युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

आत्मबल ही सर्वोपरि

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
     भारत इस समस्त धरातल के हर क्षेत्र में, अपने ढंग की अनोखी प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। उसकी महानता, समृद्धि, उदारता, विविधता, जन- जन के लिए आश्चर्य का विषय रही है। संसार उसके प्रति भावभरी श्रद्धांजलि अनेकों प्रकार से प्रस्तुत करता रहा है। ज्ञान और मार्गदर्शन का प्रकाश दे सकने की विशेषता के अनुरूप उसे जगद्गुरु कहा जाता रहा है। कहा है शासन, सुव्यवस्था और प्रगति के व्यापक सरंजाम जुटा सकने की विशेषता के कारण उसके नेतृत्व को चक्रवर्ती की संज्ञा दी गई। जो दरिद्रों को संपन्न बना सके उसकी संपन्नता पर कौन संदेह करेगा? यही कारण है कि उसे सोने की चिड़िया और रत्नों की खदान के नाम से पहचाना जाता रहा। स्वर्ग संपदाओं के स्वामी भारतवर्ष की, साधनों के सदुपयोग से उत्पन्न होने वाली सुसंपन्नता ही व्यावहारिक स्तर पर औसत नागरिकों जैसा जीवन ही क्यों न करते रहे हों?

     भारत की अपनी सांस्कृतिक परंपराएँ इतनी उत्कृष्ट और इतनी सशक्त रही हैं, कि नर- वानर का जीवन जीने वाले अनगढ़ लोग यह कल्पना तक न कर सके कि कोई अपनी निजी प्रतिभा को परिष्कृत करके, दूसरों की तुलना में असंख्य गुना वजनदार भी बन सकता है। बात समझ में न आने से यह मानकर संतोष करना पड़ा कि यह लोग किसी असामान्य वर्ग के हैं। इनमें कोई चमत्कारी देव आवेश प्रवेश कर गया, जो हम जैसों में नहीं हो सकता। इस धारणा ने संसार भर के लोगों के मनों में यह मान्यता जमा दी कि भारतभूमि पर रहने वाले सभी देवमानव हैं। इसी धारणा का दूसरा चरण यह है कि जहाँ देवता बसते हैं, वह स्वर्ग होता है। यह कसौटी भी खरी उतरती रही कि देवमानवों के सौजन्य, सहयोग और सेवासाधना में निरत होने के कारण, वैयक्तिक संबंधों, नागरिक प्रचलनों और स्नेह- सौहार्द्र के आधार पर उभरते, बिखरते, आनंद, उल्लास की भी यहाँ कमी नहीं है। तब यह मान्यता सहज ही बनती है कि भारत की भूमि पर ही स्वर्ग का अवतरण हुआ है और यह धरित्री ही ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ है। भगवान् के अवतार जितने भी हुए हैं, वे १० हों या २४, जन्मे इसी धरित्री पर हैं। आकाश में उड़ने और अदृश्य रहने वाले अजर- अमर देवताओं को पकड़ पाना तो मुश्किल था, पर ऋषियों, मुनियों और मनीषियों की प्रज्ञा एवं आश्चर्यजनक पुरुषार्थपरायणता , कर्तव्यनिष्ठ तत्परता को देखते हुए यह मान्यता बना ली गई, कि देवता निस्संदेह भारतभूमि पर विचरण करते हैं। उन्होंने किसी अज्ञात लोक में अवस्थित स्वर्ग धरती पर उतारकर, ठीक वैसी ही अनुकृति यहाँ तैयारी कर ली है।

    संसार भर में मनुष्य समुदाय ने, भारतीय देवमानवों को कुछ भी कर सकने में समर्थ पाया और उनके नेतृत्व का भरपूर लाभ उठाया। युगनिर्माण योजना द्वारा प्रकाशित ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’ ग्रंथ में, अगणित प्रमाणों और ऐतिहासिक साक्षियों समेत यह सिद्ध किया गया है कि इस देश के निवासी, अपने निवास क्षेत्र तक ही अपनी महान् गतिविधियों को सीमित नहीं रखते रहे, वरन् उन्होंने भूमण्डल के समस्त खंडों- उपखण्डों क्षेत्रों, देशों की अति कष्ट साध्य यात्राएँ करके इस बात का प्रबल प्रयास किया किया कि पिछड़ापन किसी भी क्षेत्र में अपनी जड़ें जमाए न बैठा रहे। आवश्यक उत्साह और पुरुषार्थ उभारकर उसे इस तरह खदेड़ दिया जाए, जिस प्रकार कि सूर्य अपने उदय होने पर अँधेरे की सत्ता को अनायास ही तिरोहित कर देता है। जिन्हें इस संदर्भ में विस्तृत जानकारी की अपेक्षा हो, वे उपर्युक्त पुस्तक में प्रस्तुत प्रवास शृंखलाओं को ध्यानपूर्वक पढ़ लें। यही है भारतीय संस्कृति की महान् परंपरा, जिसे अपनाने वाले को स्वयं अपने आपको, चरित्रवान और आदर्शवादिता के पक्षधर पुरुषार्थ के लिए समर्पित करना पड़ता रहा है। न केवल अपने आपको ही सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत बनाना पड़ता है, वरन् संपर्क क्षेत्र को, अपने क्रिया क्षेत्र को भी इस प्रकार सुनियोजित करना पड़ता है कि जो कुछ उपलब्ध है, उसी के सदुपयोग से अपेक्षाकृत असंख्य गुना लाभ उठाया जा सके।

कोलम्बस ने यही यश गाथाएँ अपने देश स्पेन में जन- जन से सुन रखी थीं। वह इस सोने की खदान से कुछ पाने- बटोरने के लिए आकुल- व्याकुल होकर, एक जलयान के द्वारा खोज को निकल पड़ा। सही दिशा ज्ञान न होने से वह भारतवर्ष तो न पहुँच सका, पर अमेरिका के तट पर जा पहुँचा। उसे ही भारत समझ लिया और वहाँ के निवासियों की लाल चमड़ी देखकर उन्हें ‘रेड इंडियंस’ नाम दे दिया। यह घटना बताती है कि यहाँ की प्रगतिशीलता को धरती के हर कोने पर किस दृष्टि से देखा जाता था।

      दूसरे यात्री भी संभवतः इसी टोह में लंबी कष्टसाध्य यात्राएँ करते हुए यहाँ आ पहुँचे और जो दृश्य देखा, उसका आँखों देखा परिचय बताने के लिए सुविस्तृत ग्रन्थ लिखे। ऐसे यात्रियों में फाह्यान, ह्वेनसांग, मैकबर्नर, मार्कोपोलो आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। महाप्रभु कहे जाने वाले ईसा ने भी अपनी जिंदगी की लंबी अवधि इसी देश में रहकर बिताई और जो प्रकाश धर्म के पर्यवेक्षकों ने बौद्ध धर्म को अनुकृति के रूप में माना और कहा है।

      यह सिलसिला लंबी अवधि से चलता रहा है। पाल ब्रंटन भारत में चमत्कारों को खोजने आए। उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर आश्चर्यचकित करने वाला साहित्य प्रकाशित किया है। फ्रांस की श्री माँ, इसी उद्देश्य से भारत आईं और वे अरविन्द आश्रम की मिस स्लेड और ब्रिटेन में जन्मी पर्यावरण विशेषज्ञ सरला बेन जीवन के अंत तक यहीं रहीं। विवेकानन्द की सहायिका के रूप में यहीं निवास करने वाली सिस्टर निवेदिता का नाम हर किसी ने सुना है। पादरी सी. एफ. ऐंड्रूज की प्रवासी भारतीयों के प्रति सेवाओं को कोई भुला नहीं सकेगा। अन्य कुछ व्यक्तियों का उल्लेख करने भर से इस आकर्षण को देखा नहीं जा सकता। इसे देश की आबादी का पर्यवेक्षण करने पर पता चलता है कि पारसी, मुस्लिम, ईसाई आदि धर्मावलंबी किस उत्साह के साथ यहाँ आए और वातावरण को देखते हुए सदा- सर्वदा के लिए यहीं बस गए। कल्पवृक्ष की छाया में बैठने के बाद, उससे वापस लौटने का मन भला किसका होगा और क्यों होगा?

     इस संदर्भ में आश्चर्यचकित होने वालों ने यहाँ विशेष रूप से अपनाई गई ‘योगविद्या’ को महत्त्व दिया है और उसे चमत्कारों की जन्मदात्री कहा है। बात सच भी है, पर भ्रांतियों अत्युक्तियों और निहित स्वार्थों के जाल- जंजाल ने उसका स्वरूप ऐसा विचित्र बना दिया, जिसे जादूगरी- बाजीगरी के आधार पर अजूबे दिखाने और शगूफे छोड़ने की ठग विद्या के अतिरिक्त और कुछ कहा नहीं जा सकता है, पर वस्तुतः: बात ऐसी नहीं। योग एक अत्यंत उच्चकोटि की विज्ञान- सम्मत विद्या है, जिसे दो तथ्यों पर आधारित माना जा सकता है- इनमें से एक है तपश्चर्या, जिसका बोलचाल की भाषा में अर्थ होता है- संयम अपनाना, अनुशासित रहना और लक्ष्य प्राप्ति के लिए तितिक्षा के रूप में कष्टसाध्य परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपने को अभ्यस्त बनाना। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई प्रकार के विधि- विधान कर्मकाण्ड, व्रत- उपवासों पदयात्राओं आदि के विधान हैं, पर उन्हें साधना मात्र ही माना जा सकता है, साध्य नहीं। साध्य तो व्यक्तित्व में प्रामाणिकता, प्रखरता और शालीनता का ऐसा समावेश करना है, जो आकर्षणों और दबावों के आगे डगमगाए नहीं, आन पर अड़ा रहे। अनीति का सहगामी या सहयोगी बनने से साफ इनकार कर दे, फिर भले ही इसके बदले आततायियों का कितना रोष, आक्रमण, आतंक सहन करना पड़े? ऐसी मनःस्थिति को परिपक्व करने के लिए ही तपश्चर्या नाम से जान पड़ने वाले अनेक कर्मकाण्डों की गणना होती रहती है। आश्चर्य इसी बात का है कि लोग लक्ष्य को भूलकर, कर्मकाण्डों की पूर्ति भर करते हैं और आशा लगाते हैं कि उन्हें इन करतूतों के सहारे ही सिद्धपुरुष बनने का अवसर मिल जाएगा।

    तपश्चर्या का दूसरा पक्ष है- योगसाधना तपश्चर्याएँ शरीर प्रधान होती हैं और योग मन को अवांछनीयताओं से मुक्ति दिलाकर, आत्म- विस्तार की परिधि में प्रवेश करने को कहता है। इसे और भी अधिक स्पष्ट और सरल रूप से समझना हो तो यों कहा जा सकता है कि अपने कार्यक्षेत्र, स्वभाव, अभ्यास, दृष्टिकोण एवं क्रियाकलाप को ऐसा बनाना, जिसमें सुनियोजित व्यवस्था उपक्रम के अतिरिक्त और कुछ दीख ही न पड़े। मनीषियों को यही सोचना और यही करना होता है। वे अव्यवस्थाजन्य, दुष्प्रवृत्तियों को लुहार की तरह घन बजाकर सीधी करते हैं और उपेक्षित धातु खंडों की गलाई- ढलाई करके उन्हें अति महत्त्वपूर्ण उपकरणों का स्वरूप प्रदान करते हैं। इसके लिए प्राणायाम, जप, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि कई प्रकार के मार्ग अपनाए जाते हैं। ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग की एक परिपाटी भी इसी निमित्त- विनिर्मित हुई अनुष्ठान- पुरश्चरण व्रतधारण आदि का निर्धारण भी इसी निमित्त हुआ है। इतने पर भी यदि इन सब चित्र- विचित्र कर्मकाण्डों के पीछे, छिपा अंतःकरण का विस्तृतीकरण ध्यान नहीं है, तो समझना चाहिए कि उसे बच्चों की खिलवाड़ से और अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकेगा। ऐसा उसका कोई प्रतिफल भी उपलब्ध नहीं होगा, जिससे किसी में योग स्तर की दिव्य क्षमताएँ दृष्टिगोचर हो सकें। भ्रम- जंजाल में भटकने वालों की इस दुनिया में कमी नहीं, पर वे समय गँवाते, ठोकरें खाते और निराश रहने के अतिरिक्त और कुछ पाते कहाँ देखे जाते है? लोगों के समक्ष वे अपने संबंध में बिना सिर- पैर की शेखी भले ही बघारते रहें?

   जिस योगविद्या के कारण भारत कभी स्वर्ग की समानता करने लगा था, वह वस्तुतः: व्यक्तित्व में सन्निहित प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्षमताओं का ऐसा विकास ही था जो मानवी काया में कण- कण को प्रतिभा से सुसम्पन्न शरीर को ओजस्वी, मन को तेजस्वी और अंतःकरण को ब्रह्मवर्चस् से अभिभूत बनाने में अपनी यथार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण नकद धर्म की तरह हाथों- हाथ प्रस्तुत करता था। कहने का तात्पर्य यह है कि योगसाधना के लिए साधारण रहन- सहन छोड़कर चित्र- विचित्र परिधान धारण करें, यह बिलकुल भी आवश्यक नहीं है।

   इंग्लैण्ड सरकार के आदेश पर वायसराय ने गाँधीजी को मिलने के लिए बुलावा भेजा था। उपयोगी वार्तालाप भी हुआ, पर वायसराय ने इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री की वह बात पूरी तरह ध्यान में रखी कि गाँधी की आँखों में आँखें डालकर न देखें। वे जादूगर हैं। जिस पर नजर गड़ाते हैं उसी को वशीभूत कर लेते हैं। मान्यता सर्वथा झूठी नहीं थी। जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो इंग्लैण्ड कहा करता था कि दबाव उसी सीमा तक दिया जाए जिससे गाँधी फूट न पड़े। यह ९२ पौंड का बम का गोला यदि फट पड़ा, तो ब्रिटिश प्रशासन का कहीं अता- पता भी न चलेगा। गोलमेज कांफ्रेंस में गाँधी जी इंग्लैंड गए, और भी अनेक लोग उस समारोह में थे, पर शासक पक्ष के वरिष्ठ अधिकारी की आँखें गाँधी पर ही टिकी रहीं। सबकी यही उत्सुकता बनी रही कि यह व्यक्ति आखिर कहता क्या है? उनके एक- एक शब्द को नापा तौला गया, जो परिणाम सामने आए उनसे यही निष्कर्ष निकला कि गाँधी जी पूरी तरह जीतकर वापस लौटे हैं।

     योगी वर्ग में एक नाम बिनोवा का भी है, जिसने ‘आराम हराम हैं’ के मंत्र को अपनी जीवनचर्या के हर कण में समा लिया था। उन्होंने बड़ी योजनाएँ बनाईं और उनकी व्यवहारिकता अभीष्ट सफलता के सहारे सिद्ध कर दिखाई।

    महान् आंदोलनों के जन्मदाता किस प्रकार कोटि- कोटि लोगों पर हावी हो गए, इन्हीं दशाब्दियों के इतिहास के पृष्ठों पर नजर डालकर इसकी गाथाओं के उदाहरणों का ढेर सामने खड़ा देखा जा सकता है। लेनिन की आरंभिक निजी जिंदगी को जानने वाला कोई भी व्यक्ति यह आशा नहीं कर सकता था, कि यह व्यक्ति अपने देश को इतने आश्चर्यजनक ढंग से कुशासन से मुफ्त करा लेगा, आधी दुनिया के विचारों पर हावी हो जाएगा और कितने ही देशों में साम्यवादी शासन का प्रचलन कर सकने में सफल होगा।

    वेडेन पावेल का स्काउट आंदोलन अपने समय की देन है। दास- दासी प्रथा से लेकर जमींदारों की तानाशाही के अभेद्य दीखने वाले किले, कुछ तपस्वियों की प्रबल चेतना के आधार पर ही बिस्मार किए जा सके। कुछ दिनों पूर्व तक कोई यह कल्पना तक नहीं करता था कि यह संभव हो सकेगा।

    यदि किसी को पुरातन भारत की सशक्त महानता का आधार अध्यात्म योग मानने का शब्द मोह न हो, तो उसके साथ इतना और जोड़ना चाहिए- उसका भव्य भवन दो आधारों पर ईंट- चूने की नींव पर विनिर्मित हुआ था। उनमें से एक था तप अर्थात् व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय साहसिकता से भरापूरा प्रतिभा संपन्न बनाना और दूसरा सुव्यवस्था बना सकने की प्रवीणता का प्रतिनिधित्व कर सकने वाले कौशल का पक्षधर दृष्टिकोण परिमार्जित करना। इन दोनों के लिए यदि चरम स्तर का प्रयत्न बन पड़े तो समझना चाहिए कि अध्यात्म योग का वास्तविक अर्थ समझ लिया गया। उस स्तर की प्रगति ही उन सफलताओं को प्रस्तुत करती है, जिन्हें ऋद्धि- सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। वे किसी पर आसमान से पुष्पवर्षा होने की तरह बरसती नहीं हैं।

    दक्षिण मुखी प्रवाह मोड़ते- मरोड़ते गंगा को पूर्व की ओर बहने के लिए बाधित करने वाले तपस्वी भागीरथ की कथा- गाथा प्रसिद्ध है। उन्हीं को भागीरथी का पिता कहलाने का श्रेय प्राप्त है। ऐसा ही एक प्रयास अनुसूया ने चित्रकूट के समीप मंदाकिनी को अभीष्ट दिशा में ले जाने का किया था। कहते तो यहाँ तक हैं कि उनके तेजस् से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक बालक बनकर अनुशासन पालन के लिए विवश हुए थे। पाण्डवों के छोटे से समुदाय ने कौरवों की विशाल सेना को परास्त करके रख दिया था। इस अद्भुत सफलता के पीछे योगेश्वर कृष्ण की योजनाबद्ध रणनीति काम कर रही थी। वे ही रथ के घोड़े चला रहे थे। हनुमान के पर्वत उखाड़ लाने जैसे पराक्रम के पीछे उनकी प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष शक्ति ही काम कर रही थी। वही जामवंत के उद्बोधन रूप में लगी और लंका दहन में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपन्न करने में सफल हुई थी। प्रत्यक्ष: तो वे सुग्रीव की सेवा में निरत, अपने भगोड़े मालिक की सेवा चाकरी भर में लगे थे। परशुराम के कुल्हाड़े और अर्जुन के गाण्डीव की शक्ति सुनने वालों तक को रोमांचित करती है।

    राजा छत्रसाल जब आक्रमणकारियों से लड़ने में भारी आर्थिक कठिनाइयों फँस गए थे, तब वे अपने गुरु प्राणनाथ महाप्रभु के पास पहुँचे थे। उन्होंने वरदान दिया कि संध्या होने तक घोड़े पर बैठकर जितने क्षेत्र का चक्कर लगा आओगे, उतने क्षेत्र की भूमि में रत्न मिलने लगेंगे। राजा छत्रसाल ने वैसा ही किया। बात सच निकली और उनकी आर्थिक कठिनाई दूर हो गई। विवेकानन्द द्वारा संसार भर में भारतीय संस्कृति की पताका फहराने के मूल में उनके समर्थ गुरु रामकृष्ण परमहंस की दिव्य क्षमता काम करती रही थी। ऐसे ही अगणित प्रसंग हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि अद्भुत शक्तियों का उद्भव मनुष्य के अंतराल से होता है। योग- तप जैसे उपचारों को प्रतिभा संवर्द्धन हेतु अपने भीतर से ही जगाया व उभारा जाता है। उसका लाभ स्वयं भी उठाया जा सकता है तथा अन्यों को भी दिया जा सकता है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118