बहुत से व्यक्ति जो अपने को स्वभाव से ही निर्बल और सामर्थ्यहीन समझ लेते हैं, सहज में यह विश्वास कर ही नहीं सकते कि उद्योग करने से हम महान शक्तिशाली हो सकते हैं । वे अपनी वर्तमान दुर्बल अवस्था को देखकर यही विचार करते हैं कि हम तो सदा इसी प्रकार दबे हुए रहने को उत्पन्न हुए हैं । पर यह एक भ्रमजनित धारणा है । प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक ऐसा शक्तिकेंद्र मौजूद है जो उसे इच्छानुसार ऊँचे स्थान पर पहुँचा सकता है, शास्त्र में कहा गया है-
प्रत्येकमस्ति चिच्छक्तिर्जीव शक्ति स्वरूपिणी । 'प्रत्येक जीव में चैतन्य शक्ति (आत्मा की अनंत और अपार शक्ति) विद्यमान है ।'
शक्ति से ही मनुष्य पहले धर्म प्राप्त करता है, पुन: उसी से अर्थ सिद्ध करते हुए पुण्य संचय करके कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ होता है, अंत में इसी शक्ति से पूर्ण त्याग एवं ज्ञान के द्वारा मोक्ष पा जाता है । अपनी शक्ति के प्रवाह का समुचित प्रयोग करना ही पुरुषार्थ है । इस प्रकार शक्ति संपन्नता को स्वार्थसिद्धि के विरुद्ध दूसरों के हित में लगाते रहना ही उन्नति-पथ पर बढ़ते जाना है ।
कदाचित हमारा जीवन सद्गुणों और सद्भावों से रहित है तो हम शक्ति के सदुपयोग से किसी भी प्रकार के अभाव को दूर कर तुच्छ, अकिंचन से महान हो सकते हैं ।
देह, प्राण, इंद्रियाँ मन और बुद्धि के द्वारा दुरुपयोगित शक्ति का सदुपयोग होने के लिए ही पूजा-पाठ, कीर्तन, जप, तप और ध्यान आदि अनेक साधनों का आश्रय लेना पड़ता है ।
जिस प्रकार हमारा यह भौतिक शरीर क्षेत्र इसी भूलोक के द्रव्यों से बना हुआ है, उसी प्रकार हमारे प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय क्षेत्र उत्तरोत्तर सूक्ष्मातिसूक्ष्म लोकों के द्वारा निर्मित है । प्रत्येक क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति है और अपने-अपने लोकों की दिव्यशक्ति को लेकर प्रत्येक क्षेत्र क्रियाशील हो रहा है । जिस क्षेत्र में क्रिया की प्रधानता रहती है, वही क्षेत्र विशेष शक्ति संपन्न होता है ।
स्थूल क्षेत्र में संग्रहीत शक्ति के द्वारा विविध विषय वासनाओं तथा कामनाओं की पूर्ति होती रहती है । इसी प्रकार मनोमय क्षेत्र में केंद्रित शक्ति के द्वारा विविध भाव, इच्छा एवं संकल्प की सिद्धि होती है । इससे भी ऊपर विज्ञानमय क्षेत्र में विकसित शक्ति के योग से अद्भुत प्रतिभायुक्त ज्ञान का प्रकाश होता है । इसी लोक में परमार्थ का पथिक अपनी बिखरती हुई बहिर्मुख शक्ति को अंतर्मुख करते हुए अपने परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में समर्थ होता है ।
जिस प्रकार भौतिक भवन को दूसरे रूप में बदलने के लिए उचित संपत्ति की आवश्यकता है, उसी प्रकार इच्छित रूप में अपने भाग्य भवन को बदलने के लिए भी शक्ति और पुण्य रूपी संपत्ति की आवश्यकता है । तप के द्वारा शक्ति और सेवा के द्वारा पुण्य रूपी संपत्ति प्राप्त होती है । शक्ति के दुरुपयोग से दुर्भाग्य और सदुपयोग से सौभाग्य की प्राप्ति होती है । सांसारिक स्वार्थ को ही सिद्ध करते रहना शक्ति का दुरुपयोग है । लेकिन परोपकार करते हुए अपना परमार्थ सिद्ध कर लेना शक्ति का सदुपयोग है । संसार में आसक्त रहना शक्ति का दुरुपयोग है और त्याग के द्वारा ज्ञान तथा भक्ति में अनुरक्त होना शक्ति का सदुपयोग है । अहंकारपूर्वक अपनी शक्ति से किसी को गिरा देना शक्ति का दुरुपयोग है और गिरे हुओं को सरल भाव से तत्परता पूर्वक उठा लेना शक्ति का सदुपयोग है ।
संयम साधना के द्वारा शक्ति का विचार करने के लिए, शक्ति के समुचित सदुपयोग की सिद्धि के लिए ही मंदिरों में, तीर्थस्थानों में, शक्तिपीठों में, वनों- उपवनों में समयानुसार जाने की प्रक्रिया हमारे देश में चली आ रही है । ऐसे पावन स्थानों में अपने अंत:क्षेत्रों के भीतर की सुप्त शक्ति सहज प्रयास से जाग्रत हो जाती है ।
हम सबको ध्यान देकर निरीक्षण करते रहना चाहिए कि शक्ति का किसी भी किया, चेष्टा, भाव एवं विचार के द्वारा दुरुपयोग हो रहा है अथवा सदुपयोग ।
इस प्रकार हम अपनी प्राप्त शक्ति की अधिकाधिक वृद्धि कर सकते हैं । शुद्ध सात्विक आहार और विषय संयम से शारीरिक उन्नति होती है, सद्व्यवहार एवं सद्गुण विकास से मानसिक उन्नति होती है और निष्काम प्रेम एवं सत्य स्वरूप के ध्यान से आत्मोन्नति होती है ।
हमें सर्वप्रथम संतों के सत्संग की सर्वोपरि आवश्यकता है, जिससे हम विवेक की दृष्टि प्राप्त करें, तदनंतर हम संयम की साधना धारण करें, क्योंकि बुद्धिमत्तापूर्वक आत्मसंयम से ही शक्ति संपन्न होकर आनंद और परम धाम की प्राप्ति की जा सकती है ।
प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति की प्राप्ति एवं निर्बलता का अभाव ही मानवी उत्थान अथवा शक्ति का सदुपयोग है । जब हम भय की जगह निर्भय होकर प्रत्येक कठिनाई को परास्त करने में समर्थ हो जाएँ और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही चले जाएँ तथा जब हमें सदा शक्ति की महती कृपा का अनुभव होने लगे, तब हम शक्ति का सदुपयोग करने वाले व्यक्ति के रूप में अपने आप को पाकर धन्य हो जाएँगे ।