प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया

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इन दिनों नव निर्माण का प्रयोजन भगवान् की प्रेरणा और उनके मार्गदर्शन में चल रहा है। उसे एक तीव्र सरिता- प्रवाह मानकर चलना चाहिये, जिसकी धारा का आश्रय पकड़ लेने के बाद कोई कही- से कहीं पहुँच सकता है। तूफान के साथ उड़ने वाले पत्ते भी सहज ही आसमान चूमने लगते हैं। ऊँचे पेड़ का आसरा लेकर दुबली बेल भी उतनी ही ऊँची चढ़ जाती है, जितना कि वह पेड़ होता है। ‘नव निर्माण’ महाकाल की योजना एवं प्रेरणा है। उसका विस्तार तो उतना होना ही है, जितना कि उसके सूत्र संचालक ने निर्धारित कर रखा है। इस विश्वास को जमा लेने पर अन्य सारी समस्यायें सरल हो जाती हैं। नव निर्माण का कार्य ऐसा नहीं है, जिसके लिये कि घर- गृहस्थी काम धन्धा छोड़कर पूरा समय साधु- बाबाजियों की तरह लगाना पड़े। यह कार्य ऐसा है, जिसके लिये दो घण्टे नित्य लगाते रहने भर से असाधारण प्रगति सम्भव है। लगन हो तो कुछ घण्टे ही परमार्थ प्रयोजन में लगा देने भर से इतना अधिक परिणाम सामने आ उपस्थित हो सकता है, जिसे आदरणीय, अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहा जा सके।

इस युगधर्म के निर्वाह के लिये अपने परिवार को प्रेरित किया जा रहा है। आरम्भ में विचार था अपने परिजनों के बलबूते ही सन् २००० में होने वाली पूर्णाहुति में एक करोड़ भागीदार बनाये जा सकेंगे, किन्तु परिजनों का उत्साह तथा समय की महत्ता और आवश्यकता देखते हुए गतिचक्र को दूना बढ़ा दिया गया है। अब पाँच- पाँच वर्ष में दो पूर्णाहुतियाँ होंगी एक सन् १९९५ में, दूसरी सन् २००० में। इन दोनों में एक- एक लाख वेदियों के दीप यज्ञ होंगे। इसी प्रकार एक करोड़ याजक इसमें सम्मिलित होंगे। लोगों के अन्त:करण में जिस क्रम से उत्साह उभरा है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि जितना संकल्प किया गया है, उससे कई गुनी गति बढ़ेगी और लक्ष्य से कहीं अधिक आगे पहुँचेंगे।

यह मात्र कल्पना नहीं है। वरन् दिव्य संरक्षण में सक्रिय होने वाला उत्साह बूँद- बूँद से सागर की उपमा चरितार्थ करता है। अपने वर्तमान पाँच लाख परिजनों में से, एक लाख जीवन्त- वरिष्ठों को अग्रदूतों की भूमिका के लिये छाँटा जा रहा है। उन्हें एक हलका- सा काम सौंपा गया है। वे प्रतिदिन पाँच- दस परिचितों को नव प्रकाशित इक्कीसवीं सदी सम्बन्धी पुस्तकें एक- एक करके पढ़ायें- सुनायें घण्टे- दो समयदान देने वाले के लिये यह कार्य बहुत आसान है।

यदि औसतन १० दिनों में न्यूनतम ५ व्यक्तियों को भी यह सैट पढ़ाया जाये, तो एक माह में १५ तथा एक वर्ष में १८० व्यक्तियों तक एक ही परिजन नव चेतना का सन्देश पहुँचा सकता है। इस प्रकार पाँच वर्ष में यह संख्या ९०० हो जायेगी। इस क्रम से एक लाख परिजनों द्वारा, पाँच वर्ष में ९ करोड़ व्यक्तियों को युग चेतना से अनुप्राणित किया जा सकेगा। यह संख्या आश्चर्यजनक लगती है, पर यह न्यूनतम आँकड़े हैं। नैष्ठिक पुरुषार्थी १० दिन में १० व्यक्तियों को भी पढ़ा- सुना सकता है। तब यह संख्या दो गुनी हो जाएगी अर्थात् पाँच वर्ष में १८ करोड़। अगले पाँच वर्ष में नैष्ठिकों की संख्या बढ़ेगी ही अस्तु उस पाँच वर्षीय पुरुषार्थ से और भी अधिक लोगों को अनुप्राणित किया जा सकेगा। सफलता का प्रतिशत कितना भी घटे, हर पाँच वर्ष में करोड़- दो भागीदारी खड़े कर लेना जरा भी कठिन नहीं है।

इस संबद्ध परिकर को दैनिक जीवन में कई काम सुपुर्द किये गये हैं। इनमें से एक है- १०८ बार गायत्री मंत्र का जाप। उतने ही समय तक प्रातःकालीन सूर्योदय का ध्यान, जिसमें अनुभव करना कि वह तेजस् अपने कण- कण में, रोम- रोम में समाविष्ट होकर समूची काया को ओजस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी बना रहा है। यह अनुभव साधक के उत्साह एवं साहस को कई गुना बढ़ा देता है। इसी साधक का एक पक्ष यह है कि उद्गम- केन्द्र शान्तिकुञ्ज की एक मानसिक परिक्रमा लगा ली जाये और विगत ६५ वर्ष से अखण्ड लौ में जल रहे दीपक के समीप बैठकर उससे निःसृत होने वाली प्राण चेतना का अपने में अवधारण करते रहा जाये।

विचारक्रान्ति ज्ञानयज्ञ है, इसका हर दिन अवगाहन किया जाये। इक्कीसवीं सदी सम्बन्धी जो पुस्तकें हैं, जो इन दिनों छपती जा रही हैं, उस क्रम में हर महीने छह पुस्तकें छापने की योजना है। बीस पैसा नित्य का अंशदान निकालने रहने पर एक महीने में छह रुपये की राशि जमा हो जाती है। इसी पैसे से हर महीने का नया प्रकाशन एक लाख पाठकों को मिलता रहेगा। इन्हें एक से लेकर दस तक को पढ़ा देना या सुना देना ऐसा कठिन काम नहीं है, जिसे कि दो घण्टे समयदान करने वाला पूरा न कर सके। यह पढ़ाने या सुनाने का क्रम नियमित रूप से चलता रहे तो एक वर्ष में ही वह संख्या पूरी हो सकती है, जो पाँच वर्ष के लिये निर्धारित की गई है। ‘अधिकस्य अधिक फलम्’ की सूक्ति के अनुसार युगचेतना का स्वरूप जितने अधिक लोग समझ सकें हृदयंगम कर सकें और व्यावहारिक जीवन में उतार सकें, उतना ही उत्तम है।

सन् १९९० की बसन्त पंचमी से यह ज्ञान यज्ञ आरम्भ किया जा रहा है। सन् १९९५ में महायज्ञ की अर्ध पूर्णाहुति होगी। उस निमित्त एक लाख वेदियों के यज्ञ वसन्त पंचमी से सम्पन्न हो जायेंगे। इस प्रकार एक लाख दीप यज्ञ और एक करोड़ के ज्ञान यज्ञ का, जप यज्ञ का संकल्प तब तक भली प्रकार पूरा हो जायेगा।

यह प्रथम पाँच वर्ष की योजना हुई। सन् 2000 में अभी दस वर्ष शेष है। दो लाख दीपयज्ञ और दो करोड़ ज्ञान यज्ञ सरलता से पूरे हो सकेंगे। वर्तमान परिजनों की बढ़ी हुई संख्या और उमंग को देखते हुए प्रतिफल उससे ज्यादा ही होने की सम्भावना है। उपरोक्त बात क्रियाकृत्य से सम्बन्धित रही। निर्धारणों को जीवन में उतारने का प्रतिफल तो और भी अधिक प्रभावशाली होगा। शारीरिक स्फूर्ति, मानसिक उल्लास और भावनात्मक संवेदना की योग साधना हर किसी को नित्य- नियम के रूप में करनी होगी। मितव्ययिता का अभ्यास और बचे हुए समय तथा पैसे को जीवनचर्या में युग चेतना का समावेश करने के क्रम में लगाये रहने वाला पुण्यात्मा और अधिक धर्मपरायण बनता चला जायेगा। जलता हुआ दीपक दूसरे बुझे दीपकों को जलाता है। एक लाख से आरम्भ हुआ युग चेतना अभियान, पाँच- पाँच वर्षों में करोड़ों को अपने प्रभाव से प्रभावित कर डाले तो उसे कुछ भी असाधारण नहीं मानना चाहिये। यह क्रम आगे भी बढ़ता रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब समूची मनुष्य जाति इस प्रभाव क्षेत्र में होगी, प्रगतिशीलता का माहौल बनता दीख पड़ेगा, मानवीय गरिमा के अनुरूप उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाते हुए जन- जन दिखाई देंगे।

पिछले एक शताब्दी में कुविचारों और कुकर्मों की बाढ़ जैसी आ गयी। लोग भ्रष्ट- चिन्तन और दुष्ट कर्मों के अभ्यासी बनने लगे। पतन का क्रम कहाँ से कहाँ पहुँचा? लोग गिरने और गिराने में प्रतिस्पर्धा मानने लगे। इसी प्रवाह को यदि उलट दिया जाये तो अगली शताब्दी में सदाशयता की उत्साहपूर्वक अभिवृद्घि भी हो सकती है। गिरने और गिराने वाले यदि अपनी गतिविधियों को उलटकर उठने और उठाने मे लगा दें तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को मूर्तिमान बनने में कुछ भी सन्देह न रह जायेगा।

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