नारी की महानता

नारियों का समाजोत्थान में भाग

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आधुनिक विद्वानों ने संसार की विभिन्न जातियों की सभ्यता की जाँच करने में जिन विधियों से काम लिया है, उनमें ''स्त्रियों की स्थिति'' एक विशेष स्थान रखती है । संसार में ऐसे देश बहुत कम हैं,
 
जिनमें प्राचीनकाल से स्त्रियों को उच्च स्थान दिया गया है । अनेक देशों में तो स्त्रियों को सर्वथा दास का ही दर्जा दिया गया था, पर प्राचीन भारतवासियों ने समाज-निर्माण में स्त्रियों के महत्त्व को अनुभव करते हुए उनको इतना उच्च स्थान दिया था कि वे पूजा के योग्य मानी गई थीं ।

भारतीय संस्कृति में स्त्री व पुरुष दोनों को एक गाड़ी के दो पहियों की तरह माना गया था । दोनों पहिये साथ-साथ और बराबर चलेंगे तभी जीवनरूपी गाड़ी भली प्रकार अग्रसर हो सकती है । इसी दृष्टि से स्त्री को पुरुष की अर्द्धांगिनी कहा गया था ।

शतपथ ब्राह्मण में लिखा है- ''पत्नी पुरुष की आत्मा का आधा भाग है । इसलिए जब तक पुरुष पत्नी को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक प्रजोत्पादन न होने से वह अपूर्ण रहता है ।''

महाभारत के आदि पर्व (७४- ४०) में लिखा है- ''भार्या पुरुष का आधा भाग व उसका श्रेष्ठतम मित्र है । वही त्रिवर्ग की जड़ है और वही तारने वाली है । ''मनु भगवान ने तो स्पष्टत: ही कह दिया है, ''जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं ।''

 इस व्यवस्था में इस बात की आशंका नहीं थी कि पुरुष अपनी शक्ति का घमंड करके स्त्री पर अपना अधिकार दिखला सके । जबकि स्त्री उसी का आधा अंग है, तब अधिकार का प्रश्न ही नहीं उठ सकता । वे दोनों ही बराबर हैसियत रखते हैं । स्त्री और पुरुष एक ही पारिवारिक जीवन के दो विभिन्न पहलू हैं । 

पारिवारिक जीवन

में दो प्रकार की जिम्मेदारियों रहती हैं । एक घर के भीतर की और दूसरी घर के बाहर की । इनमें से एक का संचालन विशेषत: स्त्री द्वारा ही होता है और दूसरी का पुरुष द्वारा । पारिवारिक अभ्युदय के लिए दोनों पहलुओं का सुचारु रूप से संचालन होना आवश्यक है । यदि दो में से किसी एक में कमी रही
तो जीवन दु:खमय हो जाता है ।

स्त्री-पुरुष के एक साथ रहने से ही पारिवारिक जीवन का श्रीगणेश होता है । ज्यों-ज्यों संतान वृद्धि होती है या अन्य प्रकार से परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगती है, त्यों-त्यों उसका आंतरिक जीवन भी विकसित होने लगता है ।

इस जीवन का संबंध पूर्णतया स्त्री से ही रहता है । प्राचीन समाज में उसे ही परिवार के छोटे-बड़े सब सदस्यों की चिंता करनी पड़ती थी । उसे अपने घर को साफ-सुथरा रखना, भोजन की व्यवस्था करना और अतिथि सत्कार के उत्तरदायित्व को पूरा करना पड़ता था ।

उसे अपनी संतान का पालन-पोषण करके उन्हें योग्य नागरिक बनाने का प्रयत्न भी करना पड़ता था । इसीलिए उसे गृहिणी के पद पर सुशोभित किया गया था । महाभारत के शांति पर्व (१४४- ६६) में लिखा है- ''घर, घर नहीं है, वरन गृहिणी ही घर कही जाती है ।

''प्राचीन सामाजिक जीवन में गृहिणी पद अत्यंत महत्त्वपूर्ण था क्योंकि उस समय पारिवारिक जीवन स्वावलंबन के सिद्धांत पर स्थित था । इसलिए स्त्रियों को ऊपर लिखे कार्यों के अतिरिक्त सूत कातने, कपड़ा बुनने, गाय दुहने, खेतों संबंधी बहुत से कार्यों की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती थी ।
 
यदि स्त्री घर के इन सब कार्यों की जिम्मेदारी अपने ऊपर न उठाए तो स्पष्ट है कि पुरुष को कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा ।

गृहिणी पद के अतिरिक्त प्रकृति ने स्त्री को मातृपद के योग्य भी बनाया है । 'माता' शब्द तो पारिवारिक जीवन के लिए मानो अमृत का भंडार है । माता, परिवार के लिए त्याग, तप और प्रेम की त्रिवेणी ही है ।

माता और पुत्र का जो प्रेम परस्पर रहता है, उसी से पारिवारिक जीवन अधिक सुखी बनता है । माता समाज सेवा के ऊँचे से ऊँचे आदर्शों की साक्षात मूर्ति ही है । अपने बच्चों को पालने-पोसने में वह सब कष्टों को हँस-हँसकर झेलती है ।

प्राचीन भारत में माता की महिमा सबसे अधिक बतलाई गई थी और सूत्र तथा स्मृति ग्रंथों में इस संबंध में बहुत कुछ लिखा गया है ।

स्त्री को उपरोक्त दो पदों के अतिरिक्त एक और पद प्राप्त था और वह था-पुरुष की सहचरी का । गृहिणी और माता की जिम्मेदारियों से उसका जीवन नीरस न हो जाए और घर के बाहरी झंझटों में फँसकर उसके पति का भी जीवन कटु न हो जाए,

इसलिए वह अपने पति की सहचरी बनकर उसे जीवन-सौख्य का आनंद प्रदान करती थी । प्रकृति ने उसे जो सौंदर्य और माधुर्य दिया है, उसे वह अपने प्रयत्नों से ललित कला में परिणत करके जीवन के दु:खों को भुलाने में समर्थ होती थी ।

उसका सौंदर्य और माधुर्ययुक्त प्रेम, जो उसमें अंग-अंग से टपकता था, उसके पति की दिनभर की चिंताओं और झंझटों को दूर करने में समर्थ होता था । विवाह के समय जो वेद-मंत्र पड़े जाते थे, उनमें स्त्री के गृहिणी, माता और सहचरी के पदों का उल्लेख है ।

ये भाव पहले से ही वधू के मन पर अंकित कर दिए जाते थे, जिससे नए जीवन में प्रवेश करने के पहले वह अपनी जिम्मेदारियों को भली प्रकार समझ ले । विवाह स्त्री और पुरुष को एक आजीवन बंधन में बाँध देता था ।

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