एकाग्रता में दिव्यशक्तियो के भंडार भरे हुए हैं । सांसारिक जीवन में मन की शक्ति से बड़े-बडे़ अद्भुत कर्मों को मनुष्य पूरा करता है । इसी मनःशक्ति को जब बाहर से समेटकर अंतर्मुखी किया जाता है और असाधारण कठिन परिश्रम द्वारा उसको सुव्यवस्थित रूप से आत्मसाधना में लगाया जाता है तो और भी अद्भुत, आश्चर्यजनक परिणाम उपस्थित होते हैं, जिन्हें ऋद्धि-सिद्धि के नाम से पुकारते हैं । निस्संदेह आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप कुछ ऐसी विशेष योग्यताएँ प्राप्त होती हैं जो सर्वसाधारण में नहीं देखी जाती । यदि इस प्रकार का विशेष लाभ न होता तो मनुष्य प्राणी जो स्वभावत: वैभव और आनंद को तलाश करता रहा है । इंद्रिय भोग को त्यागकर योग की कठोर साधनाओं की ओर आकर्षित न होता । सूखी, नीरस, कठोर, अरुचिकर, कष्टसाध्य साधनाएँ करने को कोई कदापि तैयार न होता यदि उसके फलस्वरूप कोई ऊँचे दर्जे की वस्तु प्राप्त न होती ।
मूर्ख, अनपढ़, नशेबाज, हरामी और अधपगले भिखमंगों के लिए यह कहा जा सकता है कि यह लोग बिना मेहनत पेट भरने के लिए जटा रखाए फिरते हैं । परंतु सबके लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता । विद्या, वैभव, बुद्धि, प्रतिभा और योग्यताओं से संपन्न व्यक्ति जब विवेकपूर्वक सांसारिक भोग विलास से विरत होकर आत्मसाधना में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं तो उसमें कुछ विशेष लाभ ही होना साबित होता है । प्राचीन काल में जितने भी तपस्वी हुए हैं और आज भी जो सच्चे तपस्वी हैं, वे विवेक से प्रेरित होकर इस मार्ग में आते हैं । उनकी व्यापार बुद्धि ने गंभीरतापूर्वक निर्णय किया है कि भोग की अपेक्षा आत्मसाधना में अधिक लाभ है । लाभ का लोभ ही उन्हें स्थूल वस्तुओं में रस लेने की अपेक्षा सूक्ष्म संपदाओं का संचय करने की ओर ले जाता है ।
जो लोग सच्ची लगन और निष्ठा के साथ आध्यात्मिक साधना में प्रवृत्त हैं, उनका उत्पादन कार्य अच्छी फसल उत्पन्न करता है, उनमें एक खासतौर की शक्ति बढ़ती है, जिसे आत्मबल कहते हैं । यह बल सांसारिक अन्य बातों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । प्राचीनकाल में राजा विश्वामित्र की समस्त सेना और संपदा, तपस्वी वसिष्ठ के आत्मबल के सामने पराजित हो गई तो "धिक बलं क्षत्रिय बलं, ब्रह्म तेजो बलं बलं" कहते हुए विश्वामित्र-राजपाट छोड़कर आत्मसाधना के मार्ग पर चल पड़े । राजा की अपेक्षा ऋषि को उन्होंने अधिक बलवान पाया । सांसारिक बल की अपेक्षा आत्मबल को उन्होंने महान अनुभव किया । छोटी चीज को छोड़कर लोग बड़ी की ओर बढ़ते हैं । राज त्यागकर विश्वामित्र का योगी होना इसका च्चंलत प्रमाण है । गौतम बुद्ध का चरित्र भी इसी की पुष्टि करता है । जो आत्मसाधना में लीन हैं, वे ऊँचे दर्जे के व्यापारी है । छोटा रोजगार छोड़कर के बड़ी कमाई में लगे हुए हैं ।