युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

मनोबल की प्रचंड शक्ति एवं उसकी परिणति

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घटना सन् 1981 की है। इंग्लैण्ड की पैट्रिक मेरी नामक एक महिला के सीने में कैंसर हुआ। पता तब चला, जब डाक्टरों ने जाँच पड़ताल के उपरांत यह बताया कि उसका कैंसर सीने से बढ़कर सारी काया में फैल चुका है। इलाज तो चिह्न- पूजा है, पर वह अधिक से अधिक छ: महीने ही जीवित रह सकेगी। महिला चिंतित हुई। उसने पूछा- क्या इसका उपचार नहीं हो सकता? डॉक्टरों ने सीधा सा उत्तर दिया कि आपकी जाँच- पड़ताल कुछ महीने पहले हो सकी होती और समय रहते वस्तुस्थिति का पता चल गया होता, तो यह संभव था कि समय रहते इलाज हुआ होता और आपके प्राण बच सके होते। पहले जाँच- पड़ताल क्यों नहीं हो सकी? इसका कारण एक ही था कि इंग्लैण्ड में उस समय ऐसी परीक्षा मशीन जिसे ‘कैट स्कैनिंग’ नाम से जाना जाता है, एक ही थी, जिस पर जाँच कराने के लिए, अपनी पारी के लिए मरीजों को लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। तब तक बात बढ़कर कहीं- से जा पहुँचती थी। पैट्रिक मेरी भी इसी प्रतीक्षा में असाध्य स्तर तक जा पहुँची।

    महिला ने विचार किया कि जब मात्र छ: महीने ही जीना है, तो इस समय का श्रेष्ठतम उपयोग क्यों न कर लिया जाए? सोचते- सोचते वह इस निष्कर्ष पर पहुँची कि मेरी हैसियत तो ऐसी नहीं है कि ऐसी अनेकों मशीनें देश में लगा सकूँ, पर इतना तो हो सकता है कि यदि पूरी शक्ति इसी कार्य में झोंक दी जाए, तो एक के स्थान पर दो तो हो ही जाएँ और आधे रोगियों के तो प्राण बच ही जाएँ। उन दिनों ऐसी एक मशीन प्राय: तीन करोड़ रुपयों में बनती थी।

    पैट्रिक ने सांगोपांग योजना बनाई। उस देश के टेलीविजन पर अपनी स्थिति, दुर्दशा और संभावना प्रसारित की और साथ ही यह भी कहा कि यदि तीन करोड़ रुपयों का प्रबन्ध हो जाए, तो दूसरी मशीन कुछ ही दिनों में लग सकती है तथा मेरे जैसे आधी संख्या के रोगियों के प्राण बच सकते हैं। उस प्रसारण को सुनकर बहुत से उदारचेता प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी श्रद्धानुसार राशि भेजनी शुरू कर दी। महिला का हौसला बढ़ा और उसने इसी का सरंजाम जुटाने में अपना सारा समय और मनोयोग लगा लिया। फलतः: नियत अवधि में दूसरी मशीन बननी चालू होने के लिए स्थानीय जाँच कर्ताओं की सारी व्यवस्था जुट गई। कार्य आरंभ हो गया। इस बीच उसकी तत्परता और तन्मयता ऐसी रही, जिसमें उसे अपनी बीमारी और चिकित्सा की चिंता ही न रही और अपने लिए जो सोचना- करना था, उसे भुलाए ही रही।

    संकल्पित काम से निपटने के बाद साथियों के याद दिलाए जाने पर वह फिर डॉक्टरों के पास अपनी जाँच- पड़ताल कराने गई कि अब छ: महीने शेष वाली जिंदगी किस स्थिति में है? डॉक्टरों ने उसका सारा शरीर जाँच डाला, पर उसमें कहीं कैंसर का नाम- निशान न था। वह हर दृष्टि से भली- चंगी थी। इस आश्चर्यजनक कायाकल्प का कारण खोजने के लिए विभिन्न स्तर के विशेषज्ञों की समिति बिठाई गयी। उसने लंबे अन्वेषण के बाद एक ही प्रतिवेदन प्रस्तुत किया कि यदि मनुष्य अपना मनोबल मौत, बुढ़ापा बीमारी आदि को भुलाकर उच्चस्तरीय परमार्थ में लगा दे, तो उनके स्थान पर स्वस्थता संपन्न करने वाली सामर्थ्य उभर सकती है।

    यह घटना एक उदाहरण है, जिसके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रोग निरोधक शक्ति जितनी औषधियों में, शल्य क्रियाओं और चिकित्सकों के कौशल में समाहित है, उससे अनेक गुनी सामर्थ्य व्यक्ति के अपने मनोबल में सन्निहित है, बशर्ते कि उसे उभारा जा सके। अचिंत्य- चिंतन के स्थान पर न केवल संकल्पशक्ति को बढ़ाया और अभीष्ट उद्देश्य के लिए मोड़ा जाए, वरन् ध्यान को परामर्श प्रयोजनों में लगाकर, नवजीवन को अपने ही अनंत शक्ति भंडार में से उत्पन्न एंव विकसित किया जा सके।

    ऐसी घटनाएँ एक नहीं, अनेक हैं। फ्लोरेंस की एक महिला उन दिनों नवयुवती थी। उसकी मँगनी हो चुकी थी। विवाह होने ही वाला था कि पति परदेश चला गया और उसे लौटने में प्राय: बीस वर्ष लग गए। फिर भी वह निराश न हुई और सोचती रही कि जब विवाह हो, तो उसका शरीर नवयुवती जैसा ही दृष्टिगोचर होना चाहिए। वह दिन में कई- कई बार अपना मुँह दर्पण में देखती और विश्वास करती कि उसका यौवन घट नहीं रहा, वरन् दिन- पर अधिक निखर रहा है। बीस वर्ष बीत गए। तब वह चालीस वर्ष हो चुकी थी, जबकि उसका मंगेतर बीस वर्ष बाद लौटा। मिलने पर प्रेमिका का रूप लावण्य देखकर वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ। दोनों का विवाह हो गया। वे सुखपूर्वक जिए। इस घटना में ‘संकल्पशक्ति’ का ही चमत्कार है।

पुराणों में ऐसी घटनाओं का विस्तारपूर्वक बढ़ी- चढ़ी संख्या में वर्णन है। हनुमान, सुग्रीव के एक साधारण कर्मचारी थे। उनके सामने सीता की वापसी वाले संदर्भ में समुद्र पार करने का प्रश्न आया। वे अपनी सीमित शक्ति को देखते हुए वैसा कर सकने में अपने को असमर्थ पा रहे थे, पर जामवंत ने जब उन्हें प्रोत्साहित किया और प्रसुप्त शक्तियों के जाग्रत होने पर कुछ भी कर सकने का स्मरण दिलाया, तभी वे असंभव को संभव कर दिखाने के लिए तत्पर हो गए।

   भारत का अध्यात्म ‘तत्त्वज्ञान’ और ‘योग साधना’ विज्ञान विश्व भर में विख्यात है। उसे मनुष्य में देवत्व का उदय करने में सर्वथा समर्थ माना जाता है। ऐसे अगणित प्रमाण- उदाहरण भी हैं। शाप- वरदान देने की शक्ति और ऋद्धि- सिद्धियों का परिचय देने का प्रसंग अगणित उदाहरणों समेत इतिहास प्रसिद्ध है। पिछली शताब्दियों में भौतिक विज्ञान के आविष्कार ने संसार भर को चमत्कृत एवं विस्मित किया है। भारत की अपनी विशेषता अनादि काल से विकसित रही है। उसके आधार पर ऋषि- मुनियों और महामानवों का इतना बड़ा परिकर उभरता रहा है, जिसने न केवल अपने देश को, वरन् संपर्क में आने वाले सुविस्तृत परिकर को इतना समुन्नत बनाया, जिसे धरती पर स्वर्ग के अवतरण की संज्ञा दी जा सके।

   मनस्वी कौडिन्य ने, मध्यपूर्व के सुविस्तृत क्षेत्र में ऐसा प्रचलन- प्रवाह उत्पन्न किया, कि वह समूचा विशालकाय क्षेत्र न केवल हर दृष्टि से समुन्नत हुआ, वरन् एक प्रकार से भारत का सांस्कृतिक उपनिवेश ही बन गया। कुमारजीव की कथा- गाथा हर किसी के लिए अभी भी प्रकाश स्तंभ का काम करती है। वह बिहार प्रांत के एक निर्धन परिवार में जन्मा और पैदल चलकर, कश्मीर के उत्तरी छोर पर बसे तक्षशिला के विश्वविद्यालय में पढ़ा। इसी बीच उसकी दृष्टि चीन के विशालकाय क्षेत्र पर गई और उसे हिन्दू धर्म की बौद्ध शाखा का अनुयायी बनाने की ठानी। साधनों का अभाव रहते हुए भी, वह गोबी के दलदली पठार और खोतान के सुविस्तृत रेगिस्तान को पार करते हुए, प्राणों की बाजी लगाकर चीन जा पहुँचा। भाषा और संस्कृति के अपरिचय की कठिनाई को पार किया और वहाँ का ऐसा मूर्द्धन्य धर्म प्रचारक बना कि न केवल चीन वरन् उसके समीपवर्ती साइबेरिया, कोरिया, जापान आदि को भी अपनी संस्कृति का अनुगामी बनाने में सफल हुआ। सहयोगी- अनुयायी तो प्रतिभाशालियों को हर भले- बुरे काम में मिल जाते हैं, पर श्रेय उन्हीं प्रतिभाशालियों को जाता है, जो तूफान की तरह उठते और अपने साथ कूड़े- करकट तक को उछालते हुए आसमान तक पहुँचाते हैं।

   नेपोलियन का कहना था कि असंभव शब्द मूर्खों के कोष में है। आल्पस पर्वत जैसे दुर्गम अवरोध को उसने जब पार करने की ठानी, तो प्रश्न सामने आया कि अब तक कोई उसे पार नहीं कर सका, सभी महत्त्वाकाँक्षी उसी अवरोध में उलझकर अपनी हस्ती गँवा बैठे, तो उसके लिए ही कैसे संभव हो सकता था कि दूसरे छोर तक पहुँच सके? उसके संकल्प ने आश्वासन दिया कि आल्पस को नेपोलियन के लिए मार्ग देना ही पड़ेगा। हुआ भी ऐसा ही।

   चाणक्य एक साधारण ब्राह्मण मात्र था; पर उसने अपमान के प्रतिशोध में नंद वंश की ईंट- से बजा दी। एक मोरचा पूरा हुआ तो भी वह चैन से न बैठा और निश्चय किया कि भारत पर आए दिन होते रहने वाले आक्रमण को वहाँ से उखाड़ फेंकना है, जहाँ उनकी जड़ें बार- बार हरी होतीं और अपने चमत्कार दिखाती हैं। उसने अपनी दिव्यदृष्टि से चंद्रगुप्त को चुना और इस बात के लिए तैयार किया कि वह निरंतर युद्धरत रहकर आक्रान्ताओं के आतंकवाद को जड़ मूल से उखाड़ फेंके। चंद्रगुप्त अचकचा रहा था और इस प्रयास में आने वाली असंख्य कठिनाइयों को विस्तारपूर्वक सुना और गिना रहा था। सुनने के बाद चाणक्य ने व्यंग्योक्ति कसते हुए भवें तानकर कहा- तुम दासी पुत्र हो, अपनी सहज भीरुता और जड़ता की अभिव्यक्ति कर रहे हो। तुम्हें समझना चाहिए कि मैं चाणक्य हूँ। चाणक्य जो सोचता है, वह क्रियान्वित भी होता है और इतना ही नहीं, वह फलित होकर भी रहता है, तुम बकवास मत करो। जो कहा जा रहा है, उसे निमित्त बन कर करो और गाँठ बाँध लो कि चाणक्य निरर्थक योजनाएँ नहीं बनाता और न उसके कभी असफल रहने की आशंका ही आड़े आती है।’’ चंद्रगुप्त नत मस्तक हो गया। उसने अक्षरशः: अनुशासन पाला और वह कर दिखाया, जिसे पूर्ववर्ती असंभव मानकर चुप बैठे रहते और मन- ही कुड़कुड़ाते रहते थे।

   भारत एक पुरातन विज्ञान चेतना विज्ञान है, जिसे योगसाधना, तपश्चर्या आदि के नाम से जाना जाता है। उसके फलस्वरूप उपलब्ध हो सकने वाली ऋद्धि- सिद्धियों से पुराण गाथाओं का पन्ना भरा है। यह योगाभ्यास आखिर है क्या? इसकी गहराई तक उतरने वाले जानते हैं कि तितीक्षाओं के साथ जुड़ी हुई कर्मकाण्डों की प्रत्यक्ष फलश्रुति प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः: मनोबल को उभारने और प्रसुप्त प्राणाग्नि को प्रज्वलित करने की प्रक्रिया मात्र है। देवशक्तियों का केंद्रबिंदु वही है। वृक्ष पर फल- फूल आकाश से टपककर चिपकते रहने की बात चलने वाली वस्तुतः: गलती पर होते हैं। जड़ों के द्वारा खींचा गया धरती का रस ही तने को मजबूत करता है, पल्लवों को हरियाली और वृक्षों को सुविस्तृत छायादार बनाकर उन्हें फल- फूलों से लाद देता है। उसी जीवट के आधार पर वे आँधी- तूफानों से लड़ते और अपनी जगह अकड़ कर चिरकाल तक खड़े रहते हैं। सिद्धपुरुष अभीष्ट प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचते हैं। महापुरुषों की सफलताएँ पुरुषों को धिक्कारती और विजयश्री वरण कर सकने की शिक्षा प्रत्यक्ष प्रमाण बनकर देती हैं। उनसे उत्साहित होकर कभी- कभी तो अर्द्ध- मृत और अर्द्ध- मूर्च्छित भी देवमानवों जैसे पुरुषार्थ करके दिखाने लगते हैं।

   शरीर ही इन दिनों आराध्य देव बना हुआ है। उसके बलिष्ठ और मजबूत बनाने में मनुष्य की तीन- चौथाई क्षमता का नियोजन होता रहता है। इतने भर भी सज्जा, उपकरण, बहुमूल्य आहार, औषधियों के पिटारे कुछ काम नहीं आते। अमीर, गरीबों की अपेक्षा अधिक दुर्बल, बीमार और अल्पजीवी पाए जाते हैं। चिकित्सा के व्यवसायी अपने परिवार समेत स्वयं तक बीमारियों के शिकार बने रहते और तथाकथित आहार विज्ञान से लेकर औषधि विडंबना को प्रत्यक्ष न सही, मन- ही तो कोसते ही रहते हैं।

   मनोबल इससे सर्वथा भिन्न प्रकार की राह दिखाता है। अफ्रीका के मनाई मात्र भालों के सहारे बब्बर शेरों से भिड़ते और उन्हें मारकर अपनी शादी के लिए भी निश्चित शर्त को पीढ़ी- दर पूरी करते रहते हैं। विश्वविख्यात सेंडो पहलवान जवानी की दहलीज पर पहुँचने तक हड्डियों का ढाँचा और जुकाम के जाल में पूरी तरह जकड़ा हुआ था। पर जब उसके मार्गदर्शक ने जीवन की नई विधा सुनाई तो वह दिन- पर स्वस्थ बलिष्ठ होता गया और एक दिन वह संसार का माना हुआ पहलवान बन गया। भारत का हिंद केशरी उपाधि वाला चंदगीराम अध्यापक की नौकरी करने के दिनों तक तपेदिक का मरीज था और उसकी छूत न लग जाने के भय से हर कोई दूर रहता था, पर जब उसने अपना मानसिक कायाकल्प, साहसपूर्वक कर डाला, आदतों को पूरी तरह उलट दिया तो प्रकृति देवी ने उस पर अजस्र वरदान बरसाया और हिंदुस्तान का जाना माना पहलवान बना दिया।

   प्राचीनकाल में ऐसे कथा- कृत्यों की कथा- गाथाएँ अपने स्थान पर विचित्र हैं। मिट्टी के टीले बनाकर किसी प्रकार साँसें गिनते रहने वाले च्यवन ऋषि ने जब अपने दृष्टिकोण और पुरुषार्थ को दूसरी दिशा में मोड़ दिया तो अश्विनीकुमार वैद्य भी अपनी दवाओं का पिटारा लेकर दौड़े आए और उन्हें बूढ़े से जवान बना दिया। जिनका दम निकलने की प्रतीक्षा में स्वादिष्ट भोजन पाने के लिए लोमड़ियाँ चक्कर काटती रहती हैं, उन्हीं की सेवा- सहायता करने के लिए सुकन्या जैसी अनिंद्य सुंदरी राजकुमारी प्राणपण से जुट गई। ययाति के बूढ़े से जवान हो जाने की कथा प्रसिद्ध है। हनुमान् बचपन से ही पवनपुत्र प्राणपुंज कहलाते थे और उनके पहाड़ पर गिरने से विशालकाय शिला चूर- चूर हो गई थी। पार्वती की युगों तक तप करने से क्षीण हुई काया शिव को वरण करते ही त्रैलोक्य मोहिनी बन गई थी। अर्जुन के बाणों ने पाताल से जलधारा उभारकर मरणासन्न भीष्म पितामह को ताजा जल पिलाया था। टिटहरी का समुद्र को सुखाकर अंडे वापस लेने का संकल्प भले ही अगस्त्य के माध्यम से पूरा हुआ हो, पर वह अधूरा तो नहीं ही रहा।

जमदग्नि का पुत्र परशुराम जब पिता के साथ हुए अनाचार का बदला लेने के लिए उतारू हो गया तो उसने महाबली सहस्रबाहु की हजारों भुजाएँ हलके से फरसे से मूली की तरह काटकर रख दीं और मचला तो उसके सहयोगियों तक का सफाया करके रख दिया। हारी- हारी बातें करने वाले अर्जुन को महाभारत का विजेता बनाने का श्रेय कृष्ण के उस उद्बोधन को था, जिसने भर्त्सना की लताड़ और प्रोत्साहन भरी पुचकार देकर उसे वह बना दिया, जिसका उसे भान तक न था।

   इन दिनों मनुष्य को वैभव, स्वास्थ्य और यश के अतिरिक्त और किसी की कामना दीख नहीं पड़ती। इसके लिए जो कुछ उचित और अनुचित बन पड़ता है, उसे कमाने में औसत आदमी दिन- रात जुटा रहता है। कुछ मिलता भी है, तो कुमार्ग के रास्ते देखते- देखते न जाने कहाँ उड़ जाता है। इस घोर असमंजस की वेला में हर किसी को यह समझना और समझाना चाहिए कि अगणित वैभवों का उद्गम वह प्राणाग्नि केंद्र है, जिसको उभारना हमारा परम पुरुषार्थ और ईश्वर का एकमात्र अनुग्रह कहा जा रहा है। आज इसी की आवश्यकता है कि वैभव स्थिर रहे और दिन- पर बढ़ता रहे और अंततः: विशालकाय वटवृक्ष के रूप में परिणत होगा।

     वैभव सुदामा ने, नरसी मेहता ने, सुग्रीव ने, विभीषण ने दैवी अनुग्रह से इतनी मात्रा में पाया था, जो इतिहास प्रसिद्ध हो गया। स्वस्थ पराक्रमों में पाण्डवों की गणना की जा सकती है, जो मनुष्य के नहीं, देवताओं के वंशज थे। ध्रुव और प्रह्लाद ने जो उच्च पद पाए थे, वे किन्हीं विरले को ही कभी प्राप्त हुए होंगे। सप्त ऋषि अमर हो गए। नारद को भगवान् के लोक में चाहे जब आ धमकने की छूट मिली।

    वैभव किसका है? पराक्रम किसका है? विभूतियाँ किसकी हैं? इन सबका उत्तर देते समय नाम भगवान् का ही लिया जा सकता है, पर भगवान् का निकटतम और सुनिश्चित स्थान एक ही है- अंतराल में विद्यमान प्राणाग्नि। उसी को जानने- उभारने से वह सब कुछ मिल सकता है, जिसे धारण, कर सकने की पात्रता मनुष्य ने अर्जित कर ली है। मेघमाला द्वारा समय- समय पर बरसने वाली अजस्र जलधारा का जल उन्हीं जलाशयों में एकत्र होता है जो, उसे संचय के लिए समुचित गहराई और पात्रता अर्जित कर सकने में समर्थ हो सकें। आकांक्षा ऋद्धि- सिद्धियों की हो या स्वर्गमुक्ति की, इन्हें प्राप्त करने के लिए उस प्राणाग्नि को प्रज्ज्वलित किया जाना अनिवार्य है, जो दैवी शक्तियों का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती है।
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