नारी की महानता

राष्ट्रीयता में नारियों का स्थान

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जिस संकुचित वातावरण में रहकर स्त्रियाँ स्वयं संकुचित विचारों वाली बन गईं और जिस वातावरण के कारण पुरुषों में भी स्त्रियों के बारे में संकुचित विचार पैदा हो गए, उन सबको मिटाकर आज सुधरे हुए संसार में यह बात सिद्ध की जा चुकी है कि स्त्री और पुरुष दोनों मानव समाज के दो अंग हैं,
जिन पर समाज की समान जिम्मेदारी है ।

मनुष्य जीवन में स्त्री की जो जिम्मेदारियाँ हैं, उनको अंगीकार करके हमें स्त्रियों को अपना विशिष्ट भाग प्रदान करना है । अब तक गृह जीवन स्त्रियों के हाथ में था और बाहर का सारा व्यवहार पुरुषों के हाथ में था ।

इसके दो परिणाम स्पष्ट रूप से आज हमारे सामने हैं । एक तो यह कि आज समाज में पुरुषों के सभी व्यवहारों को एक प्रकार की श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा प्राप्त है और स्त्रियों के काम को जनाना समझकर उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है ।

आज भी कहीं बाहर जाकर काम करने में स्त्रियों विशेष गौरव अनुभव करती हैं, जब कि घर में रहने वाली और घर सँभालने वाली बहनें अपने मन में यही समझती हैं कि हम कुछ नहीं करतीं और हमारा जीवन व्यर्थ ही बीत रहा है ।

दूसरा परिणाम यह हुआ कि बाहर के सब व्यवहारों पर पुरुषों की छाप पड़ी हुई है । आज हम जिस जगत में रह रहे हैं, वह आदि से अंत तक पुरुषों की सृष्टि है । व्यापार, व्यवहार, कानून-कायदा, राजनीति, धर्मनीति, उद्योग-धंधे, सभी कुछ पुरुषों के बनाए हुए हैं ।स्त्रियों आज इन कामों में कितना ही भाग क्यों न लें, तब भी वे पुरुष बनकर यानी पुरुषों द्वारा ठहराए हुए तरीके से, उनके द्वारा विकसित की गई पद्धति से ही, उन सब कामों को करती हैं । स्त्रियों आज कितनी ही आगे क्यों न बढ़ जाएँ, कितने ही विभिन्न क्षेत्रों को क्यों न पदाक्रांत कर लें और पुरुषों की बराबरी करने का कितना ही आत्मसंतोष क्यों न अनुभव करें, तथापि आखिरकार उनको रहना तो उसी दुनिया में है, जिसका विधाता पुरुष है ।

जो काम स्त्रियों को कुदरत की ओर से सौंपा गया है और जिसे वे भलीभाँति कर सकती हैं, उसी बाल शिक्षा के काम को यदि वे पूरी तरह सँभाल लें तो वे एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी को सँभाल लेंगी ।

स्त्रियाँ कह सकती हैं कि इसमें आपने नई बात क्या कही ? आज न जाने कितने युगों से हम घर की और बच्चों की ही गुलामी करती आईं हैं और रात-दिन उन्हीं का पाखाना-पेशाब उठाती हैं, फिर उसी को करने में विशेषता क्या है ? पहली विशेषता तो भावना है । नारियों को समझना चाहिए यह काम सिर पर आकर पड़ा हुआ कोई बोझ नहीं है और पुरुष जितने भी काम करते हैं, उनमें से किसी से किसी प्रकार हलका नहीं है । इस भावना से यदि इन कामों को करें तो इनमें रस के घूँट पी सकती हैं । इसमें संदेह नहीं कि भावना के रस से रँगकर हमारे सब काम अधिक सजीव और प्रकाशित हो उठेंगे ।

दूसरी विशेषता यह है उन्हीं कामों को करने के तरीकों की । परंपरागत तरीकों से बच्चों की परवरिश करना एक बात है और इस विषय के शास्त्रों का अध्ययन करके स्वयं प्रयोगों द्वारा उन तरीकों में उन्नति करना दूसरी बात है । यदि स्त्रियाँ बालसंगोपन संबंधी शास्त्रों का अध्ययन करें, गहराई के साथ इन विषयों का चिंतन-मनन करें और इस प्रकार अपने अनुभवी विचारों की भेंट समाज के चरणों में चढ़ाती रहें तो यह काम आज जितना हीन और गौण माना जाता है, उतना न स्वयं स्त्रियों को ही हीन और गौण मालूम होगा और न पुरुषों को ही ।

यदि हमारी बहनें बाल-मनोविज्ञान, बाल-शिक्षाशास्त्र, बाल-शरीर और बाल-मानस के विकास का और ऐसे अन्य विषयों का गंभीर अध्ययन करके तदनुसार इस दिशा में भलीभाँति कर्म करने लगें तो पुरुषों के दिल में कभी खयाल उठेगा ही नहीं कि चूँकि स्त्रियों उनकी तरह बाहर जाकर नौकरी नहीं करतीं,
इसलिए वे कोई कम महत्त्व का काम करती हैं । एक कहावत है कि 'जिसके हाथ में पालने की डोरी है, वही संसार का उद्धारकर्त्ता भी है ।' यह कहावत या तो केवल लेखों-निबंधों में प्रयुक्त होती है अथवा मातृदिन के उत्सव पर दोहरा दी जाती है, पर यदि बहनें मन में धर लें तो कल यह बात पूरे अर्थों में सत्य और सार्थक हो सकती हैं ।

दूसरी बात यह है कि संसार के मानवी व्यवहारों में स्त्री को स्त्री के नाते ऐसा परिवर्तन करना चाहिए जो उसके विचारों और वृत्ति के अनुकूल हो । आजकल जिस तरह का व्यवहार देश-देश और जाति-जाति के बीच हो रहा है, उसमें कई प्रकार का जंगलीपन भरा हुआ है, पशुता भी है, हृदय- शून्यता और अमानुषिकता भी है, पुरुषों की इस दुनिया में यह एक सामान्य धारणा बनी हुई है कि जहाँ-जहाँ व्यवहार का संबंध आता है, वहाँ-वहाँ उसकी नींव असत्य पर ही बनी होनी चाहिए । मनुष्य को दुनिया में यही सोचकर चलना चाहिए कि जो कुछ है सो बुरा ही बुरा है । जितने भी हक या अधिकार पाने हैं, वे सब लड़-झगड़कर ही पाने हैं । ये और ऐसे अन्य अनेक अलिखित नियम आज मनुष्यों के आपसी व्यवहार में प्रचलित हैं ।

यह सच है कि यदि स्त्रियाँ पुरुषों का अनुकरण करना छोड़ दें और जो कुछ उनके मन को अच्छा लगे वैसा ही करने लगें तो मनुष्यों के व्यवहार में वे बहुत कुछ परिवर्तन कर सकती हैं और उसको अभीष्ट रूप भी दे सकती हैं । इसमें शक नहीं कि जो संस्कार पीढ़ियों और सदियों पुराने हैं, उनके दूर होने या बदलने में भी काफी समय लगेगा । फिर भी दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं जो असंभव हो, आजकल की स्त्री रोगों से ग्रसित है । एक रोग तो यह है कि वह चाहे या न चाहे,
तो भी उनका मन यह मानना चाहता है कि पुरुष जो कहता है, वही ठीक है, पुरुषों के ठहराए हुए नियम उनके बनाए हुए विधि-विधान, उनके तैयार किए हुए कानून-कायदे और उनके द्वारा प्रचारित रीति-रिवाज जो कुछ भी हैं सो सब उसको सोलहों आने ठीक मालूम होते हैं ।

स्त्री का दूसरा रोग है- तंगदिली अर्थात हृदय की संकुचितता । आज स्त्री महान बातों का उतनी ही महानता के साथ विचार नहीं कर पाती । उसके लिए यह बहुत जरूरी है कि वह अपने हृदय को विशाल बनाए और दुनिया को विशाल दृष्टि से देखे ।

यद्यपि नर और नारी भगवान की सृष्टि में समान महत्त्व रखते हैं, तो भी प्रकृति ने नारी पर संतानोत्पादन तथा उसके पालन के रूप में जो विशेष उत्तरदायित्व रखा है, उसके कारण उसका महत्त्व अवश्य बढ़ जाता है ।

नारी का कर्त्तव्य है कि सबसे पहले अपने इस उत्तरदायित्व को भली प्रकार और अधिकारपूर्वक निभाए । वह आज अगर अबला बनी है और अनेक बार उसे पुरुष का दुर्व्यवहार सहन करना पड़ता है तो इसमें कुछ त्रुटि उसकी भी है ।

वह संतान के प्रति विशेषत: पुत्रों से आवश्यकता से अधिक मोह रखती है और उनको सुयोग्य और कर्त्तव्यपरायण बनाने की तरफ कम ध्यान देती है । इसी का परिणाम है कि पुरुषों में अनेक दोष पैदा हो जाते हैं और वे मातृजाति के प्रति गर्वित व्यवहार करने में भी नहीं सकुचाते ।

यदि नारियों ने अपने को पुरुष की दासी का पद ग्रहण करने के बजाए उसकी निर्मात्री के पद का कर्त्तव्यपालन किया होता तो आज संसार की दशा कुछ और ही होती ।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118