धरती में दबे और ऊपर बिखरे बीज वर्षा के आरम्भ होते ही अंकुर फोड़ने लगते हैं। अंकुर पौधे बनते और पौधे बढ़कर परिपक्व वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। वृक्ष भी चैन से नहीं बैठते, बसन्त आते ही वे फूलों से लद जाते हैं। फूल भी स्थिर कहाँ रहते हैं वे फल बनते हैं, अनेकों की क्षुधा बुझाते और उनमें से नए बीजों की उत्पत्ति होती है। उन्हें बाद में अंकुरित होने का अवसर मिले तो एक ही पेड़ की परिणति कुछ ही समय में इतनी अधिक विस्तृत हो जाती है, जिनसे एक उद्यान बनकर खड़ा हो जाए।
मत्स्यावतार की कथा भी ऐसी ही आश्चर्यमयी है। ब्रह्मा जी के कमण्डल में दृश्यमान होने वाला छोटा कीड़ा मत्स्यावतार के रूप में विकसित हुआ और समूचे भूमण्डल को अपने विस्तार में लपेट लिया। इन्हीं कथाओं का एक नया प्रत्यावर्तन इन्हीं दिनों होने जा रहा है। संभव है, २१वीं सदी का विशालकाय आंदोलन एक छोटे से शान्तिकुञ्ज आश्रम से प्रकटे और ऐसा चमत्कार उत्पन्न करे कि उसके आँचल में भारत ही नहीं, समूचे विश्व को आश्रय मिले। दुनिया नया रूप धारण करे और विकृत विचार परिष्कृत होकर दूरदर्शी विवेकशीलता के रूप में अपना सुविस्तृत परिचय देने लगे।
यह बहुमत का युग है- संघशक्ति का। मिल- जुलकर पक्षी एक साथ जोर लगाते हैं तो मजबूत जाल को एक ही झटके में उखाड़ लेने और उड़ा ले जाने में सफल हो जाते हैं। ईंटें मिलकर भव्य भवन खड़ा कर देती हैं। बूँद- बूँद से घड़ा भरता है। तिनके मिलकर हाथी बाँधने वाला रस्सा बनाते हैं। धूलिकण अन्धड़ बनकर आकाश पर छाते देखे गए हैं। रीछ- वानरों और ग्वाल- बालों के संयुक्त पुरुषार्थ की कथा- गाथा युग- युगों से कही- सुनी जाती रही है। इन दिनों भी यही होने जा रहा है।
इन दिनों वैयक्तिक और सामूहिक जीवन में छाई हुई अतिवादी अवांछनीयता और कुछ नहीं, अधिकांश लोगों द्वारा अचिंत्य- चिन्तन और अकरणीय क्रियाकृत्य अपना लिए जाने का ही प्रतिफल है। यदि यह बहुमत उलट जाए तो फिर परिस्थितियों के बदल जाने में देर न लगे। पुरातन सतयुग की वापसी के दृश्य पुन: मूर्तिमान होकर सामने आ खड़े हों। यही होने भी जा रहा है। प्राचीनकाल में ऋषिकल्प व्यक्तियों का बाहुल्य था। हर किसी की ललक समाज से कम से कम लेने और अधिक से अधिक देने की रहा करती थी। वह बचत ही परमार्थ- प्रयोजनों में लगकर ऐसा माहौल बना दिया करती थी, जिसका स्मरण अभी भी लोग सतयुगी परम्परा के रूप में किया करते हैं, वह समय फिर वापस लौट आने की कामना किया करते हैं। दैत्य कोई आकार- विशेष नहीं होता, वे भी मनुष्यों की ही शकल- सूरत के होते हैं, अन्तर केवल इतना ही होता है कि दैत्य दूसरों से, संसार से लूटते- खसोटते अधिक हैं और अपने समय, श्रम, चिन्तन तथा वैभव का न्यूनतम भाग सत्कर्मों में लगाते हैं। यही है वह अन्तर, जिसके कारण देवता पूजे जाते और दैत्य सर्वत्र भर्त्सना के भाजन बनते हैं।
प्रस्तुत परिवर्तन इसी रूप में अवतरित होने वाला है कि दैत्य- वर्ग अपनी हठवादिता से पीछे हटेंगे और देवत्व की सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उन्मुख होंगे। यह हलचल असंख्यों के अन्तराल में अनायास ही उठेगी। उस चमत्कार को हम सब इन्हीं आँखों से देखेंगे। दृष्टिकोण में सुधार- परिवर्तन होते ही परिस्थितियाँ बदलेंगी, वातावरण बदलेगा और प्रचलन में ऐसा हेर- फेर होगा, जिसे युगपरिवर्तन के नाम से समझा, देखा और परखा जा सके।
इस प्रयोजन के लिए एक सुनियोजित योजना दैवी चेतना के संकेतों पर इन्हीं दिनों अवतरित हुई है। इस साधना और प्रयास- प्रक्रिया का नाम ‘युगसन्धि महापुरश्चरण’ दिया गया है। उसका विस्तार भी आश्चर्यजनक गति से हो रहा है। अमरकण्टक से नर्मदा की धारा के प्रस्फुटन की तरह शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से युगसन्धि- संकल्प उभरा है। निजी प्रयोजनों के लिए तो पूजा- पाठ के, प्रचार- प्रसार के अनेक आयोजन आए दिन होते रहते हैं, पर इस साधना का संकल्प एवं लक्ष्य एक ही है- युगपरिवर्तन के लिए उपयुक्त वातावरण एवं परिवर्तन प्रस्तुत करना। जिनकी इस महान् प्रयोजन में तनिक भी रुचि है, वे इस आत्मीय आमन्त्रण का परिचय प्राप्त करते ही दौड़े चले आ रहे हैं और इस महाक्रान्ति के प्रवाह में उत्सुकतापूर्वक सम्मिलित हो रहे हैं।
पुरश्चरण की तप- साधना का प्रारम्भिक रूप एक लाख दीपयज्ञों की साक्षी में एक करोड़ प्रतिभाओं को यजमान रूप में सम्मिलित करने का था; पर अब लोगों की श्रद्धा, सद्भावना और आतुरता को देखते हुए उसे ठीक दूना कर दिया गया है, ताकि कम समय में अधिकाधिक प्रतिफल की उपलब्धि हो सके। इसी उद्देश्य से संकल्प जोशीला हो गया है। प्रारम्भिक निश्चय था कि महापुरश्चरण की पूर्णाहुति सन् २००० में बीसवीं सदी का अन्त होते- होते होगी। अब लक्ष्य दूना हो जाने से संकल्प को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है। अब ५-५ वर्ष में एक- एक करोड़ करके सन् २००० तक पूरी पूर्णाहुति में दो करोड़ भागीदार बनाने का लक्ष्य है। दीप यज्ञायोजन भी एक लाख के स्थान पर दो लाख हो जाएँगे।
आरम्भ में सोचा गया था कि यह आयोजन हरिद्वार या प्रयाग के कुम्भपर्व के स्थान पर सम्पन्न किया जाए और एक ही स्थान पर सभी भागीदार एकत्रित हों और उस समारोह को अभूतपूर्व समारोह के रूप में प्रस्तुत करें। पर अब अधिक क्षेत्रों की जनता को अपने- अपने समीपवर्ती केन्द्रों में एकत्र होने की सुविधा रहेगी और दो स्थानों की अपेक्षा लाखों स्थानों पर एकत्रित होने का अवसर मिलेगा। सम्मिलित होने वालों को दूर जाने- आने का किराया- भाड़ा भी खर्च न करना पड़ेगा और समीपवर्ती स्थान में ठहरने की, भोजन आदि की व्यवस्था भी बन पड़ेगी। इस महाप्रयास की जानकारी अधिक व्यापक क्षेत्र में सुविधापूर्वक पहुँच सकेगी, जो इस पुरश्चरण का मूलभूत उद्देश्य है।
स्मरण रहे यह संकल्प महाकाल का है, केवल जानकारी पहुँचाने और आवश्यक व्यवस्था जुटाने का काम शान्तिकुञ्ज के संचालकों ने अपने कन्धों पर धारण किया है। मौलिक श्रेय तो उसी महाशक्ति का है, जिसने मनुष्य जैसे प्राणी की सीमित शक्ति से किसी भी प्रकार न बन पड़ने वाले कार्यों को करने की प्रेरणा दी है और काम में जुट जाने के लिए आगे धकेल कर बाधित किया है। वही इस प्रयोजन को पूर्ण भी करेगी, क्योंकि युगपरिवर्तन का नियोजन भी उसी का है।
शान्तिकुञ्ज के संचालक प्राय: अस्सी वर्ष के होने जा रहे हैं। उनका शरीर भी मनुष्य- जीवन की मर्यादा के अनुरूप अपने अन्तिम चरण में है, फिर नियंता ने उनके जिम्मे एक और भी बड़ा तथा महत्त्वपूर्ण कार्य पहले से ही सुपुर्द कर दिया है, जो कि स्थूल शरीर से नहीं, सूक्ष्म शरीर से ही बन पड़ेगा। वर्तमान शरीर को छोड़ना और नए सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करके प्रचण्ड शक्ति का परिचय देना ऐसा कार्य है, जो सशक्त आत्मा के द्वारा ही बन पड़ सकता है। इतने पर भी किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि निर्धारित ‘युगसन्धि महापुरश्चरण’ में कोई बाधा पड़ेगी। महाकाल ने ही यह संकल्प लिया है और वही इसे समग्र रूप में पूरा कराएगा, फिर उज्ज्वल भविष्य के निर्माण हेतु अगले दस वर्षों तक शान्तिकुञ्ज के वर्तमान संचालक भी आवश्यक व्यवस्था बनाने और तारतम्य बिठाते रहने के लिए भी तो वचनबद्ध हैं।