेकस्विनी ने जेल में अनशन किया और तिहत्तर दिन तक निराहार रह कर मौत से जूझते रहे। भारतीय स्वाधीनता के सेनानी यतीन्द्रनाथ दास बिना आहर किये 68 दिन की लम्बी अवधि तक मौत से लड़ते रहे।

आपरेशनों के दर्म्यान कितने ही लोगों का एक फेफड़ा, एक मुर्दा, जिगर का एक भाग, आंतों का बड़ा भाग आदि काट कर अलग कर दिये जाते हैं, पर जो शेष बचा रहता है उतने से ही शरीर अपना काम चलाता रहता है और जीवित रहता है।
आये दिन समाचार पत्रों में छपती रहने वाली घटनाएं बार-बार इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि जीवन मृत्यु से बलवान है और शरीर प्राकृतिक अवरोधों, अनपेक्षित दुर्घटनाओं से भी अपने आपको सुरक्षित रख सकता है, या उन विकृतियों को दूर करने में सफल रहता है। परमात्मा ने मनुष्य को जो अद्भुत शरीर प्रदान किया है उसे अद्भुत और अनुपम ही कहना चाहिए। इन पंक्तियों में तो शरीर की रचना प्रक्रिया का थोड़ा सा विवेचन विशेषण प्रस्तुत किया गया। यदि शरीर की रचना प्रक्रिया का गम्भीरता से अध्ययन किया जाय, उसके एक-एक अंग अवयव का विश्लेषण किया जाय तो विदित हो सकता है कि मनुष्य को कितना मूल्यवान साधन शरीर के रूप में प्राप्त हुआ है और वह यदि इसका बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग कर सके तो कोई आश्चर्य नहीं कि शरीर को हजार वर्ष तक भी जीवित रखा जा सके।
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