सपने झूठे भी सच्चे भी

स्वप्नों से प्राप्त दिव्य प्रकाश एवं प्रेरणायें

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कई बार स्वप्न ऐसे प्रेरक होते हैं कि उनके प्रकाश में मनुष्यों का जीवन-क्रम ही बदल जाता है। भगवान बुद्ध तब राजकुमार थे। नव-यौवन में प्रवेश ही किया था। एक दिन उनने स्वप्न देखा कि श्वेत वस्त्रधारी एक वयोवृद्ध दिव्य पुरुष आया और उनका हाथ पकड़ कर श्मशान ले पहुंचा। उंगली का इशारा करते हुये उसने दिखाया—‘देख यह तेरी ही लाश है। इस तथ्य को समझ और जीवन का सदुपयोग कर।’ आंख खुलते ही बुद्ध विह्वल हो गये और उनने निश्चय कर ही डाला कि इस बहुमूल्य सौभाग्य का उन्हें किस प्रयोजन के लिए, किस प्रकार उपयोग करना है। वे राज-पाट छोड़कर श्रेय की खोज में चल पड़े और अन्ततः उन्होंने उसे प्राप्त कर भी लिया।

फ्रांसीसी राजक्रान्ति की सफल संचालिका ‘जान आफ आर्क’ एक मामूली किसान के घर जन्मी थी। उन्होंने वहीं एक रात सपना देखा कि आसमान से उतरता कोई फरिश्ता उन्हें कह रहा है कि ‘अपने को पहचान, समय की पुकार सुन, स्वतन्त्रता की मशाल जला’ ये तीनों ही बातें उसने गांठ बांध

लीं और उसी समय से वे फ्रांस को स्वतन्त्र कराने के लिये नये आवेश के साथ उस संग्राम में कूद पड़ीं।

सिगमंड फ्रायड स्वप्नों को दमन की गई मनोभावनाओं की प्रतिक्रिया कहते थे और दमन की गई भावनाओं से सबसे अधिक वे यौन आकांक्षा को मानते थे। उनकी दृष्टि में यौन अतृप्ति ही सारी गड़बड़ी की जड़ है। इन्हीं गड़बड़ी में स्वप्न जंजाल भी सम्मिलित है।

फ्रायड के विचारों का खण्डन प्रख्यात मनःशास्त्री कार्ल गुस्ताव जुंग ने किया है। वे कहते हैं कि दैनिक घटनाओं और संवेदनाओं का प्रभाव स्वप्नों में रहता तो है, पर वे इतने तक ही सीमित नहीं है। ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती रहने वाली पराचेतना में स्थितिवश अनेक विश्व प्रतिबिम्ब तैरते रहते हैं। मनुष्य की अनुभूतियां उनसे प्रभावित होती हैं और वह प्रभाव व्यक्ति की निज की स्थिति के साथ सम्मिलित होकर स्वप्न जैसी विचित्र प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। उनका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति की सीमित चेतना व्यापक पराचेतना के साथ मिलकर जिस स्तर का अनुभव करती है उसका सीधा तो नहीं, पर आड़ा टेड़ा परिचय स्वप्न संकेतों में मिल जाता है।

यहां यह स्मरण रखे जाने योग्य तथ्य है कि स्वप्न मनुष्य के निज के स्तर की परिधि में ही आवेंगे। जो जानकारियां उसे नहीं हैं अथवा जिस ओर उसकी दिलचस्पी बिलकुल नहीं है, वैसे स्वप्न प्रायः नहीं ही आते। लुहार के लिए यह कठिन है कि वह कलाकार होने के स्वप्न देखे। पर दैवी रहस्यों के बारे में ऐसी बात नहीं है वह किसी भी स्तर का व्यवसाय करने पर कोई रुकावट अनुभव नहीं करते और किसी को भी स्वप्नों के आधार पर लाभान्वित कर सकते हैं।

मनःशास्त्र के विश्व विख्यात आचार्य कार्ल जुंग ने उपचेतन मन का विश्लेषण करते हुए अपने ग्रन्थ-‘मेमोरीज ड्रीम्स रिफ्लैक्शन्स’ में लिखा है कि ज्ञान प्राप्ति के जितने साधन चेतन मस्तिष्क को प्राप्त है उससे कहीं अधिक विस्तृत और कहीं अधिक ठोस साधन उपचेतन की सत्ता को उपलब्ध हैं। चेतन मस्तिष्क दृश्य, श्रव्य तथा अन्य इन्द्रिय अनुभूतियों के आधार पर ज्ञान संग्रह करता है, पर उपचेतन के पास तो असीम साधन हैं। वह ब्रह्माण्ड-व्यापी शाश्वत चेतना के साथ सम्बद्ध होने के कारण अन्तरिक्ष में प्रवाहित होते रहने वाले ऐसे संकेत कम्पनों को पकड़ सकता है जिनमें विभिन्न स्तर की असीम जानकारियां भरी पड़ी हैं।

मनोविज्ञानी हैफनर-मआस्स—राबर्ट जैसे विद्वानों का कथन है कि स्वप्न मनुष्य के भौतिक जीवन की प्रतिच्छाया और प्रतिक्रिया मात्र होते हैं, पर अन्य विद्वान वैसा नहीं मानते। फिख्ते का प्रतिपादन है कि सपने मानवी मन की भीतरी परतों को सांकेतिक भाषा में उभार कर लाते हैं। उनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि स्वप्नदर्शी को शारीरिक और मानसिक चेतना की किस स्थिति में निर्वाह करना पड़ रहा है। स्ट्रम्पैल का कथन है कि सपने जागृत जीवन से आगे की प्रसुप्त भूमिका का रहस्योद्घाटन करते हैं। बर्डेक कहते हैं कि सपनों को दैनिक जीवन की छाया मात्र कहकर उपहासास्पद नहीं समझ लिया जाना चाहिए उनमें बहुत-सी उपयोगी सूचनायें सन्निहित रहती हैं।

स्वप्नों में भीतर ही भीतर पक रही खिचड़ी के ऊपर तैरने वाले झाग या छिलके तैरते देखे जा सकते हैं और उनके सहारे यह जाना जा सकता है कि क्या अन्तःचेतना की सीपी में कोई बहुमूल्य मोती विनिर्मित और परिपक्व होने जा रहा है।

स्वप्न में सक्रिय मस्तिष्क शिथिल हो जाता है। दबाव या बन्धनों के भार से हलकापन आने पर अन्तःचेतना अपने खेल-कूद का मौका ढूंढ़ लेती है और उन हलचलों के पीछे किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि के संकेत ढूंढ़े जा सकते हैं। इसी स्थिति में बहुतों को ऐसे आधार हाथ लगे हैं जो तार्किक मस्तिष्क द्वारा बहुत माथा-पच्ची करने पर भी हस्तगत नहीं हो सकते थे।

अनेकों वैज्ञानिकों, लेखकों, कलाकारों को स्वप्नों ने ही ऐसी महत्वपूर्ण प्रेरणायें दीं जो न केवल उन्हें अपने क्षेत्र में स्मरणीय बना गईं, अपितु सामाजिक विकास का भी एक प्रकाश-स्तम्भ बन गईं।

प्रख्यात रसायनज्ञ बोलर ने जीव-रसायन और कार्बनिक रसायन का अन्तर स्पष्ट करते हुए यह बताया था कि प्रत्येक जीवधारी के शरीर में लाखों यौगिक पाये जाते हैं। उन सभी में कार्बन अनिवार्य रूप से रहता है। यही नहीं, सभी जीवित कोष कार्बन के गुणों पर भी आधारित रहते हैं। यह एक जबर्दस्त प्रयोग था, जो दो प्रकार की चेतनाओं का अस्तित्व स्वीकार करता है—जीव चेतना के अतिरिक्त प्रकृति की चेतना को भी। भारतीय शास्त्रों में ऐसे ही आत्मा और मन के लिए कहा गया है, कि मन आत्मा जैसे गुणों वाला होकर भी उसी प्रकार का स्थूल किन्तु आत्मा से सम्बद्ध है जैसे कार्बन की प्रत्येक जीव चेतना में उपस्थिति। यह ज्ञात हो जाने के बाद ‘कार्बनिक-रसायन’, रसायन विज्ञान का एक स्वतन्त्र क्षेत्र ही बन गया किन्तु कार्बन परमाणुओं की रचना और उनके बलय का रहस्य वैज्ञानिक तब तक भी न जान पाये थे जब तक कि उसके 700000 से अधिक कार्बन-योगिक ढूंढ़ लिये गये थे। यह समस्या हल न हुई होती यदि जर्मनी के प्रसिद्ध रसायनज्ञ डा. फ्रीडरिक कैकेलू ने एक महत्वपूर्ण स्वप्न नहीं देखा होता जिसमें 4 कार्बन परमाणुओं को नाचते देखकर कैकूले ने बेन्जीन कार्बन परमाणु की संरचना का ज्ञान प्राप्त किया था। इस तरह स्वप्न का योगदान मनुष्य ने महत्वपूर्ण समस्याओं के सुलझाने तक में पाया और यह सिद्ध हो गया कि स्वप्न का सम्बन्ध मनुष्य जीवन से उतना ही नहीं है, जितना हमारी स्थूल बुद्धि उसे जानती है। या जितना हम मानव की स्थूल व्याख्या करने से जान पाते हैं।

अमेरिका के औषधि शास्त्रज्ञ डा. आट्टोलोबी ने जिन आविष्कारों के आधार पर नोबेल पुरस्कार जीता, उसकी मूल प्रेरणा उन्हें स्वप्नों में ही मिली थी। शारीरिक तन्तुओं, स्नायुओं और कोशाओं पर वे कुछ शोध कर रहे थे पर ऐसे आधार नहीं मिल रहे थे जिनके सहारे किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। ईस्टर की पहली रात को सपने में उन्हें आवश्यक सूत्र हाथ लगे जिन्हें उन्होंने आंख खुलते ही नोट कर लिया। एक दिन दोपहर को भी इसी खोज के सम्बन्ध में ऐसा सपना दीखा जिसमें वे कुछ प्रयोग कर रहे थे उसे भी उन्होंने नोट किया। यद्यपि आरम्भ में वे नोट अटपटे लगे पर अन्ततः वे उसी आधार पर अपने प्रयोगों में सफलता प्राप्त करने में समर्थ हुए।

आइन्स्टाइन का कथन

अपनी अद्भुत कल्पनाओं के उठने का मूल स्रोत कहां है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महा वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने एक बार कहा था प्रायः निद्रित अथवा अर्ध निद्रित स्थिति में कभी-कभी ऐसे समय आते हैं जब मस्तिष्क अपनी सामान्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके ऐसी सूचनायें देने लगता है जिनके आधार पर आविष्कारों की आधार शिला रखी जा सके।

आइन्स्टीन कहते थे विज्ञान और गणित के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि यह दृश्य संसार स्वप्नों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उन्होंने ‘लाइफ’ पत्रिका के प्रतिनिधि को भेंट देते हुए कहा था—सामने खड़ा हुआ वृक्ष यद्यपि अपना अस्तित्व भली प्रकार प्रमाणित कर रहा है तो भी वस्तुतः यह एक स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

एक दूसरे नोबेल पुरस्कार विजेता डा. पाडलिंग ने भी यह बताया था कि उन्हें अनेक नये वैज्ञानिक विचारों की प्रेरणा सपनों में मिली है।

ऐसा ही अनुभव विज्ञान वेत्ता लुई ऐगासिज का है उनकी जीवाश्म सम्बन्धी खोजें कैसे सफल हुई इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा मुझे सवप्नों के इशारे से अपनी खोजें आगे बढ़ाने की अक्सर प्रेरणा मिलती रही है।

अवचेतन की फ्रायडीय व्याख्या तो युंग ने ही त्रुटिपूर्ण सिद्ध कर दी, अधुनातन खोजें अवचेतन के रहस्य-विस्तार को बढ़ाती ही जा रही हैं। अतीन्द्रिय अनुभूतियों के स्पष्ट प्रमाण देने वाले विभिन्न स्वप्नों की वैज्ञानिक छान-बीन से यही संकेत मिल रहे हैं कि व्यक्ति का अवचेतन मनुष्य के सामूहिक अवचेतन का ही एक अंग है। उसका विस्तार विराट् और महत् है। उसके एक लघुतम अंश का भी यदि हम उपयोग कर पाते हैं, तो वह चमत्कार सिद्ध हो जाता है। विश्व के अनेक आविष्कार अवचेतन के इसी उपयोग का परिणाम हैं। हेनरी फार डेसकार्टिस, डन पाइनकेयर जैसे गणितज्ञों का स्वप्नों से मार्ग-निर्देश पाने की घटनायें सर्वविदित हैं। विश्व-विख्यात संगीतकार मोजार्ट को एक ललित संगीत-धुन एक बग्घी में झपकी लेते समय सूझी। वायलिन-वादक तारातिनी को ‘द देविल्स सानेट’ नामक धुन पूरी की पूरी स्वप्न में सुनाई पड़ी। चौपीन भी अपने संगीत-सृजन की प्रेरणा सपनों से पाते थे। नृत्य-पारंगता प्रसिद्ध महिला मेरी विगमैन ने ‘‘पास्तोरेल’’ नामक एक नृत्य की कल्पना स्वप्न—दृश्य के आधार पर की। हेनरी मूर, पाब्लो पिकासो, एन्ट्रयू वेथ, वान गॉग, सल्वाडोर डाली आदि शीर्षस्थ चित्रकारों की सृजन-चेतना में स्वप्नों का बड़ा हाथ रहा है। साहित्यकारों का तो कहना ही क्या? पुश्किन, टाल्सटाय, गेटे, शेक्सपीयर समेत असंख्य साहित्यकारों ने स्वप्न में प्रदत्त अवचेतन के संकेतों, संदेशों तथा प्रेरणाओं, परामर्शों का लाभ प्राप्त किया है। बाणभट्ट की प्रसिद्ध पुस्तक कादम्बरी की रूपरेखा उन्हें स्वप्न में ही मिली। रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपनी गीतांजलि पुस्तक की कई कविताओं का आभास स्वप्न में मिला था। होमर, कालरिज, एडगर एलन पो आदि ने अर्ध चेतन स्थिति में—स्वप्न-लोक में विचरण कर, उन्हीं प्रेरणाओं के आधार पर अनेक रचनाओं का सृजन किया। नीन्शे, दान्ते, वैगनर, विलियम ब्लेक, विलियम बटलर यीट्स, क्यूबिन आदि को विभिन्न कृतियों की प्रेरणायें स्वप्नों से मिली थीं। कई आधुनिक लेखक अवचेतन के ऐसे संकेतों की प्राप्ति के लिए एल.एस.डी. का सेवन करते हैं।

अमेरिका का एक साधारण गृहस्थ चार्ल्स फिलमोर ईश्वर भक्त था, सच्चा और सरल व्यक्ति था कहा जा सकता है इसी कारण उसके स्वप्न भी सात्विक होते रहे होंगे किन्तु एक रात फिलमोर जब सो रहे थे उन्होंने एक स्वप्न देखा—एक अज्ञात शक्ति ने कहा तुम मेरे पीछे-पीछे आओ—फिलमोर पीछे-पीछे चल पड़े अपने स्वप्न का वर्णन करते हुए वे स्वयं लिखते हैं—मैं एक शहर में पहुंचा, वह शहर मैंने पहले भी देखा था इसलिये मुझे साफ पता चल गया कि यह ‘कंसास’ (अमेरिका का एक शहर) है फिर मुझे एक स्थान पर ले जाया गया उस स्थान के बारे में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं था पर मुझे मेरे मार्ग-दर्शक ने बताया—यहीं पर तुम्हें काम करना है—उसने एक अखबार दिखाया जब तक उसका पहला अक्षर ‘‘यू’’ पढ़ने में आये कई और अखबार उसके हाथ में दिखे और नींद टूट गई।

चार्ल्स फिलमोर एक ईश्वर विश्वासी भक्त व्यक्ति थे उन दिनों वे ध्यान-साधना का अभ्यास कर रहे थे। साथ ही सपने में अखबार की सूचना दी।

वे ध्यान साधना आदि का अभ्यास लोगों को कराते थे। बड़े-बड़े लोग उनसे प्रभावित थे किन्तु प्रचार-प्रसार की बात उनके दिमाग में थी ही नहीं। पर एक दिन कुछ लोगों ने उनके पास आकर इस पुनीत कार्य के प्रचार-प्रसार को देखकर एक संस्था का प्रस्ताव रखा और ‘सोसायटी आफ सायलेंट यूनिटी’ नामक संस्था का निर्माण भी हो गया। कार्यालय के लिये अनायास ही कंसास शहर को लोगों ने प्रस्तावित किया और वही स्थान जिसे फिलमोर ने स्वप्न में देखा था और एक अखबार भी ‘यूनिटी’ नाम से निकाला गया जिसका पहला अक्षर ‘यू’ ही था। बाद में और भी पत्र-पत्रिकायें वहां से छपीं और स्वप्न का तथ्य सत्य हो गया।

सपने ने सम्पन्नता का पथ प्रशस्त किया

संसार की स्वर्ण खदानों में दूसरे नम्बर की खदान वैटिल पहाड़ पर है। उसके मालिक विनफील्ड स्काट स्ट्राटन ने इस खदान को प्राप्त करने सम्बन्धी आत्म विवरण में लिखा है कि वह दुर्भाग्यग्रस्त होकर व्यापार में अपना सब कुछ गंवा बैठा था। दुःखी और उद्विग्न मन को शान्ति देने के लिये इधर-उधर भटकता रहता था। 4 जुलाई 1891 को वह ऐसे ही कोलेरेडो खेत्र के एक खुले मैदान में रात्रि बिता रहा था। सपने में उसने देखा कि एक फरिश्ता आया है और उसे वैटिल पर जाने का रास्ता बता रहा है और एक जगह पर निशान लगाकर बता रहा है कि यहां सोने की खदान है तुम इसे पाकर मालदार बन सकते हो।

स्ट्राटन हड़बड़ा कर उठ बैठा। अपने पास वह जमीन खरीदने और खुदाई करने के लिए पैसा था नहीं सो उसने अपने सम्पन्न मित्रों से सपने की चर्चा की और वहीं खोदने का प्रस्ताव रखा। सभी ने उसका उपहास उड़ाया। भूगर्भ विज्ञानी 18 वर्ष पूर्व उस सारे पथरीले क्षेत्र की भली-भांति खोजकर चुके थे और घोषणा कर चुके थे कि यहां किसी कीमती खनिज के मिलने की सम्भावना नहीं है। अस्तु कोई भी उसका साथ देने के लिए तैयार न हुआ।

स्ट्राटन निराश नहीं हुआ वह अकेला ही वहां पहुंचा। हाथ से खोदने पर ही उसे सोने का डला मिल गया। इसके बाद उसने किसी प्रकार धन जुटाया वह क्षेत्र खरीदा और अरबपति बन गया।

स्वप्नों के संकेत समझना सम्भव हो सके तो यह हमारे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है। जिस स्थूल जगह में हम निवास, निर्वाह करते हैं उसकी जड़ें सूक्ष्म जगत में रहती हैं। पेड़ दीखता है, पर जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं। वस्तुतः पेड़ की विशालता, मजबूती और हरियाली इस बात पर निर्भर रहती है कि उसकी जड़ें कितनी गहरी और सक्षम हैं। इसी प्रकार स्थूल जगत अथवा स्थूल जीवन प्रस्तुत उपलब्धियां सूक्ष्म जगत से ग्रहण करता है। सूक्ष्म को समझ सकने पर ही उसके साथ तालमेल बिठा सकना सम्भव हो सकता है। यह ताल-मेल पूरी तरह तो योग-साधना द्वारा आन्तरिक निर्मलता प्राप्त करने से ही बिठाया जा सकता है, पर उसका आधा-अधूरा काम स्वप्नों के माध्यम से भी चल सकता है। स्वप्नों को स्थूल और सूक्ष्म के बीच की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी कहा जा सकता है।

अविज्ञात की अनुकम्पा से आलोक-दर्शन

विशिष्ट प्रतिभाशाली व्यक्ति कभी भी मात्र स्थूल दृष्टि से ही विकसित नहीं होते। योग-साधना के राजमार्ग से न सही दूसरे किसी ढंग से सही उनकी चेतना विकसित होती रहती है, सूक्ष्म-शरीर प्रखर और पुष्ट होता है। जाने-अनजाने उनका अदृश्य एवं सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध जुड़ा ही रहता है। यही बात योग-साधना न करने वाले किंतु सात्विक, पवित्र भावनाओं, विचारों एवं आचरण वाले धार्मिक लोगों के बारे में भी सच है। अतः ऐसे लोगों को सूक्ष्म जगत से आकस्मिक प्रेरणाएं मिलना स्वाभाविक है। इसी प्रकार अविज्ञात सत्ता अपनी योजनानुसार किसी भी महत्वपूर्ण समस्या के समाधान के लिए, गुत्थी को सुलझाने के लिये प्रकाश देती है।

पुरातत्व वेत्ता प्रो. ह्विल प्रिक्ट एक प्राचीन शिलालेख का अर्थ समझने का प्रयत्न कर रहे थे पर बहुत दिन माथा पच्ची करने पर भी कुछ अर्थ संगति नहीं बैठ रही थी, एक दिन उनने स्वप्न में देखा कि बेबीलोन का कोई पुरोहित उस लेख का अर्थ समझा रहा है, वे हड़बड़ा कर उठे और वह अर्थ नोट कर दिया। दूसरे दिन उनने संगति मिलाई तो अर्थ बिल्कुल सही निकला और उनकी गुत्थी सुलझ गई।

प्राचीन प्राच्य भाषाओं के पण्डित सर ई.ए. वालिस बाज के मन में माध्यमिक शिक्षा काल में ही प्राचीन भाषाओं का विशेषज्ञ बनने की इच्छा जगी। उनकी आकांक्षा से प्रभावित हो तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्री ग्लेडस्टन ने 1878 में उन्हें क्रेम्ब्रिज में भरती करा दिया। यहां उन्होंने एसीरियन भाषा तो सीख ली, पर उससे भी प्राचीन एक्केडियन भाषा बहुत कठिन पड़ती थी। पूरे योरोप में उस भाषा के ज्ञाता दो-चार व्यक्ति ही थे। एक दिन क्राइस्ट कालेज के प्रधानाचार्य ने उन्हें बुलाकर केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित प्राच्य भाषा प्रतियोगिता में सम्मिलित होने तथा प्रथम श्रेणी लाने पर अध्ययन हेतु आर्थिक सहायता मिलने की बात बताई। इस प्रतियोगिता के परीक्षक प्रोफेसर ‘से’ प्राच्य भाषाओं के प्रकांड विद्वान् थे। ‘बज’ का उनसे कोई परिचय भी नहीं था। वे तैयार तो हो गये, पर परीक्षा की कड़ाई का अनुमान उन्हें बेचैन बना रहा था और प्रतियोगिता में न बैठने को प्रेरित कर रहा था। परीक्षा के एक दिन पूर्व बज ने परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया। पर उसी रात उन्हें स्वप्न आया कि वह एक रोशनदान वाले कमरे में परीक्षा देने बैठे हैं। एक अध्यापक आया और उसने कोट की भीतरी जेब से एक लिफाफा निकाला, सील तोड़ी और उसमें से हरे रंग के कुछ पर्चे निकालकर एक पर्चा बज को देते हुए कहा—‘‘लो इन प्रश्नों के उत्तर देने हैं। एसीरियन और एक्कोडियन भाषा के जो अंश दिये हैं उनका अंग्रेजी में अनुवाद करना है’’ इतना कहकर अध्यापक बाहर चला गया और कमरे का ताला लगा गया। स्वप्न में बज ने पर्चे ध्यान से पढ़े। उस रात कई बार नींद टूट-टूटकर लगने पर पुनः-पुनः वे ही पर्चे स्वप्न में सामने आये। इस पर उन्हें विश्वास जम गया कि ये ही पर्चे परीक्षा में आयेंगे और तद्नुकूल ही बज ने तैयारी भी करली। परीक्षा हाल में जाने पर परीक्षा हाल फुल हो जाने से उन्हें स्वप्न में देखे कमरे जैसे कमरे में ही बिठाया गया और अध्यापक ने आकर हरे रंग का ही पर्चा दिया (हरा रंग परीक्षक की आंख दुःखने के कारण किया गया था) जो स्वप्न वाला पर्चा ही था। बज ने बड़ी प्रसन्नता से पर्चा पूर्ण किया और प्रथम आये तथा फैलोशिप एवं आर्थिक सहायता भी प्राप्त की। सन् 1924 तक वे ब्रिटिश म्यूजियम में मिस्त्री और असीरियाई विभाग के प्रधान के पद पर काम करते रहे। स्वाभाविक ही उन्हें वह मार्ग-दर्शक और सहायक स्वप्न कभी भूला नहीं। सिलाई की मशीन के आविष्कारक एलियस होवे ने भी एक ऐसा ही विचित्र स्वप्न देखा जिसने उसकी बड़ी भारी गुत्थी को ही सुलझा दिया। एलियस होवे ने जब अपनी सारी मशीन तैयार करके उसे फिट कर लिया, तब उसकी समझ में आया कि सुई में ऊपर छेद रखने से मशीन सिलाई नहीं कर सकती तो फिर छेद कहां रखा जाये, इसी बात पर सब आविष्कार अटक गया। उसका मस्तिष्क चकरा गया, क्योंकि उसका इतने दिन का परिश्रम व्यर्थ गया, ऐसी स्थिति में सिवाय भगवान का नाम लेने के अतिरिक्त उसे और कुछ न सूझ पड़ा।

होवे ने एक रात स्वप्न देखा। उसने देखा कुछ दस्युओं ने उसे पकड़ लिया है और जंगली जाति के राजा के यहां पकड़कर ले गये। राजा ने कड़ककर कहा—‘‘शाम तक सिलाई की मशीन तुम मुझे सौंप दोगे या नहीं।’’ कुछ न बोलने पर एक सिपाही एक नुकीला भाला लेकर सामने आया और बार-बार छाती की ओर भाला ले जाता पीछे हटाता और फिर वही प्रश्न पूछता बोला—‘‘मशीन शाम तक देगा या नहीं।’’ आविष्कारक....की दृष्टि भाले पर ही थी और वह बहुत डर गया था, सांस तेज हो जाने से नींद टूट गई पर घबड़ाहट अभी ज्यों की त्यों थी। नींद टूटने के बाद भी भाले का आने-जाने वाला दृश्य मस्तिष्क में बराबर झूल रहा था और इसी दृश्य ने उसकी समस्या हल कर दी, उसने मशीन में एक ऐसा पेंच फिट कर दिया जिससे सुई भाले की तरह नीचे-ऊपर जाने लगी और दुस्तर समस्या भी मिनटों में सुलझ गई। मशीनें कई तरह की बन चुकी हैं पर सभी जानते हैं, सिलाई करने वाली सुई हर मशीन में उसी तरह आगे-पीछे जाकर मिलती है।

पेनसिलवेनिया विश्व विद्यालय (अमेरिका) के प्राचार्य लेम्बटन एक वैज्ञानिक गुत्थी को सुलझाने में वर्षों से लगे थे। एक रात को उन्होंने स्वप्न देखा कि सामने की बड़ी दीवार पर उनके प्रश्न का उत्तर चमकदार अक्षरों में लिखा है। जागने पर उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ कि इतना सही उत्तर किस प्रकार उन्हें स्वप्न में प्राप्त हो गया। विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञों में से कई ऐसे हैं जो अपने अविष्कृत सिद्धान्तों की सफलता का श्रेय स्वप्नों में उपलब्ध हुई प्रेरणाओं को देते हैं। इन गणितज्ञों में फुडसियनस्रित और हेनरीफार—के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

महान गणितज्ञ रामानुजम् ने गणित के गूढ़ मसले सपनों में ही हल किये थे। इलाहाबाद पुल की ठीक-ठीक बनावट एक अंग्रेज इंजीनियर को सपने में ही दिखाई पड़ी थी। विश्व-विख्यात गणितज्ञ आइन्स्टीन को एक वैज्ञानिक गोष्ठी में किसी जटिल समीकरण का हल प्रस्तुत करना था। वे कई दिनों से उसे हल करने में लगे थे पर कोई हल निकल नहीं पा रहा था। एक दिन पूर्व वे सोये, तब तक वह प्रश्न हल न हो पाया था पर सो जाने के उपरान्त न मालूम किस अज्ञात सत्ता ने उन सारे कठिन सन्दर्भों को सरल बनाकर आइन्स्टीन को उनके प्रश्न का समाधान प्रस्तुत कर दिया। स्वप्न टूटने के बाद आइन्स्टीन ने स्वप्न में देखे गये दृश्य के अनुसार फिर से प्रश्न को हल किया और उसका सही उत्तर उन्हें मिल गया। ऐसा उनके जीवन में कई बार हुआ। इसीलिये वे कहा करते थे स्वप्नों में कोई सत्य है जो हम वैज्ञानिक समझ नहीं पा रहे। इस प्रकार जिस अवचेतन की झलकियों के सहारे गणितज्ञों ने जटिल ‘प्राब्लम्स’ सुलझाईं हैं, वैज्ञानिकों ने महत्वपूर्ण आविष्कार किये हैं, कवियों ने अमर काव्य कृतियां रची हैं, कथाकारों और नाटककारों ने रचनाओं के आधार प्राप्त किये हैं, उसका विश्लेषण कोई सामान्य बात नहीं है। हर किसी के लिए यह सम्भव भी नहीं होगी। वस्तुतः इन तथ्यों का विज्ञान के पास अभी तो कोई समाधान नहीं है। यदि होता तो उसे प्रस्तुत किया जाता। विज्ञान का क्षेत्र सीमित है, आत्मा का अनन्त। विज्ञान मनुष्य की समस्यायें जितना सुलझाता है उससे अधिक उलझा देता है, जबकि आत्मा का ज्ञान हमारी मूल समस्या और प्रश्न है। उसका समाधान आत्मानुवर्ती होने पर ही हो सकता है। आत्मा के तथ्यों की खोज और उसे प्राप्त किये बिना चैन नहीं, सुख और शान्ति नहीं।

भारतीय तत्व-दर्शन में इस सम्बन्ध में गूढ़ व्याख्यायें हैं, उनसे नई शोध और उपलब्धियों के मार्ग भी निकलते हैं। इसकी प्रामाणिकता को कसौटी पर कस कर देखा भी जा सकता है।

भारतीय योगी और तत्त्व दर्शी आचार्यों के मतानुसार आत्मा और सूर्य में सादृश्यता है। अर्थात् हमारी आत्मा या सूर्य दोनों एक ही हैं। मन शरीर का प्रतिनिधि और आत्मा का अध्ययन करने वाला, जब निद्रावस्था से सुषुम्ना प्रवाह (इसे जीवन रेखा भी कहते हैं) में घूमता है, तब उसका सम्बन्ध शरीर की समस्त नस, नाड़ियों, 33 अस्थि खण्डों से जुड़ जाता है। योग द्वारा देखा गया है कि मेरुदण्ड के पोले भाग में सुषुम्ना के भीतर अनेक परतों में छिपे हुये अनेक सूक्ष्म जगत हैं, जिनका सम्बन्ध आकाश की दिव्य शक्तियों से है।

सामान्य अवस्था में दूषित आहार-विहार के कारण मन भी दूषित होता है, इसलिये निद्रावस्था में मन जीवन रेखा पर भ्रमण करते हुये भी सूक्ष्म लोकों में अन्धकार ही देखता है। पर जिनके मन शुद्ध होते अर्थात् उनमें काम, क्रोध, मोह, क्षोभ, प्रतिशोध आदि विकार नहीं होते, उन्हें जीवन रेखा पर चलते हुये अनेक दृश्य ऐसे दिखाई देते हैं, जिनका सम्बन्ध हमारे निजी जीवन या पृथ्वी के किसी भी भाग से सम्बन्धित हो सकता है। कई बार प्रकाश चन्द्रमा या सूर्य के बिम्ब की अनुभूति होती है, यह आत्मा के साथ आंशिक साक्षात्कार होता है। इस स्थिति के स्वप्न प्रायः बहुत ही स्पष्ट और सत्य होते हैं।

बाइबिल के पंडित पैरासेल्सस ने भी ऐसी ही व्याख्या की है। उन्होंने लिखा है—सूर्य भूमध्य-रेखा को पार करता है, 21 मार्च एवं 21 सितम्बर को वह एक्वेरियस में गिरता है। यहां से चन्द्रमा (लियो) का क्षेत्र प्रारम्भ होता है। चन्द्रमा की सूक्ष्म शक्तियों का सम्बन्ध हृदय से है। यदि मनुष्य का मन शुद्ध है, अन्तर्मुखी है तो स्वप्नावस्था में मनुष्य को इसी गति का बोध होता है। अर्थात् मनुष्य की निद्रावस्था सूर्य की दूसरी कक्षा में परिचालन में जो कि अधिक विराट् अन्तरिक्ष को प्रभावित करती है, अपनी अनुभूति होती है। वह मन द्वारा चन्द्रमा के प्रकाश या तत्त्व के कारण होती है।

उस अवस्था में सूर्य का सूक्ष्म प्रकाश अपनी पृथ्वी के अयन-मंडल (अयनोस्फियर) को भी प्रभावित करता रहता है, इसलिये हमारे बहुतायत स्वप्न पृथ्वी की परिधि के भी होते हैं, किन्तु उस समय चेतना अपने शाश्वत स्वरपू में होती है, इसलिये वह अनुभूतियां जागृत अनुभवों से भिन्न प्रकृति की होती हैं। जब हमारी आत्मा इतनी पवित्र होती है कि उसमें सूर्य के प्रकाश जैसी पवित्रता आ जाती है तो हमारे स्वप्न बहुत स्पष्ट, ऊर्ध्वमुखी, आशयपूर्ण और सुखदायक होते हैं, गायत्री उपासकों के स्वप्न इसीलिये बहुत सार्थक, स्पष्ट और भविष्य का ज्ञान कराने वाले होते हैं, क्योंकि वे सूर्य की अदृश्य शक्ति-धाराओं से प्रभावित होते हैं, गायत्री उपासक ही नहीं, जिनकी आत्मायें गुण, कर्म, स्वभाव से जितनी अधिक पवित्र होंगी, उन्हें उतनी ही स्पष्ट अनुभूतियां होंगी, वे भले ही किसी देश, प्रान्त या काल के निवासी हो।

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, स्वप्नावस्था सूर्य की विपरीत स्थिति में अनुगमन का ही परिणाम होती है, इसलिये सूर्य चेतना की तरह ही स्वप्न स्पष्ट और प्रकाशपूर्ण होती है। ‘अर्थात् उस समय हम सूर्य शक्ति के आंशिक साक्षात्कार में डूबे हुये होते हैं, कई बार स्वप्न में सूर्य या चन्द्रमा के बिम्ब स्पष्ट प्रकट होते हैं, वह क्षणिक आत्मबोध की अनुभूतियां होती हैं, सिद्धि का स्वरूप उसी का अपरिवर्तित रूप कहा जा सकता है और इसीलिये कहा जाता है कि योगी कभी सोता नहीं—‘‘या निशा सर्वभूतानां तस्यामि जागर्तिसंयमी।’’ योग सिद्ध पुरुष स्वप्न अवस्था में भी पृथ्वी के उस भाग में जहां सूर्य रहता है, अपने सूक्ष्म शरीर में रहता है और सूर्य प्रकृति के साथ उसका तादात्म्य होता है, सूर्य की चेतना सर्वदा एक-सी रहती है, इसीलिये उस योगी की चेतना भी काम करती है। अर्थात् वह उस अवस्था में किसी को स्थूल सन्देश प्राण या प्रकाश तक दे सकता है। दो पवित्र आत्माओं की भेंट से दूर-दर्शन दूर-श्रवण भी इसी सिद्धान्त का फलित है।

यह पूछा जा सकता है कि जीव चेतना की आत्मचेतना में परिणित किस प्रकार होती है। यह जानने के लिये हमें सुषुम्ना शीर्षक के अक्षर होने वाले प्राण प्रवाह और उसके सात केन्द्रों का अध्ययन करना पड़ेगा। इसी सूक्ष्म संस्थान में ब्रह्मांड को बीज रूप में उतारा गया है और वह अदृश्य केन्द्र बनाये गये हैं, जो सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी आदि में, अवचेतन मन (सवकांसस) सुषुम्ना शीर्षक में प्रवेश करता है। जिसे ‘एक्वेरियन’ कहते हैं और जिस पर सूर्य शक्ति का परिभ्रमण होता है, वह इसी सुषुम्ना की ही सूक्ष्म-शक्ति-धारा है। सिमपेथेटिक मस्तिष्क प्रणाली की नसें भी—ग्रन्थियों की दो जंजीरों की तरह रीढ़ की हड्डी के दोनों तरफ होती है और उसमें ने नसों के रेशे दिल, पेट, आंतें एवं अन्य मुख्य अंगों तक जाते हैं। मस्तिष्क कोष से सम्बन्धित रिफ्लेक्स आर्क जो नस रेशों से सम्बन्धित रहता है, बिना मस्तिष्क को समाचार पहुंचाये ही सुषुम्ना द्वारा मांसपेशियों के वातावरण के अनुकूल हरकत कराता रहता है, इसलिये मूल चेतना से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर भी मनुष्य शरीर जीवित बना रहता है और उतने समय में वह चेतना सुषुम्ना के भीतर पीले भाग में परिभ्रमण करती हुई, उन उन शक्ति-केन्द्रों के अनुभव और तन्मात्रायें ग्रहण करती हैं।

विज्ञान ने भी अब तक रीढ़ से लेकर दुम तक ऐसी 49 ग्रन्थियों की जानकारी प्राप्त की है और यह स्वीकार किया है कि उनमें से 7 का विशेष महत्व है और उनसे दिव्य गंधों, दिव्य शब्दों एवं दिव्य प्रकाशों, जैसे सूक्ष्म-तत्वों की अनुभूतियां मनुष्य को हो सकती हैं। इतना मानकर भी वैज्ञानिक यह नहीं जान पाये हैं कि यह शक्ति-केन्द्र क्या वस्तुतः तात्विक रूप से किन्हीं आकाशीय नक्षत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, इसे योगियों ने ध्यान नेत्रों से देखा और पहचाना कि यह शक्ति धारायें अस्थि खण्डों के तैंतीस सूत्रों में और शरीर की 72 हजार नाड़ियों में किस प्रकार प्रवाहित होकर चेतना को मूल ब्रह्मांड से जोड़ती हैं। इस समय मस्तिष्क की तिल्ली से अदृश्य नक्षत्रों की शक्तियां शरीर में खिंची चली आती और गुलाब के फूल की तरह शरीर में फैलती रहती हैं, इस अवस्था में अपने भीतर से भी सन्देश प्रकाश और भावनायें औरों को प्रेषित की जा सकती हैं पर यह सब मानसिक शक्तियों के नियन्त्रण और आत्मिक शुद्धता पर निर्भर है।

स्वप्न इन्द्रियातीत अनुभूतियां होती हैं, यह अनुभूतियां उतनी ही सत्य और स्पष्ट हो सकती हैं, जितना शुद्ध और अन्तर्मुखी हमारा अन्तःकरण हो। कई बार दुष्ट और दुराचारी लोगों को भयंकर स्वप्न दिखाई दिये हैं पर वह उन्हें आत्म-शक्ति के द्वारा चेतावनी जैसे रहे हैं, जिनसे अनेक लोगों को अपनी जीवन दिशायें बदलते देखा गया है। अपनी वृत्तियों को शुद्ध बनाकर प्रकाशमय बनाकर सरल और संवेदनशील बनाकर हम भी इस ईश्वरीय शक्ति का अपने जीवन में महत्वपूर्ण उपभोग कर सकते हैं।

यह सच या वह सच

मिथिला पर किसी शत्रु नरेश ने आक्रमण कर दिया है। उसकी अपार सेना ने नगर को घेर लिया है संग्राम छिड़ गया है मिथिला की सेनायें शत्रु सेनाओं का डटकर मुकाबला कर रही हैं परन्तु विजय शत्रु के पक्ष में ही जाती हुई प्रतीत होती है और यह मिथिला की सेनायें हार भी गयी।........महाराज जनक पराजित हुए......विजयी शत्रु ने आज्ञा दी—‘मैं तुम्हारे प्राण तो नहीं लेता किन्तु तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम अपने सभी वस्त्राभूषण उतार दो और इस राज्य से निकल जाओ।’ राजा जनक ने अपने राजकीय वस्त्र और तमाम आभूषण उतार दिये। केवल एक छोटा-सा वस्त्र कटिप्रदेश पर रह गया। जनक पैदल ही राजमहल से निकल पड़े। सोचा किसी नागरिक से प्रश्रय मांगेंगे। परन्तु उनके सड़क पर आने से पूर्व ही यह राजाज्ञा सुनाई दी निर्वासित जनक को जो भी नागरिक आश्रय या आहार देगा उसे प्राण दण्ड दिया जायेगा।

विवश जनक ने उसी स्थिति में मिथिला प्रदेश की सीमा से बाहर जाने का निश्चय किया। फलतः कई दिनों तक अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया। जनक अब राजा नहीं एक भिक्षुक हैं.........राज्य से बाहर एक अन्य क्षेत्र दिखाई देता है........जनक वहां पहुंच जाते हैं....किन्तु अन्न क्षेत्र के द्वार बन्द हो रहे हैं क्योंकि सारी खाद्य सामग्री बंट चुकी है। जनक बड़ी दीनता से याचना करते हैं और अन्नक्षेत्र का अधिपति थोड़ा-सा बचा हुआ चावल लाकर जनक की फैली हथेलियों पर रख देता है। इस दशा में ही वरदान प्रतीत होता है। उसे मुंह में रखने का हाथ आगे बढ़ाते ही है कि न जाने कहां से एक चील झपट पड़ती है और सारा चावल धूल में बिखर जाता है। ‘हे भगवान्’—मारे व्यथा के जनक चीख के साथ हो उनकी निद्रा टूट जाती है। स्वप्न टूट जाता किन्तु शरीर अभी भी पसीना पसीना हो रहा है। आसपास सोयी रानियां और सेवक भी चीख सुनकर जाग उठे। जनक आंखें फाड़-फाड़कर अपने चारों ओर देखने लगे सुसज्जित शयन कक्ष, स्वर्ण रत्नों से लदा हुआ पलंग, दुग्ध फेन सी श्वेत कोमल शय्या। रानियां पास खड़ी हैं और सेवक-सेविकायें भी हतप्रभ से उन्हें देख रही हैं।

स्वप्न का प्रभाव इतना गहन हुआ था कि जो भी सामने आते वे उसी से यह प्रश्न करते—‘यह सच या वह सच?’ योगिराज अष्टावक्र से भी उन्होंने यही प्रश्न किया। अष्टावक्र ने योग बल से इस प्रश्न के उद्गम को समझा और पूछा—महाराज? जब आप कटिप्रदेश में एक वस्त्र लपेट अन्नक्षेत्र के द्वार पर भिक्षुक के वेश में दोनों हाथ फैलाये खड़े थे और अधिपति ने जब आपकी हथेली पर बचा हुआ चावल रखा था, उस समय यह राजभवन, आपका यह राजवेश, ये रानियां, मन्त्री और सेवक-सेविकाओं में कौन आपके पास था?’

जनक ने कहा उस समय तो इनमें से कोई भी मेरे पास नहीं था भगवन्! उस समय तो विपत्ति का मारा मैं अकेला ही था।

‘और राजन्! जागने पर जब आप इस राजवेश में राजभवन के अन्तःपुर में स्वर्ण-रत्नों से निर्मित पलंग पर आसीन थे तब वह अन्नक्षेत्र, उसका वह कर्मचारी, वह आपका भिक्षुवेश, वह अवशिष्ट खाद्य क्या था आपके पास?’

‘कुछ भी नहीं महात्मन्! मेरे पास कुछ भी नहीं था। परन्तु दोनों अवस्थाओं में आप तो थे न?’ अष्टावक्र ने फिर पूछा। हां कहने पर वे फिर बोले—जो क्षणिक और काल के अधीन है वह सच नहीं हो सकता। न यह सच है, न वह सच था, सब अवस्थायें हैं। परन्तु अवस्थाओं से भी परे जो आत्मतत्व साक्षी रूप से उन्हें देखता वही सच है। अतः राजन् उसी सत्य को जानना, मानना और ग्रहण करना चाहिए।’ और तभी से जनक अनासक्त भाव से अपने कर्त्तव्यों को पूरा करते हुए आत्मदेव की आराधना में लग गये। यह पौराणिक आख्यायिका स्वप्नों के प्रभाव पर तो प्रकाश डालती ही है, इस तथ्य को भी स्पष्ट करती है कि स्वप्न-जगत जागृत अवस्था के सुपरिचित यथार्थ जगत से भिन्न होते हुए भी, सर्वथा अयथार्थ नहीं है। यों भी, स्वप्न शब्द का प्रयोग अयथार्थ के लिए नहीं असामान्य मानसिक अवधारणाओं के लिये किया जाता है। जैसे गांधीजी का स्वप्न था कि स्वतन्त्र भारत में रामराज्य की स्थापना हो। मार्क्स का स्वप्न था कि सर्वहारा की तानाशाही के माध्यम से समाज का वर्ग-वैषम्य पाटा जाए और अन्ततः वर्गहीन समाज की स्थापना हो। इस प्रकार के वाक्यों में स्वप्न को दुष्कर संकल्पनाएं, कठिन योजनाएं तथा असामान्य आकांक्षाएं तो कहा जाता है, किन्तु सर्वथा असम्भव या असत्य कल्पना, आकांक्षा या योजना उन्हें नहीं माना जाता। इसलिये स्वप्नों को ऐसे प्रचलित शब्द प्रयोगों में भी असत्य या निराधार दिमागी उड़ान नहीं माना जाता। तब फिर प्रश्न यह उठता है कि स्वप्न सच हैं या झूंठ? यदि स्वप्न सर्वथा झूंठ हैं तो उनका सत्य के साथ कई बार स्पष्ट सम्बन्ध कैसे देखने में आता है यदि सत्य हैं, तो फिर जागृत स्थिति में आते ही उनका सारा विस्तार कहां सहसा सिमटकर जा छिपता, अदृश्य हो जाता है? यदि स्वप्न सच हैं तो जागृति क्या हैं? यदि जागृति सच है तो स्वप्न क्या हैं?

भारतीय दर्शन-शास्त्रों के अनुसार जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। जागृति, सुषुप्ति, स्वप्न। तीनों ही स्थितियों में एक ही आत्म-सत्ता क्रियाशील रहती है। जैसा कि अष्टावक्र ने जनक से कहा था सत्य तो बस वह आत्मतत्व है, जो इन तीनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता व इनका साक्षी और दृष्टा रहता है तथा इनसे परे भी है। अतः स्वप्न एक अवस्था विशेष है। उसे सच या झूठ कहकर नहीं टाला जा सकता। अपितु उसका सही-सही स्वरूप समझना आवश्यक है। उसमें कितना और कैसा सच है, कितना झूठ, कितना सार है, कितना असार इसे विस्तार से समझना आवश्यक है।

कोई समय था जब हर स्वप्न में कुछ न कुछ अर्थ, रहस्य या सन्देश सन्निहित समझा जाता था, जो लोग स्वप्नों की व्याख्या कर सकते थे उन्हें बड़ा सम्मान मिलता था। ईसा की दूसरी शताब्दी में आर्तमिदोरस नामक एक इटली निवासी विद्वान ने इस सन्दर्भ में एक पुस्तक लिखी थी पुस्तक का नाम था—ओतीरोक्रिटक—अर्थात् स्वप्नों की व्याख्या करने के सिद्धान्त। उन दिनों इसकी प्रतियां नकल करके बनाई जाती थीं। पीछे पन्द्रहवीं शताब्दी में जब प्रेस का आविष्कार हुआ तो यह छपी और वह लोकप्रिय रही। इसके बाद और भी कई स्वप्न कोण छपे जिनमें हर स्तर के स्वप्नों की अकारादि क्रम से व्याख्या होती थी।

पुराने जमाने में ऐसा समझा जाता था कि सोते समय आत्मा शरीर से निकल कर भ्रमण करने चला जाता है और वह वहां जो कुछ देखता है लौटकर पुनः शरीर में प्रवेश करने पर स्वप्न कहता है। उन दिनों गहरी नींद में सोये हुए किसी व्यक्ति को जगाना बुरा समझा जाता था क्योंकि जल्दी जगा देने से सम्भव है भ्रमणकारी आत्मा तत्काल शरीर में न लौट सके और उसकी मृत्यु हो जाय।

इस प्रकार स्वप्नों के सम्बन्ध में चित्र-विचित्र मान्यताएं प्रचलित हैं। समझा जाता है कि स्वप्नलोक कुछ अलग-सी वस्तु है। कहा जाता है कि सोते समय जीव इस शरीर से निकल कर कहीं अन्यत्र चला जाता है और वहां के चित्र-विचित्र दृश्य देखकर निद्रा भंग होने तक शरीर में फिर वापिस लौट आता है। एक लोक मान्यता यह भी है कि—स्वप्नों में अदृश्य संकेत रहते हैं कोई मृतात्माएं तथा देवता अपना छद्म परिचय देते हैं। ऐसा भी अनुमान लगाया जाता है कि उनमें भविष्य के संकेत रहते हैं। इस प्रकार की अनेकों मान्यताएं प्रचलित हैं। स्वप्नों को एक रहस्यवाद तो हर कोई समझता है और जानना चाहता है कि आखिर वे हैं क्या? उनका आधार किन तथ्यों पर अवलम्बित है।

भारतीय प्रतिपादन के अनुसार सभी स्वप्न कोई काल्पनिक विचार या पेट की खराबी से मस्तिष्क के गर्म हो जाने के फलस्वरूप दिखाई पढ़ने वाले ऊल-जलूल दृश्य मात्र नहीं हैं, वरन् उनका सम्बन्ध मानसिक और आध्यात्मिक जगत् से है। उनकी मान्यता है कि स्वप्न पूर्व और वर्तमान जन्मों के संस्कारों और कर्मों के फलस्वरूप दिखाई देते हैं और उनका कुछ न कुछ आशय और परिणाम भी अवश्य होता है। हमारे देश के अधिकांश व्यक्ति तो उनको शुभाशुभ घटनाओं का सूचक मानते हैं और उनकी यथार्थता में बहुत विश्वास रखते हैं।

अन्य अनेक महत्वपूर्ण विषयों की तरह स्वप्न सन्दर्भ में भी विज्ञान ने शोध प्रयत्न किये हैं और एक हद तक रहस्योद्घाटन में सफलता पाई है। जो अब तक जाना जा चुका है मनोविज्ञान शास्त्र के अन्तर्गत आता है। विशेषतया अचेतन मन की गतिविधियों से उसका सम्बन्ध समझा गया है। यह शोध क्षेत्र परामनोविज्ञान—पैरा साइकालाजी के अन्तर्गत माना गया है। और पिछली एक शताब्दी से विज्ञान क्षेत्र में इनकी काफी खोज-बीन हुई है। जो तथ्य सामने आये हैं उनके आधार पर कुछ प्राथमिक निष्कर्ष निकल आये हैं और उनके सहारे खोज टटोल करते हुए आगे बढ़ चलने का उपक्रम किया जा रहा है।

नींद को दो भागों में विभक्त किया गया है—(1) शान्त निद्रा (2) क्रियाशील निद्रा। क्रियाशील निद्रा को वैज्ञानिक भाषा में ‘‘रैपिड मूवमेन्ट’’ या ‘‘रैम’’ कहा जाता है। स्वप्न सदैव क्रियाशील निद्रा में ही आते हैं। जैसा कि नाम द्वारा स्पष्ट है, इस अवस्था में आंखों की गतिविधि तीव्र होती है। ‘एलेक्ट्रोन एसेकेलोग्राफ’ (ई.ई.जी.) नामक यन्त्र द्वारा जाना गया है कि क्रियाशील निद्रा की स्थिति में व्यक्ति व्यग्रता परेशान रहता है। स्वेद ग्रन्थियां अधिक सक्रिय हो जाती हैं।

सोने के बाद पहला स्वप्न घण्टे भर के बाद ही दिखाई देता है। प्रत्येक व्यक्ति प्रति रात्रि स्वप्न अवश्य देखता है। वे उसे याद रहें अथवा नहीं। स्वप्नों की तीव्रता और आवेग के क्रम से नेत्रों की पुतलियां भी घूमती चलती हैं। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति हर रात 5-6 औसतन देखता है। एक स्वप्न-दर्शन की अवधि में व्यक्ति करवट कभी नहीं बदलता। स्वप्न-दर्शन के समय पुतलियों की गतिविधि वैसी ही होती हैं जैसी कोई फिल्म देखते समय।

आधुनिक स्वप्न-शास्त्रियों के अनुसार स्वप्न भी दो तरह के हैं—(1) सक्रिय (2) निष्क्रिय। सक्रिय-स्वप्न वे हैं जिनमें व्यक्ति स्वयं को किसी कार्य में संलग्न देखता है। निष्क्रिय स्वप्न वे हैं, जिनमें व्यक्ति दर्शक की तरह स्वप्न-दृश्य देखता है स्वयं को कोई क्रिया करते नहीं देखता। इसी स्थिति में व्यक्ति को कभी-कभी नूतन विचार प्राप्त हो जाते हैं।

स्वप्न देखते समय जो शक्ति व्यय होती है, वह प्राप्त लाभ की तुलना में अत्यल्प होती है। वस्तुतः स्वप्नों के द्वारा हम अवचेतन के तनावों से मुक्ति पा जाते हैं। स्वप्न के समय भी मस्तिष्क में ‘अल्फा’ तरंगें क्रियाशील होती हैं, जो कि जागृत एवं अर्द्ध जागृत दशा में ही चलती हैं, गहरी निद्रा में नहीं। इससे विदित यही होता है कि स्वप्न-दशा जागृति की सर्वथा विरोधी दशा नहीं है। जिसे हम जागृति कहते हैं, वह चेतन-मस्तिष्क की सक्रियता की स्थिति है। जब कि स्वप्न अवचेतन की सक्रियता अवधि का नाम है। इस सक्रियता के विभिन्न लाभ एवं उपयोग संभव हैं।

सामान्य दैनन्दिन जीवन में अधिकांश काम जो हम करते हैं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वे अर्ध-निद्रा की ही स्थिति में सम्पादित होते हैं। अनुमानतः प्रति घन्टे में मात्र एक मिनट ही सामान्य व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करते हैं, जिसके लिए पूर्ण एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती हो। सोने के आठ घन्टे निकाल दिये जायें, तो दिन-रात में शेष रहे सोलह घन्टों में से हम केवल सोलह मिनट के ही लिए सच्चे अर्थों में चेतना जागृत रहते हैं। इसी प्रकार अवचेतन का पूर्ण जागरण भी कभी-कभी ही होता है। नोबुल विजेता प्रो. एडगर एड्रानेन के अनुसार सोने के समय हमारे मस्तिष्क का अवचेतन क्रमशः सक्रिय होता है क्योंकि उस पर से दबाव धीरे-धीरे हटता जाता है चेतन मस्तिष्क जिस क्रम से शिथिल होता चलता है, अवचेतन उसी क्रम से सक्रिय।

सोने के लिए लेटने पर आंखें बन्द करने के बाद मस्तिष्क, तरंगों का कम्पन क्रम बदलता है—अपेक्षाकृत हल्के स्वर तरंगित होने लगते हैं। जब दिन भर की घटनाओं पर मस्तिष्क तेजी से दौड़ता है, तो मस्तिष्क तरंगें एक विशेष गति से चलती हैं। थोड़े उतार-चढ़ाव के बाद मस्तिष्क की तरंगें तेजी से थर्राने लगती हैं, यदि उन्हें ई.ई.जी. यन्त्र पर अंकित देखा जाए तो उनकी प्रति सैकिण्ड आवर्तता बढ़ चुकी होती है। यह प्रारम्भिक निद्रा की स्थिति है। क्रमशः यन्त्र पर मस्तिष्क—तरंगें समतल-सी अंकित होने लगती हैं, यह गहरी निद्रा की स्थिति है।

अचेतन मन की शक्ति असीम है। चेतन बुद्धि संस्थान उसकी तुलना में अत्यन्त तुच्छ है। सोचने, समझने, निष्कर्ष निकालने, कल्पनाएं करने में बुद्धि संस्थान अपना काम करता है। उसी के आधार पर कौशल एवं चातुर्य की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं। किन्तु आश्चर्य यह है कि इतने पर भी कुछ ठोस और स्थिर कार्य कर सकना इस संस्थान के लिये सम्भव नहीं होता। यहां विचारों के आंधी-तूफान चलते रहते हैं। वे प्रायः विसंगत और कभी-कभी परस्पर विरोधी भी होते हैं। ऐसी दशा में मनःस्थिति हवा के झोंकों की तरह उड़ते-फिरते रहने वाले पत्ते की तरह होती हैं। उमंगें पानी के बबूले की तरह उठती, उछलती और बात की बात में ठण्डी होती रहती हैं। अधिकांश मनुष्यों की यही स्थिति होती है। कई बार वे ऊंची-ऊंची कल्पनाएं करते और योजनाएं बनाते हैं। उत्साह आवेश में कुछ कदम भी आगे बढ़ाते हैं। पर जोश देर तक काम नहीं देता। कुछ ही दिन में शिथिलता आने लगती है और आदर्शवादी योजनाएं ठप्प हो जाती हैं। जीवन-क्रम पुराने ढर्रे की धुरी पर घूमने लगता है। महत्वपूर्ण निर्णयों की प्रायः ऐसी ही दुर्गति होती है। उत्कृष्ट जीवन जीने और महत्वपूर्ण काम करने की आकांक्षाएं अनेकों के मन में अनेकों बार उठती हैं। पर वह कल्पना बनकर रह जाती हैं। कारण कि कार्य करने—स्थिरता रखने और निरन्तर प्रेरणा देने की क्षमता का केन्द्र अन्तर्मन है। उसका स्तर जिस प्रकार का बन गया होगा उसी पटरी पर जीवन रेल के पहिये लुढ़कते चले जाते हैं।

सिंह जब स्वतन्त्र होता है तो वन का राजा कहलाता है। किन्तु जब वह सरकस वालों के चंगुल में फंस जाता है तो दुर्बल से ‘रिंग मास्टर’ के उंगली के इशारे पर उसे नाचना पड़ता है। यही स्थिति अन्तर्मन की है। बुद्धि जागृत रहने पर वह दबा रह जाता है। किन्तु जैसे ही सोते समय जागृत मस्तिष्क प्रसुप्ति अवस्था में जाता है वैसे ही उसे स्वतन्त्रता की सांस लेने का अवसर मिल जाता है और स्वेच्छाचारी क्रीड़ा विनोद करने लगता है। यही स्वप्नावस्था है।

चूंकि उस समय सभी इन्द्रियां सोई पड़ी रहती हैं इसलिए उनके सहारे जागृत व्यवस्था की तरह अनुभूतियां लेने, देखने, सुनने आदि के बुद्धि संगत एवं वास्तविक अवसर तो नहीं मिल पाते किन्तु मस्तिष्क क्षेत्र में जो असंख्य कल्पना चित्र छिपे पड़े रहते हैं उनको खिलौना बनाकर अन्तर्मन अपनी बाल-क्रिड़ा आरम्भ कर देता है। विगत दृश्यों, घटनाओं, स्मृतियां एवं जानकारियों को रंग-बिरंगी गेंदें कहा जा सकता है। खेल इन्हीं की उठक-पटक से शुरू होता है और स्वप्नों का सिनेमा दीखना शुरू हो जाता है। उस स्थिति में अन्तर्मन निर्भय और निश्चित होकर जो कुछ कर रहा होता है उसे स्वप्न स्थिति समझना चाहिए। अस्तु इस मुफ्त की फिल्मों का विश्लेषण करते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्तित्व के अन्तर्तम स्थल पर क्या कुछ बन या पक रहा है। जानकारी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसे रोग परीक्षा में रक्त, मल, मूत्र आदि का विश्लेषण करके निदान करने की तरह चेतना की परतों के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। तदनुरूप आत्म-परिष्कार की उपयुक्त पृष्ठभूमि बनाई जा सकती है। शक्ति का केन्द्र अन्तर्मन है। वही समूचे व्यक्तित्व का संचालन करता है। यदि स्वप्नों के आधार पर आन्तरिक दुर्बलताओं और क्षमताओं की वर्तमान स्थिति जानी जा सके तो परिशोधन और उन्नयन का द्वार खुल सकता है। इस प्रकार स्वप्न विज्ञान के आधार पर वही लाभ उठाया जा सकता है जो स्वास्थ्य विज्ञान एवं चिकित्सा शास्त्र के आधार पर शरीर की दुर्बलता एवं रुग्णता हटाने के लिए होता रहता है।
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