रूसी स्वप्न शास्त्री डॉक्टर वासिली ने विभिन्न प्रयोगों तथा अध्ययनों के बाद यह पाया है कि हमारे मस्तिष्क में, शरीर में घटने वाली सूक्ष्मतम क्रियाओं को भी जान लेने की सामर्थ्य विद्यमान है। परिवेश और परिस्थितियों की सूक्ष्मता से छान-बीनकर वह हमें भारी दुर्घटनाओं—दुःखों से बच सकने के उपाय भी सुझाता है। मस्तिष्क द्वारा स्वप्न में प्रतीकों द्वारा ऐसे उपायों का संकेत किया जाता है। ये संकेत अवचेतन मस्तिष्क द्वारा दिए जाते हैं।
मन का 88 प्रतिशत हिस्सा अवचेतन होता है और मात्र बारह प्रतिशत ही चेतन। चेतन मन भी पूर्ण चेतना के साथ हममें सामान्यतः क्रियाशील नहीं रहता और सामान्यतः व्यक्ति अपने अधिकांश क्रिया-कलाप अर्द्धमूर्च्छित स्थिति में करते हैं। तब अवचेतन मन की क्रियाओं का भला ज्ञान कैसे हो?
हमें ज्ञान भले न हो, पर अवचेतन अपना कर्त्तव्य निभाता है और स्वप्न प्रतीकों द्वारा हम तक अपनी जानकारी सम्प्रेषित करता रहता है। अवचेतन हमारा उदार गुरु है, निर्देशक है।
सामान्यतः व्यक्ति तनाव की दशा में जीते हैं और विक्षुब्ध विभ्रान्त चित्त स्थिति में अपनी मानसिक क्रियाओं के प्रति जागरूक नहीं हर पाते। तनाव की इस दशा में अवचेतन के विश्लेषण का प्रयास आत्म छल ही सिद्ध होगा। क्योंकि अवचेतन की क्रिया तो इससे सर्वथा विपरीत है। तनावों-दबावों से मुक्ति दिलाने में ही तो अवचेतन की धन्यता है। जब हम अपने ही मनस्ताप से श्रात-क्लांत हो उठते हैं, तब अवचेतन का विशाल वट-वृक्ष हमें अपनी शीतल स्निग्ध छाया में समेट कर, थपकियां देकर सुला देता है।
सचेतन मस्तिष्क पर लगने वाले बौद्धिक-सम्वेदनात्मक आघातों के लिए गहरी निद्रा और स्वप्न-शृंखलाएं मरहम का कार्य करती हैं, क्योंकि स्वप्नों में अवचेतन क्रियाशील होकर चेतन को विश्राम का अवसर दे देता है और समुचित विश्राम के बाद चेतन मस्तिष्क पुनः स्फूर्ति युक्त हो उठता है।
जिन्हें गहरी नींद नहीं आती और चेतन मस्तिष्क का अवचेतन पर से दबाव नहीं हटता और उनके अवचेतन को उन्मुक्त क्रीड़ा का जब समय नहीं मिल पाता, तो यह स्फूर्ति उपलब्ध नहीं हो पाती। तब चेतन मस्तिष्क तनावों-दबावों के असह्य भार से कुन्द और अस्वस्थ होने लगता है, अवचेतन अपने प्रभाव के प्रदर्शन के लिए आकुल हो उठता है और नींद में मौका पाते ही श्रांत-शिथिल चेतन मस्तिष्क को एक कोने में बैठाकर स्वयं प्रभुत्व जमा बैठता है। जब अवचेतन नींद में इस अस्वस्थ रीति से प्रभावशाली हो उठता है, तो वह ‘‘निद्रा भ्रमण’’ नामक रोग को जन्म देता है। यह एक गम्भीर रोग है। इंग्लैंड के गुप्तचर विभाग ‘स्काटलैंड यार्ड’ के एक अधिकारी को यह रोग हो गया था, परिणामस्वरूप वे स्वप्न-दशा में एक विशेष रीति से हत्या कर आते और जागने पर स्वयं इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ रहते। उनके द्वारा की गई हत्याओं की जांच का काम भी उन्हें ही सौंप दिया गया और उन्हें ज्ञात ही नहीं हो सका कि वे अपने अपराधों की ही खोज कर रहे थे। उनके साथियों ने जो इस खोज में सहयोगी थे, उनने उन्हें पकड़ा, तब मानस-शास्त्रियों के परीक्षण से यह ज्ञात हुआ कि अधिकारी महोदय निद्रा भ्रमण रोग से ग्रस्त हैं।
इसी रोग से ग्रस्त आस्ट्रेलिया की एक प्रौढ़ महिला ने स्वप्न दशा में अपनी 19 वर्षीय पुत्री की हत्या कर दी थी। ऐसे-ऐसे निद्राचारी व्यक्ति भी हुए हैं जो सोने के बाद स्वप्न दशा में ही जागृति की अनुभूति कर घर से नदी तट पहुंचते, बंधी नाव खोलते, रात भर नाव खेते हुए किसी तूफानी नदी को पार करते और स्वप्न टूटने पर प्रातः स्वयं ही विस्मित हो उठते कि उन्हें वहां कौन छोड़ गया। जगने पर उन्हें कभी भी यह ज्ञान न होता कि स्वप्न में उन्होंने क्या क्या किया है? दक्षिण भारत के एक गांव की एक नव-वधू रात सोने के बाद, स्वप्न दशा में ही ससुराल से चलकर मायके पहुंच जाती थी। मानस शास्त्रियों के अनुसार निद्राचारी व्यक्तियों का अवचेतन मन उस समय अर्द्धचेतन होता है। कुछ निद्राचारियों की आंखें भ्रमण के समय खुली रहती है, तो कुछ की आंखें बन्द रहती है और वे उस स्थिति में ही जागृत दशा की तरह कार्य करते हैं।
नेत्र बन्द रखते हुए भज जागृत-दशा की तरह चल-फिर सकने की क्षमता से अवचेतन की सामर्थ्य का पता चलता है।
वस्तुतः हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने-अपने ढंग के निद्राचारी होते हैं। ऐसे काम करते रहते हैं, जिनके लिए विवेक जागृत होने की स्थिति में भारी पश्चात्ताप होता है और लज्जा आती है। यह स्थिति कुछ समय तो रहती है, पर फिर वह विवेक सो जाता है और पुरानी आदतें खुल खेलने लगती हैं। नशेबाज दिन में कई बार अपनी आदत से होने वाली हानियों पर सोचते और दुःखी होते हैं किन्तु फिर जब भूत बवण्डर भीतर से उठता है तो पैर सीधे मद्य गृह तक चलते ही चले जाते हैं और जी भर कर पी लेने पर ही चैन पड़ता है। यही बात अन्य दुष्प्रवृत्तियों के बारे में है। यह निद्राचार नहीं तो और क्या है? विवेक के प्रतिकूल होने वाले सभी कार्य इसी श्रेणी में आते हैं।
उन्हें करते समय व्यक्ति एक तरह की मूर्च्छना, खुमारी, नशे की सी स्थिति में रहता है और बाद में वह स्थिति समाप्त होने पर विवेक के जागृत होने पर उसे स्वयं ही आश्चर्य होता है कि क्या यह काम सचमुच मैंने ही किया है? जिस प्रकार का काम सामान्यतः कर पाना मनुष्य के लिए असम्भव है उसे ही वह मूर्च्छना या प्रचण्ड उत्तेजना की सी स्थिति में धड़ल्ले से करता है। तब मानवीय संवेदना के बारे में भी पूछा जाना चाहिये कि उसका कौन सा स्वरूप सही है विवेकपूर्ण स्थिति में होने वाले अनुभव संवेदन या मूर्च्छना उत्तेजन की दशा के अनुभव-संवेदन? एक ही व्यक्ति के दो सर्वथा विपरीत दिखाई देने वाले भाव-जगत और आचरण में से कौन सा सच्चा है कौन सा झूठा? स्पष्टतः दोनों ही सच हैं। क्योंकि दोनों एक हैं चेतना के दो भिन्न-भिन्न उभार या चेतना-प्रवाह के दो अलग-अलग मोड़ मात्र हैं।
स्वप्न अपने समय की एक वास्तविकता है। उस समय जो कि स्वप्न देखा जाता है, मनुष्य वस्तुतः अपने को उसी स्थिति में अनुभव करता है जो घटना क्रम उस समय चल रहा होगा उससे समुचित रूप से प्रभावित भी होता है। कई बार तो यहां तक होता है कि किसी अन्य जीवधारी के रूप में अपने आपको देखा जाय, और उसी जैसी मनःस्थिति में अपने को अनुभव किया जाय, पर ऐसा होता कभी-कभी ही है। साधारणतया कलेवर कुछ भी बदल जाय चेतना मनुष्य जैसी ही रहती है। इससे भी अधिक मात्रा ऐसे स्वप्नों की रहती है जिनमें अपनी तो वर्तमान शारीरिक, मानसिक स्थिति ही बनी रहे, किन्तु दृश्य ऐसे उपस्थित हों जिनका तात्कालिक स्थिति के साथ सीधा ताल-मेल न बैठता हो।
वेदान्त ने जीवन को ही स्वप्न कहा है। मरणोत्तर जीवन पहुंचकर हम वर्तमान जन्म को एक स्वप्न ही अनुभव करेंगे। जब तक जीवित हैं तब तक पता नहीं चलता पर मृत्यु के उपरान्त जब दूरगामी दृष्टि खुलती है तब प्रतीत होता है कि यह एक ही जन्म नहीं लिया गया वरन् ऐसे-ऐसे असंख्य जन्म—असंख्य योनियों में लिये जा चुके हैं। अगणित स्वजन सम्बन्धी मिले और बिछुड़ चुके हैं। अनेक बार कमाया, जमा किया और दूसरों के लिये छोड़ा है। उस स्तर के विचार अपने आज के जीवन को एक स्वप्न के अतिरिक्त और क्या समझेगा? आत्मज्ञान होने पर भी वही स्थिति हो जाती है। मृत्यु उपरान्त बहुत आगे और बहुत पीछे की बात देख समझ सकने वाली जो दृष्टि खुलती है, वही चेतना यही जीवन काल में विकसित हो जाये और जीवन को स्वप्न अथवा धरोहर माना जाने लगे तो समझना चाहिए महान जागरण उपलब्ध हुआ। इसी को अज्ञानान्धकार छुटकारा पाना अथवा भव बन्धनों से मुक्ति कहते हैं। तत्व ज्ञान की दृष्टि से जीवन एक बड़ा स्वप्न भर है।
जिस तरह यह स्थूल जीवन अनेक ज्ञान-विज्ञान की जटिलताओं से भरा है उसी तरह हमारा सूक्ष्म जीवन-सूक्ष्म शरीर अनेकों रहस्यों से ओत-प्रोत है। स्वप्नों का संसार ऐसा ही जटिल और उलझा हुआ है जैसा कि स्थूल जीवन। हमें जिन्दगी की समस्यायें सुलझाने के लिये संसार क्षेत्र में विचरण करना पड़ता है। अन्तर्जगत की गुत्थियों का हल हमें स्वप्नों की भूल-भुलैयों में प्रवेश करके जानना और समझना सम्भव हो सकता है। प्राचीन काल में इस विद्या का बहुत विकास हुआ था ऐसे अनेक मनीषी मौजूद थे जो स्वप्नों को ध्यान पूर्वक सुनकर उनमें सन्निहित शारीरिक एवं मानसिक तथ्यों का निरूपण करते थे। उन स्वप्नों को त्रिकाल दर्शन की विद्या कह सकते हैं। भूत काल की स्मृतियां—वर्तमान की परिस्थितियां और भावी सम्भावनायें, स्वप्नों का विश्लेषण करके जान सकना सम्भव है।
देखते समय सपना सच लगता हो ऐसी ही बात नहीं है। वह वस्तुतः होता भी सच है। अन्तर केवल इतना ही है कि वह अलंकारिक रूप धारण करके सामने आते हैं और अपने रहस्यों को पर्दे में छिपाये रहते हैं। भूमि और अन्तरिक्ष में छिपी पड़ी अनेक सम्पदाओं और शक्तियों की तरह स्वप्नों की रहस्यवादिता भी हमारे लिये एक चुनौती है, जो अधिकाधिक शोध और श्रम की अपेक्षा करती है।
स्वप्न को एक जगत एक प्रवाह, एक चेतन अस्तित्व कह सकते हैं जिसमें कोई काल नहीं अर्थात् एक सेकेण्ड में ही कितने लम्बे दृश्य देख लेते हैं, कोई ब्रह्माण्ड नहीं क्योंकि वह एक मात्र मनोमय अनुभूति है उसका कोई निश्चित कारण भी नहीं क्योंकि आज तक कोई वैज्ञानिक यह नहीं बता पाया कि स्वप्न क्यों देखते हैं। वह आत्म-चेतना की आंशिक अनुभूति मात्र है जो यह प्रमाणित करता है कि जीवात्मा अपना विकास करके अतीन्द्रिय लोक को पा सकती है वहां भी वह सब कुछ है जिसकी—स्थूल जगत में कल्पना हो सकती है। फ्रायड ने भी अपनी पुस्तक ‘इन्टरप्रिंटेशन आफ ड्रीम’ में स्पष्ट स्वीकार किया है कि उस समय चित्त आत्मिक-ज्ञान की अनुभूति उसी तरह करता है जैसे रेडियो की सुई रेडियो स्टेशन विशेष का (सब कांसस माइन्ड बिकम्स ए पार्ट आफ दि अनकांसिसनेस) हम इन स्वप्नों के माध्यम से भी आत्मा के रहस्यों की कल्पना और चिन्तन कर सकें तो आत्म-साक्षात्कार का मार्ग और भी सरल हो सकता है।