प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया

दैवी सहायता भी अपेक्षित

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मनुष्य के अपने पुरुषार्थ, ज्ञान, सूझ- बूझ आदि का महत्त्व है। प्राय: उसी के आधार पर लोग ऊँचे उठते या कमी रहने पर नीचे गिरते हैं; पर कभी- कभी ऐसा भी होता है कि किन्हीं दूसरे समर्थों की सहायता से भी रुकी हुई गाड़ी चलने लगती है और कठिनाइयों का दबाव हल्का हो जाता है। जिनका व्यापार- व्यवसाय पूँजी की कमी के कारण रुक गया है, उन्हें यदि बैंक आदि की तात्कालिक सहायता मिल जाए, तो रुका काम चलने लगता है और लिया हुआ ऋण ब्याज समेत चुक जाता है।

मित्र, सहायक, सम्बन्धी भी कभी- कभी ऐसी सहायता कर देते हैं, जिसकी पहले से कोई सम्भावना या आशा न थी। दैवी अनुग्रह का तो कहना ही क्या? कभी व्यापार- धन्धे के सहारे अकस्मात् किसी बड़े लाभ का सुयोग मिल जाने में, लाटरी खुल जाने आदि के रूप में भी ऐसे लाभ हस्तगत हो जाते हैं, जिनकी पहले से ऐसी कोई आशा न थी। जब वरदान फलता है, तो उसका लाभ विद्या, पौरुष आदि से भी बढ़कर मिल जाता है। उत्तराधिकार में एवं दान- दक्षिणा के रूप में मिली हुई उपलब्धियों को भी दैवी सहायता के रूप में ही गिना जाता है।

पुरुषार्थ हो या दैवी अनुग्रह, उनका मिलना- सुरक्षित रहना और किसी दुरुपयोग से नष्ट हो जाना जैसी परिस्थितियाँ भी कई बार मनुष्यों के सामने आती रहती हैं। यही बात कठिनाइयों, आपत्तियाँ  बचाव होने के सम्बन्ध में भी है। कई बार तो प्रयास, परिश्रम भी इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि बिना प्रयास के या स्वल्प प्रयत्न से भी बड़े लाभ हस्तगत हो जाते हैं। समय विपरीत हो, तो सारी चालें उल्टी पड़ जाती हैं और भरपूर मेहनत तथा अपनाई गई सूझ- बूझ भी काम नहीं देती। कई बार तो की गई आशा से विपरीत फल सामने आ खड़ा होता है। किसान का व्यवसाय एक बीज के बदले सौ दाने उत्पन्न करने जैसा लाभदायक है; पर उसमें भी कई बार अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओला, पाला, कड़ी ठण्ड आदि ऐसे संकट बीच में ही आ जाते हैं कि जो सम्भावना गणित के आधार पर आँकी गई थी, वह सीधी से उल्टी पड़ जाती है। कई बार इससे ठीक उल्टा भी होता है। दाँव सीधा पड़ जाने पर ऐसी सफलता भी मिल जाती है, जिसके सम्बन्ध में न तो कोई आशा थी, न सम्भावना। यद्यपि ऐसा अपवाद स्वरूप जब- तब ही होता है; पर यदि कभी ऐसा बन पड़े, तो उसे असंभव नहीं कहा जा सकता है।

अपवाद भले ही कम होते हों; पर अवश्य होते हैं। ऐसे अपवादों को दैवी कृपा या अनुग्रह के नाम से जाना जाता है। अप्रत्याशित परिणामों को भाग्य या समय का फेर भी कहते हैं। किसी बालक का धनवान् वर्ग में जन्म लेना और अनायास ही विपुल धन का स्वामी बन जाना, किसी सिद्धान्त विशेष पर आधारित नहीं है; इसे भाग्योदय ही कह सकते हैं। संसार में ऐसे भी अनेक मनुष्य हुए हैं, जिनके आरम्भ में शिक्षा की, सम्पदा की, परिस्थितियों की सर्वथा प्रतिकूलता थी; पर एक के बाद एक ऐसे सुयोग मिलते और बनते गए कि वह असाधारण कार्यों और प्रयासों में एक के बाद एक बड़ी सफलताएँ पाते गए और अन्ततः: मूर्धन्य सौभाग्यवानों में गिने गए।

दुर्घटनाओं, विपत्तियों, हानियों, प्रतिकूलताओं के भी कभी- कभी ऐसे कुयोग आ धमकते हैं, जिनमें कोई दोष प्रत्यक्षतः: दीखता नहीं, फिर भी न जाने कहाँ से और क्यों ऐसे संकट आ खड़े होते हैं कि सब कुछ चौपट हो जाता है। बनने जा रहे काम बिगड़ जाते हैं। ऐसे घटनाक्रमों को दुर्भाग्य, दैवी प्रकोप, भाग्य, पूर्व संस्कार, भवितव्यता आदि कहकर मन को समझाया जाता है। वस्तुतः: इस संसार में अनायास नाम की कोई चीज नहीं है। सृष्टि के नियमों की अकाट्यता प्रसिद्ध है। फिर भी अपवाद जैसे आकस्मिक बहुत कुछ होते रहते है। इसके पीछे भी कुछ कारण होते हैं, भले हम जानते न हों। जानने को तो हम बहुत- सी बातें नहीं जानते, फिर भी वे अनायास ही हो गईं- ऐसा नहीं कहा जाता। किसका असली पिता कौन है? इसकी सही जानकारी अपने आप तक को नहीं होती; पर इस सम्बन्ध में माता के कथन को ही प्रामाणिक मान लिया जाता है। दूसरा कोई चारा भी तो नहीं।

आकस्मिक लाभ और आकस्मिक हानि के पीछे अक्सर भाग्य का फेर कहा जाता है; पर इसके पीछे भी कुछ नियम निर्धारण काम करते हैं। पूर्व जन्मों के संग्रहित संस्कार समयानुसार फलित होते हैं। इसका समुचित विधान जान न पाने के कारण उसे भाग्य कह देते हैं। एक दूसरा विधान संसार में ऐसा भी है, जिसे उदार अनुदान कहते हैं। आकस्मिक सहायताएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। जिनके पास फालतू पैसा होता है, वे उसे बैंक में जमा कर देते हैं। नियत अवधि के उपरान्त वह ब्याज समेत वापस मिल जाता है, यद्यपि जमा करने और निकालने के समय में लम्बी अवधि का अन्तर होता है; पर वह है किसी नियम- व्यवस्था पर ही आधारित।

संसार में ऐसी आत्माएँ भी हैं, जिनके पास पुण्यफल का प्रचुर भण्डार भरा पड़ा है। धन को घर में रखना जोखिम भरा समझा जाता है, इसलिए सुरक्षा और निश्चिंतता की दृष्टि से उसे बैंक में जमा कर दिया जाता है। पुण्य- परमार्थ मे ऐसी ही विद्या है, जिसे उदारचेता समय पर जरूरतमन्दों को देते रहते हैं। इसमें दुहरा लाभ है- एक तो जिसका काम रुक गया था, उसका काम चल जाता है, दूसरा जिसने जमा किया था, उसे आवश्यकतानुसार वापस मिल जाता है। पुण्य- परमार्थ का, दान- अनुदान का यह क्रम भी उसी आधार पर चलता है, जिसके आधार पर बैंकों का, बीमा का, शेयरों का कारोबार चलता रहता है। अनुदान के चक्र भी इसी आधार पर चलते हैं।

इक्कीसवीं सदी में दुहरे कारोबार बड़े रूप में चलेंगे। एक यह कि जो अवांछनीयताएँ इन दिनों बुरी तरह छाई हैं, उन्हें उलट देना, ताकि छाए हुए संकटों को निरस्त किया जा सके ।। दूसरा यह कि नव- निर्माण की दृष्टि से बहुत कुछ किया जाना है। क्षतिपूर्ति के लिए विशालकाय कारोबार खड़े किए जाने हैं। इसके लिए भी पूँजी एवं साधन- सामग्री चाहिए। यह सृजन- कार्य किन्हीं व्यक्तियों के माध्यम से ही होगा। संकटों से जूझने के लिए सशक्त योद्धा ही लड़ाई की अग्रिम पंक्ति में खड़े होंगे दोनों ही उद्देश्य इन्हीं व्यक्तियों के क्रिया- कलापों के माध्यम से ही सम्पन्न होंगे। आवश्यक नहीं कि यह सारे कार्य उसी के हों, जिसे कि श्रेय मिला हो। मोर्चे पर लड़ते तो सैनिक ही हैं, पर उन्हें जो वाहन, हथियार, रसद, आहार मिला है, वह उस सैनिक के स्वयं के नहीं, वरन् संचालक सूत्र से ही उपलब्ध होते हैं।

अगले दिनों भयंकर विभीषिकाओं को निरस्त होकर रहना है, साथ ही अभावों का जो भी भारी त्रास छाया हुआ है, उसे भी परास्त करना है। उस कार्य को सक्रिय परिजन कटिबद्ध होकर करेंगे हि पर वस्तुतः: इस प्रयोजन के लिए जितनी प्रचुर शक्ति सूझ- बूझ और साधन- सामग्री चाहिए, उतनी पूँजी एकत्रित रूप में सीधी हस्तगत नहीं हो सकती, वरन् बैंक जैसे समर्थ माध्यम से उधार लेनी पड़ेगी। सभी जानते हैं कि ठेकेदारों को निर्माण की ठेकेदारी भर मिलती है, उस समूचे कार्य में जो लाखों- करोड़ों की पूँजी लगती है, उसका प्रबन्ध सूत्र -संचालक को ही करना पड़ता है।

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