नारी की महानता

नारी जागरण और वर्तमान सामाजिक स्थिति

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इस सचाई से तो कोई इनकार नहीं किया जा सकता कि प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति पर्याप्त उच्च और संतोषजनक थी । आज भी हम बड़े गर्व के साथ वैदिक काल की विदुषियों, बौद्धकाल की धर्म प्रचारिकाओं और मुसलमान काल की वीरांगनाओं के नाम लेते रहते हैं ।

पर इसमें संदेह नहीं कि एक हजार वर्ष की गुलामी के फलस्वरूप जहाँ अन्य अनेक विषयों में भारतीय समाज का पतन हुआ, वहाँ स्त्रियों की स्थिति बहुत गिर गई ।

अब नवयुग का आविर्भाव होने पर समाज के हितैषियों का ध्यान इस त्रुटि की तरफ गया है और स्वयं अनेक स्त्रियों ही अपने अनुचित बंधनों को ढीले करने का प्रयत्न कर रही हैं । ऐसी महिलाओं को हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं ।

एक तो वे जो भारतीय संस्कृति की उपासिका हैं और पतनकाल में उत्पन्न हुई कुप्रथाओं को दूर करके नारियों को पूर्वकाल के उन्नत और उत्तरदायित्वपूर्ण आदर्श की ओर ले जाना चाहती हैं । दूसरे वर्ग में उनकी गणना की जा सकती है,

जो पश्चिमी शिक्षा और आदर्शों से अनुप्राणित होकर भारतीय महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्र और पुरुषों की समानता करने वाली बनाने की पक्षपातिनी है । इनमें से दूसरे वर्ग का मत तो प्राय: सभी समाज हितैषियों ने त्याज्य बतलाया है,

पर प्रथम वर्ग वाली विदुषी नारियों का मत विचारणीय और अधिकांश में मानने योग्य है । नीचे हम उसी की विवेचना करेंगे ।

हमारे पूर्वजों ने समाज की रचना इस प्रकार की कि कोई किसी को पराधीन न बना सके । स्नेह और कर्त्तव्य के बंधन इतने मजबूत हैं कि मनुष्य एकदूसरे के साथ अपनी सहज प्रकृति के साथ सहज ही बँध जाता है और परस्पर एकदूसरे के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार हो जाता है । माता अपने बालक के लिए बड़े से बड़ा त्याग कर सकती है । अपनी जान को भी जोखिम में डाल सकती है, पर नौकरानी से वह आशा कितना ही लोभ और भय दिखाने पर भी नहीं की जा सकती ।

नर और नारी के सहयोग से सृष्टि के आरंभ काल में परिवार बने और समाज की रचना की व्यवस्था करने वालों ने यह पूरा ध्यान रखा कि यह दोनों ही सहयोगी एकदूसरे के लिए अधिक से अधिक सहायक हों, एकदूसरे को पराधीन बनाने का अनैतिक प्रयत्न न करें । उसी दृष्टिकोण के अनुसार जन-समाज की रचना हुई । नर और नारी लाखों-करोड़ों वर्षों तक एक-दूसरे के सहायक, मित्र और स्वेच्छा से सहयोगी बनकर जीवन व्यतीत करते रहे, इससे स्वस्थ समाज का विकास हुआ, उन्नति, प्रगति, प्रसन्नता और सुख-शांति के उपहार भी इस व्यवस्था ने दिए ।

विश्व के विशेषत: भारत के प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट प्रकट है कि नारी ने नर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया है और जीवन की अनेक समस्याओं को सरल करने में, ज्ञान और विज्ञान की महत्त्वपूर्ण प्रगति में भारी योग किया है ।

एक ने दूसरे को अपनी अपेक्षा अधिक सम्माननीय समझा और घनिष्टता के आत्मीय बंधनों को दिन-दिन मजबूत बनाते हुए हर लौकिक दृष्टि से एकदूसरे पर कोई पराधीनता लादने का प्रयत्न नहीं किया । स्वस्थ विकास और सच्चे प्रेमभाव का तरीका भी इसके अतिरिक्त और कोई न था ।

भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर नर और नारी, निश्छल शिशुओं की तरह किलकारियाँ मारते हुए परस्पर खेलते-कूदते दीखते हैं । विश्व का अधिकांश विकास इन्हीं मंगलमयी भावनाओं के साथ हुआ है ।

देवगण, ऋषि और राजाओं से लेकर साधारण गृहस्थ और दीन-हीनों के जीवन में नर और नारी की एकता और समता ऐसी गुथी पड़ी है कि वह निर्णय करना कठिन पड़ता है कि दोनों पक्षों में से किसे प्रथम माना जाए । देव वर्ग में लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती आदि का जो स्थान है, उसे किसी पुरुष देवता से किसी भी प्रकार कम नहीं कहा जा सकता । देवताओं के साथ भी नारी असाधारण रूप से गुथी हुई है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र आदि किसी भी देवता को ले, उनकी धर्मपत्नियाँ उनके समकक्ष ही कार्य और उत्तरदायित्व सँभालती दीखती हैं ।

सीता और राधा को राम और कृष्ण के जीवन से अलग नहीं किया जा सकता । अनुसूया, अरुंधती, गार्गी, मैत्रेयी, शतरूपा, अहिल्या, मदालसा आदि ऋषिकाओं का महत्त्व भी उनके पतियों जैसा ही है । गांधारी, सावित्री, शैव्या आदि असंख्य महिलाएँ योग्यता और महानता की दृष्टि से अपने पतियों से किसी भी प्रकार पीछे नहीं थीं । वैदिक काल में ऋषियों की भाँति अनेक ऋषिकाओं में उनका समुचित स्थान रहा है । यज्ञ में तो नारी की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है ।

नर और नारी समान रूप से अपना विकास करते हुए आगे बढ़े हैं और संसार को आगे बढ़ाया है । भारतीय संस्कृति का समस्त तत्त्वज्ञान और इतिहास इस बात का साक्षी है कि नर ने कदापि कहीं भी यह प्रयत्न नहीं किया है कि नारी को अपने से पिछड़ी हुई, दुर्बल, अविश्वस्त माने और उसके साधनों का शोषण करके, उसे अपंग बनाकर अपनी मनमरजी पर चलने के लिए विवशता एवं पराधीनता को लादे । यदि ऐसी बात रही होती तो इतिहास के पृष्ठ दूसरी ही तरह लिखे गए होते । जगद्गुरु कहलाने, विश्व का नेतृत्व करने और विश्व में सर्वत्र आशा और प्रकाश की किरणें फैलाने में जो श्रेय भारत को प्राप्त हुआ था, वह कदापि न हुआ होता ।

आज भारतवर्ष में स्त्री जाति का सामाजिक स्थान बहुत पिछड़ा हुआ है । उसके व्यक्तित्व को इतना अविकसित बना दिया गया है कि वह सब प्रकार परमुखापेक्षी और लुंज-पुंज हो गई है । रसोई और प्रजनन इन दो कार्यों को छोड़कर किसी क्षेत्र में उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है । शहरों में अब कन्याओं को लोग थोड़ा सा इसलिए पढा़ने लगे हैं कि पढ़े-लिखे लड़कों के साथ उनकी शादी करने में सुविधा हो । विवाह होते ही वह शिक्षा समाप्त हो जाती है और फिर जीवन भर और आगे की पढ़ाई तो दूर जो कुछ पढ़ा था, उसका उपयोग करने का भी अवसर नहीं आता । आर्थिक दृष्टि से नारी सर्वथा परावलंबी है । जब कोई वैधव्य आदि की दुर्घटना घटित हो जाती है और कोई उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति नहीं होती तो बालकों को पालना कठिन हो जाता है । यदि संतान न हुई तो भी उस बेचारी को घर-भर का कोपभाजन बनना पड़ता है । कई बार तो इसी अपराध में पतिदेव दूसरा विवाह कर लेते हैं और उसे विधवा जैसा दु:ख सधवा होते हुए भी सहना पड़ता है । इसी प्रकार एक पिंजड़े में बंद, बाह्य क्षेत्रों से सर्वथा अपरिचित होने के कारण उसे इतना भी ज्ञान नहीं होता कि जीवन धारण करने की आवश्यक समस्याओं को सुलझाने में भी समर्थ हो सके । जीवन को सफल या समुन्नत बनाने वाले कोई पुरुषार्थ कर सकना तो उसके लिए असंभव ही है ।

यह विपन्न अवस्था आज की नारी के लिए एक दुर्भाग्य ही है कि वह व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन के विकास में अपनी शक्ति, सामर्थ्य, और प्रतिभा का कोई उपयोग नहीं कर सकती, आपत्ति आने पर अपना और अपने बच्चों के सम्मानपूर्ण जीवन की रक्षा भी नहीं कर सकती ।

एक और भारी लांछन उस पर यह है कि वह चरित्र की दृष्टि से सर्वथा अविश्वस्त समझी जाती है । उसके ऊपर कम से कम पहरेदार हर समय रहना चाहिए । अपनी पुत्रियों, बहनों और माताओं के प्रति ऐसी अविश्वास की भावना रखना, पुरुषों की अपनी नैतिक दुर्बलता का चिह्न है ।

''चोर की दाढ़ी में तिनका" वाली कहावत के अनुसार वे अपनी चरित्रहीनता का आरोपण नारी में देखते हैं जो कि वस्तुत: पुरुष की अपेक्षा स्वभावत: अनेक गुनी चरित्रवान होती है ।

नारी पर अनेक प्रकार के बंधन लगाकर उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, धन, उपार्जन, सामाजिक ज्ञान, लोकसेवा आदि की योग्यताओं से वंचित रखना, एक ऐसी बुराई है, जिससे आधे राष्ट्र को लकवा मार जाने जैसी स्थिति पैदा हो जाती है । अविकसित पराधीन और अयोग्य नारी का भार पुरुष को वहन करना पड़ता है, फलस्वरूप उसकी अपनी उन्नति भी अवरुद्ध हो जाती है । यदि नारी को सभ्य बनने दिया जाए तो वह पुरुष के ऊपर भार न रहकर उसके स्वास्थ्य, अर्थ व्यवस्था, शिशु विकास से लेकर अनेक अन्य कार्यों में भी सहायक होकर उन्नति के अनेक द्वार खोल सकती है । परदे में-पिंजड़े में बंद रखकर पुरुष यह सोचता है कि इस प्रकार उसे  व्यभिचार से रोका जा सकेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि नारी इतनी पतित है कि बंधन के बिना यह सदाचारिणी रह ही नहीं सकती । यह मान्यता भारतीय नारी का भारी अपमान है और इन आदर्शों एवं भावनाओं के सर्वथा प्रतिकूल है जो अनादिकाल से भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति समाहित की गई हैं ।

अनेक नारियाँ ऐसी हैं, जिनके पास पर्याप्त समय है, पर उन्हें अवसर नहीं दिया जाता, जिससे वे अपने जीवन को बंदी से अधिक कुछ बना सकें । विधवाएँ और परित्यक्ताएँ घर वालों के लिए एक भार रहती हैं । पर वे उन्हें शिक्षा, लोकसेवा आदि किसी भी क्षेत्र में बढ़ने देने के लिए बंधन ढीले नहीं करते । इन्हें अवसर दिया जाए तो अपने समय का सदुपयोग करके अपने व्यक्तिगत जीवन में भारी उत्कर्ष करके नारी रत्नों की श्रेणी में पहुँच सकती है
और अपनी योग्यता से संसार को वैसा ही लाभ पहुँचा सकती है जैसा अनेक नर-रत्न, महापुरुष पहुँचाते हैं ।

भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान की पुनीत वेला में महिलाओं की न्याय-पुकार भी सुनी जानी चाहिए । नारी चाहती है कि उसके बंधन ढीले किए जाएँ, उसे बिना पहरेदारों के भी सदाचारिणी रह सकने जितना विश्वासी माना जाए, उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए, ताकि वह मनुष्यता की जिम्मेदारी को समझ सके, उसे जानकारी प्राप्त करने दी जाए, ताकि वह पुरुष की परेशानी को सरल करने और उन्नति-प्रगति में सहायक हो सके, उसे योग्य बनने दिया जाए, ताकि वह अपने परिवार की आर्थिक सुस्थिरता में हाथ बँटा सके । बदलते हुए युग में नारी अपने को एक जीवित लाश मात्र की स्थिति में रखे जाने से असंतुष्ट है, वह भी आगे बढ़कर राष्ट्र निर्माण और समाज में कुछ योग देना चाहती है । भारतीय संस्कृति में इन सहज आकांक्षाओं के प्रति समुचित सहानुभूति एवं प्रेरणा का तत्त्व मौजूद है । वर्तमान की अनेक समस्याओं में से ही एक समस्या नारी की अनावश्यक पराधीनता है ।

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