युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

विशिष्टता का सुनियोजन

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अभावग्रस्तों को कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो बात समझ में आती है, पर आश्चर्य तब होता है जब विपुल साधन अपने अधिकार में होने पर भी, जानकारी के अभाव में लोग हैरान फिरते पाए जाते हैं। ऐसी घटनाएँ जब सुनने को मिलती हैं तो उस अनजानेपन को दुर्भाग्य का प्रतीक मानकर खेद व्यक्त किया जाता है।

    कहते हैं कि किसी अनाड़ी ने बाप के छोड़े हीरे को काँच समझ कर अनाड़ी के हाथों बेच दिया और खुद जीवन भर दरिद्र बना रहा। लाल मणियों की माला पड़ी मिलने पर एक भीलनी उन्हें कौड़ियों की मोल बेच आई थी। कस्तूरी हिरन की नाभि में कस्तूरी रहती है, पर वह सुगंध की तलाश में निरंतर दौड़ धूप करता और थककर प्राण गँवा देता है। माचिस जेब में होने की बात याद न रहने पर ढेरों घास फूँस, पास रहने पर भी एक यात्री ठण्ड में सिकुड़कर मर गया था। घर के आँगन में खजाना गड़ा होने की बात ज्ञात न होने पर, उस झोपड़ी के निवासी को जब- तब मजूरी मिलने पर आधे पेट सोना पड़ता था। ऐसी घटनाएँ प्राय: कौतूहलपूर्वक सुनी जाती हैं, तो सुनने वालों तक को हैरानी होती है।

    दिशाभ्रम हो जाने पर बनजारे रात भर चलते रहने पर भी बेकार भटकते रहते हैं और भूल का पता चलने पर वापस लौटते हैं। खंडहरों में भूलभुलैया बनी पाई जाती हैं, उनमें घुस जाने के बाद यह ख्याल नहीं रहता है कि वापस लौटने का दरवाजा कौन- सा है। हड़बड़ी उस मानसिकता को और भी अधिक बेजान कर देती है। सुना है कि कई तो इस भटकाव में कई दिन घिरे रहकर मर तक जाते हैं। बालू को पानी समझकर भटकने वाले हिरनों की मृगतृष्णा का उदाहरण लोग प्राय: दिया करते हैं। वह कहानी भी प्रसिद्ध है कि सिंह का बच्चा भेड़ों के समूह में मिलने पर अपने को ही भेड़ समझने लगा था। बाद में जब उसे आत्मबोध कराया गया, तो वहाँ से हटकर सिंह के समूह में चला गया। सपने की स्थिति में भी लोग बेतुके स्वप्न देखते रहते हैं। नशेबाजी की खुमारी ऐसी होती है, जिसमें ऐसा कुछ सूझ पड़ता है, जिसकी वास्तविकता के साथ दूर की भी संगति नहीं बैठती।

    इस प्रकार की घटनाएँ वस्तुस्थिति की सही जानकारी न होने के कारण होती हैं, पर अचंभा तब होता है जब आम आदमी ऐसी ही विसंगतियों और भटकाव में कुछ दिन ही नहीं गँवाता, वरन् सारी जिंदगी दाँव पर लगा देता है। आम आदमी अपने- अपने ढंग की उलझने, कठिनाइयाँ, समस्याएँ, चिंताएँ, व्यवस्थाएँ सिर पर लादे रहता है और उनके समाधान के लिए भी जिस- तिस का आसरा ताकता है। स्पष्ट है, कभी- कभार किसी की छोटी- मोटी सहायता हाथ लग भी सकती है, पर जब पूरा जगत् ही उलझन भरा है तो कौन किसकी, कब तक, कितनी सहायता कर सकता है? विशेषतया तब जबकि हर किसी को अपनी- अपनी समस्याओं में ही इतना उलझे रहना पड़ता है, कि दूसरों की सहायता करने जैसी न तो स्थिति रह जाती है और न वैसी अभिरुचि या फुरसत ही होती है।

    अपनी गलती ढूँढ़ने- खोजने की किसी को आदत नहीं है। भ्रमों में से एक बड़ा भ्रम हर आदमी में यह भी पाया जाता है कि अपनी दौलत कम और दूसरों की दौलत चौगुनी- सौगुनी समझ पड़ती है। वस्तुतः सर्वथा दोषरहित व्यक्ति कदाचित् कोई भी नहीं होता, पर अपनी गलती कोई सोचे कैसे? इससे हेठी जो होती है, नाक जो कटती है, अपनी सर्वज्ञता पर आँच जो आती है। इसलिए काम बिगड़ने पर उसका लांछन अपने ऊपर न लगने देने के लिए, यह सस्ता नुस्खा हाथ लगता है कि दोष किसी दूसरे पर थोप दिया जाए। इसके लिए सामने वाले किसी को दोषी ठहराने पर तो झंझट खड़ा होने का डर रहता है, इसलिए हननकर्ता किसी ऐसे निरीह को ढूँढ़ लेते हैं जो सामने आकर प्रतिवाद करने में समर्थ न हो। भाग्यचक्र, समय का फेर, ग्रहदशा, विधाता का विधान, कर्मरेखा आदि पर कोई भी कितना भी दोषारोपण करता रहता है। जिन पर दोष थोपा गया है, वे उलटकर सफाई देने की स्थिति में तो होते नहीं। ऐसी दशा में आरोपी को अपनी मान्यता और भी अधिक सुनिश्चित होने का मत बना रहने में कुछ कठिनाई नहीं होती।

एक ओर तो दूसरों पर लांछन लगाने की प्रवृत्ति जमी रहती है और दूसरी ओर आत्मसमीक्षा न कर पाने की प्रवृत्ति मनुष्यों को भ्रमित किए रहती है। एक दुष्कल्पना से ग्रसित अधिकांश लोग पाए जाते हैं कि अपनी निज की सामर्थ्य अकिंचन है, उसे बढ़ाने के लिए हम क्या कुछ कर सकते है? उत्कर्ष से सुयोग मिलना अपने हाथ में नहीं है। जितना प्रयत्न अच्छे के लिए किया जा चुका है उससे अधिक और कुछ करने का अवसर ही कहाँ था। इसी प्रकार की बातें सोचकर आत्म- समीक्षा आत्मसुधार, आत्मकल्याण और आत्मविकास का अवसर ही गँवा दिया जाता है। उपाय न सूझ पड़ने पर कुड़कुड़ाने, खीजने, झल्लाने, उद्विग्न रहने और चिंतातुर रहने के अतिरिक्त कुछ बन भी नहीं पड़ता। अपने को तनावग्रस्त बना लेना तो दुष्कल्पनाओं के आधार पर और भी अधिक सरल व संभव हो जाता है। ऐसा ही लोग करते भी रहते हैं।

    इस व्यापक भ्रांति को महामारी जैसा प्रकोप कहा जाए तो इनमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती। जनसाधारण को यह समझने का सुयोग नहीं मिल पाता कि मनुष्य की अंतर्निहित शक्तियाँ इतनी अधिक हैं कि यदि उन्हें प्रसुप्ति से विरत करके जाग्रत एवं क्रियाशील बनाया जा सके, तो हर सामान्य समझा जाने वाला व्यक्ति अपने को असामान्य सिद्ध करके दिखा सकता है। इसमें कोई रहस्यवाद नहीं है, न कुछ ऐसा है, जिसे असामान्य ठहराया जा सके। पुरातन इतिहास के पृष्ठ पलटने या अर्वाचीन इतिहास की गतिविधियों पर तनिक गंभीरता पूर्वक नजर डालने पर ऐसे असंख्यों उदाहरण आँखों देखे और कानों सुने जा सकते हैं, जिनमें आत्मविश्वास और प्रचंड साहस के बलबूते प्रगति की दिशा में चलने का सूझबूझ के साथ प्रयत्न किया गया और वे क्रमश: अधिक उपयुक्त अवसर पाते चले गए। अंततः: इतनी ऊँचाई पार कर सके, जिसे देखते हुए आश्चर्य लगता है और किसी दैवी वरदान का भ्रम होता है। इसके विपरीत, ऐसे उदाहरण भी कम नहीं देखे जा सके, जिनमें अपार साधन और अवसर होते हुए भी दुर्गुणों के शिकार रह कर, व्यक्ति दिन- पर पतन- पराभव की ओर लुढ़कते चले गए और अंत में वहाँ पहुँच गए, जिसे दुर्गति या दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

    साधारण समझ से अपनी पृथ्वी जहाँ- की स्थिर खड़ी दीखती है, पर जिन्होंने कुछ अधिक जानकारी प्राप्त की है, वे विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि वह अपनी धुरी पर लट्टू की तरह घूमती रहती है। सूर्य की परिक्रमा के लिए तीर की तरह सनसनाती हुई दौड़ती है। मनुष्य के संबंध मे भी यही बात है। उसकी जीवनचर्या के लिए अग्रगमन की प्रगति संभावनाएँ कूट- कूटकर भरी हुई हैं। कमी केवल इस बात की है कि वस्तुस्थिति समझने और उस पर विश्वास करने का विवेक जगा नहीं। अपने ऊपर दीनता और हीनता की परतें इतनी मोटी जमी होती हैं कि वही अपना वास्तविक स्वरूप प्रतीत होता है।

    उपर्युक्त भ्रम से निकलने के सामान्य प्रयासों को आसपास का वातावरण नष्ट कर देता है। अहंकारियों का समुदाय दूसरों को हेय ठहराकर ही अपने बड़प्पन की पुष्टि कर सकता है। ऐसे समुदाय के अपने से समर्थ लोग इसी स्तर की समीक्षा करते रहते हैं। बड़ों की बात ही सही मान भी ली जाती है। इस कथन को औसत आदमी हृदयंगम भी करता रहा है और यह मान बैठता है कि उसकी हस्ती नगण्य है। उससे कोई बड़ा काम या बड़ा वजन उठ नहीं सकता। इसलिए खैर इसी में है कि जैसे भी कुछ दिन गुजर रहे हैं उसी प्रकार संतोषपूर्वक समय काट दिया जाए। संकटों को सह लिया जाए, दुर्दिनों के साथ तालमेल बिठा लिया जाए। इस स्तर का मानस बन जाने पर विद्यमान क्षमताएँ और भी गहरे गर्त में चली जाती हैं। उन्हें उभारने, उठाने का जब भीतर या बाहर से कोई प्रयत्न ही नहीं होता, तो आगे बढ़ने, ऊँचे उठने की संभावना ही कैसे बने? उस दिशा में कुछ ठोस प्रयत्न करने का प्रयास ही कैसे चले? जब उमंगें ही मर गईं तो फिर अग्रगमन का अवसर छप्पर फाड़कर आकाश से आँगन में क्यों कर आ धमके?

    संसार में पैसे की चमक- दमक बहुत जगह देखी जा सकती है और उसके आधार पर जो खरीदा जा सकता है, उसकी सज- धज भी अपनी चमक- दमक दिखाती, आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करती देखी जा सकती है। किन्हीं- किन्हीं को रूप−लावण्य भी मनमोहक दीख पड़ता है। कलाकार, व्यवसायी, गुणी भी कई देखे जाते हैं; पर ऐसे कम ही दीख पड़ते हैं जिन्होंने अपने साहस और पौरुष के सहारे अवरोधों से टकराते हुए प्रगति का पथ प्रशस्त किया हो। जिन्होंने गिरों को उठाया, उठों को चलाया, चलतों को दौड़ाया और दौड़तों को उछाला हो। अपनी राह तो सभी चल लेते हैं, पर सराहना उनकी है जो अपनी नाव पर अनेकों को बिठाकर उन्हें इस पार से उस पार पहुँचा सकें।

    इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि ऐसी प्रचंड सामर्थ्य हर किसी के भीतर होते हुए भी उसका सदुपयोग कर सकना तो दूर, पहचानना तक नहीं बन पड़ता। आत्मविस्मृति ही वह अभिशाप है जिसे लोग जाने या अनजाने स्वयं अपनाते हैं और कंधे पर लादकर चलते हैं। इसी को कहते हैं- प्रतिभा का अभाव, जो कभी- कभी तो मोटे पहलवानों को भी आंतरिक दृष्टि से खोखला देखकर आश्चर्य रूप से व्यक्त किया जाता है। शारीरिक बल का प्रदर्शन तो भेड़ें और भैंसें भी आपस में टक्कर मारकर दर्प जताते देखी गई हैं। तीतरों और मुर्गों को भी मोरचे लड़ाते और अहंता में अग्रणी होने का दर्प जताते देखा जाता है। यह वास्तविक बलिष्ठता का प्रमाण नहीं है। गहराई तक जाना हो तो देखना पड़ेगा कि मन की कौन- सी दिशाधारा उस बल का प्रयोग कर रही है। गुंडे आतंकवादी, आततायी, अनाचारी अपनी अकड़ दिखाते और रौब जमाते देखे जाते हैं। दूसरों पर धाक जमाना और उन्हें डर दिखाकर उचित- अनुचित करा लेना यही उनका- व्यवसाय रहता है। ऐसे लोगों की शारीरिक बलिष्ठता कैसे सराही जा सकेगी? यही बात बुद्धिबल, धनबल आदि के संबंध में है। उसका सदुपयोग करने वाले अपने लिए भर्त्सना और दूसरों के लिए विपत्ति ही खड़ी करते हैं। कला का दुरुपयोग भी कम नहीं हुआ है। श्रृंगारिकता, विलासिता, अनैतिकता जैसी पशु प्रवृत्तियों को भड़काने में संगीत, चित्रकला, साहित्य आदि का कम सहारा नहीं लिया गया है। ऐसी दशा में उस कला को किस प्रकार सहारा जाए, जो आकर्षित- प्रभावित तो अनेकों को करती है, बदले में पूरी कीमत बटोर लेने में भी सफल रहती है, पर यदि उसके और परिणामों को देखा जाए तो यही कहना पड़ता है कि ऐसे प्रख्यात कलाकार यदि अविख्यात- अनजान लोगों की तरह साधारण स्थिति में रह रहे होते तो कहीं अच्छे थे। तब वे लोगों को चमत्कृत करके कुमार्ग पर चलने के लिए ललचाने वाला कुकृत्य तो न कर सके होते।

    उपलब्धि क्या हस्तगत हुई? यह देखना ही पर्याप्त नहीं? जाँचा यह भी जाना चाहिए कि उसका उपयोग लोकहित के लिए किस प्रकार और कितना बन बड़ा? यदि इसकी कसौटी को छोड़ दिया जाए तो सर्प- बिच्छुओं की शरीर संरचना ही प्रशंसा की पात्र बनेंगी। चीते और भेड़िये भी दूसरों की तुलना में अधिक बलिष्ठ होने के कारण प्रतिष्ठा पाने के अधिकारी समझें जाएँगे। तब उनकी मार से डरने और बचने की कोई आवश्यकता न रहेगी। सराहनीय वही बल- कौशल है जिसका उपयोग सदुद्देश्य के लिए बन पड़े। अन्यथा बढ़ी हुई प्रतिभा बारहसिंगे के बढ़े हुए सींगों की तरह है, जो देखने में कौतूहलवर्धक तो लगते हैं, पर अपना प्रयास- प्रयोजन कुछ भी साध सकने में समर्थ नहीं होते।

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