प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया

भगवान के विशेष अनुग्रह और अनुदान की उपलब्धि

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शरीर उन पंचतत्त्वों का बना है, जिसे जड़ कहा जाता है। चेतना ही उसमें प्राण रूप है। यदि वह निष्फल जाए, तो पाँच तत्त्वों का बना घोंसला निर्जीव बनकर रह जाता है। उसके लिए कुछ कर सकना तो दूर, अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता, तुरन्त सड़ने-गलने लगता है और जीव-जन्तुओं का आहार बनकर, अपनी शक्ल-सूरत तक गँवा बैठता है। प्राण रहते ही किसी को जीवित कहा जाता है। जीवन, वायु की तरह व्यापक और अनन्त है। फेफड़ों में जितनी जगह होती है, वायु उतनी ही मात्रा में ग्रहण की जाती है। शरीर-कलेवर के सम्बन्ध में भी यही बात है। साँस लेते समय उसकी जितनी आवश्यकता पड़ती है, उतनी ही ग्रहण कर ली जाती है, शेष अनन्त आकाश में ही भरी रहती है। उसे अधिक मात्रा में ग्रहण-उपलब्ध करने की कला में प्रवीण लोग उसे ‘प्राणायाम’ से अतिरिक्त मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं और आवश्यकतानुसार विशेष समय पर प्रयुक्त करते हैं। ऐसे ही लोग प्राणवान् कहलाते हैं और उस संचय से अपना तथा दूसरों का भला करते हैं।

शरीर-बल प्राय: इतना ही होता है, जितनी सीमित मात्रा में प्राण-शक्ति विद्यमान रहती है; पर जो आश्चर्यजनक-अद्भुत असाधारण कार्य कर पाते हैं, उनकी चेतना ही विशेष रूप से सक्रिय होती और चमत्कार स्तर के काम करती देखी जाती है। शरीर मनुष्यकृत है। वह नर-नारी के गुण सूत्रों के माध्यम से विकसित होता है; किन्तु प्राण देवता है। उसकी असीम मात्रा इस विश्व-ब्रह्माण्ड में भरी पड़ी है। वह अपने वर्ग के साथ असाधारण मात्रा में एकत्रित भी हो सकता है और एक से दूसरे में प्रवेश करके, अपनी दिव्य क्षमता का हस्तान्तरण भी कर सकता है। इस प्रकार के प्रयोगों को ‘शक्तिपात’ नाम से जाना जाता है। छाया-पुरुष स्तर में भी उसी का विशेष कर्तृत्व देखा जाता है। मरणोपरान्त उसका स्वतन्त्र अस्तित्त्व भूत-प्रेत आदि के रूप में बना रहता है। जीवित स्थिति में भी अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में उसके चमत्कारी करतब देखे जा सकते हैं। प्राणयोग के अभ्यास से इसका अतिरिक्त प्रवाह, शरीर से बाहर निकलकर भी सुषुप्ति, तुरीया समाधि आदि में अपनी सत्ता बनाये रहकर, बिना शारीरिक साधनों के अपने अस्तित्त्व तथा सशक्त विशेषताओं का परिचय दे सकता है। प्राण की सत्ता हस्तान्तरण के उपयुक्त भी है। कोई समर्थ व्यक्ति अपनी दिव्य क्षमता का एक भाग दूसरे को देकर उसकी सहायता भी कर सकता है। आदि शंकराचार्य की कथा प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार वे कुछ समय के लिये अपने शरीर से निकल कर किसी दूसरी काया में प्रवेश कर गये थे और लम्बी अवधि तक उसी में बने रहे थे।

अन्य विशिष्ट शक्तियाँ भी मनुष्य के साथ अपना ताल-मेल बिठाती और उसके शरीर द्वारा अपने अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती रही हैं। कुन्ती-पुत्र मनुष्य शरीरधारी होते हुए भी विशेष देवताओं के अंश थे। उसी स्तर के वे काम भी करते रहे, जैसे कि साधारण मानवी काया में रहते हुए कर सकना सम्भव नहीं है। रामायण काल में हनुमान, अंगद आदि के पराक्रमों को भी ऐसे ही देवोपम माना जाता है। मनुष्य शरीरधारी सामान्य प्राण वाले प्राय: वैसा कार्य नहीं कर सकते। अवतारी सत्तायें मनुष्य-शरीर में रहकर ही अपने विशेष कृत्य करतीं और ‘यदा यदा हि धर्मस्य’ वाली प्रतिज्ञा की रक्षा करती हैं।

भगवान् जिन्हें विशेष कार्यों के लिये चुनते, नियुक्त करते हैं, उनमें इस दिव्य प्राण की मात्रा ही अधिक होती है, जिसके सहारे वे नर-वानरों की परिधि से ऊँचा उठकर सोचने, ऐसा साहस करने और आदर्श उपस्थित करने में समर्थ होते हैं। भू-बन्धनों की रज्जुओं से जकड़े हुए सामान्य मनुष्य न तो वैसा सोच ही सकते हैं और न दिव्य आदर्शों को अपना पाते हैं। दैवी-प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिये अतिरिक्त आत्मबल का, मनोबल का परिचय वे दे नहीं पाते। छिट-पुट विघ्न ही उन्हें पहाड़ जितने भारी दीखते हैं और जब कुछ कर-गुजरने का समय आता है, तो भयभीत होकर किसी अनर्थ की आशंका करने लगते हैं। कायरता न जाने कहाँ से आकर दौड़ पड़ती है और कभी की हुई प्रतिज्ञायें-लिये हुये संकल्पों को एक प्रकार भूल ही जाते हैं।

दैवी अनुग्रह के सम्बन्ध में भी लोगों की विचित्र कल्पनायें हैं। वे उन्हीं छोटी सम्भावनाओं को दैवी अनुकम्पा मानते रहते हैं, जो सामान्य पुरुषार्थ से अथवा अनायास ही संयोगवश लोगों को उपलब्ध होती रहती है। मनोकामनाओं तक ही उनका नाक रगड़ना गिड़गिड़ाना सीमित रहता है, जिसे वे दैवी अनुकम्पा मानते हैं। आत्मबल- आत्मविश्वास न होने से जो कुछ प्राप्त होता, है, उसे पुरुषार्थ का प्रतिफल मानकर उनका मन सन्तुष्ट ही नहीं होता, उनके लिये हर सफलता दैवी अनुग्रह और हर असफलता दैवी प्रकोप मात्र प्रतीत होती है। ऐसे दुर्बल चेताओं की बात छोड़ दें, तो यथार्थता समझ में आ जाती है; पर अन्ततः: एक ही तथ्य सामने आता है कि मनुष्य जब आदर्शवादी अनुकरणीय- अभिनन्दनीय कार्यों को करने के लिए उमंगों- तरंगों से भर जाता है, तो वह असाधारण कदम उठाने लगता है। रावण की सभा में अंगद का पैर उखाड़ना तक असम्भव प्रतीत होने लगा था। औसत आदमी को तो हर काम असम्भव लगता है। ऐसे छोटे त्याग करना भी उसे पहाड़ उठाने जैसा भारी पड़ता है, जो वस्तुतः: हल्के- फुल्के ही होते हैं और हिम्मत के धनी आदर्शवादी, जिन्हें आये दिन करते रहते हैं।

दैवी अनुग्रह का एक ही चिह्न है- आदर्शवादिता की दिशा में साहसपूर्वक बड़े कदम उठाना और उस प्रयास में आने वाली कठिनाइयों को हँसते- हँसते दरगुजर कर देना। भगवान् का अनुग्रह एक ही है- आदर्शों के परिपालन में बढ़ी- चढ़ी साहसिकता का प्रदर्शन करते रहना। कायरों और हेयजनों के लिये यही पर्वत उठाने जैसा अड़ंगा प्रतीत होता है; किन्तु जिनमें मनोबल की कमी नहीं, उनके लिये तो यह सब खेल- खिलवाड़ जैसा लगता है। संसार का इतिहास साक्षी है कि जिस किसी पर भगवान् की प्राणचेतना की अनुकम्पा बरसी है, उनको एक ही वरदान मिला है, ऐसे सत्कर्म करने का साहस मिला है, ऐसा उत्साह मानस में विचरता रहा है कि अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कार्य सतत करने की लगन उठती रहे। अवांछनीय और अनौचित्य जहाँ भी दीखता है, वहाँ लड़ पड़ने का इतना शौर्य- साहस उभरता है कि उसे चरितार्थ किये बिना व्यक्ति शान्ति से बैठ ही नहीं सकता।

इक्कीसवीं सदी में ऐसी ही प्रतिभायें सर्वत्र उभरेंगी। जिनके पिछले किये क्रिया- कलाप देखने से निराशा होती थी, उनमें से भी कितने ही ऐसे उभरेंगे, जो अपने को धन्य बनायेंगे- अपने इर्द- गिर्द के लोगों को भी पार करके निहाल कर देंगे। पैसा, औलाद, स्वास्थ्य और बड़प्पन तो बुरे लोग भी अपने बलबूते अर्जित कर लेते हैं, पर आदर्शों की दिशा में साहसपूर्वक चल पड़ना मात्र उन्हीं के लिये सम्भव होता है, जिन पर भगवान् की विशेष अनुकम्पा बरसती है; जिसे परमपिता कृपापूर्वक अपने उच्चस्तरीय प्राण का वह भाग प्रदान करते हैं, जिसके सहारे नर- वानर को नर से नारायण बनने का अवसर होता है।


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