ऐसे बहुत ही कम सौभाग्यशाली व्यक्ति निकलेंगे जिन्हें शक्ति जन्मजात मिली हो । अधिकांश मनुष्यों को धीरे-धीरे शक्ति अभ्यास द्वारा ही प्राप्त होती है और उसका संचय करने से ही वे शक्तिशाली बन सकते हैं ।
हमारी शक्ति के विकास के तीन द्वार हैं-मन, वचन और काया । इन्हीं के द्वारा हम कोई कार्य करने में समर्थ होते हैं, पर हमने अपनी शक्ति को अनेक कार्यों में बिखेरे रखा है, इसी से हम अपने आप को कमजोर समझते हैं । यह तो मानी हुई बात है कि कोई वस्तु चाहे कितनी ही ताकतवर क्यों न हो, टुकड़े कर देने पर वह जितने भागों में विभक्त हुई है, शक्ति का बल भी उतने ही अंशों में कम हो जाएगा । इसी प्रकार हम अपने मन को अनेक संकल्पों-विकल्पों में बाँटे रखेंगे तो एक निश्चय पर पहुँचने में कठिनता होगी, किसी भी विषय को गंभीरता से नहीं सोच सकेंगे, उसकी तह तक नहीं पहुँच सकेंगे ।
इसी प्रकार वचन शक्ति को व्यर्थ की बकवास या वाचालता में लगाए रखेंगे तो उसका कोई असर नहीं होगा । शक्ति इतनी कमजोर पड़ जाएगी कि वह शक्ति के रूप में अनुभव भी नहीं की जाने लगेगी ।
इसी प्रकार कायिक शक्ति को भी समझें । कहने का आशय यह है कि हर समय इन विविध शक्तियों का जो अपव्यय हो रहा है, उसकी ओर ध्यान देकर उसे रोका जाय, उनको लक्ष्य में केंद्रित किया जाय, इससे जो कार्य वर्षों में नहीं होता था, वह महीनों, दिनों, घंटों एवं मिनटों में होने लगेगा, क्योंकि जहाँ कहीं उसका प्रयोग होगा पूरे रूप में होगा । अत: उस कार्य की शीघ्र सफलता अवश्यंभावी है ।
मन:शक्ति के विकास के लिए मन की दृढ़ता जरूरी है । पचास बातों पर विचार न करके एक ही बात पर विचार किया जाय । व्यर्थ के संकल्प-विकल्प को रोका जाय । वचन शक्ति को प्रबल करने के लिए परिमित बोला जाए, मौन रहने के लिए इधर-उधर व्यर्थ न घूमा-फिरा जाए, इंद्रियों को चंचल न बनाया जाय ।
इस तरह तीनों शक्तियों को प्रबल बनाकर और निश्चित कर उन्हें लक्ष्य की ओर करने से जीवन में अद्भुत सफलता मिल सकेगी । लक्ष्य की प्राप्ति ही जीवन की सफलता है ।
जड़ पदार्थों के अधिक समय के संसर्ग से हमारी वृत्ति बहिर्मुखी हो गई है । अत: प्रत्येक कार्य एवं कारण का मूल हम बाहर ही खोजते रहते हैं । हम यह कभी अनुभव ही नहीं करते कि आखिर कोई चीज आएगी कहाँ से ? और देगा कौन ? यदि उसमें वह शक्ति है ही नहीं तो हम लाख उपाय करें पर जड़ तो जड़ ही रहेगा । चेतन से संबंधित होकर वह चेतनाभास हो सकता है पर चेतन नहीं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु का स्वभाव भिन्न है, जिसका जो स्वभाव है वह उसी रूप में रहता है, स्वभाव छोड़ता नहीं । उपादान नहीं है तो निमित्तादि कारण करेंगे क्या ? अत: कार्य-कारण का संबंध हमें जरा अंतर्मुखी होकर सोचना चाहिए । जो अच्छा-बुरा करते हैं, वह हमी करते हैं, अन्य नहीं और जब कोई विकास होता है वह अंदर से ही होता है, बाहर से नहीं । निमित्त तभी कार्यकर होते हैं जब उपादान के साथ ही संबंधित हों ।
हमारी शक्ति का स्रोत हमारे अंदर ही है । अत: उसे बाहर ढूँढ़ते-फिरने से सिद्धि नहीं होगी । मृग की नाभि में कस्तूरी होती है, उसकी सुगंध से वह मतवाला रहता है, पर वह उसे बाहर कहीं से आती हुई मानकर चारों ओर भटकता फिरता है । फिर भी उसे कुछ भी हाथ नहीं आता, इसी प्रकार हम अपने स्वरूप, स्वभाव, गुणों को भूलकर, पराई आशा में भौतिक पदार्थों को जुटाकर उनके द्वारा ज्ञान, सुख, आनंद प्राप्त करने को प्रयत्नशील है । यह भ्रम है, इसी भ्रम के कारण अनेकों अनंत काल से सुखप्राप्ति के लिए भौतिक साधनों की ओर आशा लगाए बैठे रहे, पर सुख नहीं मिला । बाह्य जगत से हम इतने घुल-मिल गए हैं कि इससे अन्य एवं भिन्न भी कुछ है, इसकी कल्पना तक हमें नहीं हो पाती । जिन महापुरुषों ने अपनी अनंत आत्मशक्ति को पहिचानकर उसे प्रगट किया है, पूर्ण ज्ञान एवं आनंद के भोगी बने हैं । उनकी सारी चिंताएँ विलीन हो गई हैं, आकुलता-व्याकुलता नष्ट होकर पूर्ण शांति प्रकट हो गई है । उनको इच्छा नहीं, आकांक्षा नहीं, अभिलाषा नहीं, आशा नहीं, चाह नहीं । अत: अंतर्मुखी बनकर अपनी शक्ति को पहिचानना और उसका विकास करना ही हम सब के लिए नितांत आवश्यक है ।