युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

प्रतिभा संवर्धन हेतु निर्धारित विज्ञानसम्मत प्रयोग-उपचार

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प्रतिभा परिष्कार के लिए व्यक्ति की प्रामाणिकता और प्रखरता के दोनों पक्ष समान रूप से मजबूत बनाने पड़ते हैं। भावभरी उमंग उत्साहों से सनी एकाग्र तन्मयता उभारनी पड़ती है। साथ ही समय को श्रम के साथ ही अविच्छिन्न रूप से जोड़े रहने वाली तत्परता या श्रमशीलता कार्यान्वित करनी पड़ती है। संकीर्ण स्वार्थपरता के दायरे से आगे बढ़ना होता है, ताकि सादाजीवन- उच्चविचार की रीति- नीति अपनाने के साथ ही बचे समय, श्रम और साधनों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में- लोक सेवा में लगाया जा सके। उच्चस्तरीय प्रतिभा का संवर्धन इसी प्रकार होता है।

    यहाँ प्रतिभा का आशय सदैव आदर्शोन्मुख बुद्धि व भावना के समन्वित विकास से लिया जाना चाहिए। ऐसे प्रतिभा संपन्न ही स्वयं को प्रेरणापुंज आदर्शों के प्रतीक के रूप में उभारते एवं स्वयं को ही नहीं, समय को भी निहाल करते हैं। चर्चा इसी प्रतिभा के विकास से संबंधित उपचारों की चल रही है।

    क्या ऐसा भी संभव है कि बालकों को लिखने की पट्टी पर मनके सरकाकर गिनती सिखाने, अथवा तीन पहिए की गाड़ी का सहारा लेकर चलना सिखाने की तरह, किन्हीं अभ्यासों के माध्यम से जनसाधारण को भी प्रतिभा संपादित करने की दिशा में अग्रसर किया जा सकें? उत्तर हाँ में भी दिया जा सकता है। जनसामान्य शारीरिक अंग- अवयवों की पुष्टाई के लिए अखाड़े जाने की विधि- व्यवस्था बताते हैं। अखाड़ों में निर्धारित अभ्यासों को अपनाया, शारीरिक अंगों को सशक्त बनाने के लिए व्यायामों का उपक्रम एवं आहार में परिवर्तन अभीष्ट माना जाता है। ऐसे ही कतिपय साधना- उपक्रम प्रतिभा परिष्कार के संदर्भ में भी निर्धारित हैं और वे बहुत हद तक सफल होते भी देखे गए हैं। ऐसे कुछ आधारों का, जिनका ब्रह्मवर्चस की शोध- प्रक्रिया में प्रयोग किया जाता है अथवा जिन्हें वर्तमान या संशोधित रूप से प्रयुक्त किए जाने की संभावना है, उनका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।

    (१) स्वसंकेत (ऑटोसजेशन) -- शांत वातावरण में स्थिर शरीर और एकाग्र मन में बैठा जाए। भावना की जाए कि अपने मस्तिष्क केंद्र से निस्सृत प्राणविद्युत का समुच्चय शरीर के अंग- अवयवों में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में प्रवाहित हो रहा है। शिथिलता का स्थान समर्थ सक्रियता ग्रहण कर रही है। उस आधार पर प्रत्येक अवयव पुष्ट हो रहे हैं। इंद्रियों की क्षमता का अभिवर्धन हो रहा है। चेहरे पर चमक बढ़ रही है। बौद्धिक स्तर में ऐसा उभार आ रहा है जिसका अनुभव प्रतिभा परिवर्धन के रूप में अपने को तथा दूसरों को हो सके।

    वस्तुतः: स्वसंकेतों में ही मानसिक कायाकल्प का मर्म छिपा पड़ा है। श्रुति की मान्यता है कि यो यदृच्छ: स एव स: अर्थात् जो जैसा सोचता और अपने संबंध में भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है। विधेयात्मक चिंतन महापुरुषों के गुणों के अपने अंदर समावेश होने की भावना से, सजातीय विचार खिंचते चले आते हैं व वांछित विद्युत प्रवाहों को जन्म देने लगते हैं।

    मनोवैज्ञानिक इसी आधार पर व्यक्तित्व में, विचार- प्रवाह में परिवर्तन लाने की बात कहते हैं। उनका मत है कि जैसे पृथ्वी के चारों ओर आयनोस्फीयर होती है, उसी प्रकार मानवी मस्तिष्क के चारों ओर भी एक आयडियोस्फीयर होती है। यह वैसा होता है जैसा मनुष्य का चिंतन- क्रम होता है। क्षणमात्र में यह बदल भी सकता है और पुन: वैसा ही सोचने पर पूर्ववत् भी हो सकता है। इसी चिंतन प्रवाह के आदर्शोन्मुख, श्रेष्ठता की ओर गतिशील होने पर व्यक्ति का मुखमंडल चमकने लगता है और वह दूसरों को आकर्षित करता है। ऐसे ही व्यक्ति का मुखमंडल चमकने लगता है और वह दूसरों को आकर्षित करता है। ऐसे ही व्यक्ति के कथन प्रभावोत्पादक होते हैं, इस सीमा तक कि अन्य अनेकों में भी परिवर्तन ला सकें। एक प्रकार से स्वसंकेतों द्वारा अपने द्वारा अपने आभामण्डल को एक सशक्त चुंबक में परिणत किया जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं- ‘थिंक एण्ड ग्रो रिच’ अथवा ‘एडाप्ट पाजिटिव प्रिंसिपल टूडे’ ।। आशय यह कि सोचिए, विधेयात्मक सोचिए एवं अभी इसी क्षण सोचिए, ताकि आप स्वयं को श्रेष्ठ बना सकें। सारे महामानव स्वसंकेतों से ही महान् बने हैं। गाँधी जी ने हरिश्चंद्र के नाटक को देखकर स्वयं को संकेत दिया कि सत्य के प्रयोगों को जीवन में उतारो व उसके परिणाम देखो। उनकी प्रगति में इस चिंतन की कितनी महान् भूमिका थी, यह सभी जानते हैं।

 ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया में ऑडियो एवं वीडियो कैसेट का आश्रय लेकर ईयरफोन द्वारा संकेत दिए जाते हैं। कुछ विराम के बाद पुन: उन सभी प्रसंगों पर चिंतन करते रहने को कहा जाता है। इससे प्रभावशाली विद्युत प्रवाह जन्म लेने लगता है। इसकी प्रत्यक्ष परिणति जी.एस.आर.बायोफीड बैक के रूप में देखी जा सकती है, जिसमें व्यक्ति चिंतन द्वारा ही अपने त्वचा प्रतिरोध को घटाता- बढ़ाता व स्वयं भी उसे देखता है। इसी प्रकार श्वसन दर, हृदय की गति, रक्तचाप आदि के को स्व- संकेतों से प्रभावित किया जा सकता है। विपश्यना ध्यान एवं जैन ध्यान पद्धति इसी स्वसंकेत पद्धति पर आधारित हैं। कोई कारण नहीं कि सही पद्धति का आश्रय लेने पर वांछित परिवर्तन उत्पन्न न किए जा सकें।

    (२) दर्पण साधना- यह मूलतः: आत्मावलोकन की, आत्मपरिष्कार की साधना है। बड़े आकार के दर्पण को सामने रखकर बैठा जाए। सुखासन में जमीन पर या कुर्सी पर बैठा जा सकता है। खुले शरीर के प्रत्येक भाग पर विश्वास भरी दृष्टि से अवलोकन किया जाए। पहले अपने आपके बार में चिंतन कर, अंत: के दोष- दुर्गुणों से मुक्त होते रहने की भावना की जाए। वह परमसत्ता बड़ी दयालु है। भूत को भुलाकर अब यह अनुभूति की जाए कि भीतरी संरचना में प्राण विद्युत बढ़ रही है और उस की तेजस्विता त्वचा के ऊपरी भाग मे चमक बढ़ाती हुई अंग- अंग से फूटी पड़ रही है। पहले जो निस्तेज- क्षीण दुर्बलकाय सत्ता थी, यह बदल गई है एवं शरीर के रोम- रोम में विद्युत शक्ति ही छाई हुई है। विकासक्रम में उभार आ रहा है। प्रतिभा परिवर्धन के लक्षण निश्चित रूप में दीख पड़ रहे हैं एवं सामने बैठी आकृति में अपना अस्तित्व पूर्णतः: विलीन हो रहा है। यह यह ध्यान प्रक्रिया लय योग की ध्यान साधना कहलाती है और व्यक्ति का भावकल्प कर दिखाती है।

    (३) रंगीन वातावरण का ध्यान- हर रंग में सूर्य किरणों के अपने- अपने स्तर के रसायन, धातु तत्त्व एवं विद्युत प्रवाह होते हैं। वे शरीर और मस्तिष्क पर अतिरिक्त प्रभाव छोड़ते हैं। इनमें से किसी का अनुपात घट- बढ़ जाता है अथवा विकृत असंतुलित हो जाता है, तो कई प्रकार के रोग- उत्पात उठ खड़े होते हैं। इस हेतु रंगीन पारदर्शी काँच के माध्यम से अथवा विभिन्न रंगों के बल्बों द्वारा पीड़ित अंग पर अथवा अंग विशेष पर उसकी सक्रियता बढ़ाने के लिए रंगीन किरणों को आवश्यकतानुसार निर्धारित अवधि तक लेने का विधान है। प्रतिभा परिवर्धन हेतु उचित रंग विशेष का आँखें बन्द करके ध्यान भी किया जाता है। कुछ देर तक सप्त वर्णों के क्रम में से निर्धारित रंग, (बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल) के फ्लेशेस स्ट्रोबोस्कोप यंत्र द्वारा चमकाए जाते हैं एवं आँख पर पहने चश्मे में वही वर्ण विशेष सतत दीखता रहता है। इसका प्रभाव मस्तिष्क के सूक्ष्म केंद्रों, चक्र संस्थानों आदि पर पड़ता है। नियमित रूप से कुछ देर के ध्यान के क्रमश: अभ्यास करते रहने पर वांछित परिवर्तन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। ध्यान यह किया जाता है कि संसार में सर्वत्र उसी एक रंग की सत्ता है, जो अपने शरीर में प्रवेश करके अभीष्ट विशेषताओं की ऊर्जा शरीर में प्रवाहित करती है। यह ध्यान पाँच से दस मिनट तक किया जाता है। विशेषज्ञों के द्वारा भिन्न- भिन्न प्रकृति के साधकों के लिए भिन्न- भिन्न वर्णों का निर्धारण करके ही यह प्रक्रिया आरम्भ की जाती है।

    (४) प्राणाकर्षण प्राणायाम- इस समस्त ब्रह्मांड में प्राणतत्त्व भरा पड़ा है। उसमें से साधारणतया प्राणी को उतनी ही मात्रा मिलती है, जिससे वह अपना जीवन- निर्वाह चलाता रहे। इससे अधिक मात्रा खींचने की आवश्यकता तब पड़ती है, जब किन्हीं उच्च उद्देश्यों के लिए प्राण चेतना का अधिक अंश आवश्यक हो। शरीरगत प्राण एवं समष्टिगत महाप्राण का संयोग शरीर स्थिर प्राण का नवीनीकरण ही नहीं करता, प्राण धारण कर उसे प्रयुक्त करने की क्षमता को भी बढ़ता है। चेतना जगत् में प्राण ही एक ऐसी शक्ति है जो विद्युत ऊर्जा के रूप में ‘‘निगेटिव आयंस’’ के रूप में विद्यमान हैं। इसकी कमी व्यक्ति को रोगी, निस्तेज, प्राणहीन बनाती है, उसकी प्रभावोत्पादकता को कम करती है एवं प्रचुर मात्रा उसे निरोग, तेजस्वी, प्राण संपन्न बनाकर उसकी प्रभाव क्षमता में अभिवर्धन करती हैं।

    प्रतिभा परिवर्धन के लिए एक विधान प्राणाकर्षण प्राणायाम का है। इसकी विधि यह है कि कमर सीधी, सरल आसन में, हाथ गोदी में, मेरुदंड सीधा रखकर बैठा जाए। ध्यान किया जाए कि बादलों जैसी शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और हम उसके बीच निश्चिंत प्रसन्न मुद्रा में बैठे हैं। नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे- धीरे साँस खींचते हुए भावना की जाए कि साँस के साथ ही प्रखर प्राण की मात्रा भी घुली हुई है और वह शरीर में प्रवेश कर रही है। अंग- अवयवों द्वारा वह धारण की जा रही है। खींचते समय प्राण के प्रवेश करने की व साँस रोकते समय अवधारण की भावना की जाए। धीरे- धीरे साँस बाहर निकालने के साथ यह विश्वास किया जाए कि जो भी अवांछनीयताओं के, दुर्बलताओं के तत्त्व भीतर थे, वे साँस के साथ घुलकर बाहर जा रहे हैं। फिर लौटने वाले नहीं हैं। इस प्राणायाम को आरंभ में पाँच से दस मिनट ही करना पर्याप्त है। क्रमश: यह अवधि बढ़ाई जा सकती है। शोध संस्थान द्वारा यह जाँचा जाता है कि प्राण धारण क्षमता कितनी बढ़ी, रक्त में से दूषित तत्त्व कितनी मात्रा में निकले तथा रक्त में ऑक्सीजन का अनुपात कितना बढ़ा। यही निरोगता का, प्रतिभाशीलता का चिह्न है।

    (५) सूर्य वेधन प्राणायाम- ध्यान मुद्रा में बैठा जाए। कपड़े शरीर पर कम- से रहें। मुख पूर्व की ओर हो, समय अरुणोदय का। ध्यान किया जाए कि आत्मसत्ता शरीर में से निकलकर सीधे सूर्यलोक तक पहुँच रही है। जिस प्रकार सुई में पिरोया हुआ धागा कपड़े से होकर जाता है, जलती अग्नि में से छड़ आर- पार निकल जाती है, उसी प्रकार आत्मचेतना प्राय: कालीन सूर्य का वेधन करती हुई आर- पार जा रही है। सूर्य ऊर्जा से अपनी चेतना भर रही है। दायीं नासिका से खींचा श्वास अंदर तक जाकर सूर्य चक्र को आंदोलित- उत्तेजित कर रहा है। ओजस्, तेजस्, वर्चस्, की बड़ी मात्रा अपने में धारण करके वापस बाईं नासिका से सारे कल्मष निकल रहे हैं। पहले की अपेक्षा अब अपने में प्राण ऊर्जा की मात्रा भी अधिक बढ़ गई है, जो प्रतिभा परिवर्धन के रूप में अनुभव में आती है। क्रिया की गौण व भावना को प्रधान मानते हुए यह अभ्यास नियमित रूप से किया जाए तो निश्चित ही फलदायी होता है।

    (६) चुंबक स्पर्श- चुंबक का चिकित्सा में बड़ा योगदान माना गया है। एक्युपंक्चर, एक्युप्रेशर, शरीर के सूक्ष्म संस्थाओं को मुद्रा बंध द्वारा प्रभावित करना एवं चुंबक चिकित्सा में अद्भुत साम्य है। हमारी धरती एक विराट चुंबक है व निश्चित मात्रा में प्राण उत्तरी ध्रुव से खींचती और अनावश्यक कल्मषों को दक्षिण ध्रुव से फेंक देती है। चुंबक स्पर्श में भी यही सिद्धांत प्रयुक्त होता है। लौह चुंबक का सहज क्षमता वाला पिंड लेकर धीरे- धीरे मस्तिष्क, रीढ़ और हृदय पर बाईं से दाईं ओर गोलाई में घुमाया जाता है। गति धीमी रहे। कंठ से लेकर नाभि छिद्रों के ऊपर होते हुए जननेन्द्रियों तक उस चुंबक को पहुँचाया जाए। स्पर्श कराते घुमाने के उपरांत उसे धो दिया जाए, ताकि उसके साथ कोई प्रभाव न जुड़ा रहे। चुंबक से प्रभावित जल तथा विद्युत चुंबक का प्रयोग भी इसी क्रम में किया जाता है। किस कमी के लिए, किस रूप में, किस प्रकार प्रयोग किया जाना है? उसका निर्धारण विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है।

    (७) प्राणवानों का सान्निध्य- शक्तिपात की तांत्रिक क्रिया तो करने- कराने में कठिन है व जोखिम भरी भी, किन्तु यह सरल है कि किन्हीं वरिष्ठों- प्राण चेतना संपन्न व्यक्तियों के यथा संभव निकट पहुँचने का प्रयत्न किया जाए। चरण स्पर्श जैसे समीपता वाले उपक्रमों से लाभ उठाया जाए। अप्रत्यक्ष रूप से यह ध्यान किया जा सकता है कि हनुमान भागीरथी जैसे किसी प्राणवान् के साथ अपनी भावनात्मक एकता बन रही है और पारस्परिक आदान- प्रदान का सिलसिला चल रहा है। साबुन जिस प्रकार अपनी सफेदी प्रदान करता है और कपड़े का मैल हटा देता है, उसी प्रकार की भावना इस सघन संपर्क की ध्यान धारणा में की जा सकती है। दृश्य चित्र व उन महामानवों के कर्तव्यों के गुणों का चिंतन भी उसमें सहायक होता है। इस आधार पर भी प्राण चेतना बढ़ती है। उसी प्रकार जिस प्रकार माँ के स्तनपान से बालक एवं गुरु की शक्ति से शिष्य लाभान्वित होता है।

(८) नाद योग- वाद्य यंत्रों और उनकी ध्वनि लहरियों के अपने- अपने प्रभाव हैं। उन्हें कोलाहल रहित स्थान में सुनने का अभ्यास भी प्रतिभा परिवर्धन में सहायक होता है। यह कार्य, शब्द शक्ति (जो चेतना का ईंधन है), के श्रवण से, अंत: के ऊर्जा केंद्रों को उत्तेजित व जगाकर संभव है। टेपरिकार्डर से संगीत सुनकर भी यह कार्य संभव है एवं स्वयं उच्चारित मंत्रों या संगीत पर ध्यान लगाकर भी। अपने लिए उपयुक्त संगीत का चयन भी इस विषय के विशेषज्ञों द्वारा ही निर्धारित करना चाहिए। एक ही वाद्य व समयानुकूल राग का चयन किया जाना चाहिए। यह श्रवण आरंभ में पाँच से दस मिनट तक ही किया जाए। क्रमश: अभ्यास के साथ बढ़ाया जा सकता है। इस विषय पर विभिन्न स्तर के व्यक्तियों के लिए धुनों का चयन कर संगीत कैसेट बनाने का कार्य शान्तिकुञ्ज द्वारा संपन्न हो रहा है।

    (९) प्रायश्चित- व्यभिचार छल धन अपहरण जैसे दुष्कर्मों से भी प्राणशक्ति क्षीण होती है और प्रतिभा का अनुपात घट जाता है। इसके लिए दुष्कर्मों के अनुरूप प्रायश्चित किया जाए। क्रिश्चियन धर्म में ‘कन्फेशन’ की बड़ी महत्ता बताई गई है। दुष्कर्मों की भरपाई कर सकने जैसे कोई सत्कर्म किए जाएँ। चांद्रायण जैसे व्रत उपवास भी इस भार को उतारने में सहायक होते हैं। कौन किन दोषों के बदले क्या प्रायश्चित करे, इसके लिए गुरु सत्ता जैसे विशेषज्ञों से अपनी पूरी बात कहकर काफी हलकापन आ जाता है व आगे कुछ नया करने की दिशा मिलती है। प्रायश्चित धुलाई की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता पूरी करता है। प्रतिभा संवर्धन हेतु अंतरंग की धुलाई जरूरी भी है।

    (१०) अंकुरों का कल्क एवं वनौषधि सेवन- अन्न धान्यों एवं जड़ी- बूटी वनस्पतियों के अपने- अपने प्रभाव हैं। वे जब अंकुरित स्थिति में फूटते हैं तब इनमें अभिनव एवं अतिरिक्त गुण होता है जो अपनी आवश्यकता के अनुकूल निर्धारित हो, उसके सात गमले एक- एक दिन के अंतर से उगाए जाएँ। सातवें दिन अंकुरों को पीसकर उसका कल्क तीन माशे व पानी एक तोला लेकर छान लें, इसे प्रात:काल खाली पेट मधु या उचित अनुपात के साथ लें। ये टॉनिक तेजस् की अभिवृद्धि, मेधावृद्धि, जीवनी शक्ति संवर्धन में सहायक होते हैं। इसी प्रकार हरी जड़ी- बूटियों या उन औषधियों के सूखे चूर्णों का भी कल्क बनाकर ग्रहण किया जा सकता है। निर्धारण विशेषज्ञ करते हैं। किन्हीं स्थितियों में वाष्पीभूत रूप में अग्निहोत्र प्रक्रिया से नासिका मार्ग द्वारा ग्रहण किए जाने का भी प्रावधान है।

    यहाँ संक्षेप में प्रतिभा संवर्धन के निर्धारित दस उपचारों की चर्चा की गई है। विस्तार से इन्हें शिविरों में सम्मिलित होने पर, प्रत्यक्ष शान्तिकुञ्ज आने पर समझाया जाता रहता है।
  
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